शनिवार, 18 जून 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (7)

imageपूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन
तिब्बत – क्षेपक
तिब्बत - चीखते अक्षर (1), (2), (3), (4), (5), (6)
अब आगे ...
सांस्कृतिक क्रांति


जैसा कि बताया जा चुका है सांस्कृतिक क्रांति के पहले ही तिब्बती संस्कृति का अधिकांश ध्वस्त किया जा चुका था। यह दौर तिब्बतियों द्वारा झेले गये मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न की चरम गहराई को चिह्नांकित करता है। धर्म का पालन एकदम असम्भव बना दिया गया, व्यक्तिगत सम्बन्ध, केश-सजा, वेश भूषा, व्यक्तिगत आदतें और यहाँ तक कि सोने के तरीके भी कम्युनिस्टों की सावधान निगरानी में रहे (आज भी हैं।) आज भी ऐसे स्त्री पुरुष जो परस्पर विवाहित नहीं है, साथ सोते हुये 'पकड़' लिये जायँ तो अक्सर उन्हें सार्वजनिक रूप से जलील किया जाता है और दंडित किया जाता है। अनधिकृत निवासियों पर नियंत्रण रखने और जाँच करने के बहाने घरों में घुस कर नियमित तलाशियाँ ली जाती है। 1959 में ल्हासा के अधिकांश पुरुषों को ल्हासा से दूर श्रमिक शिविरों में भेज दिया गया और प्रतीत होता है कि उनमें से बहुत कम लौट पाये। ल्हासा ‘भयभीत भूखी स्त्रियों’ का शहर हो गया। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान दो जनों के बीच का संक्षिप्त वार्तालाप भी शक के घेरे में आ जाता था अगर उसमें पार्टी नारों का मुलम्मा न हो।

थामज़िंग (संघर्ष सत्र) का एक चित्र
एक थामज़िंग सत्र : चित्राभार - विकिपीडिया
थामज़िंग (संघर्ष) सत्रों के दौरान अनगिनत लोग मर मरा गये। इसमें आश्चर्य नहीं कि भयानक ‘विचार पुलिस’ और ऑर्वेल के उपन्यास ‘1984’ सम प्रतीत होती परिस्थितियों के कारण बहुत से तिब्बती पागल हो गये। एक तिब्बती महिला ने लिखा है कि उसकी बहन को चटक रंगीन थियेटरनुमा कपड़ों जैसा कुछ पहने और स्वयं से बातें करते ल्हासा के चारो ओर आवारा घूमते देखा गया। वह अपनी बहन के बारे में चिंतित थी क्यों कि उसके पाँच बच्चे थे और उसका पति जेल में था। लेकिन वह आने जाने पर कड़े नियंत्रण के कारण उससे मिलने नहीं जा सकती थी।

एक दूसरे ने लिखा है कि उसने तिब्बती बच्चों से भरी हुई कई लॉरियों को ल्हासा से गुजरते देखा जिन्हें उनकी हत्या करने के लिये ले जाया जा रहा था। कद में वे इतने भी नहीं थे कि उन सवारियों के साइड से देख सकें लेकिन वे गोली मारे जाने लायक कद रखते थे। नौ और दस वर्षों की आयु वाले बच्चे समूह में चिड़ियों का शिकार करने और मक्खियों को मारने के लिये भेजे जाते थे और शाम को उन्हें चीनियों के सामने अपने ‘शिकार’ को जमा करना होता था। शिकार में सबसे कम सफल बच्चों को क्रूर दंड दिया जाता और उनके माँ बाप भी ‘प्रतिक्रियावादी संतान’ पैदा करने के लिये दंडित किये जाते थे। चीनियों का यह कहना था कि चिड़ियों को इसलिये मारना था कि वे फसलों को चट कर जाती थीं। हालाँकि, तिब्बती यह बताते हैं कि इस व्यवहार को लागू करने के पीछे इस मंशा की सम्भावना अधिक थी कि पुरानी संस्कृति के मनोबल को तोड़ दिया जाय जो बौद्ध धर्म के गहन प्रभाव के कारण जीवन के हर रूप को बहुत आदर देती थी।

कुंसांग पल्जोर, जिसके माता पिता की चीनियों ने हत्या कर दी थी और जिसे हजारों और युवाओं के साथ कम्युनिस्ट सिद्धांत सीखने के लिये चीन भेज दिया गया था; ने हत्या, बलात्कार, यातना, भूख, पूर्ण दमन और सामाजिक अव्यवस्था के बारे में लिखा है। बहुत से विश्वासी तिब्बती कैडरों की तरह उसने भी जो देखा उससे विरुचित हो गया और भारत भाग गया।
(अगले भाग में जनसंख्या विस्थापन और असंतुलन)
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संघर्ष सत्र (थामज़िंग, Thamzing):
कम्युनिस्टों द्वारा जनता को बरगलाने के लिये गढ़े गये तमाम शब्दों में से यह एक शब्द माओ की देन है। कम्युनिस्ट समाज को ‘सर्वहारा’ और ‘बुर्जुआ’ दो प्रमुख वर्गों में बाँट कर रखते हैं। क्रांति के लिये वर्ग संघर्ष अनिवार्य है और सर्वहारा विरोधियों को वर्गशत्रु कहा जाता है।

