शनिवार, 30 अप्रैल 2011

जोरू से बिगड़ी बात, हुये जाति से बाहर

बहुत दिनों पहले किसी पुरवे में एक आदमी रहता था। वह अपनी जाति पंचायत का मुखिया था। बहुत अनुशासनप्रिय था और निर्मम दंड देने के लिये जाना जाता था। एक दिन उसे कुलदेवी का सपना आया - तुम दंड देने में बहुत निर्मम हो गये हो। यह ठीक नहीं। अपने को सुधारो। 
सबेरे उसने अपनी पत्नी को बात बताई तो उस भली महिला ने उसे राह सुझाई - दंड ऐसा दो कि लोग बहुत दुखी न हों और भय भी बना रहे। 
मुखिया झुँझलाया - अपने पुओं की तरह नीरस गोलगाल बातें न करो। साफ साफ कहो। 
उसकी पत्नी ने समझाया कि मेंड़ डाड़ पर गोरू के मुँह मारने जैसी शिकायतों पर कुछ न करो, समझा दिया करो। बाकी जहाँ चार पैसे जुर्माना लगाते हो उसे एक पैसा कर दो। 
वह मान गया और कुछ दिन मामला ठीक चला लेकिन उसे यह लगने लगा कि लोगों ने उसे भाव देना बन्द कर दिया है। और जातियों के मुखिया उसकी खिल्ली उड़ाने लगे। पंचायत में धन की कमी हो गई लिहाजा उस वर्ष कुलदेवी की पूजा भी ठीक से नहीं हुई। लोग नाराज़ हो गये क्यों कि उन्हें तो धूम धड़ाके की आदत पड़ चुकी थी।
पत्नी ने कहा - इस तरह पूजा पाठ करना बेकार है। अगली बार मुझे पियरी ला देना। हम औरतें यह काम कर लेंगी। मुखिया को बात बुरी लगी और उसने अपनी पत्नी को खूब खरी खोटी सुनाई।    
कुछ दिनों में उसके दाहिने हाथ ने काँप पकड़ ली। कुलदेवी ने फिर दर्शन दिया - पैसे का दंड लगाना छोड़ दो हाथ ठीक हो जायेगा। उसने वैसा ही किया। हाथ ठीक होता गया और उसकी इज़्ज़त और कम होती गई। 
दूसरे साल की पूजा उसे अपने धन से करानी पड़ी। उसे इसका दुख नहीं था लेकिन दिन ब दिन घटती प्रतिष्ठा से वह बहुत परेशान हो गया। अब देवी ने भी दर्शन देना बन्द कर दिया था जैसे उन्हें उसकी इज़्ज़त से कुछ लेना देना ही नहीं! 
उसने अपनी पत्नी से फिर सलाह लिया। उसकी पत्नी ने कहा - अपनी इज़्ज़त अपने हाथ। 
उसे फिर समझ में नहीं आया। पूछने पर उत्तर मिला - इतनी सीधी बात नहीं समझ सकते तो जाति के मुखिया क्यों बने बैठे हो? छोड़ दो। 
छोड़ने की बात करती है!  उसे अपनी जोरू जबर लगी। उसने बात नहीं मानी, झुँझलाया भी कि इज़्ज़त के चक्कर में हाथ काँपना फिर से न शुरू हो जाय। लेकिन उसे एक बात समझ में आ गई कि उसे ही कुछ करना पड़ेगा। उसने यह भी तय किया कि अपनी पत्नी से सलाह लेना बन्द कर देगा। 
अब वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया। हाथ काँपने के डर से पैसे का दंड लगाना तो बन्द रखा लेकिन बात बेबात लोगों को जाति बाहर करने लगा। कुछ ऐसे जैसे बकरी दूसरे के खेत में गई - परिवार जाति बाहर!
कुछ दिन बीते और उसे महसूस होने लगा कि खोई इज़्ज़त वापस आने लगी थी। एक दिन कुलदेवी ने सपने में फिर दर्शन दिये - तुमने अपनी हरकत नहीं सुधारी तो मैं तुम्हें छोड़ जाऊँगी। 
उसे कुलदेवी की धमकी समझ में नहीं आई। छोड़ने से क्या मतलब? मारे ज़िद के अपनी पत्नी से भी नहीं पूछा। 
कुछ दिन और बीते। 
एक सुबह उसके द्वारे उसकी बिरादरी वाले आये। एक ने आगे बढ़ कर कहा - हम तुम्हें विदाई देने आये हैं। जाति से विदाई।
मुखिया ने पूछा - इसका क्या मतलब? 
उसे उत्तर मिला - तुम निरे मूरख हो। तुम्हारी लोगों को जाति बाहर करने की आदत के कारण अब सिवाय तुम पति पत्नी के कोई और जाति में बचा ही नहीं। हम जातिबाहर लोगों ने मिल कर खुद को जाति में शामिल कर लिया है और तुम्हें जाति बाहर। 
बात यूँ बिगड़ी देख वह घर में घुसा कि पत्नी से सलाह ले, वह वहाँ नहीं थी। भीड़ में से एक बूढ़े ने बताया - वह तुम्हें छोड़ गई। कह रही थी कि उसने तुम्हें आगाह भी किया था लेकिन तुम नहीं माने। 
वह सिर पकड़ कर बैठ गया। उसे सब समझ में आने लगा। 
     
