रविवार, 31 मई 2009

गड्ढा प्रतियोगिता

पहले के पोस्ट वह गढ्ढा ; वह गढ्ढा:कहानी में ट्विस्ट

पश्चिम में एक दार्शनिक हुए थे - विट्गेंस्टीन। उनका इतना आतंक था कि उन्हें युग पुरुष, युग प्रवर्तक और ईश्वर तक कहा गया और वे आज भी आधुनिक पश्चिमी दर्शन के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक माने जाते हैं। अपनी पहली रचना के बाद उन्हों ने यह कह कर कि फिलॉसफी तो अब समाप्त हो गई, गाँव की राह पकड़ी और दूर दराज के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लगे। बहुत दिनों के बाद किसी कार्य वश शहर आए तो किसी कॉंफ्रेंस में उन्हें फिर से ज्ञान प्राप्त हुआ कि अभी तो फिलॉसफी बाकी है। लिहाजा बेचारे फिर "दरशनिया " गए. . .

कहानी का मॉरल यह है कि जब ऐसा धाकड़ आदमी ज्ञान के बारे में मिस्टेक कर सकता है तो हमारी क्या औकात? लिहाजा अपने को सँभाल कर और
बालसुब्रमण्यम जी की सलाह पर अमल करते हुए पुन: लिखना शुरु कर रहा हूँ।

वह गड्ढा अभी भी जस का तस विद्यमान है। खबरों को मानें तो अभी तक कोई इंसान या जानवर उसमें गिरा नहीं है। लोग बहुत जोर शोर से वहाँ गाड़ी चलाना सीख रहे हैं। मतलब यह कि इस इलाके में सभी कार चलाने वाले दारूबाज हैं और जानवर भी होशियार हैं(यदि समझ में नहीं आया तो इस विषय पर मेरी पुरानी पोस्टें पढ़ें। )। इति सिद्धम् , लॉजिक के विद्यार्थियों और दार्शनिकों से क्षमा सहित।

एक हैरतअंगेज बात मैंने यह देखी कि वह छड़ का टुकड़ा भी चिकना सा गया है और अब उतना खतरनाक नहीं लगता। टायर निर्माताओं और विकास खण्ड के कार चलवइयों को इसका पूरा श्रेय जाता है। जानो माल को कोई नुकसान नहीं हुआ है। इसलिए नगर निगम और परिवहन विभाग के अधिकारी अपने सहयोग प्रोग्राम की सफलता से बहुत प्रसन्न हैं। इस साझा प्रोग्राम को चरणबद्ध तरीके से पूरे लखनऊ में लागू करने के लिए शासन की अनुमति ले ली गई है। साथ ही इस प्रोग्राम को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हाइलाइट करने के लिए डी ए के वाइस श्री मस्तराम जी अमेरिका और यूरोप जाकर प्रेजेंटेशन करने वाले हैं। सुना है कि पाकिस्तान की दूसरी सरकार (वही समानांतर वाली) इसको अपने यहाँ लागू भी करने की सोच चुकी है और यह गड्ढा शरिया के हिसाब से बना है कि नहीं, यह देखने के लिए लखनऊ आ रही है।
इस ब्लॉग की कॉपी साइट
http://girijeshrao.wordpress.com पर विचित्र बात हो गई। बाला जी 'गड्ढों' और गोमतीनगर के खण्डों में कंफ्यूजिया गए और ऐसी टिप्पणी लिखी जिससे लगा कि 'गड्ढों' के नाम 'वि' से रखे गए हैं।
('गड्ढा', 'खड्डा', गढ्ढा और 'खण्ड' में शब्दशास्त्रीय साम्य की जांच पड़ताल के लिए
अजित वडनेरकर जी से अनुरोध कर रहा हूँ। मैं खुद जांच पड़ताल करूँगा तो वे रिसिया जाएँगें। बुजुर्गों का ध्यान तो रखना ही पड़ता है।)
हालाँकि मैंने उस समय स्पष्टीकरण दे दिया लेकिन तुरंत ही
बालसुब्रमण्यम जी की दूर दृष्टि को भाँप गया। कल्पना कीजिए कि हर मुहल्ले (गोमतीनगर के केस में खण्ड) के सबसे होनहार गड्ढे को मोहल्ले का नाम दे दिया जाता है:
विकास गड्ढा (डेवलपमेंट में अच्छा योगदान !)
विशाल गड्ढा ( साइज के कारण)
विनम्र गड्ढा ( बहुत ही नफासत से लोगों को पाताल की राह दिखाता है)
विकल्प गड्ढा ( पाट दिए गए गड्ढे की जगह बनाया गया है)
विजय गड्ढा (किस की विजय ? जनता की कि विभाग की कि ठीकेदार की?)
विभव गड्ढा ( बहुत ही वैभवशाली है यह ! केवल धनिकों को ही जमींदोज करता है।)
.......
यदि आप लखनऊ के हैं तो समझ जाएँगे, यदि नहीं हैँ तो हमारे शहर पधारें।
अब मैं यदि कहूँ कि विभागीय साझेदारी के प्रोग्राम में 'लखनऊ टूरिज्म' भी सामिल है तो आप होशो हवास बनाए रखें और आगे की घोषणा को ध्यान से पढ़ें ( सुझाव सर्वाधिकार -
बालसुब्रमण्यम)| गड्ढे पर लिखने की खुजली हमारे अनुज सिद्धार्थ के उकसाने पर शुरू हुई।:

अगली 30 जून तक गड्ढों की एक प्रतियोगिता आयोजित है। अपने शहर, गाँव, मुहल्ले के सर्व-प्रभावशाली गड्ढे का सचित्र वर्णन यहाँ पोस्ट करें। तीन श्रेणियों में विजेताओं की घोषणा होगी:
1.सबसे होनहार गड्ढा (सम्भावनाओं के आधार पर चयन)
2.सबसे सुन्दर गड्ढा (मासूक के हँसते हुए गालों का चित्र न भेजें)
3.सबसे बलवान गड्ढा (लोगों को पाताल दिखाने की क्षमता के आधार पर)

धुरन्धर लिक्खाड़ों को निमंत्रण भेज रहा हूँ - निर्णायक बनने के लिए।
समीर जी ने सहमति दे दी है, बाकी सहमति आते ही सूचित करूँगा।
फॉर्मेट इस प्रकार होगा:
(1) निर्णायक मंडल में 3 निर्णायक रखने का प्रयास होगा। बाकी दादा लोगों कि सहमति जैसी हो। वैसे
समीर जी अकेले कइ के बराबर हैं (वजन को आप जैसे भी इंटर्प्रेट करें)। संशोधन दिनांक 31/05/09 @0909 अंतिम सहमति आते ही निर्णायक मंडल का गठन हो चुका है। इन विभूतियों को लख लख धन्यवाद। नाम क्रम का आदर भावना से कोई सम्बन्ध नहीं है|सभी समान रूप से आदरणीय हैं। अब तक ऐसा सॉफ्टवेयर नहीं बना है जिससे सारे नाम एक ही बारी लिखे जा सकें:
निर्णायक मंडल: (1) समीर जी (उड़न तश्तरी) (2) ताऊ रामपुरिया जी (3)अजित वडनेरकर जी
(2) पोस्ट भेजने और प्रक्रिया का समस्त व्यय पोस्ट प्रेषक को स्वयं उठाना होगा। समस्त कानूनी, नैतिक, धार्मिक वगैरह अनुमतियों प्रक्रियाओं की जिम्मेदारी पोस्ट प्रेषक की होगी।
(2) गड्ढे की अनुमानित लम्बाई, चौड़ाई और गहराई देना आवश्यक है।
(3) गड्ढे का चित्र(फोटो, हुसैन आदि की पेण्टिग मान्य नहीं), लोकेशन, मोहल्ला और नगर का नाम अवश्य दें (केवल भारतीय गड्ढे ही प्रतिभागी हो सकते हैं। बाकी के लिए चाँद थुरूर की सहमति नहीं है)
(4) कितना पुराना है, कितने लोग उसमें गिर चुके हैं, कितनी दुर्घटनाएं करा चुका है, देना आवश्यक है।
(5) किस तरह और कैसे परोपकार कर रहा है – बताएँ।
(6) कितने विभाग भागीदार हैं? (पीडब्लूडी, पर्यटन विभाग,स्वास्थ्य विभाग,ट्रैफिक विभाग, निगम इत्यादि)।
(7) प्रविष्टियां प्राप्त करने की अंतिम तिथि 30/06/09
(8) जजों का निर्णय घोषित किया जाएगा 07/07/09
(9) यह ड्राफ्ट फॉर्मेट है। निर्णायक मण्डल इसमें परिवर्तन करने के लिए स्वतंत्र है।

बुधवार, 27 मई 2009

वह गढ्ढा : कहानी में ट्विस्ट

(पिछले भाग का लिंक


आप से विदा लेने के बाद जब मैं इस गड्ढे के पास पहुँचा तो उसमें से झाँकते वाल्व को देख कर मुझे अपने अनुमान पर गर्व हुआ। वह तीसरे प्रकार का ही गड्ढा था। थोड़ी दूर पर सीवर का बजबजाता पानी नाली में देख कर यह पक्का हो गया कि नगर निगम इस बार विकास खण्ड में खाली भू खण्डों पर रहने वाले गरीबों पर मेहरबान है और उनका अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए सीवर और पानी सप्लाई को मिलाने के लिए दृढ़ संकल्प है।