प्रकट रूप में थामज़िंग ‘लक्ष्य(वर्गशत्रु)’ के हित के लिये आयोजित किया जाता है ताकि उसके मस्तिष्क में प्रतिक्रियावादी और प्रति-क्रांतिकारी (कुछ और शब्द जो हर उस सोच के लिये प्रयुक्त होते हैं जो कम्युनिस्ट सोच और विधि विधान का समर्थन नहीं करती) चिंतन का लेशमात्र भी न रहे।

इसके तहत ‘लक्ष्य’ को हजारो आँखों के सामने भीड़ द्वारा उत्पीड़ित और पीटा जाता है। भाँति भाँति की शारीरिक और मानसिक यातनायें दी जाती हैं जिसके दौरान ‘लक्ष्य’ को भीड़ से मुखातिब रहना होता है।

व्यवहारत: यह जनता के भीतर विभेद उत्पन्न करने की एक विधि है। बच्चों को अपने माँ बाप का त्याग सार्वजनिक रूप से करने को कहा जाता है, सेवकों को स्वामियों का, भिक्षुओं को अपने लामाओं का आदि। बीस, पचास और कभी कभी सैकड़ों की संख्या में लोग ‘लक्ष्य’ को पीड़ित और प्रताड़ित करते हैं जिनमें न मानने पर भावी अत्याचार की आशंका से त्रस्त उनके अपने परिवार वाले भी सम्मिलित रहते हैं।

इन सत्रों में 'लक्ष्य' को अपराध स्वीकृति के लिये बाध्य भी किया जाता है ताकि बाद में उसे मृत्युदंड दिया जा सके। अपराध स्वीकृति माओवादी तंत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण है क्यों कि उन्हें एक और स्वयंस्वीकृत प्रतिक्रियावादी या प्रतिक्रांतिकारी कम करने का ठोस और दिखाऊ तर्क मिल जाता है।
 
इन सत्रों के मनोदशा पर कुप्रभाव इस तथ्य से समझे जा सकते हैं कि पंचेन लामा लम्बे उत्पीड़नहीन सार्वजनिक संघर्ष सत्रों और बन्दी रहने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के पुन: सदस्य बन गये। इसके पहले उन्हें दलाई लामा को बलैकमेल करने और दलाई लामा के विरुद्ध सरकार समर्थित समांतर तिब्बती परम्परा की स्थापना के लिये चीनी मोहरे की तरह इस्तेमाल किया गया था। कालांतर में उन्हों ने अपना वह प्रसिद्ध चीन विरोधी भाषण दिया जिसके एक सप्ताह के भीतर ही उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। 

एक अंश The Voice That Remembers: A Tibetan Woman’s Inspiring Story of Survival से:

ama_adhe... एक दिन एक थामज़िंग में सम्मिलित होने के लिये टाउन से अभी लोगों को बुलाया गया। कई ग्रामीण और एक लामा गिरफ्तार किये गये थे। हम आतंकित थे कि हमारे टाउन में सबसे पहले प्रताड़ित होने वाले लामा हमारे परिवार के विशेष लामा खार्नांग कुशो थे। महिला सैनिकों में से एक वहाँ आई जहाँ बन्दी खड़े थे। भिखारियों से यह देखने को कहा गया कि उसने लामा से कैसा व्यवहार किया, उन्हें भी लामा के साथ वैसा ही करना था। खार्नांग कुशो को घुटनों के बल झुकने को बाध्य कर दिया गया और सैनिक उनके पैरों पर उनके पीछे खड़ी हो गई। तब उसने एक रस्सी लेकर उनके मुँह में ऐसे लगा दिया जैसे कि घोड़े के साथ किया जाता है और उनके सिर को झटके के साथ पीछे की ओर खींच लिया। उसने उनके चेहरे पर पेशाब उसे पीने को बाध्य करते हुये डाला। जब उन्हों ने इनकार किया, तो उसने पेशाब को उनके चेहरे पर यूँ ही उड़ेल दिया।

