रविवार, 14 नवंबर 2010

लेंठड़े का मीडिया रूम में तमाशा

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पिछले भाग से आगे ...
काल, स्थान और विचार की सीमाओं से मुक्त लेंठड़े को यह स्थिति मनोरंजक लगी। जिस उन्नत सभ्यता से वह आया था, उसकी एक छटा मनुष्यों को दिखाने का इतना अच्छा अवसर जाने कब मिले! उसे लग गया था कि इस सम्मोहक वातावरण में गड़बड़ है, बहुत गड़बड़। खिलन्दड़ तो वह था ही।
तीखे प्रकाश और कैमरों की निगरानी में रहते हुए भी उसने काल के एक और आयाम में प्रवेश किया। जाने कितनी काँच की दीवारों के पीछे से चुपचाप तमाशा देखती मीडियाकर्मी तक उसकी सम्मोहक दृष्टि पहुँची। स्तब्ध सी उस महिला ने जो देखा वह दूसरे किसी ने नहीं देखा। समय के आयाम इतने मायावी भी हो सकते हैं? सुनिए उसी की जुबानी...
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...रंग-बिरंगे स्टुडियो में रंग-बिरंगे चार्ट और ग्राफ सज गए। बत्तियां जगमगा उठीं, टेलीप्रॉम्पटर ऑन कर दिया और बढ़िया सूट-बूट में सजे एंकर ने भारी-भरकम शब्दों में लेंठड़े का परिचय कराया। पॉल द ऑक्टोपस का हिंदुस्तानी रूप – क्रैपी क्रैब। स्टूडियो में सवाल लोकतंत्र में किसी राजा की कुर्सी से जुड़ा हुआ था...
... भूत का एक और समय साथ साथ जिसका किसी को आभास तक नहीं। उसी स्थान का एक और आयाम जब कोई ग्लैमर नहीं, कोई चकाचौंध नहीं।लेंठड़ा ‘एक दिन पहले में’ पहुँचा है...
न्यूज़-रूम की चमकती रौशनी थोड़ी फीकी पड़ी है। आधे टीवी स्क्रीन बंद हैं, थोड़े बेमतलब के दौड़ते-भागते दृश्य दिखा रहे हैं। आधी रात के बाद यहां कोई नहीं होता, होते हैं तो वो जिन्हें नाइट ड्यूटी की सज़ा मिली होती है। या फिर वो, जो अपने-आप पर ये सज़ा थोप लिया करते हैं। सज़ायाफ्ता ऐसी ही एक शख्स कोने में नज़र आती है केंकड़े को। हाथ में कॉफी का मग, नींद और थकान से बोझिल पलकें सामने के कंप्यूटर स्क्रीन पर गड़ी हुईं। चेहरे पर पुराने पड़ चुके मेकअप की लकीरें, फीकी-सी लिपस्टिक, धुंधला पड़ा काजल...
"हे सुंदरी! कौन हो तुम और रात्रि के इस प्रहर यहां तुम्हारे होने का क्या अभिप्राय?"
"चकाचौंध में मैं कैसे नज़र आऊंगी केंकड़ा महाराज? यहां हर शय मेरी तलाश के लिए, मेरा पीछा करने के लिए ही बनाई गई थी। मुझे सजा-संवारकर दुनिया से रूबरू करने के मकसद से शीशे की ये इमारत, करोड़ों की मशीनें, आधुनिक तकनीक... सब यहां लाई गई। लेकिन यहां मुझे ऐसे पेश किया गया कि अब मैं खुद को आईने में नहीं पहचान पाती।"
लेंठड़ा पूछ पड़ा है,"मैं कुछ मदद कर सकता हूं?"
"मदद? हां, तुम्हें भी तो मुझे एक नया रूप देने के लिए बुलाया गया है। नहीं, घसीट लाया गया है। हैरान न हो। मैं वही ख़बर हूं, वही समाचार, जिसे सच्चे रूप में दिखाने का दावा मीडिया करता है।