              

20 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही समय पर यह बोध कथा आयी है -
    मुझे पता है -सबसे कठिन जाति अवमाना

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  2. न्याय की प्रक्रिया बहुत संतुलित होती है, सतत लगना पड़ता है।

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  3. अपनी इज़्ज़त अपने हाथ। ....ek sunder katha...

    jai baba banaras..............

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  4. संशय तो तभी शुरू हो गयी थी जब जोरू से राय लेना शुरू किया था..
    अपने विवेक से मुखिया बन बैठा जब घालमेल किया तो न तो मुखिया रहा न जाती का..
    किसी भी प्रक्रिया में योग्य और उपयुक्त व्यक्तियों से सुझाव लेना चाहिए..

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  5. कहानी अच्छी है, किन्तु कई बार होता ये है की ऐसी कहानियो का लोग अपने समझ के हिसाब से अर्थ निकालने लगते है या ये कहे की उससे शिक्षा लेने लगते है इसलिए जरुरी ये है की इन बोध कथाओ के साथ मिलने वाली शिक्षा या कहने का तात्पर्य क्या है भी लिख दे ताकि सभी पढ़ने वाले उसी नजर से उसे पढ़े न की अपनी समझ और सोच के हिसाब से |

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  6. दूसरी बार आया हूँ और अपना सच कहता चलूँ. पहली बार में कथा का अर्थ समझ न सका. सोचा कुछ देर बाद फिर आऊंगा क्या पता किसी विस्तृत टिपण्णी में कथा का मर्म छिपा नज़र आ जाये. मगर अफ़सोस है की अभी तक की सारी टिप्पणियां "बहुत सुन्दर" " बहुत बढ़िया" टायप ही हैं. पर हाँ इस बार अंशुमाला जी की टिपण्णी ने हिम्मत दी है इसलिए मन की बात कह पाया हूँ. वैसे एक बार और ट्राई जरुर करूँगा. कल रविवार जो है.

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  7. कहानी रुचि कर लगी, अगर यह मुखिया दिमाग से काम लेता तो जरुर कामयाब होता, लेकिन दंड दिया ही इस लिये जाता हे कि दोषी को भय हो,लेकिन भय तभी होगा जब उसे दुख होगा...इस लिये पुरी बात समझ मै नही आई,

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  8. मुझे लगा कि इस शानदार पोस्ट पर केवल एक "वाह" लिखना काफी नहीं था इसलिये फिर आया हूँ।
    वाह वाह!

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  9. परबुधिया, धन-धरम दोनों से जाता है.

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  10. विचार शून्य ने अपने स्वभाव के अनुरूप विचार आमंत्रित किये पर शर्मा जी वाह-वाही डबलिया के चले गये। राहुल जी ने परबुधिया कहा । मुझे तो लगता है वह हठधर्मी, घोर अहंकारी था और मूढ़ था। ठीक ही लिखा है अंशुमाला जी ने लेकिन अच्छा किया जो अर्थ नहीं लिखा वरना कक्षा कैसे चलती! सभी जय गुरूदेव कह कर चल देते। आप मौन तोड़ें या अचारज जी को आमंत्रित करें तो अपने भी ज्ञान चक्षु खुलें।

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  11. आप भी क्या आलतू फालतू लिखते रहते हैं !

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  12. इस पोस्ट पर हम अब आ पाये, ढूँढ़कर पढनी होगी.. ऐसी कथाएँ तो..

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