शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

केश और बाल

केश कटाने हैं। वह बाल नहीं कहता, पुरबिया भाभी खी खी कर हँसती है और फिर मजाक उड़ाती है – बाबू, आप के सिर पर बाल! खी, खी, खी....
कॉलोनी के इलाके में दस रुपये से लेकर सत्तर रुपये में केश कटते हैं। वह सत्तर वाले एयर कंडीशंड सैलून में जाता है, जिसका नाम है dews बोर्ड पर पानी की बूँदों के चित्र देख उसके भीतर का बजबजाता आभिजात्य नाली के किनारे के कुर्सी बरसाती सैलून से अपने को अलग समझता है जहाँ मज़दूरों के केश कटते हैं, नहीं बाल बनते हैं।     
Dews में एक बार आरामकुर्सी पर बैठ जाओ तो उठने का मन नहीं करता। अगल बगल धीमी रोशनी फेंकते एल ई डी होते हैं, सब सफेद चकाचक। लड़के फूल से महकते हैं और हमेशा इलायची चबाये रहते हैं। उनके हाथ रमणियों जैसे होते हैं जो केशों में कैंची कुशल सर्जन की तरह चलाते हैं। आध घंटे लग जाना आम बात है।

लेकिन आज dews में भीड़ थी, वह ग़लत समय पहुँच गया था। उसे इंतज़ार करना बुरा लगता है। इंतज़ार वह भी ऐसे टुच्चे काम के लिये! नहीं।
जाने लोगों के पास कितना पैसा हो गया है, यहाँ भी भीड़ हो जाती है!
बाहर टहलते टहलते वह कुढ़ता रहा, बेचैन होता रहा – इन्हें मेंहदी आज ही लगवानी थी और उसे आज ही फेस मास्क चढ़वाना था!
सामान्य सी बातें भी चिढ़ाती रहीं क्यों कि उनके कारण देर हो रही थी - कमबख्त लड़के भी मीठी मीठी बातें कर जेब काटते हैं, तीन चार सौ का बिल आम है। 
जाने कब वह नाली के किनारे हजामों की उस कुर्सी कतार के पास पहुँच गया जहाँ मज़दूर बाल बनवाते हैं। वह कुर्सी पर बैठ गया जो काठ की थी और जिसकी एक बाँह दुर्घटनाग्रस्त थी।
“डिटॉल है तुम्हारे पास?”
हजाम ने जवाब दिया – हाँ साहेब! अब मजूरा लोग भी यह सब माँगते हैं, यह देखिये।
भीतर डिटॉल का दुधिया घोल था लेकिन शीशी बहुत गन्दी थी। चोर नजरों से उसने हजाम के हाथ को देखा तो शिवमंगल की याद हो आई। गाँव के खानदानी नाऊ – केश काटते तो कई दफे लगता कि बाबा सिर सहला रहे हैं! इस हजाम के भी हाथ वैसे ही थे – खुरदरे, बेवाई भरे जिनसे कर्मों की राख झाँक रही थी।
प्रकट में उसने कहा – कैंची, उस्तरा सब डिटॉल से धो दो। मैं दूना दाम दूँगा। ब्लेड तो नया है न?
हजाम ने वैसा ही किया। तौलिया साफ थी लेकिन कुचैली थी जिस पर वह मैल थी जो रीठ जाने के कारण जबरजोर धुलने पर भी नहीं जाती – पुरायठ कभी छूटता है भला?
उसने अपनी जेबें टटोलीं – रुमाल घर छूट गया था।
कैंची चलने लगी और बाहर सड़क के शोर और अगल बगल की चखचख के बावजूद वह भीतर खामोश होता चला गया। शिवमंगल कितना बतियाते थे! सारे गाँव इलाके की खबर दे देते और हमलोगों से शहर की खबरें ले भी लेते। यह बूढ़ा इतना चुप क्यों है? जब कि इसके हाथ एकदम शिवमंगल जैसे हैं। कैंची जैसे खोपड़ी को दुलरा रही है।
इशारे से रोक कर उसने हजाम को देखा। कोई फर्क नहीं।
“क्या हुआ साहेब?”
“कुछ नहीं। यहीं के हो?”
“नहीं, गाँव से।“
उसने आगे नहीं पूछा क्यों कि आगे की कहानियाँ उसे पता होती थीं। कैंची चलती रही। खत बनाने को उस्तरे का नम्बर आया और कनपटी के पास कट गया।
हजाम हाथ से डिटॉल लगाने लगा। उसके चेहरे पर खामोश घबराहट थी। खून रुक नहीं रहा था।
“साहेब, कुछ गहरा हो गया लगता है। बुढ़ाई...” । बूढ़ा छलछला गया था – आप के पास रुमाल होगा?
“नहीं, लाना भूल गया।“
उसने बूढ़े हजाम का राख भरा हाथ अपने हाथ में लिया और पुरायठ तौलिये को घाव पर जमा दिया। उसे लगा कि दोनों और खामोश हो गये थे।
“आप कुछ बोले नहीं। बाल बनाते तो आप लोग खूब बातें करते हैं?”
उसकी बात का जवाब टूटा बक्शा खोलते हाथों की कँपकपाहट ने दिया। बूढ़े ने बीस के नोट से लौटाने को दस रुपये निकाले थे।
उसने देखा – नोट बहुत मैला था – soiled .

“अरे बाबा! आप रखिये उसे।“
बक्शा वापस खुला और बन्द हुआ। कुर्सी पर एक मज़दूर बैठ गया था – जल्दी से खत बना द!
“जल्दी में ई कार न होला। हमरे लगे टैम लगी...”
हजाम बाबा सहज हो चले थे।
वह घर को लौट चला।
“बाबू! बहुत जल्दी केश कटवा आये?”
“नहीं, बाल बनवा कर आ रहा हूँ।“
उसके चेहरे के भाव देख भाभी खी खी नहीं कर पाई।       

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

शनिवार को एक लड़की से

इंजीनियरिंग कॉलेजों की हर रात उन्मुक्त होती है और बोझिल भी - यौवन के उल्लास पर अपेक्षाओं का बोझ। शनिवार की रात वास्तव में रात सी होती है – शर्वरी, हिंस्र वनचर भरी। बस जीना होता है और कुछ नहीं। छात्र हिंसा के स्तर तक उन्मुक्त होते हैं – यदि स्वाभाविकता को हिंसा कहा जा सके और छात्रावासों को जंगल, तो। जैसा कि तुम जानती हो, मुझे रात उतनी नहीं सुहाती जितनी भोर, साँझ और दिन, हाँ दिन भी। मैं प्रारम्भ में वहाँ हास्य का पात्र था लेकिन शनै: शनै: सबने मुझे स्वीकार लिया। सोते की धार जैसे कुछ धैर्यधन पत्थरों को स्वीकारती है, वैसे ही।

