शनिवार, 27 नवंबर 2010

ज्ञान साधना में पायरिया और खजुहट - सब लगने का खेल

एक महात्मा थे। साधना में एक ऐसा दौर आया कि दातून करना, नहाना सब छोड़ दिए क्यों कि उन्हें लगा कि इनसे जीवहत्या होती है।

जब पायरिया और खजुहट से त्रस्त हुए कुछ समय बीत गया तो एक दिन लगा कि दातून और नहाना छोड़ने से भी एक जीव को कष्ट हो रहा है, शायद मृत्यु भी हो जाय। खजुहट से कुत्ते मरते भी देखे थे और देह, मुँह से आती दुर्गन्ध से  भक्त जनों के कष्ट भी। 
ज्ञान अनुसन्धान की आगे की यात्रा उन्हों ने दातून और स्नान के बाद प्रारम्भ की लेकिन जीवन भर खजुआते रहे और बात करते गन्धाते रहे...

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पुरानी बोधकथाएँ:
(1) एक ज़ेन कथा
(2) एक देहाती बोध कथा
(3) एक ठो कुत्ता रहा
(4) गेट

रविवार, 21 नवंबर 2010

रमेश उवाच - 1

रमेश जी मेरे मित्र हैं। वह फाइनेंस स्ट्रीम में हैं और ग़जब के ज़िन्दादिल! उनसे मिलने के बाद यह पूर्वग्रह टूट गया कि फाइनेंस की पढ़ाई के बाद मनुष्य़ नीरस हो जाता है। जो फोटो लगाया है उसमें वह अपने सुपुत्र के जन्मदिन पर जादू के ट्रिक दिखा रहे हैं।
वैसे अभी ऐसा मनुष्य़ मानव संसाधन (एच आर) विभाग में मिलना शेष है जिससे यह साबित हो सके कि मानव संसाधन वालों में 'मानव' भी होता है। :)
खैर! आते हैं मेन बात पर। रमेश जी समय समय पर कुछ कुछ भेजते रहते हैं। जरूरी नहीं कि उनका ही लिखा हो लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि साझा करते हैं। जो ताजी खेप आई है उसे आप से शेयर कर रहा हूँ। अनुवाद स्वयं किया है।
ramesh

'U adore someone;
U marry someone else.
The one u marry
becomes ur wife or husband
And the one u adored sometimes
becomes the password of ur email id!'
प्यार किसी से और शादी किसी और से।
जिससे शादी वह पति या पत्नी।
जिससे कभी प्यार किया था, वह ई मेल का पासवर्ड।
There's only one perfect child in the world & every mother has it.
There's only one perfect wife in the world & every neighbour has it.
संसार में एक ही परफेक्ट बच्चा होता है और वह हर माँ के पास होता है। परफेक्ट पत्नी भी एक ही होती है जो हर पड़ोसी के पास होती है।
Husband & wife are like liver and kidney. Husband is the liver & wife the kidney.
If the liver fails, the kidney fails. If the kidney fails, the liver manages with other kidney.
पति-पत्नी - लीवर और किडनी जैसे होते हैं। पति - लीवर और पत्नी - किडनी।
अगर लीवर फेल होता है तो किडनी फेल हो जाती है। अगर किडनी फेल होती है तो लीवर दूसरी किडनी से काम चला लेता है।
Generation Next Motto: Na hum shaadi karenge, na apne bachchon ko karne denge.
अगली पीढ़ी का आदर्श वाक्य: न हम शादी करेंगे और न अपने बच्चों को करने देंगे। 
What's the diff between Dava & Daru?
Dava is like a girlfriend, that comes with an expiry date and
Daru is like a wife, Jitni purani hogi utna sir chad ke bolegi.
दवा और दारू में क्या अंतर है?
दवा गर्लफ्रेंड की तरह होती है जिसकी एक 'एक्सपायरी डेट' होती है।
दारू पत्नी की तरह होती है, जितनी पुरानी होगी उतना सिर चढ़ कर बोलेगी।
The Japanese have allegedly produced a camera that has such a fast shutter speed,
it can take a picture of a woman with her mouth shut!
सुनने में आया है कि जापानियों ने एक इतनी फास्ट शटर स्पीड वाला कैमरा बनाया है कि उससे किसी औरत का फोटो तब लिया जा सकता है जब उसका मुँह बन्द हो।
Three dreams of a man:
To be as handsome as his mother thinks.
To be as rich as his child believes.
To have as many women as his wife suspects...
पुरुष के तीन स्वप्न:
उतना हैंडसम होना जितना उसकी माँ सोचती है।
उतना धनी होना जितना उसका बच्चा समझता है।
उतनी औरतों से सम्बन्ध होना जितना उसकी पत्नी शक करती है ...