एक रिटायर टाइप सज्जन वहीं टहल से रहे थे। जिस गड्ढे की खोज खबर पिछ्ले कई महीनों से किसी ने नहीं ली, उसकी इतनी बारीक जाँच पड़्ताल होती देख वे मेरे पास आए। मैं उत्साहित होकर बोला, देखिए कितना खतरनाक गड्ढा है! उन्हों ने पहले हिकारत से मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मेरे इतना नादान आदमी उन्हों ने देखा ही न हो, फिर बोले:
"यह गड्ढा नहीं एक खुला हुआ कलवर्ट है"। टेक्निकली वह सही थे और मैं अपनी इंजीनियरिंग ताक पर छोड़ आया था। संकट की स्थिति आन पड़ी थी। मुझे बड़ा गुस्सा आया, इस शख्स को इस स्थिति से कोई आपत्ति नहीं लेकिन गलत नाम देने पर है। लिहाजा ऐसे असामाजिक आदमी को परास्त करने के लिए मैंने साहित्यकार और दार्शनिक दोनों मुद्राएँ एक साथ बनाईं, बोला:
"ऐसी हर चीज जिससे इंसान के पतित होने की सम्भावना हो, उसका गड्ढे से अधिक उपयुक्त कोई और नाम हो ही नहीं सकता"। मेरे अचानक बदले तेवर और मुद्रा देख कर उन्हों ने बात बदल दी:
"आप को लगता होगा कि यह नगर निगम की काहिली है। असल में यह नगर निगम और परिवहन विभाग का पारस्परिक सहयोग प्रोग्राम है।"
मुझे ऐसी बात की उम्मीद कत्त्तई नहीं थी। भकुआ गया। यह तो नया ट्विस्ट हुआ।
"भला परिवहन विभाग को इस महीनों से खुले गड्ढे से क्या लेना देना?"
"यही तो बात है जिसे जनता नहीं समझती। आप लोगों को क्या मालूम कि जनता के हित में इन विभागों वाले क्या क्या करते रहते हैं?"
“?”
मुझे खासा परेशान और कन्फ्यूज देख उन्हों ने एक सवाल दाग दिया:
"अच्छा बताइये इस सड़क पर कितनी ही छोटी छोटी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। कभी आप ने सोचा क्यों?"
"!!@#$*"
"ऐसा है इस कॉलोनी में अचानक ही कार चलाना सीखने वालों की संख्या बढ़ गई थी जिससे दुर्घटनाएँ हो रही थीं।इस गड्ढे से उन पर अंकुश लगा है, लोग ज्यादा सतर्क हो चलने लगे हैं। "
ऐसा कहते हुए उन्हों ने सड़क के दूसरी तरफ किनारे पर कलवर्ट से ही झाँकते करीब एक सवा इंच ऊँचे छ्ड़ के टुकड़े की तरफ इशारा किया। वह मेरा बहुत ही जाना पहचाना खास था क्यों कि हमेशा कार वहाँ से निकालते समय मेरा ध्यान उस पर रहता है कि कहीं टायर में घुस कर पंक्चर न कर दे।
"आप उस छड़ और गड्ढे के बीच की दूरी का अनुमान लगाइए। एकदम इतनी है कि एक सामान्य कार निकल सके। यह भी ग़ौर कीजिए कि यह एक चौराहा है, और यहाँ से विकास खण्ड की तरफ मुड़ना भी पड़्ता है। ऐसा इसलिए किया गया है कि सीखने वाले सँभल कर चलें और साथ ही यहाँ से गाड़ी निकालने की कठिन परीक्षा को पास कर, लाइसेंस देने के पहले होने वाली तुच्छ विभागीय परीक्षा को अवश्य उत्तीर्ण कर लें।"
कहते हैं कि जब मुहम्मद के उपर आयतें उतरी थीं, वे काँपने लगे थे और विवेकानन्द तो ज्ञान प्राप्त करते समय सुध बुध ही खो बैठे थे। मेरी तो औकात ही क्या?
- - -
ज्ञान की इस झंझा से उबर कर जब होश में आता हूँ तो देखता हूँ कि वह सज्जन जा चुके हैं।मन ही मन उस अनाम गुरु को प्रणाम करता हूँ और नए नए प्राप्त ज्ञान की प्रशांत संतुष्टि के साथ घर की ओर चल पड़ता हूँ। सोचता हूँ व्यंग्य लिखना छोड़ दूँ।

मंगलवार, 26 मई 2009

वह गढ्ढा


(अ) भूमिका:

भारतीय नगरीय परिप्रेक्ष्य में गढ्ढे कइ प्रकार के होते हैं:

नई कॉलोनियों में कूडा फेंकने वाली जगह (नगर निगम का कचरा डिब्बा तो बहुत बाद में आता है) के पास का उथला गढ्ढा जिसमें सूअर लोटते हैं;

टेलीफोन/बिजली विभाग द्वारा खोदा गया सँकरा लेकिन लम्बोतरा गढ्ढा जो सड़क के बीचो बीच विराजमान होता है;

नगर निगम द्वारा पानी सप्लाई और सीवर को ठीक करने और उस प्रक्रिया में दोनों को मिलाने के लिए किया गया गढ्ढा जिसे मैनहोल भी कहा जा सकता है (मैं अपनी इंजीनियरिंग की पढाई को थोड़ी देर कि लिए ताक पर रख देता हूँ) ।

गढ्ढे का यह प्रकार जनता के स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी होता है। यह शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है साथ ही आवश्यक मिनरल, लवण वगैरह की पूर्ति करता है। आप ने देखा होगा कि झुग्गियों वाले जो इस प्रकार से एनरिच किए पानी को वैसे ही पीते हैं, बँगलों में रहने वालों की तुलना में कम बीमार होते हैं। असल में अक्वा गॉर्ड वगैरह के कारण पानी से सारे पोषक तत्त्व निकल जाते हैं.।

इस तरह के गढ्ढे की एक और खासियत होती है। इसमें शराबी कभी नहीं गिरते। इसमें केवल शरीफ किस्म के कम या बिल्कुल दारू नहीं पीने वाले इंसान या जानवर ही गिरते हैं। दारू पीकर टल्ली हुआ इंसान हमेशा सड़क के किनारे सुरक्षित रूप से उथली नाली में ही गिरता है। यह रहस्य आज तक मुझे समझ में नहीं आया। बहुत विद्वान लोगों से पूछने पर भी जब इससे पर्दा नहीं उठा तो मैंने एक शराबी से ही इसका राज उस समय पूछा जब वह सुबह सुबह ठर्रे से कुल्ली कर रहा था। उसने हमारे चिठ्ठाकार बाला (बालसुब्रमण्यम जी) की सरल शैली में बताया कि जो इंसान दारू नहीं पीता वह जानवर ही होता है. उसकी बुद्धि और चेतना बहुत सीमित होते हैं इसीलिए जानवर और गैरदारूबाज इंसान दोनों इस तरह के गढ्ढे में गिरते हैं। मैं उसका कायल हो गया।

(आ) कथा:

इस रिपोर्ट का नायक ऐसा ही एक गढ्ढा है जो ऑफिस आते जाते मेरे रास्ते में पड़ता है।

लखनऊ की एक कॉलोनी है गोमती नगर। यहाँ के विकास प्राधिकरण में चूँकि कुछ साहित्यकार किस्म के अधिकारी पाए जाते हैं, इसलिए इस कॉलोनी के विभिन्न खण्डों के नाम बड़े ही साहित्यिक रखे गए हैं और सभी ‘वि‘ से प्रारम्भ होते हैं जैसे, विशेष, विराम, विपुल, विनम्र, विराट, विभव..आदि आदि। आप ‘वि‘ से प्रारम्भ होने वाले किसी शब्द को लें, उस नाम से एक खण्ड गोमती नगर में अवश्य होगा (बस विप्लव को छोड़ दें। वैसे मायामति की सरकार पूरे पाँच साल चल गई तो ऐसे एक खण्ड के पैदा हो जाने की पूरी सम्भावना है।).

हमारे इस गढ्ढे ने विशाल और विकास खण्ड के बीच वाली सड़क से निकलती कॉलोनी वाली सड़क पर चार महीने पहले जन्म लिया। इसे बिना किसी चेतावनी चिह्न के नगर निगम ने ठीक टी-प्वाइण्ट पर सड़क का चौथाई हिस्सा लेते हुए उत्पन्न किया।

वह गढ्ढा

फिलहाल आप गढ्ढे का विहंगम दृश्य देखते हुए आगे के वृतांत पर अनुमान लगाएँ। मैं चला गढ्ढे की तरफ़, रहस्यों पर से पर्दा कुछ और उठाने की कोशिश करने के लिए। कल बाकी की बताऊँगा।

(अगले भाग का लिंक) 

रविवार, 24 मई 2009

राजमहल की डिनर टेबल से (भाग - 3) : तैलाख्यान

भाग - 1 और 2 से आगे...