वह दिन शनिवार का था, जब आधे दिन के बाद मचलती आत्मायें अपनी करने को मुक्त होतीं – कॉलेज सोमवार की दुखती प्रात तक के लिये बन्द हो जाता। दुपहर के भोजन के बाद जब सब सो गये तो आदतन मैं पुस्तकालय चला गया। कुरेदने के लिये शनिवार की दुपहर से भला अवसर नहीं होता। सबसे ऊपरी मंजिल पर मध्ययुगीन कलाकृतियों की भारी भरकम पुस्तक ले मैं रंगों में साँवलापन ढूँढ़ने लगा। तुम्हारी स्मृति के गौरांग जब बेचैन कर देते तो मैं यह करता। ढलते दिन से साँझ उतरने के पहले तक वहीं निहारता रहा और बाहर आ गया।
गार्ड ने तलाशी ली तो मैंने कहा – सब कुछ मेरी आँखों में है, जेब क्यों टटोल रहे हो?
वह मुस्कुराया और बोला – क्यों कि आँखों की भूख जेबों से फटे पन्नों की शक्ल में निकलती है।
मेरे यह पूछने पर कि पिछ्ले रविवार वाली फिल्म देखी क्या, उसने हामी भरी और मैंने कहा – तभी शायर हो रहे हो।
युकेलिप्टसों की पट्टी के छोर पर पहुँच कर मैंने साँस रोकी और तेज पग पगडंडी पार करने लगा। पार होते होते दम घुट चुका था। पानी की टंकी के नीचे आकर मैंने जोर से वायु को भीतर लिया और सिगरेट के लिये पॉकेट टटोलने लगा। यह शनिवारीय कर्मकांड था। चौराहे से एक ओर दूर हाइवे दिख रहा था जहाँ गेट की रखवाली बजरंगबली के जिम्मे थी तो दूसरी ओर दूर तक आम के वृक्षों की पंक्तियाँ जो एयरफोर्स स्टेशन के जंगल में ग़ुम हो रही थीं। जगुआर और मिराज हैंगरों में विश्राम कर रहे थे और अद्भुत शांति थी। यह एकांत मुझे प्रिय था। इतना प्रिय कि सदा सामने कमरे में रहने वाला मेरा यार सदाशिव भी मुझे इस समय अकेला छोड़ देता। सड़क का झुँझला देने वाला सीधापन मुझे मीठी पीर से भर देता।
यह सड़क हाइवे से जुड़ती है और हाइवे तुम तक पहुँचने का जरिया है। मैं कितना हाई जा सकता हूँ? बजरंगबली से अमिया मोड़ तक आते आते साँझ आने का आभास देने लगी थी। सुभाष और रमन भवन गुलजार हो चले थे लेकिन जनप्रवाह गेट की ओर था। मैं जंगल किनारे अब भी एकांत में था।
गोरे दिन की जंगली आँखों में सँवराये आँसू भर रहे थे – समय रोज रुलाता है! यही वह समय था जब मैं कलवर्ट पर बैठ सामने सूने फार्म के केन्द्र में खड़े उन दो ट्रैक्टरों को रात घिरने तक सिगरेट फूँकते घूरता रहता। लगता कि अब कि तब फट फट फट फट बोल उठेंगे और वृक्षों और जंगल से घिरी आश्चर्यजनक रूप से बंजर धरती पर शस्य लहलहा उठेगी। पर वैसा कभी नहीं होता। सिगरेट चुक जाती और सँवराये आँसू नीचे धरा पर गिर चारो ओर फैल जाते। रात हो जाती टप्प से!  
इवनिंग या नाइट नहीं जिनमें कोई विभेद नहीं, साँझ और रात – स्पष्ट विभाजन। वापस चलो अब यहाँ न बैठो! मैं उदास तुम्हारी परछाईं को तलाशता वापस हो लेता – किसी शनिवार तो तुम आओगी...
लेकिन उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस दिन ठीक मेरे स्थान पर कोई बैठा हुआ था। इस समय यहाँ कोई और? मुझे आश्चर्य हुआ और फिर क्रोध भी। मेरी जगह कैसे हथिया सकता है? और कोई जगह नहीं मिली उसे? उसे मेरे दृश्य में क्या रुचि हो सकती है? निकट पहुँचने पर पता चला कि वह एक लड़की थी। जंगल को घूरे जा रही थी, जैसे खरहे निकलने वाले हों और उन्हें पकड़ना हो। मैं ठिठक गया।
लड़की? यहाँ? इस समय? मैं खाँसता सा बोल उठा – एक्सक्यूज मी। उसने नहीं सुना। मैंने दुहराया तो उसने मुड़ कर मुझे देखा – गेहुँआ रंग, बड़ी बड़ी आँखें और आती रात के घनेपन का अनुमान दिलाते केश। वह सुन्दर थी। मैं खुल गया।
“...आप को अजीब सा लगेगा लेकिन क्या आप यह जगह खाली कर देंगी?”
उसके चेहरे पर नागवारी के भाव उमड़े और चले गये।
“तुम?” हेकड़ी के अन्दाज में परिचय पूछता सम्बोधन था।
“जी, मैं स्टूडेंट हूँ। रमन भवन में रहता हूँ।“
वह नरम हुई और सुलगती सिगरेट की ओर इशारा कर कहा – फेंक दीजिये। मैं टीचर्स कॉलोनी में मेहमान हूँ। यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूँ।
मैं अब भी असहज था जिसे उसने भाँप लिया। अलग अलग भावों ने अपरिचय के संकोच को जैसे दबोच लिया था – तो आप को यह जगह पसन्द है?
मेरा बचा खुचा संकोच छू मन्तर हो गया।
मैं यहाँ हर शनिवार को इस समय रात होने तक बैठता हूँ।“
“क्यों भला?” उसके होठों पर सहज मुस्कान थी।
“सुनेंगी तो हँसेंगी ... वास्तव में मैं यहाँ उदास होने के लिये आता हूँ... नहीं, आज का दिन ही ऐसा होता है। अगला दिन छुट्टी का जो होता है। मुझे यह समय बहुत खास लगता है।“
वह खिलखिला उठी – तो ऐसे खास समय आप वीकली उदास होने यहाँ आते हैं! लगता है किसी चक्कर में हैं।
मुझे हम दोनों के खुलेपन पर घनघोर आश्चर्य हो रहा था। भीतर कहीं उससे अधिक मैं स्वयं पर भौंचक था।
वह कलवर्ट से उतर गई – लीजिये, आप की जगह, अब खाली है।...किसी से आप के हॉस्टल में मिलना था तो आते आते यहाँ ठिठक गई। इसे समझ सकती हूँ लेकिन उदास होने के लिये नहीं। मैं सोच रही थी कि उससे मिलने ब्वायज हॉस्टल में इस समय जाना ठीक होगा क्या?
“तो आप अब हॉस्टल जा रही हैं?”
“नहीं। अब नहीं.. वापस कॉलोनी।“ उसने हाथ से इशारा भी किया।
मैं उलझ गया – ऐसा क्यों?
“आप मिल गये, समझिये वह मिल गया।“
रहस्य भरी मुस्कान लिये वह चली गयी। मैं दूर तक उसे उस पथ पर जाते देखता रहा जो बजरंगबली-अमिया रेखा के लम्बवत था और जिस पर दोनों ओर अशोक के वृक्ष लगे थे और जिसके किनारे पानी की टंकी नहीं पम्पिंग स्टेशन था।
फार्म के किनारे ट्यूबवेल अब भी सूखे थे। धरती अब भी बंजर थी। मैं कुछ अधिक ही उदास पगों से लौट चला। दृश्य निहारने का कोई अर्थ नहीं था। सिगरेट कब की बुझ चकी थी। मन में यह पंक्तियाँ उमड़ रही थीं:

साँझ आम सड़क सिगरेट

अचानक तुम ?

धुआँ गुबार दफन भीतर

लरजते आँसू रोक

तुम्हारी देह गंध

हवा में जोहता रहा

तुम दूर

बिना मुड़ कर देखे

(कहा नहीं जा रहा)

यूँ चली गई !

बस देखता रहा

कारे केश -

आग बुझी राख गिरी

कड़वाहट उतराई

याद आया वह दिन

जब पी थी

पहली सिगरेट ।


हूँ दीवाना

अकेले में अंगुलियों के पोर जोड़

होठों पर रखता हूँ

वह तुम्हारे अधरों का स्पर्श

कहाँ?

कितनी दफे वर्कशॉप जाते

अपनी खाकी को भिगो

सूँघा है

कि गंध मिल जाय तुम्हारी

कहाँवह ऊष्मा कहाँ !

दिन की जीवन लहरियां

अब काठ हैं तुम जो नहीं हो

जिन्दगी अब गन्धहीन है

मेरे कमरे के बाहर

रातरानी सूख चली है

माली कहता है

अब की गरमी

क्या लू चली है

यूँ ही भटकता हूँ

साँझ आम सड़क सिगरेट ।

सिगरेट सिगरेट

छल्ले धुआँ धुआँ

कुछ महीनों बाद किसी ने मुझसे जीवन का पहला और अब तक का आखिरी ऑटोग्राफ लिया। वही थी। सिल्वर जुबली सांस्कृतिक कार्यक्रम में यूनिवर्सिटी के दल में वह भी थी।
तुम जानती हो कि वह मेरी कौन है।
और यह भी कि तुम मेरी कौन हो।
यह कहानी तुम्हें सुनाते सुकून मिला है। जानती हो? अभी साँझ नहीं, शनिवार की सुबह चमकती धूप है। इस सप्ताहांत मैं हिंस्र हूँ, उन्मुक्त हूँ...अपनी कहो।             

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

राजू के नाम एक पत्र


अन्धपुर
दिनांक - 13/12/11

मेरे राजू!
किसी दिन तुम्हें नाम लेकर न बुला पाऊँ तो न हैरान होना और न बुरा मानना। हार्ड डिस्क का वह भाग चुकने लगा है जहाँ नाम, अंक, शब्द आदि अंकित रहते हैं। विचित्र है यह डिस्क! इसे न तो डीफ्रैगमेंट कर सकता हूँ और न फॉर्मेट। क्या करूँ
क्या करूँ जो ढेरों अनावश्यक स्मृतियाँ वैसी ही चमकती हों जैसे कल की बात हो और तुम्हारा नाम ही भूल जाऊँ? इस इंटीग्रेटेड बोर्ड पर प्रॉसेसररैम, ग्राफिक्स कार्ड, नेटवर्क पोर्ट, यू एस बी पोर्ट सब ऐसे सीमाहीन रूप से घुले मिले हैं कि रिपेयर या बदले नहीं जा सकते और यह इतना नाजुक है कि छूने से भी डर लगता है। 
बहुत बार स्वयं को संज्ञा और शब्दों से घिरा पाता हूँ। किसी घनी धुन्ध के पार से वे झाँकते से दिखते हैं, आभास भर होता है लेकिन रूपाकार स्पष्ट नहीं होते। उनकी आँखें तक नहीं चमकतींजैसे चुप टोह लगाये बैठे हों कि अब जीभ पर चढ़ जायेंगे कि तब, लेकिन .... बस वही लेकिन राजू, वही। 
 मैं दो टुकड़ा हो गया हूँ - एक हँसता, खाता, पीता, सामान्य जीता है और दूसरा भयानक रूप से भीत भटकता भरा जा रहा है। जाने वह क्या है जो भरता जा रहा है - गहन एकांत सा कुछ। उससे डर लगता है। जबरन पहला टुकड़ा और हँसने, और मजाक करने, और खाने लगता है लेकिन जीना 'और' नहीं हो पाता। दूसरे के भीतर कोई आतंकवादी प्रविष्ट हो गया है। उसकी छाया मैं कहीं और नहीं पड़ने देना चाहता।
यह तुम जानते हो राजू! कि बाहर से मैं कभी चाहे कितना भी हिंसक या दुष्ट लगूँ, असल में वैसा नहीं होता। 
 इसलिये राजू! अगर तुम्हें फोन न करूँ, सामने पड़ने पर चुप रहूँ, बोलते बोलते अचानक शांत हो जाऊँ या कोई वाक्य अधूरा छोड़ दूँ तो बुरा न मानना। यह एकदम बुरा मानने वाली बात नहीं है। यह मेरा प्यार है, तुमसे ही नहीं उन सबसे जिनके साथ और जिनमें मैं जीता हूँ। मैं किसी को कष्ट नहीं पहुचाना चाहता, मुंडेर पर रहते कबूतरों को भी नहीं।
आज जब कि तुम्हारा नाम याद है, यह पता है कि मैं अन्धपुर में हूँ और आज की तारीख अजीब संयोग वाली 131211 है, तुम्हें पाँच रुपये के लिफाफे में रख कर यह पत्र भेज रहा हूँ, यह सिद्ध करने को (तुमसे अधिक स्वयं को) कि तुम्हारा पता अभी मुझे पता है, कल मेरे लापता होने से पहले तुम लापता हो जाओगे (यह मेरी गुम्मी की अनिवार्य शर्त होगी) !