रविवार, 14 नवंबर 2010

लेंठड़े का मीडिया रूम में तमाशा

पुरानी कड़ियाँ 
केंकड़ा : लंठ महाचर्चा,  · हवा, बड़ा और लेंठड़ा -1: लण्ठ महाचर्चा, · लेंठड़े का भोर का सपना : लण्ठ महाचर्चा, · लंठ महाचर्चा: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम ..., · दूसरा भाग: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से ..., · तीसरा भाग पूर्वार्द्ध : अलविदा शब्द, साहित्य और ब्...तीसरा भाग ,उत्तरार्द्ध: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्...
पिछले भाग से आगे ...
काल, स्थान और विचार की सीमाओं से मुक्त लेंठड़े को यह स्थिति मनोरंजक लगी। जिस उन्नत सभ्यता से वह आया था, उसकी एक छटा मनुष्यों को दिखाने का इतना अच्छा अवसर जाने कब मिले! उसे लग गया था कि इस सम्मोहक वातावरण में गड़बड़ है, बहुत गड़बड़। खिलन्दड़ तो वह था ही।
तीखे प्रकाश और कैमरों की निगरानी में रहते हुए भी उसने काल के एक और आयाम में प्रवेश किया। जाने कितनी काँच की दीवारों के पीछे से चुपचाप तमाशा देखती मीडियाकर्मी तक उसकी सम्मोहक दृष्टि पहुँची। स्तब्ध सी उस महिला ने जो देखा वह दूसरे किसी ने नहीं देखा। समय के आयाम इतने मायावी भी हो सकते हैं? सुनिए उसी की जुबानी...
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...रंग-बिरंगे स्टुडियो में रंग-बिरंगे चार्ट और ग्राफ सज गए। बत्तियां जगमगा उठीं, टेलीप्रॉम्पटर ऑन कर दिया और बढ़िया सूट-बूट में सजे एंकर ने भारी-भरकम शब्दों में लेंठड़े का परिचय कराया। पॉल द ऑक्टोपस का हिंदुस्तानी रूप – क्रैपी क्रैब। स्टूडियो में सवाल लोकतंत्र में किसी राजा की कुर्सी से जुड़ा हुआ था...
... भूत का एक और समय साथ साथ जिसका किसी को आभास तक नहीं। उसी स्थान का एक और आयाम जब कोई ग्लैमर नहीं, कोई चकाचौंध नहीं।लेंठड़ा ‘एक दिन पहले में’ पहुँचा है...
न्यूज़-रूम की चमकती रौशनी थोड़ी फीकी पड़ी है। आधे टीवी स्क्रीन बंद हैं, थोड़े बेमतलब के दौड़ते-भागते दृश्य दिखा रहे हैं। आधी रात के बाद यहां कोई नहीं होता, होते हैं तो वो जिन्हें नाइट ड्यूटी की सज़ा मिली होती है। या फिर वो, जो अपने-आप पर ये सज़ा थोप लिया करते हैं। सज़ायाफ्ता ऐसी ही एक शख्स कोने में नज़र आती है केंकड़े को। हाथ में कॉफी का मग, नींद और थकान से बोझिल पलकें सामने के कंप्यूटर स्क्रीन पर गड़ी हुईं। चेहरे पर पुराने पड़ चुके मेकअप की लकीरें, फीकी-सी लिपस्टिक, धुंधला पड़ा काजल...
"हे सुंदरी! कौन हो तुम और रात्रि के इस प्रहर यहां तुम्हारे होने का क्या अभिप्राय?"
"चकाचौंध में मैं कैसे नज़र आऊंगी केंकड़ा महाराज? यहां हर शय मेरी तलाश के लिए, मेरा पीछा करने के लिए ही बनाई गई थी। मुझे सजा-संवारकर दुनिया से रूबरू करने के मकसद से शीशे की ये इमारत, करोड़ों की मशीनें, आधुनिक तकनीक... सब यहां लाई गई। लेकिन यहां मुझे ऐसे पेश किया गया कि अब मैं खुद को आईने में नहीं पहचान पाती।"
लेंठड़ा पूछ पड़ा है,"मैं कुछ मदद कर सकता हूं?"
"मदद? हां, तुम्हें भी तो मुझे एक नया रूप देने के लिए बुलाया गया है। नहीं, घसीट लाया गया है। हैरान न हो। मैं वही ख़बर हूं, वही समाचार, जिसे सच्चे रूप में दिखाने का दावा मीडिया करता है।
...समझाती हूं। मैं कौन हूं? सम-आचार। ख़बर... मेरा असली रूप क्या है? सही सूचना... मुझे कहां तलाशना चाहिए? उन सूचनाओं में जिनका दर्शकों से, आम जनता से सरोकार है... मेरा असली वजूद, मेरी असली पहचान क्या होनी चाहिए? उस मज़बूत नींव के तौर पर जिसपर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आश्रित है... मेरा ध्येय क्या हो? सच को सामने लाना, जनता पर, लोकतंत्र पर, सरकार पर अपना प्रभाव छोड़ना... लेकिन मेरा असली रूप क्या हो गया है, देखा है?