.. तेल का जैसा प्रयोग आप अपनी धुरखेल पार्टी में देखने के अभ्यस्त हैं, वैसा भाग-जा पार्टी में नहीं होता. सही कहें तो उनके यहाँ इसका इस बार बड़ा ही विलक्षण प्रयोग देखने में आया है. भाग-जा शासित प्रांतों में विज्ञान को ज्योतिष का दर्जा दे दिया गया है और ज्योतिष को विज्ञान का. 

-बेदी, असल बात पर जल्दी आओ.

- हुकम, थोड़ा धीरज रखें. चुनाव पूर्व अनुसन्धान से यह पता चला कि भाग-जा पार्टी पर मंगल और शनि दोनों टेढ़ें चल रहे थे. रही सही कसर सारे चुनाव गुरुवार और बुधवार को कराने की घोषणा कर हमनें पूरी कर दी. सो वैज्ञानिकों ने यह व्यवस्था दी कि पार्टी के प्रधान पद के उम्मीदवार रोज रात को सिन्दूर और तेल का मिश्रण अपने सिर पर लगाएँ और उस समय पार्टी प्रधान डफली पर शनि कीर्तन गाएं तो संकट कट जाएगा.

- लेकिन प्रधान पद के उम्मीदवार न होते हुए भी मारदेई क्यों ऐसा काम करवा रहे थे? रिजल्ट आ जाने के बाद भी ऐसा क्यों चल रहा था?
(जनमर्दन ने तेल लगाने का मौका देख झट से उत्तर दिया)

- वाह राजकुमार, क्या प्रश्न हैं! आप में राज रक्त है तभी तो मस्तिष्क इतना जागृत है ! 
हुआ ये कि लालादानी को यह सब नहीं जँचा और उन्हों ने इनकार कर दिया. उधर भाँजहाथ ने भी डफली बजाने से इनकार कर दिया. लिहाजा यह तय हुआ कि प्रधान पद के लिए मारदेई के नाम से संकल्प कर दिया जाय और जनता की आँख में धूल झोंकने के लिए लालादानी का नाम आगे कर दिया जाय. डफली न बजाने की क्षतिपूर्ति भाँजहाथ और रुग्ण डफली की जुगल बन्दी से की जाएगी. 

-लेकिन उसके बाद भी भाग-जा की हार कैसे हो गई?

- हुकम, पहले पुराने बचे सवाल का जवाब. रिजल्ट आने के बाद भी ऐसा जारी था क्यों कि वैज्ञानिकों ने कहा था कि किसी भी परिस्थिति में इस प्रयोग की पूर्णाहुति परिणाम आने के बाद करनी ही होगी नहीं तो पार्टी का विनाश हो जाएगा. वह पूर्णाहुति का दिन था. 
भाग-जा और उसके साथी गणों की हार के कारण धूल में छिपे हुए हैं. 

- ?

- जनता की आँखों में धूल झोंकने की जो महारत हमें सैकड़ों वर्षों के अभ्यास से हासिल हुई है उसे भाग-जा कभी मैच नहीं कर सकती. पिछ्ली हार से घबराए हुए इन लोगों ने मजबूती और कमजोरी का धूल पाठ किया और खूब किया. आँख में धूल झोंकना एक कला है जो केवल राजपरिवार को ही आती है. इस नाचीज ने आप लोगों के साथ रहते हुए जो थोड़ा बहुत सीखा है, उसके आधार पर कह सकता है कि अपनी आँख बचाए रखना और चौकन्नी खुली रखना बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस भयानक धुरखेल में जिसे लोग चुनाव भी कहते हैं, भाग-जा के लोग अपनी आँखे खुली तक नहीं रख सके, चौकन्ने कहाँ से रहते? 
परम पूजनीया आप की दादी जी कहा करती थीं, जो खेल न आए उसे सोचना भी नहीं चाहिए. उन्हें दुर्गा की उपाधि देकर भी भाग-जा वालों ने उनसे कुछ नहीं सीखा. हार तो होनी ही थी.

राउल को पहली बार यह लगा कि इस अदने दरबारी में दम है. मन ही मन माँ के च्वायस की तारीफ करते हुए उन्हों ने उस रात का अंतिम सवाल पूछा:

- बेदी, सेकुलरखोदी लालादानी के कानों में तेल क्यों डाल रहे थे?

- हुकम, थोड़ा धीरज रखें. वास्तव में मारदेई सरकार के समय गान्धार देश में जो अपहरण काण्ड हुआ था, उस समय बड़ी ही सफाई से मारदेई ने लालादानी को ऑपरेशन थिएटर भेज दिया था. उन्हें यह बताया गया था कि वैज्ञानिकों ने एक ऐसी विधि विकसित की है जिससे एक छोटे से ऑपरेशन से उनमें इतनी ताकत आ जाएगी कि वे अकेले ही सारे दहशतगर्दों से निपट लेंगे. चूँकि लालादानी घरेलू सिपहसालार थे और परदेश विभाग के सिपहसालार बोलते कम और अपने गालों को अन्दर से जिभियाते ज्यादा थे, लिहाजा सेना न भेज पाने की सूरत होने के कारण लालादानी को यह युक्ति बेहतर लगी.

राउल को जम्हाई लेते देख जनमर्दन ने तेल का तड़का लगाया:

- राजकुमार ऐसी गहन चर्चा इस भारत भू पर आज तक नहीं हुई. मैं तो चाणक्य सरीखा नहीं लेकिन आप अवश्य चन्द्रगुप्त के समान हैं. 

- ये दोनों कौन हैं?

- बड़े महान लोग थे. 

राउल को माँ का महानता पर दिया गया भषण याद आ गया. सहम से गए. नींद तुरंत काफूर हो गई, बोले, आगे बताओ.

- हुकम, वह एक गहरी चाल थी जिसे मारदेई के अलावा भाग-जा में सिर्फ सेकुलरखोदी ही जानते थे. वो भी इसलिए कि वह विधि और वैज्ञानिक सभी पाखण्डीनगर के थे. नए विज्ञान का आरम्भ वहीं हुआ था. उस ऑपरेशन के दौरान लालादानी की रीढ़ निकाल कर उसकी जगह रक्षासूत्रों से बनी रस्सी डाल दी गई थी. तभी से लालादानी की सोचने समझने की ताकत आधी रह गई. मारदेई ने इस प्रकार अपने उत्तराधिकारी के रूप में सेकुलरखोदी की राह एकदम आसान कर दी.
भला बताइये ऐसा आदमी हमारे आगे कहाँ टिकता?

जो तेल सेकुलरखोदी लालादानी के कानों में डाल रहे थे, उसे भी पाखण्डीनगर के वैज्ञानिकों ने ही डेवलप किया है. इस तेल के राज का हमारी खुफिया एजेंसी ने जिसे 'कच्चा' भी कहा जाता है, पता लगाया है. इसे जिसके कानों में डाला जाता है उसे केवल वही बातें सुनाई देती हैं जो उसे अच्छी लगें. पिछ्ले पाँच सालों से लालादानी के कानों में यह तेल डाला जा रहा है. अब उनके कान एकदम बेकार हो चुके हैं.

राजकुमार, जिसे राजा बनना हो उसे अच्छी नहीं बल्कि जमीनी सचाइयों से जुड़ी बातों को सुनना और गुनना लाजमी होता है. राजा को एक अच्छा अभिनेता भी होना होता है लेकिन दिखावा करते समय भी इस बात का ध्यान हमेशा रखना होता है. 

सिंहासन पाने के बाद अगर राजा इस पर अमल नहीं करता तो उसका भी विनाश हो जाता है.

जनमर्दन के मुँह से ऐसी बात सुनकर राउल स्तब्ध रह गए. अपने आप ही उनके हाथ प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गए. जनमर्दन ने गदगद हो कर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और भावी राजा के सिपहसालार होने के अपने सपने को सँजोते हुए उन्हों ने घर की राह पकड़ी. (समाप्त)

शुक्रवार, 22 मई 2009

राजमहल की डिनर टेबल से (भाग - 2) - राजकुमार की शिक्षा

भाग - 1 से आगे ....

डिनर के बाद जब महारानी मोनियो अगले दिन के विभिन्न अवसरों पर बोलने के लिए लिखी हुई बातों को याद करने, दुहराने और अभ्यास करने विश्राम कक्ष में चलीं गईं तो राजकुमार राउल की क्लास चालू हुई. जनमर्दन बेदी आज तक सब कुछ लिख कर मोनियो कि जुबान बन उनके मुँह से हकलवाते रहे थे, उसी से प्रभावित हो कर राउल को शिक्षा भ्रष्ट करने के उनके प्रस्ताव को मोनियो ने मान लिया था.
राजपरिवार की परिपाटी है कि उनके सामने सिपहसालार और अन्य राजपरिवारों के सदस्य ही कुर्सी पर बैठ सकते हैं, अन्य लोग नहीँ. इस परिपाटी के जनक भी जमा-हर-ला ही थे और इसे उन्हों ने गोद लिए गए अपने मुँहबोले पिता से बहुत बारीकी से सीखा था. उन्हें वह लाड़ दुलार से पाखण्डी भी कहा करते थे.