सुखी रहना और जीवन को कभी गम्भीरता से न लेना। यह इस लायक नहीं। देखो न! मुझे पता ही नहीं कि मैं पहला हूँ या दूसरा

सस्नेह तुम्हारा

मानव चक्रवर्ती (मुझे अभी मेरा कुलनाम याद है)

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

स्त्री सूक्त

अंत में ईश्वर ने मनुष्य की रचना की और उसने पहली भूल की, उसने उसे जी भर निहारा ।1।  
अपनी इस अद्भुत कृति पर वह मुग्ध हुआ ।2।
इतना मुग्ध कि मनुष्य का साथ तक असहनीय हो गया। उसने उसे पृथ्वी पर दूर भेज दिया ।3।
मनुष्य को पहली सीख मिली – प्रियता की पराकाष्ठा है निकटता का असहनीय हो जाना! दूरी 4।
वह स्वयं के निकट हुआ और बिना किसी ईश्वरीय हस्तक्षेप के एक से अनेक हुआ ।5। 
आसक्त ईश्वर ने मनुष्यों के पास अपना दूत भेजा। उन्हें सब कुछ बताने को कहा और दूत को चेताया कि उनसे आँखें न मिलाना ।6।  
 जीवन, कर्म, मित्रता, प्रेम, विवाह, संतान, धर्म, समाज, विधि, न्याय, अपराध, दंड, मृत्यु आदि सब पर उसने उन्हें सन्देश दिया। मनुष्य सिर झुकाये सुनते रहे। उनकी आत्मायें तृप्त हो गईं। उन्हों ने जीना समझ लिया ।7।  
संतुष्ट दूत प्रस्थान को मुड़ा तो पीछे से एक स्वर आया – रुको!8।  
वह मुड़ा। एक स्त्री उसके विशाल शुभ्र वस्त्र के एक कोने को पकड़े भूमि पर बैठी थी। पहली बार किसी मनुष्य ने उसके सामने सिर उठाया था। स्त्री ने प्रश्न किया – सब कुछ तो ठीक है लेकिन क्या करें यदि प्रेम की टीस सताना न छोड़े?9।  
दूत ने पहली बार किसी मनुष्य से आँख मिलाया। वह पहला अपराध था, स्वर्गीय कहलाया। स्त्री कारण थी, घृणित हुई ।10।  
चमकता सूरज मन्द हो गया,
सुगन्धित समीर बन्द हो गया,
समुद्र की लहरें शांत हो गईं,
ईश्वर की वाणी पथ भूल गई ।11।  
सम्मोहित से दूत ने उत्तर दिया – अभी जा रहा हूँ। यात्रा से लौट कर बताऊँगा ।12।  
दूत कभी नहीं लौटा। वह भटकता रहा। वह प्रेमग्रस्त हो गया था ।13।  
ईश्वर को पहली बार निराशा, क्रोध, क्षोभ और मोह ने ग्रसित किया ।14।  
उसने तय किया कि अब और किसी दूत को नहीं भेजेगा ।15।  
सदियाँ बीतती रहीं। मनुष्य भूलते गये। स्मृति सुरक्षित रखने को उन्हों ने कई कहानियाँ गढ़ डालीं लेकिन भूलना जारी रहा ।16।  
मनुष्यों के बीच से ही स्वयं को दूत कहने वाले होते रहे और अपनी बातों को ईश्वरीय कह कर प्रचारित करते रहे ।17।  
वे सभी पुरुष थे। सबने स्त्री का निषेध किया। उसके लिये आचार संहितायें गढ़ीं और दंड विधान बनाये। मनुष्य का पहला अपराध स्त्री ने किया था ।18।  
सबने माँ, एक स्त्री, की महिमा गाई। इससे उन्हें अपने होने पर गर्व होता था, उनके भीतर कुछ नरम नम होता था ।19।    
कान और आँखें बन्द करने पर भटकते दूत की आहट मिलती है ।20।
मनुष्य अपनी कहानियों और गीतों में प्रेम के उस प्रश्न को समझने सुलझाने के यत्न करता रहता है जिससे ग्रसित दूत उनके भीतर भटकता रहता है ।21।  
आहट भुलाने को गीत गाये जाते हैं। स्त्री के बिना गीत नहीं बनते ।22।
संगीत अंतिम अपराध है। मनुष्य इससे आगे अपराध नहीं कर सकता ।23।
दूत का अंतिम अपराध अभी होना है, वह प्रेम से मुक्ति देगा ।24।
उस दिन ईश्वर की अंतिम भूल घटित होगी। उस दिन प्रलय होगा ।25।
प्रलय का दोष स्त्री के ऊपर होगा। वह ईश्वर को भ्रष्ट करेगी ।26।
वह दोष धारण करेगी और सृष्टि पुन: रच जायेगी ।27।
सृष्टि में पुन: स्त्री मनुष्य से अलग कहलायेगी और ईश्वर पुरुष होगा ।28।
पुन: लिखा जायेगा - अंत में ईश्वर ने मनुष्य की रचना की और उसने पहली भूल की, उसने उसे जी भर निहारा ।29।

