शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

बारात एक हजार और बाउ मंडली -भूमिका (लंठ महाचर्चा)

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आप से अनुरोध है कि इस कथामाला को थोड़ा समय ले कर पढ़ें और पिछले को पढ़ने के बाद आगे के प्रसंग पढ़ें, आनन्द आएगा। यात्रा आगे बढ़ने के साथ साथ इसमें सारे रस मिलेंगे। भुलाई जा चुकी 'लंठई' को पुन: प्रकाशित और प्रतिष्ठित करने का यह एक विनम्र प्रयास है। साथ ही इस धारणा को ठेंगा भी कि ब्लॉग में साहित्य नहीं है।
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(1),(2) भूमिका

(3) लंठ महाचर्चा: बाउ हुए मशहूर, काहे?

(4) लंठ महाचर्चा:बाउ और परबतिया के माई- प्रथम भाग
लण्ठ महाचर्चा: बाउ और परबतिया के माई - अंतिम भाग
(5) ()
पूर्व कथन:
बाउ की लण्ठ मन्डली कोई औपचारिक संस्था नहीं थी। आस पास के आठ दस टोलों को मिला कर एक ढीला ढाला सा गाँव बनता था। टोले को उसके लोग सीना फुला कर गाँव ही कहते थे, जिसे बाकी टोलों के लोग मान भी लेते थे। समान तरह के आँगछ और स्वभाव वाले लोग अपने आप ही उम्र और पद के भेद किए बिना एक अनकही यारी/ भाईचारे/ बहिनापे में बँध जाते और गाँव के सीवान (सीमा) के भीतर उनकी भूमिका निश्चित हो जाती थी। यह भूमिका भी अनौपचारिक रूप से धीरे धीरे विकसित होती रूढ़ हो जाती थी।
जिस कन्या की बारात आज आ रही थी वह बाउ लंठ मंडली की महिला सदस्य थी। बाकी सदस्यों की पहचान का जिम्मा आप पर छोड़ता हूँ।
(ख)
सूरसती या सुरसतिया या सुरसत्ती आस पास के टोलों की प्रमुख ‘घरघुमनी’ थी। घरघुमनी माने जो घर घर घूमते पूरे गाँव का कम से कम रोज दो चक्कर लगाए। घरघुमनी अगर एक दिन न घूमे तो उसे खाना न पचे, दो दिन न घूम पाए तो जर (ज्वर) हो जाए और तीसरे दिन भी न घूम पाए तो पूरे गाँव में चर्चा का विषय हो जाय। लोग पुछार करने उसके घर धमक जाँय। कुछ अनिष्ट तो नहीं हो गया? लोगों को उसकी आदत सी पड़ गई थी। बहुतों ने तो खाने नहाने का समय सुरसतिया के आने जाने के हिसाब से फिट कर रखा था।
जाहिर सी बात है कि उस पैदल चालन जमाने में घरघुमनी का रोल अदा करना शारीरिक रूप से आसान कर्म तो कत्तई नहीं था। मानसिक रूप से भी एक घरघुमनी को बजरढीठ, प्रत्युत्पन्नमति, बेहया, मजाकिया और संवेदनशील एक साथ होना होता था। इस रोल में सुरसतिया सनेसिया (सन्देशवाहक) का काम करती, नव ब्याहताओं की जरूरतें पूरी करती, बुढ़ियों के तमाकू (तम्बाकू) के लेन देन का हिसाब रखती, ढील हेरने (जुएँ निकालने) या ढेंका चलाने में सहयोग के बहाने सबकी पोल पट्टी लेती, देती और बड़ी सफाई से सार्वजनिक करती। हर बारी (बागीचा) के हर आम के पेंड़ के टिकोरों (अमिया) का उसे पूरा ज्ञान था। कब टिकोरे आएँगे, कब खाने लायक होंगे, किन्हें नमक के साथ खाना है,किन्हें हरी मिर्च के साथ तो किन्हें बस ऐसे ही चबा जाना है? – जानना हो तो सुरसतिया से पूछ लें।
होश सँभालने के बाद से गाँव में पैदा हुए हर बच्चे का जन्म माह, समय और दिन उसे मुँह जबानी याद थे। संवत का उसे ज्ञान नहीं था। इसकी क्षतिपूर्ति वह पास पड़ोस की किसी महत्त्वपूर्ण घटना से सन्दर्भ जोड़ कर लेती थी।
सास बहू के झगड़े हों या ननद भौजाई के – घर का मालिक सूरसती की साक्षी जरूर लेता। ऐसे मौकों पर वह ग़जब की स्मरण शक्ति और निरपेक्षता का परिचय देती।
संक्षेप में कहें तो वह एक अजीब तरह की दुराव मिश्रित प्रेम की पात्र थी, विश्वस्त भी थी और हर घर के सदस्य की तरह थी। आज के तीसरे दिन उसे विदा हो ससुराल चले जाना था। पूरा गाँव खुश था – बहुत ही सुदर्शन, धनी और जोग (योग्य और सही जोड़ी वाला) वर के साथ उसका लगन हो रहा था। पूरा गाँव उदास था – गाँव के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण ‘दुर्घटना’ जो घटने वाली थी। घरघुमनी अपने पिया के घर जाने वाली थी। अब संचार माध्यम की भूमिका कौन निभाएगा? कौन निरपेक्ष गवाह बनेगा? कौन तमाकू . . . ?