...मेरी दास्तान इतनी सी नहीं है। मैं कभी किसी के कुत्ते के नाम के रूप में परोसी जाती हूं कभी किसी भूत-प्रेत, आत्मा-परमात्मा के साथ दर्शकों पर थोप दी जाती हूं। मेरा वजूद ये नहीं। जहां मैं हूं, जहां मुझे होना चाहिए, जहां से मुझे निकालकर सभ्य रूप में सभ्य समाज के समक्ष पेश किया जाना चाहिए, वहां मुझे कोई नहीं ढूंढता। मेरा इतना गलीज, इतना गिरा हुआ रूप पेश किया जाता है कि मुझे खुद से घिन आती है। और क्यों ना हो? मेरे इस रूप का किसी पर क्या असर पड़ना है? धार और गांभीर्य कायम रहता तो मैं भी लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभा पाती। लेकिन इस छद्म रूप में खुद को किसी तरह जीवित रख सकती हूं बस।“...
लेंठड़े ने अपना रुमाल निकाला है। आँसू सुखाते हुए बोल पड़ा है,”...तुम्हारा क्षोभ जायज़ है। एक तरह से ज़रूरी भी। अपूर्णता का अहसास तुम्हें अपनी परिस्थितियों से जूझने को कोई बेहतर रास्ता निकालने की वजह देगा।“...
वर्तमान। पुस्तकालय से आती जाने कितनी हवाई धारायें लेंठड़े के शरीर में घुसने लगीं। शब्द, व्याकरण, जाने कितनी भाषाओं में ज्ञानियों की बातें, कितनी लिपियाँ! नागरी, मलयालम, अरबी, कन्नड़, रोमन ....उसके पन्जे जैसे रिसेप्टर हों। वह कैमरे पर लाइव था, यहां उसे कोई नहीं रोक सकता था। सच बोलने से, ख़तरों से खेलने से घबराया होता तो केंकड़ा लेंठड़ा ना बना होता। लेंठड़े ने बोलना शुरू किया, “यहां तो एक से एक महारथी हैं भविष्यवाणियां करनेवाले। शनि बाबा हैं, तीन देवियां हैं जो शीशे की एक गेंद सामने रख एक नई तरह की फंतासी दुनिया का सम्मोहन जाल रचती हैं। इनका जादू उतरे तो यहां मौजूद पत्रकार और बुद्धिजीवी विचारों के दोहन के नाम पर अपने निष्कर्ष और पूर्वाग्रह दर्शकों पर थोपते हैं।
...कभी इस चार्ट पर, कभी उस ग्राफ पर। चार्टों और ग्राफों का क्या है? वे तो ना बदलेंगे, नाम अवश्य बदल जाएंगे। सो कल एक चव्हान रहे होंगे, आज दूसरे हैं। कुर्सी के नीचे के खेल कहां बदलेंगे?”
केंकड़े की इस भूमिका ने स्टूडियो के बाहर-भीतर सबको बेचैन कर दिया। एंकर खिसियानी-सी हंसी हंस रहा था, संपादक जी शीशे के केबिन से बाहर निकलकर चीख रहे थे। “गेट दिस क्रैपी थिंग ऑफ कैमरा। व्हाट द हेल इज़ ही अपटू?” लेंठड़े को पकड़कर न्यूज़ रूम लाने वाला पत्रकार दौड़ता हुआ आया, “सर, रूक जाइए सर। चलने दीजिए सर चलने दीजिए। टीआरपी सर टीआरपी। टॉकिंग केंकड़ा टीआरपी लाएगा। देखिए तो कि आगे बोलता क्या है?”
टी आर पी सुनते ही लेंठड़े ने जो अट्टहास किया, वह मुझे नहीं भूलता। एकाएक ही उसकी सारी देह में जाने कितने मुँह निकल आए। हर मुँह से अलग अलग भाषाएँ। लेकिन बात एक ही।
“मनुष्य की याददाश्त इतनी कमज़ोर क्यों होती है? या यह सेलेक्टिव शॉर्टटर्म मेमोरी जानबूझकर स्वयं पर ओढ़ा हुआ आवरण होता है, ताकि खुद को अप्रिय परिस्थितियों से बचाया जा सके? प्रतिक्रिया ना करना, आराम से भूल जाना, शुतुरमुर्ग-सा सिर मिट्टी में छुपा लेना... ये क्या करते हैं मनुष्य?”
न्यूज़ रूम में अफरा तफरी मच गई – हिन्दी, मराठी, उर्दू, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी ... सारे चैनल यही प्रोग्राम दिखा रहे हैं। एक ही बात - बस भाषाएँ अलग अलग हैं। बन्द करो इसे!
...मुस्कुराते हुए लेंठड़े ने पंजे खटकाए और सब कुछ फ्रीज़ हो गया। न लाइट बन्द हो सकती थी,न कैमरा और न प्रसारण। सब कुछ स्वचालित!
...भाँड़ में गई तुम्हारी टी आर पी। जब सब चैनल एक ही प्रोग्राम दिखाएँगे तो टी आर पी वापस प्राइमर की किताबों में होगी। चुपचाप देखो मेरी लंठई और सोचो प्यारों!
न्यूज़-रूम की चमकती रौशनी थोड़ी फीकी पड़ गई। स्टूडियो और पीसीआर में सब सांसें रोके गिरनेवाली अगली गाज का इंतज़ार कर रहे थे। अजीब स्थिति थी। लेंठड़े का प्रोग्राम कोई रोकने की स्थिति में नहीं था लेकिन बाकी सब काम यथावत किए जा सकते थे। सभी लाइनों पर लगातार फोन आने लगे थे और फीडबैक के नाम पर एसएमएस। कोई लेंठड़े को गालियां दे रहा था तो कोई इसे मीडिया की नई तिकड़म बता रहा था।
... लेंठड़ा लाइव जारी रहा।