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

भूख


साँझ हो गई थी। बाहर उजाला उतना ही बचा था जितना पूर्ण सूर्यग्रहण के समय रह जाता है। ऑफिस के पीछे के ताल से आती गन्ध गढ़ू थी और कोर्ट कचहरी के चक्कर में अधूरी रह गई सड़क पर धूल चमक रही थी। अभी स्ट्रीट लाइटें नहीं जली थीं। ऐसी गदबेर में 95 कलर रेंडरिंग इंडेक्स वाले भीतरी भव्य कृत्रिम प्रकाश के माहौल से वह बाहर आया। उसने घड़ी पर दृष्टि डाली। ठीक साढ़े पाँच बज रहे थे। मन में फैलते माहुर को भूल वह मुस्कुराया – तो साँझ ऐसी होती है! साला, भीतर दिन रात का तो पता नहीं चलता, साँझ की क्या पूछ?  
वनसेमर के विशाल वृक्षों के ऊपर आसमान शांत था लेकिन घर लौटते पंछियों की लकीरें चटचटा रही थीं। धूसर थर्मोकोल की शीट को कोई चाकू से यत्र तत्र काटे जा रहा था।
उसे भूख लगी थी, बहुत तेज। उसने कार का इग्निशन चालू किया लेकिन हेडलाइट नहीं जलाया। माहौल को निहारता पीता रहा। आखिर में चमकती धूल को उसने नज़र भर निहारा और हेडलाइट जला दिया। अभी अभी एक बाइक गुजरी थी। तेज प्रकाश की सुरंग में उड़ती धूल अपार्थिव सी लगी। ‘उड़ कर सारे शीशों पर भठ जायेगी’ मन ही मन बुदबुदाते हुये उसने कार को पास के पैथॉलॉजी सेंटर की ओर मोड़ दिया। पिछ्ले तीन महीनों से उसे देह में डायबिटीज होने का शक हो रहा था – गाहे बगाहे भूख बहुत लगने लगी थी जब कि वजन एकदम स्थिर था। हर महीने वह टेस्ट करवा रहा था।
 ड्राइव करते वह सोचने लगा – भोजन से शर्करा और शर्करा से ऊर्जा। थोड़ा सा सिस्टम गड़बड़ हो तो नमकीन खून मीठा होने लगे। उसे अपने मूर्ख और जिद्दी बॉस की स्मृति हो आई। माँग और आपूर्ति। सिस्टम कुछ अधिक ही खून पीने लगा है। आश्चर्य नहीं कि ऊपर वाले के टेस्ट के अनुरूप ही अब मीठे खून वाले भी बढ़ने लगे हैं।
 उसे पता ही नहीं चला, कब यांत्रिक सा कार पार्क किया, कब पैथॉलॉजी के काउंटर पर पहुँच गया? तन्द्रा, अगर कहा जा सके तो, रिसेप्शनिस्ट के मधुर स्वर से टूटी – सर! यह रही आप की रिपोर्ट। उसने प्रश्नवाची नजर से उसे देखा तो बदले में चौड़ी मुस्कान मिली – यू आर फिट ऐंड फाइन सर! रिपोर्ट एकदम नॉर्मल है। 
रुपये चुकाते वह निराश था – फिर इस कमबख्त भूख का क्या कारण हो सकता है?
 पास ही माल में मैकडोनाल्ड था लेकिन उसने कभी भी वहाँ से कुछ नहीं मँगाया। उसे बर्गर बेहूदे लगते थे। आलू की टिक्की को चाँपे पाव स्वाद में मिसफिट इंकम्पैटिबल थे जब कि खाते समय किनारों से निकल कर बहती क्रीम जुगुप्सा जगाती थी। बहुत ही अहमकाना और बेहूदी डिश! पोटैटो फिंगर चिप्स और बेहूदे लगते। उसे आलू एकदम पसन्द नहीं थे – मधुमेह के मरीज आलू नहीं खाते। उसका खून अभी भी नमकीन था जिसे ऊपर वाले पसन्द नहीं करते और खाम्खा सताते रहते कि कब मीठा हो और वे तर हों!
उसे पता था कि घर पहुँचने पर रात नौ बजे तक एक कप चाय और दो बिस्कुटों के अलावा कुछ नहीं मिलने वाला। कुछ और माँगने पर मोटापे का ताना मिलता था। जैसा कि पिछले कई महीनों से कभी कभी करता चला आ रहा था, उसने कार झटका चिकेन सेंटर की ओर मोड़ दी। चिकेन सेंटर के बगल में दारूबाज जुटते थे। दारू की गर्मी मरे मुर्गे की भुनी टाँग सहला कर शांत होती थी। उसने केवल सुन रखा था, दारू कभी नहीं पी थी।
दुकान पर पहुँचने तक स्ट्रीट लाइटें जल चुकी थीं। सड़क पर फैले पीलिया से घबरा कर साँझ भाग गई थी और रंडी रात ने देह चमकाना शुरू कर दिया था। सरदार ने उसका बढ़ कर स्वागत किया – हो, हो, हो। आओ जी! इस गली बहुत दिन बाद? सब ठीक तो है? ...ऐ लौंडे! भाई की पसन्द वाली मेज साफ कर दे। तन्दूर लगा दूँ – फुल? मसाले वाली? घी या मक्खन?
उसने आँखों आँखों, हाथ हिला इशारा कर दिया। दोनों ओर की समझ पक्की हो गई – घी वाला फुल रोस्टेड, पातगोभी के ढेर सारे लच्छों के साथ।  
 मेज साफ करने की बात पर वह मुस्कुराया। सरदार को उसकी पसन्द पता थी। किनारे की मेज पर वह उस ओर बैठता जहाँ माइका सफेद थी। वह मेज नाले से लगी थी जिससे रह रह आती गन्ध और मच्छरों के कारण वह दुकान की सबसे कम पसन्दीदा जगह थी। उसे लगता कि सरदार उसे बस इसलिये पसन्द करता है कि उस मेज का उपयोग हो जाता है।
उस जगह की खासियत समझने के लिये थोड़ा विकृत होना अनिवार्य था। वहाँ से सड़क एकदम ताजी सी दिखती, काली ड्रेस से झाँकती पिंडलियों की तरह उत्तेजक, मोहक, बुलाती सी। नाले की गन्ध, बनते हुये ऑमलेटों की गन्ध और भुने जाते मुर्गे का अरोमा दारू की उड़ती महक के साथ मिल कर वह फिजाँ पैदा करते जिसके बारे में उसे यकीन था कि स्वर्ग का माहौल वैसा ही होता होगा जिसमें ऊपर वाले खून पीते जीते हैं।