...समझाती हूं। मैं कौन हूं? सम-आचार। ख़बर... मेरा असली रूप क्या है? सही सूचना... मुझे कहां तलाशना चाहिए? उन सूचनाओं में जिनका दर्शकों से, आम जनता से सरोकार है... मेरा असली वजूद, मेरी असली पहचान क्या होनी चाहिए? उस मज़बूत नींव के तौर पर जिसपर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आश्रित है... मेरा ध्येय क्या हो? सच को सामने लाना, जनता पर, लोकतंत्र पर, सरकार पर अपना प्रभाव छोड़ना... लेकिन मेरा असली रूप क्या हो गया है, देखा है?
...मेरी दास्तान इतनी सी नहीं है। मैं कभी किसी के कुत्ते के नाम के रूप में परोसी जाती हूं कभी किसी भूत-प्रेत, आत्मा-परमात्मा के साथ दर्शकों पर थोप दी जाती हूं। मेरा वजूद ये नहीं। जहां मैं हूं, जहां मुझे होना चाहिए, जहां से मुझे निकालकर सभ्य रूप में सभ्य समाज के समक्ष पेश किया जाना चाहिए, वहां मुझे कोई नहीं ढूंढता। मेरा इतना गलीज, इतना गिरा हुआ रूप पेश किया जाता है कि मुझे खुद से घिन आती है। और क्यों ना हो? मेरे इस रूप का किसी पर क्या असर पड़ना है? धार और गांभीर्य कायम रहता तो मैं भी लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभा पाती। लेकिन इस छद्म रूप में खुद को किसी तरह जीवित रख सकती हूं बस।“...
लेंठड़े ने अपना रुमाल निकाला है। आँसू सुखाते हुए बोल पड़ा है,”...तुम्हारा क्षोभ जायज़ है। एक तरह से ज़रूरी भी। अपूर्णता का अहसास तुम्हें अपनी परिस्थितियों से जूझने को कोई बेहतर रास्ता निकालने की वजह देगा।“...
वर्तमान। पुस्तकालय से आती जाने कितनी हवाई धारायें लेंठड़े के शरीर में घुसने लगीं। शब्द, व्याकरण, जाने कितनी भाषाओं में ज्ञानियों की बातें, कितनी लिपियाँ! नागरी, मलयालम, अरबी, कन्नड़, रोमन ....उसके पन्जे जैसे रिसेप्टर हों। वह कैमरे पर लाइव था, यहां उसे कोई नहीं रोक सकता था। सच बोलने से, ख़तरों से खेलने से घबराया होता तो केंकड़ा लेंठड़ा ना बना होता। लेंठड़े ने बोलना शुरू किया, “यहां तो एक से एक महारथी हैं भविष्यवाणियां करनेवाले। शनि बाबा हैं, तीन देवियां हैं जो शीशे की एक गेंद सामने रख एक नई तरह की फंतासी दुनिया का सम्मोहन जाल रचती हैं। इनका जादू उतरे तो यहां मौजूद पत्रकार और बुद्धिजीवी विचारों के दोहन के नाम पर अपने निष्कर्ष और पूर्वाग्रह दर्शकों पर थोपते हैं।
...कभी इस चार्ट पर, कभी उस ग्राफ पर। चार्टों और ग्राफों का क्या है? वे तो ना बदलेंगे, नाम अवश्य बदल जाएंगे। सो कल एक चव्हान रहे होंगे, आज दूसरे हैं। कुर्सी के नीचे के खेल कहां बदलेंगे?”
केंकड़े की इस भूमिका ने स्टूडियो के बाहर-भीतर सबको बेचैन कर दिया। एंकर खिसियानी-सी हंसी हंस रहा था, संपादक जी शीशे के केबिन से बाहर निकलकर चीख रहे थे। “गेट दिस क्रैपी थिंग ऑफ कैमरा। व्हाट द हेल इज़ ही अपटू?” लेंठड़े को पकड़कर न्यूज़ रूम लाने वाला पत्रकार दौड़ता हुआ आया, “सर, रूक जाइए सर। चलने दीजिए सर चलने दीजिए। टीआरपी सर टीआरपी। टॉकिंग केंकड़ा टीआरपी लाएगा। देखिए तो कि आगे बोलता क्या है?”