धुरखेल संकट समेटी की बैठकों में चूँकि सिपहसालार, दरबारी और तुच्छ रियाया सभी शामिल होते थे इसलिए एक और संकट को टालने के लिए पाखंडी ने यह व्यवस्था दी थी कि लबना माल मिजाज की दुकान की तर्ज पर झक सफेद गद्दे की व्यवस्था हो. गद्दे पर सभी लोग भावी राजा के साथ नीचे ही बैठते थे. इससे एक ओर तो वह राजा के सामने कुर्सी पर बैठने के धर्मसंकट से बँच जाते थे तो दूसरी ओर रियाया भावी राजा की सिंहासन के बजाय जमीन पर बैठने की विनम्रता देख निहाल हो जाती थी.
चूँकि सालों साल मोनियो के कुत्ते की थाली में ही भोजन करने की विनम्रता के बाद भी जनमर्दन बेदी का ओहदा अभी भी थर्ड कटेगरी के दरबारी तक ही सीमित था, इसलिए वह राजकुमार राउल के सामने कुर्सी पर बैठ नहीं सकते थे. दूसरी तरफ गुरु की भूमिका निर्वाह करने के कारण वह उनसे नीचे भी नहीं बैठ सकते थे. हालाँकि ग़लत इम्प्रेशन जैसी कोई बात नहीं थी लेकिन फिर भी फर्क तो पड़ता ही था. दुविधा की इस स्थिति से उबरने के लिए राजकुमार ने अपने परबाबा(या परनाना? या पता नहीं क्या! बड़ा कंफ्यूजन है) कि विधि ही अपनाई और. .
गद्दा बिछ गया.
राउल ने बैठते ही आदेश दिया - बेदी! हम पंचतंत्र नहीं पढ़ेंगे.

जनमर्दन ने चुटिया बाँधते हुए व्यवस्था दी, हुकम, पंचतंत्र तो पुरानी बात हो गई. वो तो प्रात: स्मर्णीया महारानी को इस पिछ्ड़े देश की एक ही किताब का नाम मालूम है इसलिए उन्हों ने ऐसा कह दिया. उन्हें कोकशास्त्र या पंचतंत्र कुछ भी दे दो, उन्हें वह पहले से लिखे अबूझ भाषण ही लगेंगे. सच पूछिए तो मुझे भी कोकशास्त्र और पंचतंत्र में कोई फर्क नहीं बुझाता.
अबे, यह कोकशास्त्र क्या है? बेदी, तुम उलझाओ नहीं.
जनमर्दन को अब तक अपनी जुबान फिसलने का एहसास हो चुका था सो टिकट कटे सिपहसालार सी सूरत बना कर बोले - हुकम! कोकशास्त्र रति क्रीड़ा से सम्बन्धित एक पुस्तक है जिसकी शिक्षा की आप को क्या हिन्दुस्तान के किसी भी जवान को जरूरत नहीं है. मेरे मुँह से ऐसे ही निकल गया.
राउल को डाक बँगले में गुजारी पिछली रात याद आ गई सो शरमा कर पहले लाल फिर गुस्सा कर लाल पीले होते हुए भौंके - जुबान सँभाल कर रखा करो नहीं तो नई के बजाय टॉमी वाली पुरानी थाली में खाना पड़ेगा, अपने आप ही कट जाएगी. बताओ क्या पढ़ाना चाहते हो?
हुकम! राष्ट्रीय शव-तांत्रिक दलदल में जो उठा पटक चल रही है, उसकी शिक्षा न केवल उन विरोधियों को जानने में आप की मदद करेगी जो हर बार अलग अलग गैर-खानदानियों को राजा बनाने का शिगूफा छोड़ देते हैं बल्कि आप इस बूढ़े देश की तमाम बुढ़भसी प्रवृत्तियों के बारे में भी जान जाएँगें.
हुआ ये कि कल मैं उनकी तरफ़ निकल गया था, सूँघने के लिए. आप को तो पता ही है कि जब जब टॉमी बिमार होता है, सूँघने का काम मैं ही करता हूँ. मैंने देखा:

अबल जुगाड़ी मारदेई के सिर में ला-ला-दानी सिन्दूर और तेल मिला कर लगा रहे थे. डफली और भाँजहाथ कीर्तन गा रहे थे और सेकुलरखोदी ला-ला-दानी के दोनों कानों में बारी बारी से तेल डाल रहे थे. अज़ीब सा नज़ारा था.

बेदी, मुझे कुछ समझ में नहीं आया. वे लोग ऐसा क्यों कर रहे थे?

हुकम, बताता हूँ. . . . . . .(अगला भाग)

मंगलवार, 19 मई 2009

राजमहल की डिनर टेबल से (भाग - 1)

प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दूँ कि राजमहल में मेरा कोई आना जाना नहीं है. मैं आप ही की तरह राजमहल के पास भी नहीं फटक सकता. असल में वहाँ का एक रसोइया मेरा यार है जिससे मुझे खबरें मिलती रहती हैं. हमारे मिलने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है.
हम दोनों का शेयर मॉर्केट दलाल एक ही बन्दा था. उसी के यहाँ हमारी मुलाक़ात हुई. हुआ ऐसा कि उस दौरान मॉर्केट की हालत थोड़ी पतली थी और हमारा ये दोस्त अपने सारे शेयर घाटे में बेंचने कि ज़िद पर अड़ा हुआ था. हमारा दलाल जिसके बारे में यह मशहूर था कि यदि रिक्शे वाले को भी उसके पास भेज दो तो वह उससे मॉर्केट में इनवेस्ट करा दे, इसे अपनी तौहीन मान कर उसे ऐसा करने से मना कर रहा था.
मैं भी हैरान था और उससे पूछ बैठा अरे भाई ऐसी भी क्या ज़ल्दी है?
दलाल के यह दिलासा देने पर कि मैं एक निहायत ही गउ किस्म का आदमी हूँ, रसोइये ने सारी खिडकियाँ दरवाजे बन्द करा कर राज़ बताया....
उसे पैसे स्विटजरलैण्ड के किसी बैंक में जमा करने थे. ज़ाहिर है इस रहस्योद्घाटन से हम दोनों चौंकने की सीमा लाँघ कर भकुआ बनने के कगार पर पहुँच गए. अधिक कोंचने पर उसने विस्तार से बताना शुरू किया और हम लोगों की आँखें फैलने लगीं. जब उसने देखा कि फैलते फैलते हमारी आँखें निकलने को आ गई थीं तो उसने दया कर प्रकरण वहीं रोक दिया.
प्रभावित हो कर दलाल ने उसी दिन सब कुछ बेंच बाँच कर स्विटजरलैण्ड की राह पकड़ी और मैंने उसकी दयालुता देख उसके सामने दोस्त बनने का प्रस्ताव रख दिया. जिसे उसने मुझ दरिद्र पर कृपा कर स्वीकार कर लिया. दलाल आज तक गायब है और उसके बारे में तरह तरह की बातें सुनने को मिलती हैं जिसे मैं फिर कभी सुनाउँगा. अस्तु....
राजमहल में एक परम्परा है कि डिनर टेबल पर हिन्दी में ही बात होती है. इस परम्परा के जनक राजवंश के संस्थापक माननीय जमा-हर-ला थे. ऐसा उन्हों ने अपनी इंग्लिश परस्त ज़ुबान को 'हिन्दीयाहिन' बनाने के लिया किया था. वर्तमान महारानी मोनियो की बानी कमज़ोर है और प्रचण्ड आँधी में भी लिखे हुए भाषण पढ़्ने के लिए वह कुख्यात हैं. उनकी कही हुई बात का हिन्दी में शुद्धिकरण कर रसोइए ने बताया है. डिनर टेबल पर महारानी और राजकुमार राउल की बातचीत कुछ इस प्रकार हुई:
- माँ, इस बार भी तुमने प्रधान पद के लिए धनदोहन सिन का नाम आगे कर दिया. मुझे अच्छा नहीं लगा.

- अच्छा, मैं भी तो जानूँ मेरा लाल किस को प्रधान बनाना चाहता है?
(महारानी ने राजबल्लरी नामक जगह से चुनाव जीता है. चुनाव लड़ना और जीतना प्रधान को ऑपरेट करने के लिए अत्यावश्यक है. रियाया के साथ कुछ दिन रहने से महारानी ने जो नए शब्द सीखे हैं उनमें 'मेरा लाल' पहला है.)
- माँ, तुम्हीं इसे सँभालो ना. आखिर महारानी के होते हुए प्रधान की जरूरत ही क्या है?
अब देखो न, दादी और परदादा ने भी तो राजकाज और प्रधानी दोनों खुद सँभाली थी कि नहीं? प्रात:स्मरणीय पिता जी ने भी ऐसा ही किया था.
- बेटा, वे महान लोग थे. मेरा मतलब यह है कि रियाया उन्हें महान समझती थी और रहेगी. तुम्हारे पिताजी के उपर तो ज़बरदस्ती महानता लाद दी गई थी. जब कि वे बेचारे आखिरी समय तक उससे इनकार करते रहे.
- तो उस से क्या? तुम भी तो महान हो! पिछली बार जब तुमने रियाया के बार बार कहने और यहाँ तक कि विद्रोह की सीमा तक उतर आने पर भी प्रधानी नहीं स्वीकारी तो मैं भी तुम्हारी महानता का कायल हो गया था. एक बार ऐसा करना जरूरी था. लेकिन इस बार भी वैसा ही क्यों? मुझे तो हैरानी इस बात पर है कि इस बार रियाया तुम्हारे इस निर्णय पर हंगामा भी नहीं कर रही!