 वह बैठ गया। भूख मरोड़ रही थी। जैसा कि होता था, वह एकदम चुप, नहीं, चुप्प था। वह तेज भूख लगने पर ऐसा ही हो जाता था। उसे लगता था कि ऐसे में अगर बोला तो सिवा गालियों के कुछ नहीं निकलने वाला। उसे गालियों की निरर्थकता के बारे में कोई सन्देह नहीं था, इसलिये वह चुप्प रहता।
उसे अरोमा से पता चला कि वे अंडे ठीक नहीं थे जिनसे ऑमलेट बन रहा था। उसने कन्धे उचकाये और मन में बड़बड़ाया – मुझे क्या? खाना थोड़े है।
दारूखाने में ऐसों की भीड़ थी जो रोज कमाते हैं, रोज उड़ाते हैं, रोज मरते हैं, रोज जीते हैं। पेट्टी ठीकेदारों के सुपरवाइजर, प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन, कबाड़ी, घर घर मार्केटिंग करने वाले जवान, घर वालों को चूतिया बनाती संघर्षशील प्रतिभायें – शाम की जेंट्री ऐसी ही होती थी। इस जेंट्री को वह बहुत पास से जानता था।
 इन्हें डायबिटीज कभी नहीं होता। खून खारा ही होता है लेकिन जाने इनके खरेपन में कौन सी ऐसी बात होती है कि इन्हें सब चूसते हैं और ये खुद भी बहुत बड़े खूनखोर होते हैं! इनका इश्क़ अनिवार्यत: अवैध सम्बन्ध होता है और कोई महीना ऐसा नहीं गुजरता जिसमें अखबारों को ये गर्मागर्म किस्से न मुहैया कराते हों।
 फिर भी वह उन्हें अपने से बेहतर मानता था। उसे वहाँ उस समय बहुत अच्छा लगता कि दुनिया में अच्छे लोग हैं जो उससे बेहतर भी हैं।  
 ताजे भुने मुर्गे से आती भाप और अरोमा से उसकी तन्द्रा टूटी। प्लेट में चारो ओर पातगोभी के लच्छे करीने से रखे हुये थे। लच्छों के बीच में मुर्गा कटा फटा चीरा लगा सजा हुआ था जिसके मरे भुने मांस की ललछौहीं सफेदी लुभावनी थी। मुर्गों को डायबिटीज होता है क्या? वे इतनी उम्र जी पाते हैं क्या? इनका खून कोई पीता है क्या?
भूख की मरोड़ अब अम्लीय हो चली थी और खटास जीभ तक आ पहुँची थी। उसने पातगोभी के कुछ लच्छे मुँह में डाले और चुभलाने लगा।
सरदार आ पहुँचा था – ओय बादसाओ! बधिया बना कि नहीं?
वह मन में ही भुनभुनाया – हाँ जगलर! बधिया है।
प्रकट में वह पहली बार बोला – तुस्सी फ्री हो?
“हो, हो, हो। हम कब फ्री? की गल?”
“फ्री हो तो पास बैठो और अपने बनाये का मज़ा लो।“
हैरान सरदार कुछ झिझका – लौंडे सम्भाल लेंगे। उसने कुछ को गालियाँ देते हुये चेताया और बोला - यहाँ नहीं, बहुत गन्द है। उधर चलते हैं।
“बैठना है तो यहीं बैठो सरदार जी! वरना ...”
सरदार बैठ गया और उसके इशारे पर मुर्गे की एक टाँग उठा कर खाना शुरू कर दिया – ओय, ये जगह तो बौत बिन्दास है! मान गये तुम्हारी पसन्द को! - उसकी नज़र सामने से गुजरती लौंडिया पर थी।    
वह भुनभुनाया - साला बिन पिये ही बकवास करने लगा!
उसे दारू की दुकान की बेंच पर एक गिलास दिखा जिसमें से कड़वे तेल जैसी पीली दारू झाँक रही थी। 
घी, मक्खन, तेल, मीठा, नमकीन, अंडे...सब परहेज, जिन्दगी परहेज ही होती जा रही है और खून है कि मीठा होने का नाम नहीं ले रहा! 
जैसे किसी ने खींचा था, वह उठ कर गिलास ले आया - बस दारू सी बची है जिन्दगी में!  
“ओय, यह क्या?  दारू है जी!”
तेरी तो! ...उसने मुर्गे का ब्रेस्ट पीस उलट दिया। उसके दिल, जिगर सब भुन चुके थे जिनमें क्या मीठा, क्या नमकीन;  खून का एक कतरा तक नहीं बचा था।
ब्रेस्ट, ब्रा, ब्रेसिका! उसे सरसो का लैटिन नाम याद आया। पिंडलियाँ जिन्दा मांस, मुर्गा मुर्दा मांस – सब जिबह, सब खूनखोर मांसभोजी।
पोल की पीली लाइट में ब्रेस्ट से उठती भाप अभी भी दिख रही थी।
धूल है यह सब, कुछ और नहीं - उसने सरसो के तेल, नहीं दारू को ब्रेस्ट पर उड़ेल दिया, जैसे पेट में मरोड़ते अम्ल पर चूने की धार पड़ी हो! सब बैठता चला गया। भूख लापता हो गई। मुर्गा ठंडा हो गया।
 उसने दो सौ सौ के नोट सरदार की जेब में ठूँसे और चल दिया – सरदार जी, खा लेना, सुना है दारू से ठण्डा किये गोश्त की तासीर ही अलग होती है।          
पीछे से आती मुँहठूँसू हँसी से वह समझ गया कि मुर्गा पेट की ओर जाने को चबाया जा रहा था।
“आज देर कर दी?”
पूछती पत्नी को उसने उत्तर दिया – इस साल तो नहीं लेकिन अगले साल प्रमोशन हो जायेगा। इस महीने की रिपोर्ट मिल गई, मुझे डायबिटीज नहीं है। मुझे फिजूल के खान पान परहेजों में न जकड़ो...हाँ, आज रात जश्न करें? दिवान में रखी वियना वाली नवीं सिम्फनी की सी डी निकाल लो।
 जार से एक मुट्ठी चीनी निकाल उसने मुँह में डाल लिया। मुँह में मिठास भरती चली गई।
वह दूसरे लोक में था जहाँ भूख जैसा कुछ नहीं होता।
रात का जश्न!... लजाई पत्नी हैरान सी उसे देखती रह गई। ...           