टी आर पी सुनते ही लेंठड़े ने जो अट्टहास किया, वह मुझे नहीं भूलता। एकाएक ही उसकी सारी देह में जाने कितने मुँह निकल आए। हर मुँह से अलग अलग भाषाएँ। लेकिन बात एक ही।
“मनुष्य की याददाश्त इतनी कमज़ोर क्यों होती है? या यह सेलेक्टिव शॉर्टटर्म मेमोरी जानबूझकर स्वयं पर ओढ़ा हुआ आवरण होता है, ताकि खुद को अप्रिय परिस्थितियों से बचाया जा सके? प्रतिक्रिया ना करना, आराम से भूल जाना, शुतुरमुर्ग-सा सिर मिट्टी में छुपा लेना... ये क्या करते हैं मनुष्य?”
न्यूज़ रूम में अफरा तफरी मच गई – हिन्दी, मराठी, उर्दू, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी ... सारे चैनल यही प्रोग्राम दिखा रहे हैं। एक ही बात - बस भाषाएँ अलग अलग हैं। बन्द करो इसे!
...मुस्कुराते हुए लेंठड़े ने पंजे खटकाए और सब कुछ फ्रीज़ हो गया। न लाइट बन्द हो सकती थी,न कैमरा और न प्रसारण। सब कुछ स्वचालित!
...भाँड़ में गई तुम्हारी टी आर पी। जब सब चैनल एक ही प्रोग्राम दिखाएँगे तो टी आर पी वापस प्राइमर की किताबों में होगी। चुपचाप देखो मेरी लंठई और सोचो प्यारों!
न्यूज़-रूम की चमकती रौशनी थोड़ी फीकी पड़ गई। स्टूडियो और पीसीआर में सब सांसें रोके गिरनेवाली अगली गाज का इंतज़ार कर रहे थे। अजीब स्थिति थी। लेंठड़े का प्रोग्राम कोई रोकने की स्थिति में नहीं था लेकिन बाकी सब काम यथावत किए जा सकते थे। सभी लाइनों पर लगातार फोन आने लगे थे और फीडबैक के नाम पर एसएमएस। कोई लेंठड़े को गालियां दे रहा था तो कोई इसे मीडिया की नई तिकड़म बता रहा था।
... लेंठड़ा लाइव जारी रहा।
"... शीशे की ये इमारत, करोड़ों की मशीनें, आधुनिक तकनीक... इन सबके बीच ख़बर या समाचार कहां है? सम-आचार। सही सूचना... वे सूचनाएं कहां हैं जिनका दर्शकों से, आम जनता से सरोकार है... मीडिया का ध्येय क्या होना चाहिए? उस मज़बूत नींव के तौर पर जिसपर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आश्रित है... उसका ध्येय सच को सामने लाना है। जनता पर, लोकतंत्र पर, सरकार पर अपना प्रभाव छोड़ना है। लेकिन यहां तो अब ख़बर भी पेड होने लगी है – पेड न्यूज़।
कभी किसी के कुत्ते के नाम पर ख़बर परोसी जाती है, कभी किसी भूत-प्रेत, आत्मा-परमात्मा के साथ दर्शकों पर थोप दी जाती है। ख़बर का रूप नेताओं के आपसी समीकरण, उनकी निजी सनक तय करती है... पत्रकारों की कच्ची-पक्की समझ तय करती है।
लेकिन उम्मीद की कोई किरण तो होगी। मीडिया ख़बर को ऐसे घुटते हुए कितने दिनों तक देखेगा? आख़िर मीडिया का पूरा वजूद भी तो ख़बर के दम पर है।