- बेटा, तुम अभी कच्चे हो. जिसे तुम रियाया समझ बैठे थे वे हमारे चमचे थे. वक्त बदल गया है बेटा. अब यह जरूरी है कि रियाया और राज खानदान के बीच प्रधान कोई और रहे. जमाना तो उसी दिन खराब हो गया था जब राजवंश के लोगों को भी गली गली वोट की भीख माँगना लाज़मी हो गया था. दिखावे के लिए ही सही कभी कभी रियाया को इस भ्रम में भी रखना पडता है कि राजघराने को राज काज से कुछ लेना देना नहीं.
आखिर तुम्हें भी इस बार कितनी गलियों की धूल और कितनी झोपड़ियों की भूख फ़ाँकनी पड़ी. फूल सा चेहरा मउला गया है रे.
(मेरे परम प्रिय दोस्त ने बताया है कि ऐसा सुनते ही राउल ने कटे हुए सारे खीरे अपने चेहरे पर सजा लिए और जल्दी जल्दी अनुलो - बिलो करने लगे. महारानी को झटका लगा. उन्हों ने ज़ोर से डांटा)

- राउल क्या कर रहे हो? डिनर टेबल का एटीक़ेट भूल गए? जानती तो तुम्हें झोपड़ी में कभी खाने नहीं देती.
- माँ, जैसा तुमने कहा वक़्त बदल रहा है. मैं भी अब रियाया के तौर तरीके जानने के कोशिश कर रहा हूँ. खीरे से खाल निर्मल हो जाती है और अनुलो - बिलो तो आज कल राष्ट्रीय खेल का दर्जा पा चुका है. देखो तो इसके प्रताप से क्रिकेट भी विदेश में होने लगा है.

- ये प्रताप कौन है? बेटा राजगद्दी सँभालने का तुम्हारा समय बहुत नजदीक आ रहा है. अपनी कम्पनी सुधारो. जहां तक रियाया के तौर तरीके जानने की बात है तो, हमारे दरबारी जनमर्दन बेदी ने तुम्हें पंचतंत्र पढाने की पेशकश की है.
हाँ तो तुम्हें धनदोहन सिन के नाम पर ऑबजेक्सन क्यों है?

(राजकुमार राउल डांट से सहम से गए थे. जनमर्दन और पंचतंत्र नाम सुनते ही उन्हें कोफ्त हो गई थी. सामने थाली में पड़ा कोफ्ता उन्हें करैले जैसा लगने लगा था. जल्दी से अपने को सँभालते हुए बोले)
- माँ मुझे कोई ऑबजेक्सन नहीं है. जब तक तुम महारानी हो कोई भी प्रधान रहे क्या फर्क पड़ता है? रिमोट तो तुम्हारे पास ही रहेगा.

- बेटा, उस रिमोट को भूल जाओ. मैंने नया अमेरिका से मँगाया है. उसमें वायरलेस कंट्रोल है जिसे तुम भी अपने मोबाइल से या लैप टॉप से ऑपरेट कर सकोगे और मेरे पास तो वह हमेशा रहेगा ही. इतना ही नहीं, अमेरिका ने स्विटजरलैण्ड वगैरह से बैंक खातों की जो जानकारी प्राप्त की है वह उसमें प्री लोडेड है.

(इतना सुनते ही राजकुमार राउल ने उछल कर महारानी के पाँव पकड़ लिए)

- माँ, तुम महान हो. रियाया चाहे जो समझे तुम वाकई महान हो. लेकिन एक पेंच है माँ. अगर रिमोट की ऐसी वैसी जानकारी धनदोहन जी या किसी और के पास पहुँच गई तो?

- बेटा, धनदोहन जी अपने खास सिपहसालार हैं. उन्हें सब पता है. वैसे भी रिमोट में आँकड़े अपडेट होते रहेंगें. पहले उसे हम जानेंगें फिर यह हमारे उपर होगा कि धनदोहन जी को उसका एक्सेस दें या नहीं....

मेरे दोस्त ने बताया है कि स्विटजरलैण्ड और बैंक की बात सुनते ही उसे एक जरूरी फोन करने की याद आ गई और बात को बीच में ही छोड़ वह फोन करने चला गया. वैसे भी डिनर समाप्ति की ओर था और राजपरिवार अब जिस एक खास यूरोपियन अन्दाज लिए अंग्रेजी में बात करने वाला था वह उसके पल्ले कम ही पड़ती थी.

राजधानी में रहते हुए मेरे दोस्त ने राष्ट्रीय शव-तांत्रिक दलदल के बारे में जो कुछ जाना सुना है, रोचक है. फिर कभी बताउँगा. फिलहाल विदा दें.. (अगला भाग)

शुक्रवार, 15 मई 2009

कौन ठगवा नगरिया लूट लयो?

चुनाव परिणामों के एक दिन पूर्व कुमार गन्धर्व का गाया कबीर का यह निरगुन सुन रहा हूँ. कुछ अलग ही अर्थ ले रहा है.


ठगों ने लूट लिया हमें. मजे की बात कि कल लूट के बँटवारे को हम बड़े उत्साह के साथ लाइव टी वी पर देखेंगें. हमें अपने लुटने का कोई भान नहीं होगा. हम तो एक खेल प्रेमी की तरह पल पल बदलते स्कोर के रोमान्च में तल्लीन यह जोड़ लगाने में मसगूल होंगें कि अब आगे 5 वर्षों तक हमारा मुनीम कौन होगा ! कौन होगा जो अर्थ व्यवस्था और मुद्रा प्रबन्धन पर बड़ी बड़ी बातें करेगा और चुपके चुपके गद्दी के नीचे से माल सरकाता रहेगा !!


हमारे हिस्से आएँगें बस खाता, बही, रजिस्टर वगैरह.
माल तो कहीं और ताल मिला रहा होगा.

. . . आए जमराज पलंग चढ़ि बैठा, नैनन अँसुआ फूटलयो
कौन ठगवा नगरिया लूट लयो? . . .

प्रतीक्षा करें कल की.

गुरुवार, 14 मई 2009

मुल्ला तो मस्त है

पाकिस्तान में सिखों पर लगे जजिया और उसके बाद उनके पलायन के बारे में आप ने पढ़ा होगा. इस घटना की निन्दा सब ने की और हमारे यहाँ के कठमुल्लों ने भी उसमें अपना योगदान दिया जिसे बहुत प्रमुखता से अखबारों ने छापा भी और अब इन घटनाओं को सभी भूल भी गए हैं. वैसे ही जैसे बर्षों पहले कश्मीर से लाखों हिन्दुओं के पलायन और अपने ही देश में शरणार्थी होने को भूल गए. हम अपनी आँखों के सामने हुई इतनी विशाल त्रासदी को भी भूल गए हैं. . यह भूलना दैनिक भूलने की आदत जैसा नहीं है. यह विस्मृति अपने अस्तित्त्व को ही ख़तरे में डालने वाली है. ! लानत है.

जो पाकिस्तान या कश्मीर में हुआ वह कहीं भी हो सकता है. सेकुलरी घुट्टी पी पी कर मतवाले हुए लोगों को यह असम्भव लग सकता है लेकिन है सम्भव. कश्मीरी हिन्दुओं ने कब सोचा होगा कि एक दिन उन्हें अपनी जन्मभू छोड़्नी होगी?

कभी आप ने सोचा है कि इस्लाम में ऐसा क्या है जो इसे ऐसा हमलावर बनाता है? मैं इस्लाम की बात कर रहा हूँ उसके अनुयाइओं की नहीं.. वास्तव में इस्लाम एक अरब राष्ट्रवादी आन्दोलन था जिसकी प्रासंगिकता उसके मूल रूप में एकदम समाप्त हो चुकी है. कठमुल्ले अपने स्वार्थ के लिए उसके रूप में कोई परिवर्तन नहीं चाहते. परिवर्तन की बात सोचनी भी कुफ्र मानी जाती है. अपनी इस रणनीति के तहत कि जब तक कम रहो साम, दाम, दण्ड या भेद किसी भी तरह से विस्तार के लिए सहूलियतें लेते रहो, विस्तार करते रहो और जब समर्थ हो जाओ तो वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति कर डालो; कठमुल्ले समय समय पर ऐसे बयान देते रहते हैं जो हमारी सेकुलरी जमात के कानों को शहद जैसे लगते हैं लेकिन उन बयानों में भी कथनी और करनी के अंतर्विरोध सामने आ जाते हैं. मुझे आश्चर्य होता है कि बाल की खाल तक निकाल देने में समर्थ सेकुलरी लोगों को ये अंतर्विरोध समझ में क्यों नहीं आते? क्या घुट्टी में इतना दम है कि वह सोच समझ को ही कुन्द कर दे? नहीं यदि ऐसा होता तो दिमाग एक दम नहीं चलता. वास्तविकता यह है कि वे डरते हैं. डरते हैं कि कोई फतवा न जारी हो जाय, डरते हैं कि उनकी चमकती सेकुलरी छवि पर कोई दाग़ न लग जाय और उनकी दुकानदारी ही बन्द हो जाय; वे डरते हैं कि फिर से शून्य से सोचना और अपने आप को बदलना न पड़ जाय ! बडे ही खतरनाक आलसी हैं ये !!

