शनिवार, 11 दिसंबर 2010

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 3

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मेरे पात्र बैताल की भाँति,  
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर? 
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
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भाग –1, भाग -2 से आगे...
(ओ)
अधराति1। पंडित के दिए लाल कपड़ों में सजी फेंकरनी। गोड़2 के नीचे धरती नहीं, आसमान। आसमान देखा तो सग्गर बाबू की दुलहिन याद आ गईं। जोन्हिया बनारसी3 – सुरुज किरिन4 चकमक दकमक।
अरे! ई त अन्हरिया हे रे? (अरे यह तो कृष्ण पक्ष है?)
त का भइल? (तो क्या हुआ?)
चकमक दकमक रे, चकमक दकमक।
तिनजोन्हिया5 बुला रही थी, चल पंडित के भेष। फुसऊ6 घर से बाहर निकली और ऊँख7 के खेतों से आती सियारों की हुआँ हुआँ तेज हो गई। अचानक ही कहीं खेंखरि8 फेंकरने9 लगी।
अरे हमार नउवे फेंकरनी, का फेंकरतड़े रे खेंखरिया?(अरे मेरा नाम ही फेंकरनी है, लोमड़ी क्यों विलाप कर रही हो?)
कोई परवाह नहीं, चली जा रही है। जिससे ब्याह हुआ उसका नाम रामकिसुन। गवना हुए पाँच बरस बीत गए। कइसन राति रहे? एतना दुलार लेकिन बेदम...फेंकरनी भागी जा रही है भिन्सहरे10। उठानी उमर11 से ही माई के साथ रह कर कितने ही बच्चों को जनाया है। छठिहार, बरही12 भर सोहर गाया है।... अपनिए कोखि बन्जर! बंजर नाहीं रे, बियवे नाइं परल..बोल रे सियरा, फेंकरि रे खेंखरि...हमरे अंगना बधावा। आई रे,आई!(मेरी ही कोख बंजर! बंजर नहीं है, अरे बीज ही नहीं पड़ा.. बोलो सियार, विलाप करो लोमड़ी...मेरे आँगन तो बधावा आएगा, जरूर आएगा)
के भेजी? ससुरा? (कौन भेजेगा? तुम्हारा ससुर?)
बियाह के बाद बस एक बार मिले मरद रामकिसुन पर जाने क्यों दुलार उमड़ आया।...हुआँ! हुआँ!! फें फें कचकच फें फें... रामकिसुन। राम और किसना जैसे लाल। काले लाल।
पंडित हो! चन्दन गाछ13 बनबss? अरे कटवाइब नाहीं हो, कटि जाइब...चेंचरा खींच ढेबरी के लग्गे माई सोहर गावतिया (पंडित! मेरे चन्दन के पेंड़ बनोगे? अरे कट जाऊँगी लेकिन कटवाऊँगी नहीं...छप्पर घर का द्वार लगा माँ सोहर गा रही है) ...फेंकरनी कल्पना में मगन हो चली।
मोरे पिछवरवाँ चन्दन गाछ औरन से चन्दन हो
रामा सुघर बढ़ैया मारे छेव लालन जी के पालन हो
राम के कढ़ऊँ खड़उवाँ कन्हैया जी के पालन हो
रामा ठाढ़ि जशोदा झुलावें लालन जी के पालन हो
झूलहु हे लाल झूलहु... झूलो साँवरे लाल! झूलो राम! झूलो कन्हैया! ...रामकिसुन... खदेरन हो!
(औ)
तंत्र अभिचार की सामग्री झोले में रखने के बाद खदेरन पंडित ने जब अग्निशाला से चलने को लाठी उठाई तो चीखती लोमड़ी का स्वर सुनाई दिया। आकाश में व्याध नक्षत्र के तीन तारे बता रहे थे- समय हो गया। मन के भीतर अग्नि दहक उठी। राख सी धूनी को लाठी से कुरेदा तो चिंगारियाँ चमक उठीं। अग्निहोत्र सुरक्षित है खदेरन!
...चंडी चाचा के किस्से सुनाती माँ की आँखें बरस रही हैं।
“बेटा! तोहरे खातिर हम जौन भोगनी शायदे कौनो महतारी भोगले होई। चंडिया के कब्बो माफ नाहीं करबे।(बेटे! तुम्हारे लिए जो दु:ख मैंने भोगा शायद ही किसी माँ ने भोगा हो। चंडी को कभी क्षमा नहीं करूँगी।)...
...क्षमा तो मैं भी नहीं करूँगा। आज विनाश की नींव पड़ेगी। निपूता14 खदेरन तुम्हारे रक्षवंश को खोद डालेगा चंडी! खदेरन ने आकाश की ओर फिर देखा। यह क्या? रक्तबाण! लाल धूमकेतु!! मनोनुकूल। उस अन्धेरे में अकेले खदेरन कटु हँसी हँसते हुए चल पड़े।
नींबू का कँटीला पौधा। हा, हा, हा।