"... शीशे की ये इमारत, करोड़ों की मशीनें, आधुनिक तकनीक... इन सबके बीच ख़बर या समाचार कहां है? सम-आचार। सही सूचना... वे सूचनाएं कहां हैं जिनका दर्शकों से, आम जनता से सरोकार है... मीडिया का ध्येय क्या होना चाहिए? उस मज़बूत नींव के तौर पर जिसपर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आश्रित है... उसका ध्येय सच को सामने लाना है। जनता पर, लोकतंत्र पर, सरकार पर अपना प्रभाव छोड़ना है। लेकिन यहां तो अब ख़बर भी पेड होने लगी है – पेड न्यूज़।
कभी किसी के कुत्ते के नाम पर ख़बर परोसी जाती है, कभी किसी भूत-प्रेत, आत्मा-परमात्मा के साथ दर्शकों पर थोप दी जाती है। ख़बर का रूप नेताओं के आपसी समीकरण, उनकी निजी सनक तय करती है... पत्रकारों की कच्ची-पक्की समझ तय करती है।
लेकिन उम्मीद की कोई किरण तो होगी। मीडिया ख़बर को ऐसे घुटते हुए कितने दिनों तक देखेगा? आख़िर मीडिया का पूरा वजूद भी तो ख़बर के दम पर है।
मीडिया में वाकई ताकत है, सोए हुओं को जगाने की उम्मीद भी। कितनी ही बार मीडिया ने सरकारों की नींद उड़ाई है, उन्हें सचेत रखा है, उन्हें आईना दिखाया है। मीडिया एक व्यवसाय सही, लेकिन ख़बर अपने सच्चे रूप में असर डालती है। मीडिया भले ये दंभ पाल ले कि समाज के "मूवर्स एंड शेकर्स" की कमान उसके हाथ में है, भले इस भुलावे में रहे कि लोगों के विचारों पर उसका गहरा प्रभाव है, लेकिन ख़बर के बिना मीडिया का कोई वजूद नहीं। ख़बर की गहराई और सचाई में ही मीडिया की समृद्धि छुपी है। यह दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है और वक्त पर पहुंचनेवाली लगातार सूचनाओं का स्थान अपरिहार्य है। यहां राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव से अनभिज्ञ रहना आत्मघाती साबित हो सकता है। मीडिया ही यह तय करने में मदद करती है कि सत्य क्या है, असत्य क्या... क्या हकीकत है और क्या महज़ कल्पना... क्या बेहद ज़रूरी है और क्या बेहद गैर-ज़रूरी। लोगों की मानसिकता बदलने के लिए मीडिया से बड़ी शक्ति नहीं हो सकती। देश की दशा दिखाते हुए नया दिशा-निर्धारण करने का दारोमदार मीडिया के हाथों है। यदि किसी बड़ी बेरहम ताकत की जीत होती है तो वह इसलिए कि उस ताकत को स्वीकार करने की एक मनोवृत्ति तैयार की गई है।“
"सत्तासीन लोगों को हमेशा से अहसास रहा है कि आम जनता को अपने नियंत्रण में रखना है तो ख़बर पर भी नियंत्रण रखना होगा। जिन हाथों में सबसे पहले समाचार और विचार पहुंचते हैं उनके पास एक राजनीतिक ताकत होती है - ताकत ये तय करने की कि क्या बताना है और क्या छिपाना है, समाचार के किन पहलुओं की घोषणा करनी है और किनकी नहीं, सही अवसर आने तक किन तथ्यों को दबाए रखना है और जो सूचना सामने लाई जानी है उसकी व्याख्या भी पहले से वही तय करते हैं। तुम्हारा तंत्र तो ‘लोकतंत्र’ कहलाता है न? खुद को लोकतंत्र के पैरोकार बताने का दावा करनेवाले नेता भी राजाओं से कम नहीं हैं। वे सूचनाओं पर ठीक उसी तरह का नियंत्रण चाहते हैं जैसा राजाओं का उनकी सेनाओं पर होता है। इसलिए कम-से-कम लोकतंत्र में तो किसी भी राजा को लोकतंत्र से, लोकतंत्र के स्तंभों से खिलवाड़ करने की इजाज़त न दी जाए।"
इतना कहकर लेंठड़ा अपने पंजे कड़कड़ाते हुए बाहर को चल पड़ा। न्यूज़ रूम में हाहाकार मच गया – उसे और बोलने दो। उसे वापस बुलाओ। लेंठड़े ने राह से ही आवाज़ दी – कथनी नहीं करनी महत्त्वपूर्ण हैं। तुम लोग समर्थ हो। मुझे बस तुम्हें झकझोरना था। मैट्रिक्स फिल्म तो तुम सबने देखी होगी – सँभल जाओ, वैसा वक़्त बहुत दूर नहीं है।
...मैंने लेंठड़े को उस सुन्दरी के पास फिर से देखा है। सुन्दरी ने अपना मुँह धुल दिया है।
रात ढल चुकी है। पुस्तकालय में सनातन प्रकाश पसरा हुआ है। एकांत टेबल पर लेंठड़ा पढ़ रहा है और सामने की दीवार पर सारी दुनिया से खबरें आ रही हैं, जा रही हैं। बैकग्राउंड में जाने कितने स्वर हैं ... I have a dream…we shall overcome… आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:। पुस्तक का जो पृष्ठ अभी लेंठड़े के सामने है, उस पर थीसिस, एंटीथिसिस और सिंथेसिस लिखे दिख रहे हैं।
anu
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बुधवार, 3 नवंबर 2010

