रविवार, 28 मार्च 2010

एक आलसी लेख

 



4 टिप्‍पणियां:

  1. यह आलस्य बड़ा मौलिक और उपयोगी है ! आभार !

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  2. यह पोस्ट आलस्य से भरा जरूर है , किन्तु इसके पीछे की मेहनत परिलक्षित होरही है जिसे देखने के लिए मन की आँखें चाहिए , बधाईयाँ इस जानकारीपूर्ण आलेख के लिए .
    वैसे राव साहब,टिपण्णी देने में आलसी मैं भी हूँ इसीलिए वर्ष में एक बार जागता हूँ और सबके लिए टिपण्णी एक जगह पर छोड़ देता हूँ .

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  3. मैं भी आलस बरत रह हूँ एक लिंक पढ़ा और यह कमेन्ट किया -
    सिद्धानततःऐब असहज से सहमत -शायद इसलिए रामराज्य में पत्नी का छोड़ देना तो फिर भी कबूल है मगर दूसरी शादी नहीं -क्योंकि तब यह एक अंतहीन सिलसिला हो जाएगा -पुरुष का नैसर्गिक लक्ष्य ही है गर्भादान और औरतों का ऐसे वैसे अगम्भीर गर्भाधानों से बचना -तब भी फंस ही जाती है बेचारी -पाखंडियों से ! विवाह -संस्था कम से कम लोकलाज और सामाजिक दबाव से पुरुष को उसकी जिम्मेदारियों से तो भागने नही देता -भले ही वह जीवन भर कुढ़ता रहे की कौन सी बला उसके गले लटक गयी है -मुझे तो लगता है मनुष्य मूलतः बहु स्त्री गामी ही है -हाँ संस्कृति ने देर से उसे एकपत्नी निष्ठ होने का पाठ पढाया है -नारी मुक्ति के तथाकथित अन्दोल्नों से दरअसल पुरुष मुक्त होगा नारी नहीं -तलाक बढ़ेगें और नारी अपनी विवशता पर जार जार रोयेगी !

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