मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

सिपाही मेरे

सिपाही मेरे !  तुम  हो फ्रंट पर
तो रंग है, फागुन है, सावन है।
बर्फीला मौसम लगातार वहाँ
यहाँ विविधता मनभावन है।

याद आते होंगे इस समय
सरसो और टेसू के फूल
किसी के जूड़े में सजे बेला फूल
खीझ आती जो होगी
बहलाती होगी कठिन नौकरी।
क्या उठती होगी उमंग सीने में
हिमाच्छादित शैल शृंगों को देख?
देश के भीतर फैला कुकुर झौंझ
 रेडियो पर सुन तुम खौलते होगे
अकेले में चट्टान पर पैर मार
ब्लडी ईडियट्स कहते होगे।
फिर याद आते होंगे जूड़े के फूल
अकेले में  कोई खिलखिल सुनते होगे !
अनजान भाव - सीना तन जाता होगा।

ऐसे में कल परवाना आया था -
छुट्टी की मंजूरी का
तुमने अकेले में ही बूट खटकाया था,
कैम्प में लौट जश्न मनाया था ।
तुम्हारी बूटों का यूँ खटकना,
वज्र हृदय हिमवान को न भाया था।
रौद्र रूप दिखा हिमस्खलन हुआ
दब गए तुम अनजान भाव संग
अपने जैसे कितने साथियों संग।  
सरसो टेसू फूल
खिलखिल  बेला फूल
फागुन उमंग
बह गए सब आँसू संग ।
रंग उतरा किसी की माँग सूनी कर ।
मैं इन पंक्तियों को लिख
श्रद्धांजलि की खानापूरी कर
खो गया फागुन की तुकबन्दियों में ।
..
सिपाही मेरे !  तुम थे फ्रंट पर... 
रंग है, सावन है, फागुन है।

19 टिप्‍पणियां:

  1. राव साहेब !
    पहली बार लगा कि आपकी नेत्र-रेटीना पर दायित्वपूर्ण बिम्ब
    चढ़ रहा है ... फागुन में ... आभार ...
    कवि परकाया प्रवेश भी करता है , यही वजह है कि लखनऊ
    में बैठे आप हिमवान की आँख में आँख डाल कर
    बात कर रहे हैं ..
    राजरिशी जी की पिछली पोस्ट को जैसे आपने कविता में ढाल दी !
    विरोधात्मक स्थितियों में कविता के वर्ण्य की सघनता और भी
    अभ्रभेदी हो जाती है ..
    सुन्दर कविता ............... आभार ,,,

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  2. बहुत सुंदर रचना.....

    जोगीरा सा रा रा रा रा रा रा रा रा रा ......... (पता नहीं क्यूँ आदत हो गई है...फगुनिया गए हैं हम.....)

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  3. आज किन्ही लोगों ने मेरा मंगलवार का ब्लॉग व्रत तुडवा दिया ,इसकी दोषी यह रचना भी है .
    और सब तो ठीक है महफूज भायी महफूज नहीं रह पायेगें -हम तो तजुर्बे से भी काम चला लेगें
    दया प्रभु दया !

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  4. ओह यहऊपर की टिप्पणी उस वाली पोस्ट पर करनी थी
    मेरा भी नमन बीर बाकुरों को -बहुत ह्रदय विदारक

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  5. हाँ, बस यहीं बिछ जाता हूँ मैं आपकी लेखनी पर ।
    फागुन का मतवारा ऐसे ही अचानक थथम कर ऐसा लिखने लगता है, नहीं देखा !

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  6. कश्मीर में हिमस्खलन से प्राण गँवाना....
    हृदयविदारक....जीवन कैसे बिना बात के गुम जाते हैं... क्या कहें.....
    आपकी यह श्रधांजलि उन्हीं जवानों के लिए हैं...
    फागुन को चोट लगी हैं... अब का फगुनाएं...!!
    दिवंगत आत्माओं को हमारी भी भाव-भीनी श्रधांजलि..!!

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  7. हम माफ़ी चाहता हूँ..... पहिले हम इस पोस्ट को समझ नहीं पाए थे....वीर-बांकूरों को मेरा नमन.....

    एक बार फिर... माफ़ी चाहते हैं.....

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  8. ओह्ह..इस कविता का ऐसा अंत था??....ये सब देख सुन तो सच...एक बार दिल सहम जाता है..कैसी होली और कैसा फाग....उनके नन्हे बच्चे तो नहीं समझेंगे ना,.ईश्वर की यह क्रूरता....वैसी ही जिद मचाएंगे त्यौहार मनाने की...और परिवारजन असहाय सा देखते रह जायेंगे ...द्रवित कर दिया मन.

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  9. कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है।

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  10. बहुत ह्रदय-विदारक घटना।
    इन सरहद के रखवालों को कितने मोर्चों पर युद्धरत होना पडता है, विनम्र श्रद्धांजलि।

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  11. ले० प्रतीक भी था उनमें। मेरा प्रशिक्षु कैडेट....।

    क्या कहूँ? कई दिनों से रास्ता भूला हुआ था अपने प्यारे ब्लौगर का और आज आया भी तो....

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  12. sach much yah kavita dil ke dard ko uker gahraiyon me utarjati hai...........Aabhar!!
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/

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  13. फाग तो ये सैनिक खेलते हैं अपने खून से ताकि आम लोग खेल सके रंगों से ....
    बहुत हृदयविदारक घटना ...हम कायर नमन और श्रद्धांजलि के अतिरिक्त क्या कर सकते हैं ....

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  14. मुझे तो इटावा के पास ठेठ देहात में कोहरे में मुस्तैद गेटमैन याद आता है। कोहरे की रात में भी सजग।
    डकैत इलाका है। आसपास रात बिरात उसी लेवल क्रॉसिंग गेट के पास कई मर्डर हो चुके हैं।
    यह गेट मैन भी दो तीन बार लुट चुका है। ऐसे मनई की कर्तव्यनिष्ठा सामने नहीं आ पाती! :-(

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  15. गिरिजेश जी ,
    हाल ही में जब ये खबर सुनी देखी कि सैनिक बर्फ़ के तूफ़ान में दब कर शहीद हो गए तो सच कहूं तो प्रकृति से भी कुछ क्रोध सा हो आया , यदि उन्हें शहादत ही आनी थी तो जमींदोज़ करने से बेहतर उन्हें सीने पर तोप के गोले खाने का अवसर तो आने देती । ये प्रकृति भी मुईं ..निर्बुद्धि हुई जाती है । अबके फ़ाग में उन सबके घर आग जलेगी .....

    अजय कुमार झा

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