लेंठड़ा द क्रैपी क्रैब : अनु-पम मीडिया रूम में...

पुरानी कड़ियाँ

  केंकड़ा : लंठ महाचर्चा,  · हवा, बड़ा और लेंठड़ा -1: लण्ठ महाचर्चा, · लेंठड़े का भोर का सपना : लण्ठ महाचर्चा, · लंठ महाचर्चा: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम ..., · दूसरा भाग: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से ..., · तीसरा भाग पूर्वार्द्ध : अलविदा शब्द, साहित्य और ब्...तीसरा भाग ,उत्तरार्द्ध: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्...

...पुस्तकालय के बाहर मज़मा लगा कर वैज्ञानिक को अपना लेक्चर पिलाते पिलाते लेंठड़ा सो गया। जब जागा तो क्या हुआ? 

सुतक्कड़ लेंठड़ा बड़ी लंबी निद्रा से जागा। इसे शीतस्वापन ना सही, ग्रीष्मस्वापन समझ लीजिए। मानव के अंतिम अभीष्ट की खोजपूर्ण यात्रा तो एक तिलस्मी यात्रा निकली। लेकिन इस विचित्र केंकड़े का स्वभाव उसे अपने ही सामने निरीह बना देता है। खुली हवा का आस्वाद ले लिया, तो फिर बर्तन में क्यों जाए? शब्द और साहित्य, विज्ञान और गणित के पन्ने तो उलटे जा चुके थे। लेकिन अब भी मानव सभ्यता के कई ऐसे पन्ने थे जो उलटे जाने थे! यहीं, इसी पुस्तकालय से यात्रा दुबारा प्रारंभ करनी था। हो भी क्यों ना! सच नहीं कि यहीं मानव अपनी मेधा को निखारने-संवारने का काम करता है?