मीडिया में वाकई ताकत है, सोए हुओं को जगाने की उम्मीद भी। कितनी ही बार मीडिया ने सरकारों की नींद उड़ाई है, उन्हें सचेत रखा है, उन्हें आईना दिखाया है। मीडिया एक व्यवसाय सही, लेकिन ख़बर अपने सच्चे रूप में असर डालती है। मीडिया भले ये दंभ पाल ले कि समाज के "मूवर्स एंड शेकर्स" की कमान उसके हाथ में है, भले इस भुलावे में रहे कि लोगों के विचारों पर उसका गहरा प्रभाव है, लेकिन ख़बर के बिना मीडिया का कोई वजूद नहीं। ख़बर की गहराई और सचाई में ही मीडिया की समृद्धि छुपी है। यह दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है और वक्त पर पहुंचनेवाली लगातार सूचनाओं का स्थान अपरिहार्य है। यहां राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव से अनभिज्ञ रहना आत्मघाती साबित हो सकता है। मीडिया ही यह तय करने में मदद करती है कि सत्य क्या है, असत्य क्या... क्या हकीकत है और क्या महज़ कल्पना... क्या बेहद ज़रूरी है और क्या बेहद गैर-ज़रूरी। लोगों की मानसिकता बदलने के लिए मीडिया से बड़ी शक्ति नहीं हो सकती। देश की दशा दिखाते हुए नया दिशा-निर्धारण करने का दारोमदार मीडिया के हाथों है। यदि किसी बड़ी बेरहम ताकत की जीत होती है तो वह इसलिए कि उस ताकत को स्वीकार करने की एक मनोवृत्ति तैयार की गई है।“
"सत्तासीन लोगों को हमेशा से अहसास रहा है कि आम जनता को अपने नियंत्रण में रखना है तो ख़बर पर भी नियंत्रण रखना होगा। जिन हाथों में सबसे पहले समाचार और विचार पहुंचते हैं उनके पास एक राजनीतिक ताकत होती है - ताकत ये तय करने की कि क्या बताना है और क्या छिपाना है, समाचार के किन पहलुओं की घोषणा करनी है और किनकी नहीं, सही अवसर आने तक किन तथ्यों को दबाए रखना है और जो सूचना सामने लाई जानी है उसकी व्याख्या भी पहले से वही तय करते हैं। तुम्हारा तंत्र तो ‘लोकतंत्र’ कहलाता है न? खुद को लोकतंत्र के पैरोकार बताने का दावा करनेवाले नेता भी राजाओं से कम नहीं हैं। वे सूचनाओं पर ठीक उसी तरह का नियंत्रण चाहते हैं जैसा राजाओं का उनकी सेनाओं पर होता है। इसलिए कम-से-कम लोकतंत्र में तो किसी भी राजा को लोकतंत्र से, लोकतंत्र के स्तंभों से खिलवाड़ करने की इजाज़त न दी जाए।"
इतना कहकर लेंठड़ा अपने पंजे कड़कड़ाते हुए बाहर को चल पड़ा। न्यूज़ रूम में हाहाकार मच गया – उसे और बोलने दो। उसे वापस बुलाओ। लेंठड़े ने राह से ही आवाज़ दी – कथनी नहीं करनी महत्त्वपूर्ण हैं। तुम लोग समर्थ हो। मुझे बस तुम्हें झकझोरना था। मैट्रिक्स फिल्म तो तुम सबने देखी होगी – सँभल जाओ, वैसा वक़्त बहुत दूर नहीं है।
...मैंने लेंठड़े को उस सुन्दरी के पास फिर से देखा है। सुन्दरी ने अपना मुँह धुल दिया है।
रात ढल चुकी है। पुस्तकालय में सनातन प्रकाश पसरा हुआ है। एकांत टेबल पर लेंठड़ा पढ़ रहा है और सामने की दीवार पर सारी दुनिया से खबरें आ रही हैं, जा रही हैं। बैकग्राउंड में जाने कितने स्वर हैं ... I have a dream…we shall overcome… आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:। पुस्तक का जो पृष्ठ अभी लेंठड़े के सामने है, उस पर थीसिस, एंटीथिसिस और सिंथेसिस लिखे दिख रहे हैं।
anu
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6 टिप्‍पणियां:

