गुरुवार, 25 जून 2009

लंठ महाचर्चा: 'बाउ' हुए मशहूर, काहे?

..आगे की कथा पढ़ने से पहले अगर आप यह भूमिका नहीं पढ़ेंगी/गें तो घोर पाप की/के भागी होंगी/गे। अगर उसे पढ़ने के बाद भी आप इस कथामाला से गुजरने का निर्णय ले चुकी/के हैं तो अपने रिस्क पर! लेखक किसी भी अनहोनी का ज़िम्मेदार नहीं होगा।
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(3) समय- चालिसे का पूर्वार्द्ध; परम्परा -श्रौत
बाउ ठिगने कद के आबनूसी रंगत लिए एक पहलवान थे। शरीर ग्रीक देवताओं की गठन लिए और शक्लो सूरत? पहलवान की शक्लो सूरत क्या देखना? लेकिन बाउ की विलक्षणता और नाम का इससे सम्बन्ध है इसलिए चर्चा आवश्यक है। पाँच बहनों के बाद बाउ पैदा हुए थे सो उनके जन्म के समय पूरे गाँव को बड़ी उत्कंठा थी - देखें इस बार क्या होता है? सौरी (प्रसूति गृह) से जब मँगरी दाई ने बाहर आकर पूत पैदा होने के सूचना दी तो उनके बाप उछाह रोक न सके। टोले के इतिहास में एक क्रांतिकारी घटना घटी, किसी पति ने पहली बार(!) सार्वजनिक रूप से पत्नी का नाम ले उससे डायरेक्ट बात किया, वह भी सौरी के बाहर खड़े होकर ! मॉल में, पार्क में या कहीं भी बेशर्म चूमा चाटी देखने के अभ्यस्त आप लोगों को यह घटना क्रांति लग सके इसके लिए थोड़ी व्याख्या आवश्यक है।
उस जमाने में पति पत्नी आपस में सबके सामने बात नहीं करते थे। मरजाद और शरम की बात थी। एकांत और मिलन की रैना में क्या होता होगा, इसकी सूचना मुझे नहीं। अन्योक्ति, सन्देश या किसी और बहाने से आपस में बात होती थी। लोग धीरे धीरे इस कला में इतनी महारथ हासिल कर चुके थे कि डायरेक्ट बात करना एक फिजूल और वाहियात सी बात समझी जाती थी। सेक्स को लेकर इतना पूर्वग्रह कि लोग अपने बच्चे को सबके सामने गोद में नहीं लेते थे। क्यों कि यह उस सनातन क्रिया का प्रमाण होता था। जे बात अलग है कि शादी के एक साल के भीतर बहू के पाँव भारी न हों तो खुसुर फुसुर शुरू हो जाती थी। उस सेक्सलेस सोसाइटी में चार पाँच बच्चे पैदा होना आम बात थी। औरतें दूधो नहाती और पूतों फलती थीं।
बाउ के बाप ने पूछा, ए झलकारी! लइका (लड़का) कैसा है? झलकारी देवी संतान के अद्भुत सौन्दर्य के आघात से उबरी ही थीं कि यह प्रश्न? वह भी पतिदेव जिन्दगी में पहली बार सबके सामने बोले! ममता ने कुलाँच भरी और माँ ने जवाब दिया लइका कइसन होलें? मतलब बच्चे बच्चे होते हैं। बाप को इतने से संतोख कहाँ। अरे ई बताव नीक कि बाउर कइसन बा (ये बताओ अच्छा है कि बुरा कैसा?)। बड़ा अजीब सा सवाल था । माँ यथार्थवादिनी थी और पति को शॉक भी नहीं देना चाहती थी सो बोली हमार बउरे बढ़िया (मेरी बुरी संतान ही बढ़िया है)। बाप समझ गया। वर्षों के इनडायरेक्ट संवाद का प्रताप था। असल में बाउ की सूरत हमारे पूर्वज नरवानरों की तरह थी। माँ का दुलारा 'बाउर' ही परिशोधित हो 'बाउ' रह गया।