सिखों पर जजिया के मामले में मुल्ले ने फरमाया है कि:

  1. यह ग़लत है क्यों कि जजिया हमेशा हमला कर जीती गई जमात पर सुरक्षा गारण्टी के तौर पर लगाया जाता है !

  2. यह गलत है क्यों कि जजिया का उपयोग दीन को कुबूल कर चुकी जनता की शिक्षा और कल्याण के कामों में लगाया जाना चाहिए और तालिबान ऐसा नहीं कर रहा.

मुल्ले की सोच देखिए. वह जजिया को गलत नहीं कहता. पाकिस्तान में उसको लगाने के तरीके और परिस्थितियों पर उसे कोफ्त हो रही है! उसे आज के जमाने में भी हमला कर लोगों पर जुल्म करने और उन्हें खत्म करने की परिपाटी पर कोई उज़्र नहीं है.

जजिया गलत नहीं है, इसकी पुष्टि उसके दूसरे बयान से भी हो जाती है. जजिया की रकम से वह क़ठमुल्ली जनता की शिक्षा और कल्याण की बात करता है. मतलब कि मेहनत कर कोई और कमाए, मज़ा हम करेंगें. क्यों? भइ ऐसा ही लिखा गया है, ऐसा ही सबसे बड़ी हुकूमत ने खुद कहा है. हम तो सिर्फ़ पालन कर रहे हैं !

अब मुल्ले को कौन बताए कि हमले के तरीके छठी सदी के मुक़ाबले आज बदल चुके हैं. अमेरिका ने जो इराक में किया वह हमला ही था. कश्मीरी मुसल्मानों ने जो घाटी में किया वह हमला ही था. नक्सली जो कर रहे हैं वह हमला ही है, दंगों में जो होता है वह हमला ही होता है और दिन प्रतिदिन की छोटी छोटी ऐसी घटनाओं में भी जो होता है वह एक बहुत बड़े हमले का ही भाग है... मुल्ला चालाक है. वह सब समझता है, . वह बड़ी चालाकी से ध्यान मुख्य मुद्दे से कहीं और ले जा रहा है. आप के चेतन और अवचेतन दोनों को बड़ी सफाई से वह कुन्द कर रहा है. मन ही मन वह प्रसन्न है कि एक फतह और हुई.

अब आप के उपर है कि आप क्या सोचते, समझते और करते हैं. मुल्ला तो मस्त है..

रविवार, 10 मई 2009

दशाश्वमेध से अस्सी तक - ढोढ़ी में तेल


बनारस. गंगा.

न जाने ये मुझे अपनी ओर क्यों खींचते से लगते हैं? शायद पिछले जन्म का कोई संबन्ध हो.

होटल ताज़ ,जिसे अब गेटवे नाम दिया गया है, की प्रात:बेला.
 
वरिष्ठ सहकर्मी सुधीर जी के साथ घाट की तरफ़ जाने को निकलता हूँ. गाड़ी का ड्राइवर चिर परिचित मुद्रा में हमारी तरफ़ देखता है.... कहाँ सुबह सुबह ? सोने दो स्साले को. मैं पूरे रौ में हूँ. रिक्शे से घाट चलेंगें . बनारस की सुबह को खुले रिक्शे में देखने का आनन्द बन्द इनोवा में कहाँ?
 
रिक्शे वाला सुबह सुबह बीड़ी पी रहा है. बग़ल से जाती एक आरती की थाली से सुगन्ध आती है. बीड़ी और आरती . बाबा विश्वनाथ तुम्हारे इस गन्ध बिंब को प्रणाम.
 
गोदौलिया चौराहे से दशाश्वमेध घाट. धूप निकल आई है. रिक्शा छोड़ हम पैदल ही बढते हैं. योजना है अस्सी घाट तक जाएँगें और तुलसीदास की कुटिया देख कर वापस हो लेंगें.
 
सुधीर जी सुझाव देते हैं. पैदल ही चलें घाट घाट. मैं विकल्प देता हूँ नाव से चलें? कल संध्या आरती वाला मल्लाह पहचान कर मेरे पास आता है. अस्सी घाट तक सौ रुपये. मैं चौंकता हूँ, बेइमान ने कल आरती के समय केवल हरिश्चन्द्र घाट तक के 220 ले लिए थे. पैदल जाएँगें.
 
सुरसरि गंगे..पतितोद्धारिणी गंगे... कंठ अवरुद्ध है आँसू रोकता हूँ. हम बढ लेते हैं. एक भीखमंगा आता है...उपेक्षा के साथ हम आगे बढ़ जाते हैं. मैं पछता रहा हूँ. कैमरा और डायरी ले कर आना था. विस्मृति दोष ..हर घाट का अलग अलग विवरण नहीं रिकॉर्ड कर पाउँगा. .. कोई बात नहीं शायद इससे आनंद के क्षण अधिक मिलेंगें. मोबाइल तो है ही फोटो लेने को...


दूर तक फैला गंगा का पाट प्रात: की बाल-धूप में नहाया हुआ. दूसरा किनारा कुछ कुछ धुन्ध सी चादर मेंलिपटा. नावें ही नावें किनारे पर, पानी में, हाथ से खेई जातीं, केरोसीन डीज़ल इंजन से चलती. माथे पर श्वेत तिलक को पसराए घूमते लोग लुगाई. अधनंगे, लंगोट में, चोली और भीगी साड़ी में स्नान करते जन. कोई चिंता नहीं प्राइवेसी की. मेरी दृष्टि जाती है कुछ कुचों के उद्दण्ड सुपुष्ट सौन्दर्य पर.
 मन ही मन प्रशंसा करता हूँ लेकिन मन में काम नहीं उमगता. सब मां की गोद में हैं इस समय... पण्डे भाँति भाँति के उच्चारण करते और यजमान कुछ गमछा लपेटे तो कुछ भरी पुरी तोंद के साथ पैण्ट में अपने को यातना देते बैठे हुए. इस किनारे उँची अटारियों की सुदूर प्रसरा अनवरत शृंखला ... हम चल पड़ते हैं.
 सुधीर जी इन पक्के घाटों को बनाने में हुए व्यय पर एक नज़रिया पेश करते हैं. देखिए इतना बड़ा इनवेस्टमेण्ट बिना किसी रिटर्न के समझ में नहीं आता. असल में आप देखें तो यह पूरा बिजनेस मॉडल है. मैं मौन सहमति देता हूँ. साथ ही भुनभुनाता हूँ कहाँ इस समय यह पचडा लेकर बैठ गए?

वैसे बाज़ार यहाँ पूरी तरह से उपस्थित है. एक स्थान पर सादा मेक-अप किए एक सुन्दरी भगतिन की मुद्रा बनाए मानस पारायण कर रही है. वीडियो रिकार्डिँग हो रही है, बेचने के लिए. आगे बढ़्ने पर पिज्जा हट और फास्ट फूड के सेंटर भी उपर दिखते हैं. होटल और लॉज तो हैं ही. बेकार ही कॉर्पोरेट अकोमोडेसन लिया. यहीं रुक जाते.
प्रस्तर सोपानों को लौह पट्टियों से जोड़े रखा गया है. उस समय की समझ को दाद और श्रद्धांजलि एक सिविल इंजीनियर की.

न जाने कहाँ से रावण स्तोत्र के स्वर आ रहे हैं .. विलोलि बीचि वल्लरी...



कि घाट पर बनारस का पहला धक्का मिलता है. विशुद्ध संस्कृत और आध्यात्मिक मन:स्थिति में घाट की दीवार पर लिखा दिखता है "गदहा मूत रहा है. माधरचो.. मूत रहा है." भारत की तमाम सड़क से सटी कोन कठ कोन दीवारों पर थोड़े अलग अलग रूपों में पाया जाने वाला यह ब्रह्म वाक्य यहाँ भी उद्घोषित है.मुझे इसका कारण थोड़ी देर में समझ में आ जाता है. वज्र प्रस्तर दीवारों की उँचाई को मुँह चिढ़ाती उनसे सटी निरन्तर मूत्र रेखा दिखती है. साथ ही नथुने भर जाते हैं दुर्गन्ध से. कहते हैं माँ संतान का सब कुछ सहती है लेकिन गंगा माँ के किनारे काशी में ऐसा होता है! दुर्भाग्य है. वीरभद्र जी के सैनिकों कुछ करो भाई! सुधीर जी तुरंत एक रास्ता सुझाते हैं..


