रविवार, 20 सितंबर 2009

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता..


कई दिनों बाद लौटा हूँ । घमासान (जाने इस शब्द का सही प्रयोग कर रहा हूँ कि नहीं, टिप्पणियों को भी देखें) देख कर हैरान हो रहा हूँ। 
एक training पर गया था जिसे वे लोग learning कहते थे इस तर्क के साथ कि वयस्कों को train नहीं किया जा सकता उन्हें स्वयं learn करना होता है- साशय, वह भी निष्ठा के साथ।
उन लोगों ने खास उपनिषद सूत्रों को बहुत घोंटा। उलटा, पलटा, रगड़ा , मसला ..... अपनी मान्यताओं में वे इतने निश्चिंत थे कि मुझे उनके वयस्क होने में ही शंका होने लगी। मुझे लगा कि केवल बच्चे ही इतने निश्चिंत हो सकते हैं.....
संस्कृत से भय खाने वालों से क्षमा सहित पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ। चूँकि ब्लॉग जगत में अपनी मान्यता को गोड़ पटक कर(भले हड्डियाँ चरमराने लगें) कहने की प्रथा का विस्तार/प्रसार हो रहा है इसलिए मैं भी कह रहा हूँ (नौसिखिया को पता है कि कुछ ऐसी गड़बड़ हो सकती है जो दूसरों के 'गोड़ों' को उसकी पीठ और कुल्हों की ओर आकर्षित कर सकती है, फिर भी कह रहा है):
'संस्कृत या तत्सम शब्दों से डरने वाले या डरने का पाखण्ड करने वाले दोनों हिन्दी का अहित कर रहे हैं।'...मैं हिन्दी की बात कर रहा हूँ, केवल ब्लॉगिंग की नहीं - ब्लॉगिंग एक अंग भर है।
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पंक्तियाँ हैं:
"असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्माSमृतंगमय
ॐ शांति: शांति: शांति:"
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वयस्क बच्चों से मुझे बड़ा डर लगता है। देहरादून से भी उपर एक आधुनिक जंगली गुरुकुल में जब पूरी टीम को इनवाल्व(?) कर उपर्युक्त सूत्रों को घोंटा जा रहा था तो मारे डर के मेरी घिघ्घी बँध गई थी। मैं जड़ हो गया। कुछ बोल नहीं पाया... बच्चे बड़े प्रसन्न थे।
कल नवरात्र के प्रथम दिवस के उपवास (नास्तिक भी यह सब करते हैं) के बाद आज घर लौट कर प्रसन्न था कि बहुत दिनों के बाद तसल्ली से ब्लॉग लेखों का 'पारन' करूँगा। तभी यहाँ नज़र पड़ी। अनायास ही फिर वही सूत्र मन में घूमने लगे। सोचा कि डर को भगा कर अपनी व्याख्या लिख ही दूँ....
कोई भी परिवेश विरुद्ध प्रवृत्तियों का समुच्चय होता है। किसी भी चिंतन की श्रेष्ठता का निकष होता है - इन प्रवृत्तियों का पूर्ण स्वीकार। स्वीकार के बाद ही आगे बात बढ़नी चाहिए। भारतीय चिंतन का आधार यही है (विदेशी मैंने नहीं पढ़े)। सूत्रों को देखें तो निम्न युग्म सामने आते हैं:
असत - सत
तम- ज्योति
मृत्यु - अमरत्त्व
सबमें पहले अवांछित को स्वीकारा गया है, फिर वांछित की प्राप्ति की कामना की गई है। अवांछित हमेशा रहेंगे लेकिन महत्त्वपूर्ण है कि वांछित की कामना भी हमेशा रहनी चाहिए। अवांछित और वांछित के स्वीकार और संतुलन भाव से आगे बढ़ कर चिंतन मात्र वांछित की कामना करता है। इसे सधाव कहते हैं - उन्नति की ओर, प्रखर, स्पष्ट और श्रम से पलायन न करने वाला ... इस चिंतन में अवांछित का स्वीकार मखौल में आकर उसे ही साधने नहीं लगता या उसे ही न्यायसंगत नहीं कहने लगता। उसके लिए तर्क नहीं जुटाता। यह चिंतन उससे आगे बढ़ता है...
आगे बढ़ने पर भी यह चिंतन 'अवांछित' को भूलता नहीं। उसे निरंतर पता है कि अवांछित रहेगा और इसलिए वांछित की चाहना भी शाश्वत रहेगी। इस युग्म संघर्ष में शांति की चाह भी रहनी चाहिए - तभी तो तीन युग्मों के लिए तीन बार शांति शांति शांति कहा गया है - वह भी नाद ब्रह्म का सम्पुट दे कर। शांति परिणाम ही नहीं प्रक्रिया भी है। शांत मस्तिष्क सृजन करता है। यहाँ तक कि सीजोफ्रेनिया और अन्य मस्तिष्क विकारों से ग्रस्त विभूतियाँ भी शांत हो कर ही सृजन कर पाई हैं। विश्वास मानिए ऐसा सृजन उत्कृष्ट होता है। .... मुझे लगता है कि मैंने पर्याप्त संकेत दे दिए हैं।
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नवरात्र पर्व जारी है - हिन्दी ब्लॉगर जन ! प्रार्थना करें:
"या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता"..... श्रद्धा को मानस में स्थान दें और सोचने में ईमानदार रहें। हिन्दी का हित इसी में है। अभिव्यक्ति की एक नई विधा 'ब्लॉग' के आप आदि जन हैं। अपनी जिम्मेदारियों और उनकी गुरुता के प्रति सचेत रहें....

