बुधवार, 20 अप्रैल 2011

तिब्बत- चीखते अक्षर : अपनी बात

  
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साम्यवादी चीन में तिब्बती बच्चे 
मार्क्सवाद चिंतन की एक द्वन्द्ववादी, भौतिकवादी पद्धति है जिसका उद्देश्य सामंतवाद-पूँजीवाद-समाजवाद से आगे साम्यवादी समाज की स्थापना है जहाँ ‘सब बराबर’ होते हैं। अपनी सुव्यवस्थित, निर्मम और बराबरी की रोमान्टिक अवधारणा के कारण मार्क्सवाद सदा से ही युवा वर्ग को आकर्षित करता रहा है और रहेगा। भाववादी चिंतन के विपरीत यह मनुष्य के विकास और कल्याण के लिये मनुष्य को ही पर्याप्त मानता है, ईश्वर को नकारता है और धर्म को अफीम की संज्ञा देता है जो सोचने की तार्किक क्षमता को कुन्द कर देता है। वर्गसंघर्ष और क्रांति मार्क्सवाद के उद्देश्यप्राप्ति हेतु अस्त्र हैं।
 मार्क्स के अलावा ऐसे चिंतन के और भी ‘वैरियेंट’ रहे हैं, जैसे – 'बन्दूक की बैरल से क्रांति उगलता' माओवाद, उत्तर कोरिया में किम-इल-सुंग की 'चुच्चे (juche)' चिन्तन पद्धति आदि। कुछ लोग पहली क्रांति (रूस, सोवियत संघ) के जनक के नाम से लेनिनवाद को भी कुछ अंतरों के कारण अलग मानते हैं। सर्वहारा(उत्पादन के स्रोतों से वंचित और श्रम को बेच कर जीने वाला वर्ग) की निरंकुशता का प्रतिपादन करने वाले इस चिन्तन ने इतिहास में दो बड़ी क्रांतियाँ कीं - रूस की क्रांति और चीन की क्रांति। राज्य के शोषण, दमन और निरंकुशता के विरुद्ध खड़ा यह स्वघोषित ‘लोकतांत्रिक’ आन्दोलन जब सत्ता में आया तो कई गुना दमनकारी हो गया। सोवियत संघ में स्टालिन ने हिटलर से भी अधिक लोगों को लम्बी यातनायें देकर मरवा दिया। चीन के साम्राज्यवादी कारनामें और दमन तो जग जाहिर हैं ही।

ईश्वर को पूर्णत: नकारने वाले और मानव मेधा की वकालत करने वाले मार्क्सवादियों के लिये मार्क्स या माओवादियों के लिये माओ स्वयं किसी ईश्वर से कम नहीं। अन्धानुसरण से वैचारिक असहिष्णुता आती है जिसकी चरम परिणति उसी जन के दमन में होती है जिसके कल्याण के लिये क्रांतियाँ की जाती हैं। वैचारिक अतिवाद कितना घातक हो सकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण है – तिब्बत। माओ के लालों ने तिब्बत में यातना, दमन, विनाश और हत्याओं का जो नंगा नाच किया वह छिपा नहीं है। फिर भी अन्धसमर्थक और मस्तिष्क को  मार्क्स/माओ जैसे 'ईश्वरों' के यहाँ गिरवी रखे लोग चीन के तंत्र को ‘राज्य नियंत्रित पूँजीवाद’ और सोवियत तंत्र को ‘सुविधाभोगी समझौतावादियों का तंत्र’ बता कर जनता को उन क्षेत्रों में मूर्ख बनाते रहे हैं जहाँ तथाकथित ‘क्रांतियाँ’ नहीं हुई हैं लेकिन उसकी सम्भावनायें पूँजीवादी शोषण तंत्र के कारण परिपक्व हैं। इनके हर तंत्र जनविरोधी साबित हुये हैं फिर भी ये बराबरी के ‘स्वर्णयुग’ के सब्जबाग दिखाने में लगे हुये हैं। वे इस तथ्य को भुला चुके हैं कि प्रगति की मौलिक शर्त है - वैचारिक कार्मिक स्वतंत्रता। व्यक्ति, समाज और परिवेश के आपसी आदान प्रदान और द्वन्द्व की स्थिति में विचार स्थैतिक नहीं रह सकते। अगर रहेंगे तो अन्तत: निरंकुश क्रूर दमन को ही जन्म देंगे चाहे उनके कारक सामंतवादी हों, पूँजीवादी हों या साम्यवादी हों। पिसेगा मनुष्य ही।
 तिब्बत केन्द्रित प्रस्तुत अनुवाद अलग किस्म के इन मठाधीशों की करनी को उजागर करता है। एक पूरी सभ्यता को माओवादियों ने न केवल नष्ट भ्रष्ट कर दिया बल्कि अपार जनहानियाँ भी कीं। ‘स्वर्णिम युग’ के लिये भारत के जंगलों और गाँवों में क्रांति के नाम पर लूट और भयदोहन करने वाले मानवता के अपराधी सत्ता हाथ में आने पर कितने नीचे गिर सकते हैं, यह दस्तावेज उसकी झाँकी है।