भीम (हमारे हेड का कूट नाम) को बताते हैं, हम लोग सुलभ शौचालय की तर्ज पर यहाँ टायलेट बना सकते हैं मुफ्त सुविधा. अभी तक मुझे एक भी टॉयलेट नहीं दिखा है. अत: मैं सहमत हो जाता हूँ. लोग करें भी तो कहाँ करें . गंगा जी में तो नहीं कर सकते सो किनारे घाटों पर ही...शायद अभी कुछ बाकी था. दिखती है ताजी , एक दिन की सूखी, कइ दिनों की अकड़ी विविध रंगों और आकार प्रकार की मल श्रृंखला. हम हगने में कितने उस्ताद हैं. लोगों ने इतने पास पास कैसे अपने को बचाते हुए हगा होगा ! किसी भी मल पर चिपोरने का चिह्न नहीं है. मैं मुग्ध हो जाता हूँ हम भारतीयों के sense of precision पर ! थोड़ा आगे बढ़ने पर एक प्रस्तर प्लेट्फॉर्म दिखता है जिसके किनारे पर बैठ कर कितने ही लोगों ने मल विसर्जन किया है. एक सीधी सी रेखा बन गई है जिसकी उँचाई बढ़्ती जा रही है. उपर ताजा माल और नीचे पुराना माल. मुझे लगता है कि एक ही तरह के लोगों ने इस स्थान को रिजर्व कर रखा है जो भिन्न भिन्न समय में यहां आ कर ... या एक साथ ही बैठ कर पंक्ति में.. नज़र हटा लेता हूँ. सुधीर जी क्या सोचेंगें !



हरिश्चन्द्र घाट पर कल आरती के समय हमने दो शव जलते देखे थे. आज बुझी हुई राख के ढेर दिखते हैं. गरमी बढ़ रही है और मैंने शर्ट उतार केवल बंडी में घूमना तय किया है. घाट से लगे मन्दिर के सामने एक अघोरी अर्धप्रज्वलित धूनी के सामने लेटा हुआ है. अघोरी को ग़र्मी नहीं लगती ! उसके आस पास चार कुत्ते उनींदे से लेटे हुए हैं. क्या रात को अघोरी ने शव साधना की है? ये कुत्ते ? सुधीर जी कहते हैं कुत्ते माते हुए हैं. ऐसा शव खाने के बाद होता है. शव शव, शिव शिव...


कपड़ा धोते धोबियों की पँक्तियाँ. साँवले पीठों पर पसीने में भीगी गंगा अपनी बूँदों में अठखेलियाँ लेती हुई ! जब भीगा कपड़ा उपर हवा में उठता नदी की धार का प्रवाह सा लगता है तो क्या गंगा मैया धुबिया को आशीर्वाद दे रही होती हैं? सम्भवत: धुबिया यहाँ जल में पियासा नहीं मरता होगा.

गंगा का पानी कितना गन्दा हो गया है. हैरानी तो तब होती है जब ऑपरेशन के समय डाक्टरों द्वारा पहने जाने वाले हरे चोगे भी यहाँ शिवाला घाट पर सूखते दिखाई देते हैं. इन्हें बाद में स्टर्लाइज किया जाता होगा शायद.









घाट की दीवार पर एक विचित्र सा चित्र दिखता है जिसके घेरे पर विदेशी भाषा में कुछ बहुत ही चित्रमय शैली में लिखा गया है. हम दोनों को कुछ समझ में नहीं आता. इस अबूझ को किसने गढ़ा होगा?




घाट की सीढियों पर ही एक सज्जन पाइप से आते पानी के अनवरत प्रवाह में जूते, कपड़े वग़ैरह धो रहे हैं. साथ ही पानी को पी भी रहे हैं. सुधीर जी को उत्सुकता होती है. भैया ई पानी कहाँ से आ रहा है?इ पानी तो ज़मीनी सोते का है साहब हम सब इसे ही पीते हैं. पी कर देखिए ! त्राहि माम . सुधीर जी का आभिजात्य जाग उठता है. ये पानी पिएँ? बात बदल देते हैं. ये डेढ़ इंच का पाइप है न. नहीं साहब दो इंच का पाइप है. मुझे हँसी सी आ जाती है. पाइप एक इंच का हो या दो का उससे पानी की गुणवत्ता का क्या सम्बन्ध? आदमी का दिमाग एक क्षण में ही कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है!
एक कोने में अधजली लकड़ी के टुकडे रखे हुए हैं. सुना था कि जलती हुई चिता को बुझा कर लकड़ी चुरा ली जाती है. आज देख भी लिया.
सामने ही आखाड़ों के मल्ल वृन्द तेल मर्दन के साथ स्नान कर रहे हैं . अधेढ़, युवा, बालक आदि सब. सिक्स पैक और एट पैक के इस जमाने में भी इनके पेट काफी निकले हुए हैं लेकिन बाजुओं में दम है. भारतीय जीन में कुछ है जो तोंद के प्रसार में योगदान देता है. नहीं तो इतने कसरत के बाद भी तोंद?

दो पहलवान बड़े मनोयोग से अपनी नाभियों में तेल लगा रहे हैं. क्या इसका स्वास्थ्य से कोई सम्बन्ध है? मैनें लोगों को नाभिस्राव से ग्रसित देखा है. क्या सरसो का तेल नाभि में डालने से इसकी सम्भावना कम हो जाती है?

तुलसी और अस्सी घाट का क्षेत्र. महामानव तुलसी की उँची कुटिया के नीचे सीढ़ीयों पर हम खड़े हैं. जहाँ से हमें चढना है ठीक वहीं नारी समाज जमा हुआ है. धो पोंछ कर सीढ़ियों को चमका दिया गया है . प्रात:कालीन कलेवे की तैयारी है. स्टोव और भीगे हुए चने रखे हैं. मल, मूत्र, शव के क्षेत्र में इस छोटे से भू भाग पर इतनी सफाई ! अन्नपूर्णा अपने तीनों रूपों वृद्धा, यौवना और बाला .. में यहाँ हमारी राह रोके हुए है. हम दोनों ठिठक जाते हैं. राह दो माँ ..जाओ भैया हम सब हटाए देते हैं. ..इतनी साफ सीढ़ियों पर जूते रखते संकोच होता है. हम किनारे किनारे बचाते हुए चढ़ जाते हैं.


सादगी भरी तुलसी की प्रस्तर कुटिया. उतनी ही सादगी मूर्तियों और पुजारी में. मन एकदम शांत हो जाता है. बताते हैं कि मानस का उत्तर अर्धांश तुलसी ने यहाँ लिखा था. सुधीर जी धीरे से बगल के मन्दिर में सरक लेते हैं. पूछते हैं यहाँ राधा कृष्ण का क्या काम? मैं कुछ नहीं बोलता. बस मेरे मन में कौंधता है "तुलसी माथ तबही झुके जब धनुही लौ हाथ".

हम सड़क की तरफ बढते हैं.

पुकार. . . अरे हो सरोजवा के माई एगो फूल माला दिहो हो. अधेड़ नारी अपनी ही रौ में है. नहीं सुनती. अरे ए बूढा,एगो फूल माला दिहो हो. एक दूसरा प्रसाद बेंचता जवान मसखरी करता है. का हो कब से तू बूढ हो गइलू? चेहरा उठता है और मैं वार्धक्य की दहलीज पर कदम रखते मुख के मातृवत सौन्दर्य में बूड़ सा जाता है. इतनी गरीबी और इतना गरिमा भरा मुख.. एक वत्सल हँसी दिखती है..अरे बेटा तोहके त हम बूढ़ नाहिं लागेलीँ न. जवान खिसियानी हँसी हँसता है.

हमलोग सड़क पर आ गए हैं. यह मानते हुए कि जहॉं भीड़ अधिक होती है, वहाँ चाय अच्छी मिलती है, सड़्क किनारे बेंच पर बैठ कर चाय पीते हैं, अपनी मान्यता को पुख्ता करते हैं और ऑटो पर बैठ जाते हैं. ऑटो पर ड्राइवर की बगल में एक सिपाही बैठ जाता है.


मैं ऐसे ही पूछ बैठता हूँ का हो अबकी चुनउवा में के जीती? शहर और देहात में वोट बँटि गइल, मुख्तरवा जीति जाइ. .अनायास ही बचपन में देखी नौटंकी के दृश्य उभरने लगते हैं... पता नहीं घाट की देखी नाभि-तेल प्रक्रिया और नौटंकी मिल कर में मन में क्या करने लगते हैं... लवण्डा नाच रहा है...इनाम... बाबू की तरफ़ से इनाम पॉंच रुपया और ढोढ़ी में तेल डालने के लिए चवन्नी...जिन बाबू ने दिया रुपैया......आज नाहीं मिलबे बिहान नाहीं मिलबे परसो मिलबे गन्ना में. लवण्डा नाच चुका और जा चुका. बनारस में मिलने का वादा वादा ही रहेगा. ढोढ़ी में तेल कौन डाले!
शिव शंभो तुम्हारी नगरी का मीमांसक मैं कौन होता हूँ? बस तुम्हारा नाम रख लेने से क्या होता है? शुभ, शव, कुरूप, सुरूप, अरूप, प्रेम, घृणा, संस्कार, विकार, साँड, राँड, संन्यासी सबको तुम ठाँव देते हो. कालकूट धारण करने वाले नीलकण्ठ हो तुम. मुख्तार को भी समो लोगे! बस गले से नीचे मत उतरने देना और अपनी नगरी पर नज़र बनाए रखना. ..