रक्तबाण। हा, हा, हा। अग्नि भभक दहक लहक उठी है। स्वाहा, स्वाहा। ...स्वधाहम, स्वाहा स्वाहा...
...फेंकरनी पूछ रही है –राम किसन करिया काहें पंडित? (पंडित! राम कृष्ण काले क्यों थे?)
करिया नाहीं रे – साँवर (काले नहीं साँवले थे)।
एक्के बाति (एक ही बात।)...
सिरजन बिनास एक्के बाति। (सृजन विनाश एक ही बात)
(अं)
तब जब कि सियार हुँड़र रहे थे, खेंखरि फेंकर रही थी, तिनजोन्हिया और सग्गर के पिछवाड़े की नीम पर बैठा गुड़ेरवा15 उस रात के अभिचार के गवाह बने। ...रक्तबाण चुका था।
कड़ुवे तेल का दिया जला, अघोर चक्र खींच पंडित ने अपने बायें हाथ की कानी अंगुली को क्षत किया। रक्त की बूँदें टपक पड़ीं। शरीर के बाहर रक्त मृत हो जाता है। मदार की लकड़ी, मानुख रक्त। स्वधाप्रिय अर्पित रक्त बूँदें। आहुति। नींबू के पौधे तले अब श्मशान था।
दीप के धीमे प्रकाश में रक्तवसना फेंकरनी दिखाई दी। आग भभक उठी। हुआँ, हुआँ, फें फें कचकच फें फें...
खाली दिये में रखी रक्त की बूँदों से स्वयं का अभिषेक करने का खदेरन ने इशारा किया।
बाभन को तिलक!.. ठिठक।
कर्ण कटु धीमी फुफकार - लगाउ उढ़रनी!देरी नाहिं।
तिलक। शीतलता नहीं आज्ञाचक्र16 पर जैसे जलता हुआ अंगार रख दिया हो!
चंडी विनाश!
ध्यान को न भटका मूढ़!
इंगला, पिंगला, सुखमन17 सब स्वाहा। कोई चक्र नहीं, बस अगिन - खदेरन जल उठे। दाह बुझाने को पात्र में रखी मदिरा गट, गट गटक गए। भीतर की आग और दहक उठी। फिर से इशारा किया और भीत सी खदेरनी उत्तर दक्षिण दिशा में लेट गई।...
अड़हुल के लाल फूल हैं। पंडित एक एक अंग की पूजा कर रहा है। फेंकरनी तो जैसे मृत हो गई है। साँसों में सोहर अभी भी जीवित है–
पंडित हो! जौन चाह कss लss लेकिन ...(पंडित जो चाहो कर लो, लेकिन ...)
राम के कढ़ऊँ खड़उवाँ कन्हैया जी के पालन हो।
तू हमार चन्दन गाछ, काटब नाहीं हो बस झुलबे (तुम मेरे चन्दन वृक्ष हो, काटूँगी नहीं। बस झूलूँगी।)
झूलहु हो लाल झुलहु कन्हैया जी के पालन हो। पंडित हो!
मसानी मंतर, सोहर। आगी पानी। बिनास सिरजन । खदेरन और फेंकरनी की जुगलबन्दी।
हा, हा, हा। माथा बरमंडा ॐ फट् स्वाहा
झूलहु हो लाल झूलहु, झुलुवा झुलाइब जमुन जल लाइब...(झूलो लाल, झूलो। झूला झुलाऊँगी, यमुना जल लाऊँगी)
आँखि सुरुज चनरमा ॐ फट् स्वाहा
जमुना पहुँचहूँ न पवलीं, घड़िलओ न भरलीं महल मुरली बाजे हो  (न यमुना तक पहुँच पाई, न घड़ा भर पाई। महल में मुरली बजने लगी) 
मूहें छेदा बरह्मा ॐ फट् स्वाहा
झूलहु हो लाल झूलहु कन्हैया जी के पालन हो। पंडित हो! (कन्हैया जी पालना, झूलो मेरे लाल! ए पंडित!)
कुम्भे पीए जीए परजा ॐ फट् स्वाहा
चुप रहु जशुमति चुप रहु दुशमन जनि सुने हों, जशुमति ईहे कंस के मरिहें गोकुला बसैहें हो  (चुप रहो यशोमति! चुप रहो! दुश्मन सुन न लें। यशोदा! यही कंस को मारेंगे और गोकुल को गुलजार करेंगे)
जोनी जग जाया भोगा पाया ॐ फट् स्वाहा...
गुह्य अंग के स्पर्श पर फेंकरनी सिहर उठी। मन के अरमान पेंग भरने लगे। झूलहु हो लाल!
खदेरन जाने कितनी देर क्या क्या पूजते रहे, आहुति देते रहे और मंत्र पढ़ते रहे। अभिचार समाप्त हुआ -
ॐ ह्रीं स्त्रीं तारायै हुं ॐ फट् स्वाहा।...
“पंडित हो! खतम हो गइल?”(समाप्त हो गया?)
“हँ, जो अब!”(हाँ, जाओ अब)
“आप सवारथी बाड़ तू! हे अन्हरिया में हे तरे कौन मेहरारू टोना करवावे आई हो?” (बड़े स्वार्थी हो! इस अन्धेरी रात में इस तरह से कौन स्त्री टोना टोटका करवाने आएगी?)
“हो गइल। जो अब!” (हो गया, जाओ अब)
“अरे कइसे चलि जाईँ? जिन्दा पुजल ह कि मुर्दा?” (कैसे चली जाऊँ? जिन्दे की पूजा किए हो या मुर्दे की?)
“जिन्दा।” (जिन्दे की)