रविवार, 27 नवंबर 2011

कास, कुश, खस, दर्भ, दूब, बाँस के फूल और कुछ मनबढ़ई

kaasa
शरद ऋतु में कास, Saccharum spontaneum
कास हर शरद फूलते हैं। प्रकृति मैदानों के उन सरेहों को यह उपहार हर वर्ष देती है जहाँ हिमपात नहीं होते। उन्हें बहलाती है – क्या हुआ जो हिमपात नहीं? इनका सौन्दर्य अलग है। मन्दानिल पर कभी हिम लहरा सकता है क्या? लेकिन इन्हें देखो तो सही! कितना सुन्दर नृत्य है!!
मेरे मन पर नहर किनारे पिताजी के साथ खेतवाही निकलने पर दूर दूर तक पसरे लहराते कास कुंजों की छवि अमिट है। पैसेंजर ट्रेन से गुजरते उन पर अठखेलियाँ करती धूप और लहराती शुभ्र धुपछैंया – खिड़कियों से इससे बढ़ कर प्यार नहीं किया जा सकता। आप भी सोचेंगे आज क्या ले कर मैं बैठ गया?
यदि आप निपट अकेले खेतों के मेड़, बाग, दिन में अँधियारे बगीचों, नहर किनारे नहीं भटके हैं, हर सौ एक पग पर किसी अनजान वनस्पति को देख बच्चे सरीखे कौतुहल के साथ बैठ उसे कुछ क्षण निहारे नहीं हैं और भोले आश्चर्य से ग्रसित नहीं हुये हैं तो आप को मुझे समझने में कठिनाई होगी। बचपन गया, कैशोर्य गया; नून रोटी के चक्कर में अब वैसा नहीं हो पाता लेकिन जब भी अवसर मिलता है, मैं नहीं चूकता। इंटरनेट और ब्लॉग का संसार भी अवसर दे देता है।
इस बार चक्र प्रारम्भ हुआ अवधिया जी की इस पोस्ट से जिसमें कास का उल्लेख था। कास या काँस को देवी दुर्गा का स्वागत पुष्प माना जाता है - शारदीय नवरात्र के आसपास मातृपूजा हेतु प्रकृति का उपहार। अवधिया जी का फैन होने के लिये स्वयं को सराहा और मैं तो मैं! पुराना भ्रम सिर उठा बैठा - कहीं कास मूँज तो नहीं? यह प्रश्न अचानक उठा और पवित्री की स्मृति हो आई। वही पवित्री जो कुश की बनती है और पूजा पाठ के अवसर पर हाथ में अँगूठी की तरह पहनी जाती है। कुश और मूँज में अन्तर को लेकर मैं उलझा करता था। नवरात्र में पूजा करते पुरोहित जी अन्तर समझाने के असफल प्रयत्न करते और बात दर्भ पर आ कर और उलझ जाती। वैदिक युग से ही दूर्बा, कुश और दर्भ (आधुनिक विज्ञान के विश्लेषण से देखें तो सब के सब घास) बहुत पवित्र माने गये हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कुश(र), दर्भ, सैर्या और मूँज का वर्णन मिलता है जहाँ साँप(?) और उस जैसे अन्य जीव अदृश्य विचरण करते हैं: 
शरास: कुशरासो दर्भास: सैर्या उत।
मौञ्जा अदृष्टा बैरिणा: सर्वे साकं न्यलिप्सत॥191.3॥ 
doob
'दूर्बा' या 'दूब'
Cynodon dactylon 
(syn. Panicum dactylonCapriola dactylon) 
कुश , Desmostachya bipinnata  
दूर्बा या दूब को तो आप सब पहचान सकते हैं लेकिन कुश और दर्भ? हमारे बच्चे तो सम्भवत: दूब भी न पहचान पायें! ऋग्वेद के भाष्यकार सायण के समय से ही कुश और दर्भ को लेकर भ्रांति व्याप्त रही है। लोक में और सामान्य व्यवहार में कुश या कुस या कुसा और दर्भ या दाभ या डाभ या डाभी प्राय: समानार्थी रूप में आज भी प्रयुक्त हो रहे हैं लेकिन वास्तव में ये भिन्न हैं। कुश का वैज्ञानिक नाम Desmostachya bipinnata है। पुराने समय में कुश को 'खर दर्भ' कहा जाता था जब कि दर्भ को 'मृदु दर्भ'। दोनों नामों में दर्भ प्रयुक्त होने से भ्रम हुआ और लोक ने सरलीकरण कर दोनों को एक कर दिया।


दर्भ का वैज्ञानिक नाम Imperata cylindrica  है। इसे लोक में डाभ या डाभी नाम से भी जाना जाता है लेकिन जैसा कि पहले बताया, कई बार लोग कुश को भी डाभ या डाभी बोलते हैं। अन्य देशों में इसे जापानी घास और Red Baron नामों से भी जाना जाता है। इसकी पत्तियाँ ऋतुचक्र और अवस्था अनुसार लाल या बैंगनी सदृश भी हो जाती हैं। अथर्ववेद में दर्भ की प्रशंसा में कई मंत्र हैं। 
दर्भ या डाभ, Imperata cylindrica

mooj
मूँज, Saccharum munja 
... इन वनस्पतियों को लेकर मन में घूमता चक्र कुछ धीमा पड़ा था कि आज अपने प्रिय कवि अविनाश चन्द्र की इस कविता पर दृष्टि पड़ी। हिमांशु, देवेन्द्र पांडेय, रजनीकांत, किशोर चौधरी, संजय व्यास और अविनाश ऐसे कविजन हैं जिनकी हर कविता से कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है। अविनाश ने ‘वानीर’ शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ होता है – मूँज। अद्भुत बिम्बों के लिये बधाई देने के पश्चात अचानक यह पंक्तियाँ मन मथने लगीं (मन्मथ से अर्थ न जोड़ें Smile )
कौन खींचता है नियम से,
मारूति के नव परिपथ?
वानीर झुरमुटों के बीचोंबीच,
यत्र-तत्र काटते पगडंडियों को।
मैं सोचने लगा यहाँ वानीर के स्थान पर कास का प्रयोग किया जाय तो कैसा बिम्ब हो?
कौन नियम नित्य का यह?
नाचते हैं कास झुरमुट
मन्दानिल के मद्धम ताल