21 टिप्‍पणियां:

  1. "ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
    दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥"

    शुभकामनायें ।

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  2. गिरिजेश भाई !बहुत दिनों बाद पोस्ट पा धन्य हुआ ।
    मानसिक खुराक की कमी सी हो चली थी । कोई पता नहीं कहां हैं बार बार मन में यही कौधता रहा । खैर आप आये ब्लाग पर । व्रत के बाद पारन किया । अच्छा लगा । आभार ।

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  3. तो आपको महाशक्ति ने पारण की शक्ति दे ही दी ,वैसे व्याख्या अच्छी है

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  4. "शांति परिणाम ही नहीं प्रक्रिया भी है। शांत मस्तिष्क सृजन करता है।"

    सहमत हूँ, पूर्णतः । संकेत तो कर ही दिया है आपने, यह शांति सहजतम स्वीकार ही तो है ।

    कूट संकेत भी कितने महत्वपूर्ण होते हैं सुहृद !

    अंततः ॐ शांति: शांति: शांति:।

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  5. शरणागत-दीनार्त-परित्राण-परायणे!
    सर्वस्यार्त हरे देवि! नारायणि! नमोऽस्तुते॥

    नवरात्रि पर्व की शुभकामनाएँ!

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  6. अब आ गए हैं तो ढाढस है ! नवरात्र की शुभकामनाएं !

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  7. पहली बार आपकी ब्लॉग और पोस्ट को पढ़कर मज़ा आया
    अपनी अपनी डगर

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  8. .
    .
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    "नवरात्र पर्व जारी है - हिन्दी ब्लॉगर जन ! प्रार्थना करें:
    "या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता"..... श्रद्धा को मानस में स्थान दें और सोचने में ईमानदार रहें। हिन्दी का हित इसी में है। अभिव्यक्ति की एक नई विधा 'ब्लॉग' के आप आदि जन हैं। अपनी जिम्मेदारियों और उनकी गुरुता के प्रति सचेत रहें...."

    गिरिजेश जी,
    आशा करता हूँ कि यह अपील वहां तक जरूर पहुंचेगी...और फिर विवादों से उबरकर हिन्दी ब्लॉग जगत एक नई उड़ान भरेगा...
    याद रहे अभी बहुत लंबा सफर तय करना है हम सबको...मिलकर ही होगा यह..

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  9. हम भी सोच रहे थे कि लंठ गये कहां...समय पर लौट आये.....और ..लेखनी का क्या कहें अब तो
    खाली पढते और गुनते हैं....

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  10. विपरीत तत्वों के बीच के अवस्थान्तर की चाह का अच्छा विश्लेषण किया है आपने..३ बार शांति का प्रयोग भी अब समझ मे आया...धन्यवाद.

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  11. शांत मस्तिष्क सृजन करता है. लेकिन सृजन की अधिकता भी अशांति पैदा करती है और इससे सृजनोफ्रेनिया हो जाता है. सीजोफ्रेनिया इसी की एडवांस स्टेज है. ज्यादातर सटके हुए प्रोफेसर्स इन अवस्थाओं से गुजर चुके होते हैं. इस लिए गूढ़ की गुफा में क्यों घुसना बाबू. सहज रहे, सरल रहे शांत रहें.

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  12. मैं तो प्रारम्भ से ही आशावादी हूँ। सत्य के करीब रहकर एक सकारात्मक संसार की रचना करने में हमारा छोटा सा योगदान भी बड़ा फल देने वाला हो सकता है।

    अस्तु। सत्यम शिवम्‌ सुन्दरम्‌।

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  13. बहुते बढिया! मजा आई गवा.......... मईया आप के शक्ति दें................!

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  14. या देवि सर्व भूतेषु ...
    कौन रूपेण नहीं हैं? श्रद्धा, शांति, भ्रांति, क्षमा, क्रोध, नास, हास... सर्वरूपेण हैं माहेश्वरी।
    यहां ब्लॉग जगत ने उन्हे चिरकुटरूपेण भी कर दिया है। मां को फर्क थोड़े ही पड़ता है।

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  15. देवी तो मंगल कारिणी हैं. उनकी शरण में मंगल ही होगा.

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  16. चलिए आप आये तो.
    बाऊ वाली पोस्ट कल पढ़ी जायेगी. तत्सम और संस्कृत वाली बात तो ठीक पर इसके अंग्रेजी से भागना और बोल चाल की भाषा का इस्तेमाल तो हिंदी का अहित नाहीये कर रही है !

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  17. "असतो मा सद्गमय

    तमसो मा ज्योतिर्गमय

    मृत्योर्माSमृतंगमय

    ॐ शांति: शांति: शांति:।"
    आपके साथ तो सभी रहेंगे !!

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  18. तो आप भी पहुँच ही गए, देर आयद दुरुस्त आयद!
    ...
    या देवी सर्वभूतेषु तृष्णा रूपेण संस्थिता|
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः||
    ...

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  19. दादा रे गिरिजेश जी आप तो गजराज हैं. आपके लिखने की खुराक देख हम जैसे कीट पतंगों की सिट्टी-पिट्टी गुम है. इतने हाईवोल्टेज में मेरा फ्यूज उड़ गया है..अब क्या कमेंट करें और क्या शब्दकोष देखें. वैसे आपके बाउ की तरह एक रीयल पात्र थे हमारे दादाजी के भाई तंदुरुस्ती गुरू, प्रेमचंद की कहानी के रीयल पात्र. साढ़े छह फुट के तंदुरुस्ती गुरू के किस्से कम रोचक नही हैं. जल्द लिखता हूं.

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