“त हमार कार करे के परी नाहीं त सब भरस्ट हो जाई।“ (तो मेरा काम करना पड़ेगा नहीं तो सब भ्रष्ट हो जाएगा।)
पंडित धर्मसंकट में और फिर आत्मकरुणा में बह चला। रतिदान माँगती स्त्री को निराश नहीं करते खदेरन! स्मृति वाणी या नीति शास्त्र? ब्राह्मण शूद्रा संगम – हा हा कार।
खदेरन! चंडी चाचा का खानदान तो खत्म हो जाएगा लेकिन तुम्हारे बाद तुम्हारे यहाँ? कोई रहेगा भी? क्षेत्र स्वयं चल कर आया है। बीजदान दो!
...फेंकरनी पूछ रही है –राम किसन करिया काहें पंडित?
करिया नाहीं रे – साँवर।...
फेंकरनी! साँवर कन्हैया मिलेगा तुम्हें।
अथ च इच्छेत्पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत...
खदेरन श्मशान की अग्नि पर अक्षत को पानी में डाल पकने को रख दिए। आग दहकती रही। प्रतिशोध की अग्नि, कामाग्नि, कृष्णाग्नि। हुआँ, हुआँ, फें फें कचकच फें फें सब शांत हो गए। पहली बार फेंकरनी ने जाना कि पुरुष क्या होता है। शीतल हवा की सिसकारियाँ... गुड़ेरवा उड़ गया, निर्लज्ज तिनजोन्हिया को भी आखिर लाज आई,  छिप गई।......समय ने तो बहुत कुछ दिखाया होगा लेकिन उस रात तिनजोन्हिया ने जिस जुगलबन्दी को देखा, दुबारा नहीं देखेगी और गुड़ेरवा? वह तो आगे पीढ़ियों तक नींबू पर पहरा देने वाला था।...
...आगे बढ़ने को विनाश ने सृजन को पूजा लेकिन वाह रे सृजन! ऐसा प्रश्न सामने रख दिया कि स्वयं विनाश को उसे बढ़ाना पड़ा। ... पीढियों की साँसें कम और गुड़ेरवा की आयु ही कितनी? तिनजोन्हिया तो अमर है। प्रलय के बाद भी भूमि को ताकती रहती है, कोई न कोई बीज बो ही देता है। ...   
(अ:)
फेंकरनी को अपने हाथों से भात खिलाते खदेरन ने कहा,“खो अब! जौन चहले ऊ हो गइल।“(खाओ अब! जो चाहती थी वह हो गया।)
फिर झोला सँभाला और लाठी लिए चल पड़े। प्रायश्चित। अन्न जल उतना ही ग्रहण करना जितने में चल सकें।...मन में निश्चय, खदेरन चलते चलते मर जाएगा।
फेंकरनी मगन सी लौट चली – झूलहु हो लाल! कि अन्धेरे में घात लगाए किसी ने दबोच लिया। बलिष्ठ हाथ। फेंकरनी का मन हाहाकार कर उठा। हम एतना अभागा नाहीं रे! (मैं इतनी अभागी नहीं!)
सूझ नहीं रहा था कि कौन है। गुत्थमगुत्था होते पापी की आँख हाथ तले आई और फेंकरनी ने अंगुली उसकी आँख में घुसेड़ दी। उसके नाखून कटते नहीं टूटते थे। मारे जाते सुअरा की तरह डकारते हुए वह छोड़ कर भागा। नींबू के पौधे ने पहली बलि ले ली थी – मनुष्य न सही, उसकी आँख ही सही। ...अभी तो पौधा था! चन्दन गाछ किसने देखा?
...प्रात:काल गाँव में घमघमहट मच गई। नींबू के पौधे तले तांत्रिक वामाचार के चिह्न थे। खदेरन, माधव, फेंकरनी और उसकी माई लापता थे। मतवा18 का विलाप सहा नहीं जा रहा था।...
रास्ता बन्द हो गया और मौका ठीक देख रामसनेही ने कुछ रास्ता और कुछ खिरकी का हिस्सा घेरते हुए बाड़ लगा दिया। किसी ने नहीं रोका। (जारी)
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शब्द सम्पदा: (1) अर्ध रात्रि (2) पैर (3) बनारसी साड़ी जिस पर सलमा सितारे जड़े हों (4) सूर्य किरण (5) व्याध नक्षत्र। पुराने समय में उसे देख रात में समय का अनुमान लगाया जाता था (6) छप्पर (7) ईंख (8) लोमड़ी (9) लोमड़ी का बोलना जिसे विलाप जैसा माना जाता है (10) भोर (11) रजस्वला होने की उम्र (12) शिशु के जन्म के छ्ठे और बारहवें दिन के उत्सव (13) चन्दन का पेंड़ (14) पुत्रहीन (15) उल्लू (16) दोनो भौहों के बीच का स्थान जिसे तंत्र या योग साधना में बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। (17) इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ (18) ब्राह्मण की पत्नी