बाउ पहलवान थे लेकिन डेली दण्ड बैठक नहीं करते थे। उनका मत था कि मड़ुवा की रोटी और कोदो के भात खाने और रोज सुबह शाम भैंस चराने से कसरत की आवश्यकता नहीं रह जाती ! बाउ बड़े सफाईपसन्द थे। एक भैंसवार के लिहाज से यह अजीब नहीं क्यों कि अगर भैंस को नहलाधुला कर साफ सुथरा न रखो तो दूध कम देती है। बाउ ने कभी शादी नहीं की और लंगोट को सच्चा रखा लेकिन इस हनुमान भक्त का ब्रह्मचर्य बस यहीं समाप्त हो जाता था। लेना न देना देख तो लेना की तर्ज पर आस पास के दस टोले की कुवारियों से लेकर विवाहिताओं और विधवाओं के सौन्दर्य और निजी जिन्दगी के वह विराट विद्वान थे। नायिका भेद पर उनका सहज निरीक्षण से प्राप्त ज्ञान इतना विशद था कि वात्स्यायन या रीति कालीन कवि वगैरह फीके हो जाँय। औरतों की प्राइवेसी वगैरह में उन्हें यकीन नहीं था।
जिस पहली घटना ने उन्हें जवार (इलाके) में मशहूर कर दिया, वह सुनाता हूँ।
सुबह शाम निपटने (शौच कर्म) के लिए लोग लुगाई खेतों की राह आज भी पकड़ते हैं, ये जग जाहिर है। उनके जमाने में नारी समाज गोलबन्दी कर जाता था और यह कुछ इतना स्वाभाविक हो चला था कि भोर और शाम के समय पूरा टोला इनके गलचउर (आपसी खुसुर फुसुर) से गुंज़ायमान हो उठता था। इसी समय बाउ भैंस चराने के बहाने सबकी टोह लेते रहते थे। ऊँची जात वाली लोटे लेकर जाती थीं लेकिन पंचम समाज (प्रचलित शब्द नहीं लिख रहा) में लोटे लेकर जाने का चलन नहीं था। सब ऐसे ही जातीं और घर पर आ एक टुटहे नाँद ( पकाई हुई मिट्टी का अर्धगोला जिसमें जानवरों को खिलाया जाता था।) में भरे पानी में सामूहिक रूप से धोतीं। बाउ के सफाई पसन्द स्वभाव को यह एकदम अच्छा नहीं लगता था। एक दिन उन्हों ने रमरतिया को भोरे अकेले पा रोका। बाउ के हिसाब से रमरतिया पद्मिनी श्रेणी की नायिका थी और गोल की लीडर भी। बाउ की ताक झाँक एक ओपेन सीक्रेट थी और नुकसानहीन होने के कारण रसिक टाइप की नारियों के लिए मनोरंजन का एक सामान भी थी। लेकिन एक सवर्ण पुरुष जिसका यौन भ्रष्टाचार का कोई रिकार्ड नहीं था, भोर में टोले के इस इलाके में किसी औरत की राह रोके ! असामान्य घटना थी। बाउ ने बेलाग कह दिया तुम लोग लोटा लेकर जाया करो। जिस तरह से घर में आकर धोती हो वह ठीक नहीं। तुम लोगों को जनाना बिमारियाँ इसीलिए होती हैं। अब बाउ को कौन समझाए कि जहाँ लोटे का चलन था उस सवर्ण टोली में जनाना बिमारियाँ कुछ अधिक ही होती थीं। स्तब्ध सी रमरतिया की सटक गई, उस दिन वह गई ही नहीं।
बाउ ने अगले दिन फॉलो अप के तहत फिर टोह ली। सब वैसे ही जा रही थीं और रमरतिया भी साथ में थी। बाउ ने डायरेक्ट ऐक्शन की ठान ली। उसी दिन शाम को जब सब निपटने गई थीं, बाउ रमरतिया के घर में घुस गए ।भौजी के जाँते (जिस पर औरतें अनाज वगैरह पीसती थीं, इस जमाने के मिक्सी ग्राइण्डर का बाप) से उठाई गई गमझे में बँधी लाल मिर्च की बुकनी (पाउडर) नाँद के पानी में खाली कर भैंस चरवाही के पैना (डण्डे) से अच्छी तरह मिला दिया।
आगे जो कुछ हुआ होगा उसका अनुमान आप लगा सकती/ते हैं। लाज शरम के कारण यह घटना ओपेन सीक्रेट बन कर रह गई। बाउ मुँह मुँहाई मशहूर हो गए।
उस दिन के बाद से आज तक भी सात टोले की औरतें बिना लोटा लिए निपटने नहीं जातीं।
लंठ महानिष्कर्ष: निषिद्ध जगह अवश्य ताक झाँक करनी चाहिए। समाज की बुराइयाँ ऐसे ही क्षेत्रों में पनपती और फलती फूलती हैं। ठहरा हुआ पानी सड़ जाता है। सामाजिक क्रांति के लिए कठोर कदम उठाने से कभी हिचकना नहीं चाहिए भले वे अनैतिक, वीभत्स या अश्लील कहलाएँ।
जारी . . .आगे की लंठई में बाउ और परबतिया के माई