मानव मस्तिष्क में सच जीवित रहे इसलिये उसे बार बार बताना पड़ता है। ‘बिनायकी’ हो हल्ले के जमाने में सतर्क ‘वाणी’ को बोलना ही चाहिये। इस लोकतंत्र में इसकी स्वतंत्रता तो है!
अगले अंक से अनुवाद प्रस्तुत करूँगा। (अगला भाग)

15 टिप्‍पणियां:

  1. जैसा कि आपने कहा - "एक पद्धति , जिसका उद्देश्य सामंतवाद-पूँजीवाद-समाजवाद से आगे साम्यवादी समाज की स्थापना है जहाँ ‘सब बराबर’ हों " लेकिन यह मनुष्य के मूल स्वाभाव को अनदेखा करते हुए बनायीं एक धारणा भर है - क्योंकि मनुष्य की यह बेसिक इंस्टिंक्ट है कि वह अपने ग्रुप में सर्वश्रेष्ठ होना / अपना सर्वश्रेष्ठ होना प्रूव करना चाहता है | जैसा राहुल जी के पत्र में लिखा था "बुर्जुआ(bourgeoisie) और सर्वहारा (proletariat) का आपसी संघर्ष वर्ग संघर्ष है जिसमें सर्वहारा की विजय हो एवं 'वर्गविहीन समाज' की स्थापना" किन्तु यह स्वप्न खुद ही को काटता है - इसलिए कि जो भी विजयी हो - वह फिर नए सिरे से "हैव्स एंड हेव नोट्स" में "हैव्स" का प्रतिनिधि हो कर दोबारा वर्गों का स्थापन करता है - क्योंकि कभी भी समूची जनसँख्या तो क्रांति में उतरती नहीं - तो जो भी पिछली क्रान्ति का नेतृत्व करता है - वह ऑटोमेटीकलि बाकि कि जनसँख्या से श्रेष्ठ माना जाता है - और धीरे धीर वह भूल जाता है कि उसका उद्देश्य मूलभूत फ़र्कों को समाप्त करना था| वह यह मानने लगता है कि उसके बनाये सिद्धांतों से ही समाज सही दिशा में चल सकता है - और साधारण जन मूर्ख हैं - जो अपना भला नहीं समझ सकते - और इस सोच के चलते वह कास एक "लीडर" से "डिक्टेटर" बन जाता है - वह खुद भी नहीं जान पाता | यह टिप्पणी तो पूरी पोस्ट हो चली - क्षमा चाहती हूँ - इस पर अब अपने ब्लॉग में एक पोस्ट लिखती हूँ ....यदि समय मिले तो देखिएगा

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  2. सार्थक!! गीतार्थ सुलझी विवेचना!! मर्म-प्रकाशन!!

    स्वागत रहेगा अगली कडी का!

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  3. ‘बिनायकी’ हो हल्ले के जमाने में सतर्क ‘वाणी’ को बोलना ही चाहिये

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  4. साम्यवादी समाज की स्थापना है जहाँ ‘सब बराबर’ होते हैं

    aaisa samaj aaj mumkin nahi hai .....

    jai baba banaras......

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  5. Every revolution evaporates and leaves behind only the slime of a new bureaucracy. : Franz Kafka

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  6. बहुत अच्छा लेख सहमत हे जी, अगली कडी का इंतजार

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  7. तिब्बत का विनाश सभ्यताओं के इतिहास में धब्बा रहेगा।

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  8. अभी यह समझ में आया

    अन्धानुसरण से वैचारिक असहिष्णुता आती है


    अब आगे पढ़ता हूं....

    बेहतरीन सीरीज के लिए साधूवाद...

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  9. वाह...आलसी के चिट्ठे में रतन मिल गये। आज कुछ अच्छा पढ़ने की इच्छा ने फेसबुक से इतर जाने का आदेश दिया। अचानक से आपका ब्लाॅग आया ज़ेहन में। आज की रात तिब्बत में गुजारता हूँ। आभार भैया आपका।

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