...सर्वज्ञानी होते हुए भी उसे उत्कंठा सी होने लगी इतने महीनों में जाने क्या-क्या हो गया होगा इस नश्वर धरती पर! जाने कहां से मिलेंगे गुज़रे ज़माने की ख़बर, आनेवाली तारीख़ का पता, आज का ताज़ा समाचार। समाचार! सबकी ख़बर लेनी होगी। केंकड़ा बस्ती का आख़िर क्या हाल है? उस प्रेम-पत्र का हश्र क्या हुआ, जाने अवतार पूर्ण हुआ या नहीं? ...  
...पुस्तकालय में गहरा सन्नाटा था। पुस्तकों के पन्ने पलटते तो किसी की उपस्थिति का आभास होता। लेकिन कोने में बैठा एक मनुष्य परेशान-सा दिखा। बार-बार अपने मोबाइल को बाहर निकालता, जैसे किसी अत्यंत आवश्यक संदेश की प्रतीक्षा में हो। टांग अड़ाने की आदत से लाचार लेंठड़ा आख़िर उस मनुष्य के पास जा ही धमका। "चिंतित हो भाई? मैं सहायता कर सकता हूं क्या?"
मनुष्य ने लेंठड़े को ऐसी हिकारत भरी निगाहों से देखा कि लेंठड़ा बिचारा अपने ही पंजों में सिमट गया। "सहायता? कहो तो मैं तुम्हारी कुछ मदद करूं। आख़िर हो किस खेत की मूली तुम?" लेंठड़ा सोचता रहा, गुज़रे महीनों में वाकई मानव सभ्यता बहुत बदल गई है शायद। कहां तो सत्य के दर्शन कराता वैज्ञानिक, कहां शब्दों के संसार सजाता साहित्यकार, कहां निराकार और अमूर्त की बात करनेवाला गणितज्ञ! ये कैसा अहंकारी मानव है रे!
"अच्छा, तो तुम्हीं वो केंकड़े हो जो यहां-वहां कोने में घुसकर ज्ञान बघार रहा है। तुम्हें ढूंढने ही तो भेजा गया है मुझे। पत्रकार हूं मैं लेंठड़ा बाबा, और आज के दिन आप हमारे चैनल पर विशिष्ट अतिथि होंगे।" अचानक पत्रकार की बोली में शहद कैसे घुल गया? 'तुम' से 'आप' पर उतरने में तनिक भी देर नहीं लगी!
लेंठड़ा घबराकर दो कदम पीछे हटा ही था कि पत्रकार ने सीधे उसपर हमला कर दिया, उसके पंजों की परवाह किए बगैर! एक हाथ में कसमसाता लेंठड़ा और दूसरे में मोबाइल फोन। "मिल गया बॉस वो ज्ञानी लेंठड़ा। हां, हां। ब्रेकिंग न्यूज़ चला दीजिए अभी के अभी। आज प्राइमटाइम में हम अपने चैनल पर इंट्रॉड्यूस करेंगे इसे। हां, प्रोमो भी चलवा दीजिएगा सर।"
बर्तन से निकलकर दुनिया देखने के लिए केंकड़ा निकल भागा था लेंठड़ा, पर आज उसे वापस बर्तन में डाल दिया गया। पूरी दुनिया को दिखाने के लिए। कैसी विडंबना है! शुक्र है कि बर्तन शीशे का था। चिकना सही, लेकिन लेंठड़े को वहां से बाहर की दुनिया तो दिखाई देती थी!
लेंठड़े को न्यूज़रूम पहुंचा दिया गया। राजनीति के खेल, खेल की राजनीति, पर्दे के पीछे का सच, सच पर डाला गया पर्दा... न्यूज़ रूम के ठीक बीचों-बीच कांच की मोटी तह के पीछे संपादक बैठा था। कांच के आर-पार सब दिखता था, मोटी चमड़ी के आर-पार शायद ही कुछ गुज़रता हो। इस कमरे में मौजूद हर बंदे की सांसों पर हर हफ्ते आनेवाली टीआरपी (टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट) का पहरा था। टीआरपी ऊपर, सांसों की जुंबिश में राहत। टीआरपी नीचे तो सांस चलना-ना चलना बराबर। किसी ने कहा कि यही टीआरपी चैनल पर विज्ञापन लेकर आती है, विज्ञापन माने महीने के आख़िर में चैनल के मुलाज़िमों की जेब में तनख़्वाह।