18 टिप्‍पणियां:

  1. अभी जा रहा हूँ आपकी पहली पोस्ट पढ़ने - ’अथ लण्ठ चर्चा ।’ फिर आउंगा । सम्मोहित हूँ एकदम से ।

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  2. आपका महानिष्कर्ष महनीय है । बहुत कुछ स्मरण हो आया अपने गाँव-जँवार का । प्रस्तुतिकरण तो एकदम खाँटी देशज है, भाषा और शैली भी एकदम से टनटन - रेणु की परम्परा में ।

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  3. स्तब्ध -भाषा ,शैली और अभिव्यक्ति पर यह पकड़ ! और इतना सूक्ष्म पर्यवेक्षण -आत्म संस्मरणात्मक जैसा ! मानवता किन किन गुप्त गह्वरों -कोह्बरों से आगे बढ़ती आयी है -हैरत होती है ! अगली के लिए दिल थाम के बैठे हैं !

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  4. मान गए उस्ताद !
    क्या बात है . अच्छे अच्छे व्यंगकार ( हमारे जैसे :) ) पानी भरें . डा . अरविन्द मिश्र जी की भी कही मेरी टिप्पणी में जोड़ दें .आपके शब्द चित्र ने बचपन का नज़ारा भी करा दिया .

    इस अंजुमन में आपकी आयेंगे बार बार ....
    हम भी अपने आप को पुराना ' लंठ ' मानने में गौरव समझते हैं ...................:) :) .

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  5. बेहतरीन लिखते हो भाई..आपकी जय हो!!

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  6. का प्रभु...कहंवा से शुरू करें...लाठिआये हैं..जुतियाये हैं..का कहे की का का किये..गजबे लिख दिए हैं...ई लंठई ता बाऊ के अलावे और केकरो बस का नहीं है जी..इतना दिन ताऊ के पीछे पीछे थे ..अब बाऊ के पीछे भी रहना पडेगा...बाप रे कतना टेंशन है..आते हैं ...अरे लोटा कहाँ है भाई....

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  7. मजा आ गया। आपकी लेखनी की धाक मान गए!

    खूब लिखिए इसी शैली में। अगले पोस्ट का बेसब्री से इंतजार है।

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  8. वाकई अदभुत लेखन है आपका. कमाल का लिखें हैं. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  9. घर पर आ एक टुटहे नाँद ( पकाई हुई मिट्टी का अर्धगोला जिसमें जानवरों को खिलाया जाता था।) में भरे पानी में सामूहिक रूप से धोतीं।
    हमारे गांव उपरौड़ा में इसे छुतहुर कहते हैं. पता नहीं अब वहां इसका प्रयोग होता है या नहीं. मुझे लगता है उस घटना के बाद से रमरतिया की पूरी टीम लोटा लेकर जाने लगी होगी. लंठ महाचर्चा के लिए लंठाधिराज को बधाई

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  10. शब्द (महा ) रथी तो आप नाम हम सुझाएँ ? आप ही सुझाएँ माकटेल का नाम !

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  11. उ जवार से चल के कहीं भी बेशर्म चूमा चाटी देखने के अभ्यस्त तक जो हों उनको का कहेंगे? बाकी लोग तो पता नहीं कितना समझे लेकिन अपने तो आँखों के सामने घुमा है सब किसी न किसी रूप में. जल्दी से अगली पोस्ट लाइए.

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  12. बेहतरीन...दिलचस्प...लंठई में समाज सुधार भी शामिल है....

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  13. भाई साहब, आप तो बौरा गये लगते हैं। अपने गाँव जवार की इज्जत ऐसे उघार रहे हैं जैसे वहाँ कभी जाना ही न हो। लगता है बाऊ को इसका प्रिन्टऑउट ले जाकर बाँचकर सुनाना पड़ेगा। तब पता चलेगा कि लंठई में लाठी कैसे पड़ती है।

    वैसे एक बात तो तय है कि अपने बाऊ के कन्धे की सवारी या उनके साथ भैंस की सवारी जरूर की है। वरना ऐसा आँखो देखा हाल बिन्दास होकर नहीं लिख पाते।

    पता नहीं क्यों मैं यहाँ आश्चर्यजनक रूपसे देर करके पहुँचा। बता नहीं सकता। अब सिर धुन रहा हूँ। आपकी अद्‌भुत लेखनी का रसपान देर से कर पाने के लिए।

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  14. Shandaar Vyangya Lekhan.
    Shri lal Shukla ki Raagdarbari yaad aa gayee.

    kaun Sasura kahta hai ki Bolg par sahitya nahi likha ja raha hai.

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  15. चलिये... पहली बार किसी महाचर्चा प्रसंग ने मन भारी नहीं किया..

    अब चलता हूँ मूल पोस्ट पढ़ने..

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  16. "अगर आप यह भूमिका नहीं पढ़ेंगी/गें तो घोर पाप की/के भागी होंगी/गे।"

    हा हा हा
    पहली पंक्ति पढ़कर ही हँसते हँसते पेट मेन दर्द हो गया. पूरी श्रृंखला पढनी पड़ेगी.

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  17. वर्षों के इनडायरेक्ट संवाद का प्रताप था। असल में बाउ की सूरत हमारे पूर्वज नरवानरों की तरह थी। माँ का दुलारा 'बाउर' ही परिशोधित हो 'बाउ' रह गया।
    👌👌🙏

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