(ग)
ठाकुर नाहर सिंह। जमींदार। अंग्रेज बहादुर आते तो ‘महल’ में ही रुकते। एकपत्नी व्रती नाहर जवानी में ही विधुर हो गए और फिर विवाह नहीं किए। समय के हिसाब से यह बड़ी भारी अपवाद था। जिसके कारण उनकी ‘मर्दानगी’ तक पर लोगों को सुबहा जैसा था। बाप बेटे ऐसे कि बोलें न और अंग्रेजी कपड़े पहना कर बाल भूरे रंग दो तो अंग्रेज ही लगें। महल के सूनेपन को शोखियों और किलकारियों से भर देने के लिए उन्हें एक ऐसी बहू की तलाश थी जो छुई मुई न हो और सुन्दर भी हो। कितने हजाम, पंडित, खोझवा (हिजड़े) आदि से पच्चीसो गाँव छ्नवा दिए। कोई रिश्तेदारी नहीं छोड़ी और एक बार तो फिरंगन तक को बहू बना कर लाने की सोच बैठे। वो तो उप्रोहित (पुरोहित) महाराज का अनशन था कि फिरंगन का मामला ठण्डा पड़ा। लिहाजा जब घरघुमनी की शोहरत उनके पास पहुँची तो खुद बैलों के सौदागर का वेश बना बाउ के गाँव आ धमके। जो देखा सुना उससे निहाल हो गए। असामी सरीखे बाबू पँड़ोही सिंह की क्या मजाल कि नाहर के घर वर देखाई करने जाँय? हाथी सवार नाहर एक दिन खुद पँड़ोही की बिटिया को अपनी बहू-बेटी बनाने के लिए उसका डोला माँगने आ पहुँचे। अवाक से पँड़ोही तो जैसे फालिश (पक्षाघात) मार जाय वैसे हो गए थे। चुप्प। फिर पगड़ी उतारी और नाहर के पैरों पर रख दी। नाहर सिंह ने बताया कि दहेज में बस पाँच चाँदी के सिक्के चाहिए। कन्या चार कपड़ों में विदा कर दें – कोई उज्र नहीं। बारात की संख्या के बारे में पूछने पर ठठा कर हँसे थे नाहर – ओकरे बिना बात बिगड़ी का (यह जाने बिना बात बिगड़ेगी क्या)? बाद में हजाम से कहलवा दिया – बारात तीन एक सौ होगी। तिलक चढ़ाने केवल पाँच जने गए जिसमें बाउ नहीं थे – उन्हें ऐसी भलमनसहत पर भरोसा नहीं हो पा रहा था।
(घ)
उस समय बारातें तीन दिन रुका करतीं। विवाह के अगले दिन औकात के हिसाब से भव्य जनवासा सजता जहाँ ‘मरजाद (मर्यादा)’ पूर्वक दोनों पक्षों का परिचय और फिर बौद्धिक/मानसिक प्रकार का मित्रतापूर्ण द्वन्द्व होता जो कभी कभी उल्टा रूप ही ले लेता। मरजाद के अगले दिन विदाई होती। ऊँची जातियों में चूँकि विवाह अपेक्षतया देर से होता सो बेटियाँ या तो उसी दिन विदा हो जातीं या एक साल के बाद गवना होता। राजपूतों में विदाई माने दुल्हन की विदाई होती इसलिए दुल्हन के साथ ही घर लौटते।
बाउ ने आज दुपहरी आध बाँस ढलते ही भैंस खोल दी। शाम को बारात के स्वागत सत्कार का जिम्मा जो सँभालना था। गरमी कुछ खास नहीं थी लेकिन उमस थी। ऐसे में खलिहान की तरफ से मैनवा अहिर को बेतहाशा भागते गिरते पड़ते आते देख बाउ सशंकित हो गए। बाउ! बाउ!! मैनवा बार बार यही कहे और बारी (खलिहान से लगा बागीचा) की तरफ इशारा करे।
बाउ तड़के,”धुर बुरधुधुर, कुछ कहबो करबे कि खाली चोनरइबे (अबे बेवकूफ, कुछ कहोगे भी कि केवल चापलूसी ही करोगे)?”। मैनवा ने तुरत बाउ का हाथ पकड़ा और बाउ को भैंस सहित खलिहान की तरफ खींच ले चला। बाउ पहुँचे। नजारा देख अवाक! क्रोध और चिंता एक साथ। अपने पूर्वाभास को साक्षात घटित देख ठिठक कर जैसे खड़े ही रह गए। . . . जारी

8 टिप्‍पणियां:

  1. आह -वाह क्या प्रोफेसनल इंडिंग है ? ..ओह अब अगले अंक का बेसब्री से इंतज़ार -क्या माजरा था खलिहान में ??

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  2. चलो, समय भी निकाला और अगले अंक के इन्तजार में बैठे हैं.

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  3. अरे, यहीं रोक दिया? अगले पोस्ट में बहुत देर न लगाएं।

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  4. आपतो लालच दिखाकर खिलौना खींच ले रहे हैं। जल्दी प्रकाशित करिए पूरी कथा। :)

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  5. अब अगली पोस्ट के इंतजार के अलावा तो कोई चारा ही नही है.

    रामराम.

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