18 टिप्‍पणियां:

  1. जबरदस्त बुनावट। पूरा दृश्य जैसे आँखों के सामने गुजरा हो। एक और कालजयी शृंखला के साक्षी हो रहे हैं हम।

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  2. अजी बडी मुश्किल भाषा मे लिखी हे आप ने यह पोस्ट, इस लिये कल पढेगे. धन्यवाद

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  3. हम तुलना करे के स्थिति में त नईखी काहें से कि भोजपुरी में एगो 'लोहा सिंह के डायरी' के अलावा और कुच्छो मिलबे ना कईल पढ़े के, आ ऊहो पढ़नी हम 'नवभारत टाईम्स' के कालम में; बाकिर एतना सजीव बरनन ..... लोहा सिंह याद आ गईलन.... लीखत रहीं एही तरे महाराज ....

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  4. अद्भुत ,अभिचार ही कहेंगे व्यभिचार तो कतई नहीं ...न जाने प्रस्तोता का मन किसके फेवर में है ,प्रकृति या पुरुष! मानव संस्कृति न जाने कैसी कैसी संकरी गलियों से टेढ़ मेढ़ निकलती अपने को बचाती आयी है , वामाचार का अनुष्ठान हो या शिष्टाचार का क्षद्म मूल अंतस प्रेरणा एक ही रही मानव संतति का विस्तार -वाह रे प्रकृति ,कैसा गढ़ डाला मानव को तूने !
    झांखी ही क्यों झांकी क्यों नहीं ?

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  5. @ अरविन्द जी,

    झाड़ झंखाड़ को भोजपुरी में 'झाँखी' कहते हैं। वैसे आप का इंगित भी विचारणीय है।

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  6. कुछ यूँ लग रहा है जैसे पाठक भी स्वयं उस क्रांतिकारी रात का एक हिस्सा बन गया हो......

    किस्सागोई का अभूतपूर्व प्रस्तुतीकरण !