न्यूज़रूम में कोने-कोने से ख़बरें ही ख़बरें बीम हो रही थीं। कितने तो टीवी स्क्रीन थे। छप्पन के बाद गिनना छोड़ दिया था उसने। देश-विदेश के चैनलों से प्रेरणा ली जा रही थी - देसी चैनलों से ब्रेकिंग न्यूज़ की। विदेशी चैनलों से सेट डिज़ाईन, प्रोडक्शन, प्रोमो और कई बार तो पूरे के पूरे कॉन्सेप्ट की। वैसे टीआरपी के लिहाज़ से जो चैनल नंबर वन है, वही प्रेरणा-स्रोत है फिलहाल।
चैनल पर कोई बड़ी ख़बर चल रही थी। सुर्ख़ लाल रंग से लिखा हुआ ब्रेकिंग न्यूज़। अरे! ये तो ओसामा के मरने की ख़बर है। चैनल के पास पुख़्ता ख़बर है - "ओसामा मारा गया"। साढ़े तीन मिनट तक लेंठड़ा ये तीन शब्द स्क्रीन पर आते-जाते देखता रहा। अंतरराष्ट्रीय अहमियत वाली इस ख़बर के बारे में वो और जानना ही चाहता था कि अगला ग्राफिक्स आया - "ओसामा मारा गया। हाथी ओसामा मारा गया।" जब युधिष्ठिर ने कुरुक्षेत्र में जीतने के लिए झूठ का सहारा लिया तो टीआरपी के इस रणक्षेत्र में चैनलों ने झूठा-सा सच बोलकर क्या गुनाह कर डाला? टीआरपी की इस जंग में सब जायज़ है।
जंग के सिपाहसलार अपने-अपने मोर्चे पर तैनात दिखे। रिपोर्टर ख़बरें जुटाने में, लेकिन उससे ज्यादा तीस सेकेंड का एयरटाईम जुटाने में। ख़बर जितनी बड़ी एयरटाइम उतना बड़ा। फील्ड में जाकर रिपोर्टिंग करने से अच्छा है छत पर से खड़े होकर एयरटाइम हासिल करना। उसे न्यूज़रूम तक पहुंचाने वाला पत्रकार भी लेंठड़ा बाबा से रूबरू होने के अपने अनुभव पूरे देश से बांटने के लिए छत पर आउटसाइड ब्रॉडकास्टिंग के लिए तैनात था। 
लेंठड़ा के बारे में किसिम-किसिम की बातें न्यूज़रूम के आउटपुट डेस्क पर रची जा रही थीं। उपमा में माहिर आउटपुट एडिटर ने इन्फोर्मेशन सुपर लिखा - लालबुझक्कड़ लेंठड़ा हमारे स्टूडियो में। अतिशयोक्ति के दिग्गज एडिटर ने लिखा - "पाताल से ढूंढ लाए आपके लिए ख़ास, पॉल ऑक्टोपस का हिंदुस्तानी जवाब। केंकड़ा जो प्रवचन देता है, गणित, विज्ञान, साहित्य पढ़ाता है!" अनुप्रास एडिटर ने तो लेंठड़े को नया नाम दे डाला और लिखा - क्रैपी क्रैब के क्या कहने।
कोने में बैठी सुंदर कन्या को तो लेंठड़ा पहचानता था। इस बर्तन से निकलने में शायद वोही मदद करे! केंकड़ा बस्ती के पब्लिक टीवी पर इसके आते ही कितनी बार सीटी-ताली मारते केंकड़ों को झिड़का उसने। लेकिन यहां तो इनके और ही नखरे थे। आउटपुट एडिटर इनको कुछ लिख-लिखकर दे रहे थे और ये बांचने की तैयारी कर रही थीं। "प्रतिशोध? आई डोन्ट लाइक दैट वर्ड। "बदला" में बदलें इसको? इज़ी रहेगा। और ये टंगट्विस्टर क्या है? बरलहाल? बहरबाल? बहरहाल? ओह प्लीज़। लेट्स कीप इट सिंपल। हम यहां लिंग्विस्टिक्स एक्रैबैटिक्स के लिए नहीं आए हैं सर।" "अंग्रेज़ी बोले तो टंगट्विस्टर नहीं। हिंदी में सब कठिन?"
पीसीआर में एक प्रोड्यूसर लगातार फोन ...आउटपुट एडिटर से बात। "गेट दैट स्पेलिंग करेक्ट सर जी। पैरिस है, पेरिस नहीं।" ..."हिंदी में पेरिस ही लिखते हैं।" "नॉनसेन्स। पी-ए-आर-आई-एस। क्या हुआ - पैरिस? पेरिस के लिए अंग्रेज़ी पी-ई-आर-आई-एस होती ना?" आउटपुट एडिटर के भीतर का साहित्यकार - रूदन। झल्लाहट में फोन बंद!