रविवार, 3 मई 2009

उल्टी बानी (अंतिम भाग) – चुनाव, एक पर्व एक उत्सव

(अ)
बात उस समय की है जब ए टी एम नए नए लगने प्रारम्भ हुए थे. एक समाचारपत्र में किसी आम व्यक्ति की प्रतिक्रिया थी कि ए टी एम की सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि यह मुँहदेखी नहीं करता. बैंक में पैसे निकालने जाओ तो क्लर्क पहचान और रसूख वालों के साथ ढंग से बात भी करता है और पैसे भी ज़ल्दी दे देता है. जब कि मुझे घण्टों लगाता है और उपर से सीधे मुँह बात भी नहीं करता. पिछ्ले पोस्ट में मैंने टेक्नॉलॉजी के “समता और सुलभता” वाले पक्ष की जो बात की थी उसका यह एक उदाहरण है. अपने देश में मेधा की कमी नहीं है. आवश्यकता है दृढ़ निश्चय और समर्पण की. सुझाए गए तमाम तकनीकी युक्तियों को लागू कर समूची निर्वाचन प्रक्रिया को आमूल चूल बदला जा सकता है.
तकनीक के प्रयोग का एक सबल पक्ष यह भी है कि दो तिहाई से अधिक मतदाता युवा वर्ग से हैं और स्वभावत: यह वर्ग तकनीकी परिवर्तनों की ओर आकृष्ट हो कर मतदान का प्रतिशत बढ़ाएगा. मेरे पास कोई ठोस तर्क तो नहीं है लेकिन न जाने क्यों लगता है कि यदि मतदान का प्रतिशत 95 या उससे अधिक सुनिश्चित कर दिया जाय तो हमें अल्पमत की सरकारों से छुटकारा मिल जाएगा. अस्थाई, अनैतिक, तिकड़मी और अवसरवादी गठबन्धनों से, जो कि हमारी शासन व्यवस्था की एक दु:खद वास्तविकता बन चुके हैं, भी छुटकारा मिल जाएगा.
अब समय आ गया है कि प्रत्याशियों के मामले में सबको समान अवसर देने की सर्वविनाशी और मूर्खतापूर्ण मानसिकता से मुक्त हो कर हम सीमित पार्टी संख्या वाले लोकतंत्र के मॉडल को अपना लें. निर्दल प्रत्याशियों पर प्रतिबन्ध लगे और भारत की विविधता को देखते हुए कम से कम चार पार्टियों को मान्यता दी जाए. यह पार्टियाँ दक्षिणपंथ, वामपंथ और मध्यमार्ग की राहों वाली हो सकती हैं और चौथा विकल्प किसी भी अन्य मॉडल के लिए रखा जा सकता है. पिछ्ले चुनावों में पाए गए मत प्रतिशत के आधार पर इनकी पहचान हो सकती है. इसके साथ ही क्षेत्रीय पार्टियों को कोई एक विकल्प चुन कर विलय का विकल्प दे दिया जाय. इन चार पार्टियों के संविधान दुबारा लिखे जाँय, नाम और चुनाव चिह्न भी आंतरिक प्रक्रिया द्वारा दुबारा रखे जाँय.
चार पार्टियों की सीमा से यह लाभ होगा कि टेलीफोन, मोबाइल, इंटर्नेट, ए टी एम, पोस्ट ऑफिस, बैंकों आदि सब स्थानों पर तकनीकी प्रयोगों द्वारा मत देने की स्थाई और एक समान तंत्र के विकास और उसे लागू करने में बड़ी सहूलियत हो जाएगी. मतदान की प्रक्रिया भी लचीली, अल्पव्ययसाध्य और साथ ही तीन चार दिनों तक लगातार जारी रह सकेगी जिससे मतदान का प्रतिशत 95 को भी पार कर सकेगा. राज्यसत्ता द्वारा चुनावों की सम्पूर्ण फाइनेंसिंग आसान और अल्पव्यय साध्य हो सकेगी. धन और बाहुबल का जो ज़ोर आज दिख रहा है वह समाप्त हो जाएगा और सही मायने में लोक प्रतिनिधि चुनने में योग्यता और कर्मठता ही कसौटी होंगें न कि यह क्षमता कि प्रत्याशी कितना धन चुनावों में इनवेस्ट कर सकता है.
लोकतंत्र की कसौटी निर्बल और सबल दोनों को योग्यता के आधार पर समान अवसर और प्लेट्फॉर्म उपलब्ध करा सकने में सक्षम होने में है न कि सींकिया पहलवानों को रिंग में केवल समान अवसर के पाखण्ड प्रदर्शन के लिए मुहम्म्द अली सरीखे धन पशुओं के सामने उतारने में. ऐसे मामले में परिणाम की प्रतीक्षा तो बस एक खानापूरी ही होती है. सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि जनता ऐसे आडम्बर पूर्ण आयोजनों से उदासीन हो जाती है. बहुसंख्यक (चुनावी गणित के अर्थों में न लें) जनता या तो मसखरी का आनन्द लेती है या अपने दैनिक समस्याओं से जूझती इसका मौन बहिष्कार कर देती है. मसखरों के लिए दैनिक मोनोटोनी से मुक्त होने का यह एक बहाना बन जाता है. यही कारण हैं कि हमारे प्रभु वर्ग का हमेशा सत्ता में बने रहने का और धन दोहन का षड़यंत्र स्वतंत्रता के समय से ही फल फूल और सफलीभूत हो रहा है.
(आ)
एक ऐसा आयोजन जिससे हमारा भाग्य सीधा जुड़ा हुआ है, जो 5 वर्षों में केवल एक बार ही होता है, जिससे हमारे दैनिक और आजीवन प्रकल्प सीधे प्रभावित होते हैं और जो हमारी, हमारी आगामी पीढ़ियों और हमारे पूरे देश की नियति को निर्धारित करता हो; उससे हम इतने उदासीन क्यों हैं?
होली, दिवाली, ईद, बैसाखी को मनाने के लिए तो किसी आह्वान की आवश्यकता नहीं पड़ती! फिर इसमें सम्मिलित होने और सक्रिय योगदान देने के लिए प्रचार, आह्वान, नुक्क्ड़ नाटक आदि की आवश्यकता क्यों पड़ती है? हमारी नींद का आलम तो यह है कि ये सब भी हमें जगा नहीं पा रहे हैं.
हम उल्लसित क्यों नहीं हैं? बात लू लगने की नहीं है. बात यह है कि हमारे उर में हिलोरों की इतनी कमी है कि सूरज की गर्मी जैसी दैनिक घटना भी हमें इस महापर्व को मनाने से रोक दे रही है. क्यों?
यह आयोजन तो पर्व और उत्सव की तरह मनाया जाना चाहिए, बल्कि यह हमारे जीवन का सबसे बड़ा पर्व होना चाहिए. हम इसका शांत और क्लांत भाव से बहिष्कार क्यों कर रहे हैं? हम इतने निष्क्रिय हो कर क्यों इसे चन्द उठाईगीरों के आमोद प्रमोद और उनकी समृद्धि का माध्यम बनाए दे रहे हैं? हम क्यों नहीं एक साथ उठ खड़े हो रहे हैं, एक आमूल चूल परिवर्तन के लिए? आखिर हमें सक्रिय होने से नुकसान ही क्या होने वाला है? सामूहिक प्रमाद की यह महामुद्रा जो हम धारण किए हुए हैं, उसकी सिद्धि क्या है? यही न कि दिन ब दिन हम रसातल में धँसते चले जा रहे हैं !
इन सबका कारण यह है कि हम एक बनी बनाई व्यवस्था को ही सब कुछ मान बैठे हैं. हम यह मान बैठे हैं कि इसमें और कुछ परिवर्तन नहीं हो सकता. हम यह मान बैठे हैं कि धन और बाहुबल का यह अनिष्टकारी मायाजाल ही वास्तविकता है. याद करिए कि सूचना के अधिकार के लिए संघर्ष ने क्या कर दिखाया. उसे लागू करने के मॉडल पर बहस हो सकती है लेकिन इससे तो इनकार नहीं हो सकता कि बहुत बड़ी शक्ति हमें इस एक अधिकार से मिली है. इसका बहुत ही सार्थक उपयोग भी हो रहा है.
ब्लॉग पर ही सही, परिवर्तन के लिए एक आन्दोलन खड़ा हो सकता है हमारी निर्वाचन प्रक्रिया में आमूल चूल परिवर्तन के लिए. हमें एक पर्व और उत्सव के नैसर्गिक अधिकार से बंचित कर दिया गया है. क्या यही एक कारण पर्याप्त नहीं है कि हम समूचे तंत्र को झँकझोर दें ! ज़रा सोचिए ! कलम उठाइए और लिखिए. समय की कमी कुछ नहीं है, बस घड़ी के दो हाथों का सम्मोहन है. उससे छूटिए. समय बहुतायत में मिलेगा. लिखिए कि उत्सव आयोजन का निमंत्रण पत्र आने को है.. ....पाँच वर्षों के बाद ! या उससे पहले ही?