    @एक टैग भी लगा दें कि कमजोर दिल वाले न पढ़ें.

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  7. इस पोस्ट को पढ़ते हुए सिहरन होती है, लिखा कैसे गया होगा.... राम जाने।

    गंगेश जी की बात सच है। कमजोर दिल वाले इसे न पढ़ें का टैग लगाया जा सकता है।


    अदभुत लेखन है। बहुत ही सशक्त।

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  8. तिनजोन्हिया ही साक्षी नहीं है उस अभिचार के, हम सभी देख रहे हैं, जैसे एकदम आंखों के सामने।
    ये सीरीज़ भी पूरी होने के बाद हार्ड कापी में संजोई जायेगी, समग्रता में पढ़ने का अलग ही आनंद होगा।

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  9. .
    .
    .
    अद्भुत!
    बेहतरीन!

    सही कहूँ तो शब्द नहीं हैं मेरे पास तारीफ को...

    आदरणीय अरविन्द मिश्र जी जब कहते हैं... "वामाचार का अनुष्ठान हो या शिष्टाचार का क्षद्म मूल अंतस प्रेरणा एक ही रही मानव संतति का विस्तार -वाह रे प्रकृति ,कैसा गढ़ डाला मानव को तूने !"
    तो कितना विचार मिलते हैं हम दोनों के... है न देव ?


    ...

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  10. हम्म... लिखिए आगे, बड़ा विस्तृत कैनवास दिख रहा है इसका.

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  11. आंचलिकता और लोक बोलियों के 'स्वीकार' के दायरे सुनिश्चित है ! ज़रा राज भाटिया की निगाहों से भी इस सत्य को देखा जाए !
    अरविन्द जी ,मो सम कौन और प्रवीण शाह ने कुछ विशिष्ट संकेत दिए हैं ! प्रविष्टि के यही अंश मुझे भी आकर्षित कर रहे हैं !

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  12. amavas ki kali raat...
    vishalkaya bargad aur pipal ke per...
    chamgadar aur jingur ka sor....
    purni pokhar ke bhir....
    aur hum 'tilange'.....
    hum aur hamara dayan-bayan....
    oos bhir ke niche chupe hue..
    raat ke ek baje ye dekhne ke...
    aaj kapal nriyta hoga....

    dhatt tere ki ..... kya yad aa raha hai....

    pranam.

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  13. .
    बाऊ , कृपया 'जोन्हिया' शब्द का स्पष्ट अर्थ बताया जाय ........
    .
    अब जाता हूँ अगला भाग देखने .......

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  14. @अमरेन्द्र जी,
    हमारी तरफ भोजपुरी में तारा और जुगनू दोनों को जोन्ही कहा जाता 'था'। 'था' इसलिए कि अब शहरी प्रभाव में क्रमश: तारा और जुगनू ही कहे जाते हैं :(
    व्याध नक्षत्र ( अंग्रेजी का Hunter या Orion) में कल्पित शिकारी की कमरबन्द जिन तीन तारों से बनती है उन्हें बिहार सीमा पर 'तिनडोरिया' और हमारे यहाँ 'तिनजोन्हिया' कहा जाता था। मानव सभ्यता के इतिहास में जो चन्द नक्षत्र बहुत महत्त्वपूर्ण रहे हैं, उनमें यह प्रमुख है। मिस्र में गीजा के पिरामिड इन्हीं तीन की नकल हैं। सदियों से मनुष्य रात का समय इस नक्षत्र की गति से जानता समझता रहा। ...रात में छत पर लेटे इन्हें, आकाशगंगा और सप्तर्षि को घूरते हुए शीत बसंत, लोरिक, सोरठी, लोकगीत सुनने की बचपन की यादें अभी भी शेष हैं। अब तो सब समाप्त हो गया। ... तिनजोन्हिया मानव सृजन की प्रतीक भी है। इस कथा में भी शुभ और सृजन के अंतत: विजयी होने की साक्षी भी रहेगी। ...सबसे एक अनुरोध है - अपने अपने इलाके की देशभाषाओं में इसके, आकाशगंगा के, सप्तर्षि के, ध्रुवतारा के, भोर के तारे आदि के नाम बताएँ।

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  15. ..स्तब्ध कर देने वाला वर्णन है। कमेंट करने लायक लिखने के लिए अभी और पढ़ना पड़ेगा।

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