लेंठड़ा का मन ज़ार-ज़ार रो उठा। कहाँ तो लेंठड़ा ज्ञानवर्द्धन के लिए यहाँ पहुंचा था, कहाँ और दिग्भ्रमित हो गया। ये कैसी विचित्र दुनिया है! कहाँ तो गणितज्ञ को प्रवचन दिया था, कहाँ यहाँ प्रहसन का पात्र बना बैठा! क्रैपी क्रैब के साथ स्पेशल बुलेटिन की तैयारी करते संपादक का तो कुछ और ही इरादा था। "क्रैपी क्रैब बिहार विधानसभा के नतीजों की भविष्यवाणी करेगा। आईपीएल, बीपीएल, आरपीएल, सबके नतीजे पहले से बताएगा। हमारी टीआरपी को सबसे ऊपर आने से कोई ऑक्टोपस नहीं रोक सकता अब।"
स्टूडियो तैयार था, एंकर भी। ब्रेकिंग न्यूज़ चल पड़ा था। क्रैपी क्रैब को लाइट और कैमरे के ठीक बीचों-बीच छोड़ दिया गया। शीशे के बर्तन से निकलने की नाकाम कोशिश करते-करते लेंठड़ा अपनी नियति के आगे हार मान चुका था। टॉप एंगल शॉट। लेंठड़े को स्टूडियो की टेबल पर डाल दिया गया है। पूरी मेज़ पर रंग-बिरंगे चार्ट और ग्राफ है। जिधर रेंग कर गया लेंठड़ा, उधर का समझो भारी पलड़ा। समझ में आई बात?


पुनश्च - यदि आपका अपना प्रिय लेंठड़ा कुछ दिनों तक ना लौटे तो उसे काम के बोझ का मारा समझ लीजिएगा। टीवी पर आकर क्रैपी क्रैब बन जाना, भविष्यवाणियां करना अब कोई बच्चों का खेल तो है नहीं...

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लेखिका: अनु सिंह चौधरी, ब्लॉग : मैं घुमंतू

anuसाहित्य की छात्रा रही, प्रशिक्षण पत्रकारिता का मिला। मुंबई में एक फिल्म प्रोडक्शन हाउस के साथ कैरियर शुरू किया, लेकिन वापस न्यूज़ चैनल पहुंच गई। घर-परिवार और चार साल के जुड़वां बच्चों को संभालने के अलावा कभी डॉक्युमेंट्री फिल्में बना लेती हूं, कभी स्क्रिप्ट लिख लेती हूं, कभी टीवी प्रोडक्शन पढ़ा लेती हूं। दोस्तों के साथ इस दुनिया में मिलने-बैठने का वक़्त ना मिले तो वेब दुनिया के ज़रिए दिल के तार जोड़ लेती हूं। फितरत से घूमन्तू हूं और सबसे बड़ी ख्वाहिश बच्चों के साथ अस्सी दिनों में दुनिया देखने की है। इसके अलावा कई छोटी-छोटी ख्वाहिशें हैं। लिखूंगी। उनपर भी लिखूंगी कभी।