भूलती पगडंडियाँ मार्ग।
अविनाश के यहाँ मारुति के परिपथ को खींचने वाला प्रधान है – कदाचित उद्योगप्रधान बिम्ब और मेरी मनबढ़ई में नियम लेकिन कास झुरमुट के नृत्य पर पगडंडियों का मार्ग भूलना भारी पड़ जाता है – कदाचित अलसाता सा बिम्ब। ‘जाने दूर नक्षत्रों से कौन?’ और ‘कौन तुम संसृति जलनिधि तीर’ वाली उत्सुकता दोनों में है। खैर! यह मेरी मनबढ़ई ही है, उनके जैसा अर्थगहन बिम्ब गढ़ना अपने वश का नहीं है...मूँज और कास एक ही हैं क्या?
वामन शिवराम आप्टे के शब्दकोष में मूँज के लिये ‘दर्भाह्वय:’ शब्द बताया गया है। अब ‘आह्वय:’ का अर्थ कोई संस्कृत विदुषी/विद्वान बतायें तो पता चले। आप्टे शब्दकोष तो उसका अर्थ A name, appellation बताता है। तो क्या मूँज भी पवित्र दर्भ से सम्बन्धित है? उपनयन संस्कार के समय मूँज की मेखला पहनाई जाती है। सामान्य अवधारणा के विपरीत मूँज और कास अलग वनस्पतियाँ हैं। मूँज का वैज्ञानिक नाम Saccharum munja है। डा. पंकज अवधिया ने कास (Saccharum spontaneum) से इसकी भिन्नता को http://botanical.com पर अपने आलेख में स्पष्ट किया है। तय है कि प्राचीन काल से ही मूँज, कुश और दर्भ वनस्पतियाँ आनुष्ठानिक और औषधीय कार्यों में प्रयुक्त होती रही हैं लेकिन कास नहीं। 
kush
खस या खसखस या उशीर या वीरण या काळावाळा
Vetiveria zizanioides  
खस या खुश (Vetiveria zizanioides) की भीगी चट्टी गर्मियों में शीतल बयार के लिये जानी जाती रही है। वही जिसकी जड़ के अर्क से मीठा खस का शर्बत बनता है और जिसे परम्परा से उशीर, हरिप्रिय और सुगन्धिमूल के नाम से भी जाना जाता रहा है। बिहार में इसकी कृषि की जाती है। 
बिहार सिद्धार्थ गौतम के ज्ञानप्राप्ति की भूमि है और कहते हैं कि उन्हें कुश की चटाई पर बैठ कर ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसलिये सनातन के साथ साथ बौद्ध परम्परा भी कुश को पवित्र मानती है लेकिन जिन्हें कुश की चटाई कह कर बौद्ध और अन्य देशों को निर्यात किया जाता है, वह वास्तव में खस या खुश की बनी होती हैं। बिहार में यह प्रचुरता से मिलता है। अब यह शोध का विषय है कि गौतम की चटाई कुश की बनी थी या खस खुश की? 
लोक में जिस तरह से दर्भ और कुश को लेकर भ्रांति व्याप्त है, कहीं बौद्ध परम्परा में कुश या खस को लेकर तो नहीं है? हो सकता है कि गौतम खश यानि उशीर की चटाई पर ही बैठे हों, वैदिक कुश की चटाई पर नहीं। मुझे संहिताओं में उशीर नहीं मिला। क्या वैदिक युग में यह वनस्पति ज्ञात नहीं थी? 


...शांत सन्ध्या में फोन आया तो गरिमा बिटिया लाइन पर थी – बड़े पापा! आप जानते हैं बाँस फूलते हैं तो बहुत बुरा होता है? मेरी टीचर ने बताया है और घर पर पूछने को भी कहा है। अब टीचर के मन में जो था, वही जानें लेकिन मैं एक और चक्कर खा गया। बाँस भी कथित घास जाति का ही है। अपने जीवनकाल में एक ही बार फूलता है और फिर मर जाता है। बाँस में ‘सामूहिक पुष्पन’ होता है – भूगोल-ऋतु-निरपेक्ष, जिसकी आवृत्ति दशकों से सदियों तक में होती है। जापान और संसार के कुछ भागों में 130 साल बाद बाँस फूलते पाये गये हैं तो मिजोरम और उत्तरपूर्व के अन्य राज्यों में लगभग 48 वर्षों की आवृत्ति देखी गई है। 1862, 1911, 1959 और 2008 में बाँस फूले और हर बार विनाश या उपद्रव घटित हुये। होता यह है कि बाँस फूलने के बाद उनमें बीज पड़ते हैं जिसके पश्चात बाँस मर जाते हैं। उनकी सामूहिक मृत्यु के कारण जिन क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था बाँस पर आधारित है, वहाँ नई बाढ़ तैयार होने तक इस संसाधन का अभाव हो जाता है। बीजों की अधिकता से खाने की उपलब्धता कई गुना बढ़ जाने के कारण चूहे बहुत बढ़ जाते हैं। चूहे बाकी फसलों को चौपट कर देते हैं और दुर्भिक्ष की स्थिति आ जाती है।
bamboo_flower_MogensEngelund
(1)

(2)
bamboo_flowers_in_mizoram_ShahanazKimi
(3)

(1) बाँस के फूल, चित्र : Mogens Engelund
 
(2) बाँस के फूल, चित्र : Joi Ito

(3) बाँस के फूल, मिज़ोरम, चित्र : Shahanaz Kimi
1959 में मिजोरम में यही हुआ। धीरे धीरे अकाल सी स्थिति हो गई और केन्द्र सरकार की बेरुखी ने पहले से जारी अलगाववादी आन्दोलन को बहुत शक्तिशाली और जनप्रिय बना दिया। परिणाम हुआ – लगभग 20 वर्षों तक जारी संघर्ष जिसका समापन राजीव गान्धी लालडेंगा समझौते के साथ हुआ। मिजोरम में विद्रोहियों की सरकार बनी और वे मुख्य धारा में आये...
...अब समाप्त करता हूँ, बात बाँस के फूलने तक जो आ गई! अविनाश के रहते विनाश की बात कौन करे लेकिन विराम होना ही चाहिये Smile बहुत हो गई घास खोदाई! 
आप यह समझ लें कि मिलते जुलते नामों से बहुत भ्रम हो सकता है। उनके गुण एकदम अलग हो सकते हैं। 'कास, कुश और खस' या 'दूब, दर्भ(डाभ)' नामों के मामले में साम्यता रखते हैं लेकिन हैं एक दूसरे से एकदम अलग -  पृथक, स्वतंत्र अस्तित्त्वधारी।  
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आभार: 
विकिपीडिया, डा. पंकज अवधिया, एस. मेहदीहसन, एस. जयलक्ष्मी, अर्जुन पात्रा, वी. के. लाल, ए. के. घोष, तमाम अन्य वेबसाइट और अपने अभिषेक ओझा जिनकी टिप्पणी ने लोक प्रेक्षण से उद्भूत कुश और खस के एक ही होने की अपनी धारणा पर मुझे पुनर्विचार और शोध को प्रेरित किया। 
अभिषेक जी से अनुरोध है कि वह भी अपनी इस धारणा कि मूँज और कास एक ही है, में सुधार कर लें। :) 
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यह आलेख अपने प्रकाशन के पश्चात 01/12/2011 को प्रात: 9 बजे तक संशोधित, परिवर्द्धित और पुनर्प्रकाशित किया गया।