  1. @ वे सूचनाओं पर ठीक उसी तरह का नियंत्रण चाहते हैं जैसा राजाओं का उनकी सेनाओं पर होता है। इसलिए कम-से-कम लोकतंत्र में तो किसी भी राजा को लोकतंत्र से, लोकतंत्र के स्तंभों से खिलवाड़ करने की इजाज़त न दी जाए।"


    लेंठड़ा महाराज के वचन शास्वत है - पर कौन सुनेगा...... मीडिया को अच्छा अयना दिखा दिया.

    इस पूंजीवादी अंधकार में जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा - वहाँ अयना कौन देखेगा ?

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  2. मीडिया में वाकई ताकत है, सोए हुओं को जगाने की उम्मीद भी। कितनी ही बार मीडिया ने सरकारों की नींद उड़ाई है, उन्हें सचेत रखा है, उन्हें आईना दिखाया है। मीडिया एक व्यवसाय सही, लेकिन ख़बर अपने सच्चे रूप में असर डालती है। मीडिया भले ये दंभ पाल ले कि समाज के "मूवर्स एंड शेकर्स" की कमान उसके हाथ में है, भले इस भुलावे में रहे कि लोगों के विचारों पर उसका गहरा प्रभाव है, लेकिन ख़बर के बिना मीडिया का कोई वजूद नहीं। ख़बर की गहराई और सचाई में ही मीडिया की समृद्धि छुपी है।sahi kaha .

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  3. पीपली लाईव का ब्लॉगीय वर्ज़न!
    लेंठड़ा महाराज ने जो कहा, वो अनजाना तो नहीं है, न मीडिया के लिये न जनता के लिये। इन बातों से सिर्फ़ ये सुकून मिल जाता है कि कुछ और भी हैं जो उद्वेलित होते हैं इन चीजों से।
    न्यूज़ रूम का लाईव नजारा जबरदस्त अंदाज में, ग्रेट।

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  4. यह अजीब सी बात है कि जिन मंत्र, तंत्र, ओझा, चमत्कार और बेढब की खबरों को टीआरपी बढ़ाने वाला और पब्लिक की पसंद का बताया जाता है उसे देखकर खुश होने वाले मुझे कहीं नहीं दिखे।

    आखिर वे कौन लोग हैं जिन्हें लक्ष्य करके ये कार्यक्रम बनाये जाते हैं? मुझे तो लगता है कि ये चैनेल वाले इस सनसनी को परोसने के अलावा कुछ सार्थक कार्यक्रम बनाने की क्षमता ही नहीं रखते।

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  5. लेंठड़ा सीरीज मेरे लिए नयी है ,पिछली बार भी कहा था ! ज़रा रम जाऊं !

    मीडिया की ताकत से इनकार नहीं पर वो गलत हाथों में है ,या तो अदक्ष या बेहद शातिर और बाजारवादी !

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  6. अली सा, की दूसरी बात अधिक सटीक है।
    "मीडिया गलत हाथों में है जो बेहद शातिर और बाजारवादी हैं"
    बुद्धू बक्सा "रामायण" और "महाभारत" का सहारा लेकर घर घर में घुस गया और फिर "सांता-बारबारा", "बोल्ड और ब्युटिफुल" के इंच टेप से की गयी नाप जोख के बाद, अपने उत्पादों को भारतीय बाजारों में खपाने के लिये निरंतर जन-मानस तैयार कर रहा है।

    बालीवुड,क्रिकेट और तंत्र-मंत्र की अफीम चटाकर मधय्म वर्ग को नशे में रखने का उपाय लगती है यह सब,बाजीगरी। समाचार चैनलों को समाचार मनोरंजन चैनल कहना चाहिये।

    हो सकता है प्रत्यक्ष दिखायी देने वाले एंकर आदि सीधे साधे या मूर्ख बच्चे लगे पर इनके पीछे वही शातिर ताकते हैं जिनकी बदौलत आज भी 77% भारत भोजन,शिक्षा और स्वास्थ के लिये तरस रहा है। उपाय के नाम पर यह नरेगा-मरेगा या कुछ किलों अनाज की भीख देना ही सोच सकते हैं, क्योकि य़ॆ "राजा" हैं!!

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