संघर्ष सत्र के जारी रहने के दौरान, झुके हुये बन्दियों को बाध्य किया गया कि वे भींड़ से मुखातिब रहें। खार्नांग कुशो के साथ इतना बुरा व्यवहार होते देख टाउन के कुछ लोग खड़े हो गये और चिल्लाये,”हमारे लामा ने ऐसा क्या किया है कि तुम लोग उन्हें इस तरह दंडित कर रहे हो?” तुंरंत ही सैनिकों ने उन लोगों को अलग कर दिया जो चिल्लाये थे और जेल में ले जाने के लिये ट्रकों में चढ़ा दिया। चीनियों ने उन्हें दिये जा रहे धर्माचार सम्बन्धित दंड की व्याख्या खार्नांग कुशो को यह बता कर की,”ईश्वर के नाम पर तुम बुरे रहे हो और अपने मत के प्रयोग से स्वयं के लाभ हेतु जनता को मूर्ख बनाते रहे हो।“
उस दिन अपने लामाओं और मित्रों की प्रताड़ना को देखने के बाद सभी लोग यह कहते हुये रो रहे थे,”अब चीनी कम्युनिस्टों के हाथों हमारे कष्ट भोगने के दिन आ गये।“...

एक अंश Wikipedia से:

... यू झियावोली एक स्टूल पर बहुत मुश्किल से संतुलन साधते खड़ी थी। उसका शरीर कमर से लम्बवत झुका हुआ था। उसके तने हाथ सीधे उसके पीछे यूँ थे कि एक से दूसरे की कलाई पकड़ी हुई थी। इस मुद्रा को ‘हवाईजहाज बनाना’ कहा जाता था। उसकी गर्दन के चारो ओर भारी जंजीर थी और जंजीर से एक ब्लैकबोर्ड, वास्तविक ब्लैकबोर्ड, लगा हुआ था जिसे उस विश्वविद्यालय की एक कक्षा से निकाला गया था जहाँ यू झियावोली ने पूर्णकालिक प्रोफेसर के तौर पर दस वर्षों तक पढ़ाया था। ब्लैकबोर्ड के दोनों ओर उसके नाम के साथ वे सारे लफ्फाजी ज़ुर्म लिखे हुये थे जिनका कि उसके ऊपर आरोप था...

यह सब एक विश्वविद्यालय, वह भी एक क्रीड़ांगन, में घटित हो रहा था जो उच्च शिक्षा के सर्वोत्तम चीनी संस्थानों में से एक था। दर्शकों में झियावोली के विद्यार्थी, सहकर्मी और पुराने मित्र थे। तमाशा देखने के लिये स्थानीय कारखानों से कामगारों और पास के कम्यूनों से किसानों को बसों में भर कर लाया गया था। भीड़ से बार बार लयबद्ध आवाजें आ रही थीं...”यू झियावोली मुर्दाबाद! यू झियावोली मुर्दाबाद!!”...

यू झियावोली याद करती हैं,”संघर्ष सत्र के दौरान मेरे मन में अनेक भावनायें उठीं। मैंने सोचा कि तमाशाइयों में कुछ बुरे लोग थे। लेकिन मैंने यह भी सोचा कि उनमें से बहुत से ऐसे थे जो अनजान थे, ऐसे लोग जो यह नहीं समझते थे कि क्या घट रहा थ, इसलिये मुझे उन लोगों पर दया आई। वे उन सत्रों में मज़दूरों और किसानों को ले आये थे जिन्हें समझ नहीं थी। लेकिन मैं क्रोधित भी थी।“...

12 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कभी मानव प्रजाति पर भी लज्जा सी आती है कि उसने कैसे कैसे
    जुल्म अपनी ही प्रजाति पर ढाए हैं -और उनके औचित्य सिद्ध करने के लिए कैसी कैसी
    लफ्फाजियों को अंजाम दिया है -साम्यवाद एक ऐसा ही जुमला रहा है जिसकी आड़ में मानव मात्र पर
    जोर जुल्म का दौर दौरा है -आज भी ऐसी सोच के लोग हैं और सभी देशों को /देशवासियों को इनसे सावधान
    रहना चाहिए और प्रतिवाद की कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार !

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  2. काफी खौफनाक है ये सब...हालांकि भारत में जो कुछ है उसके बावजूद चीन से तुलना करने पर सब कुछ काफी सुकून देता है

    हंसी के फव्‍वारे में- हाय ये इम्‍तहान

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  3. विस्तृत इतिहास पढ़वाने का आभार, बहुत लोग इन तथ्यों से अवगत नहीं होंगे।

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  4. दृढ़ निष्ठावान साम्यवादी ऐसे ही होते हैं. वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं.

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  5. ओह्ह क्रूर अति क्रूर है ये चीनी दमन मुझे लगता है की अंग्रेजो जैसा या उससे जयादा ही दमन तिब्बतियों का चीनी कमूनिस्ट कर रहे हैं..
    मगर दमन के बाद क्रांति होती है ..

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  6. चीन में अतिवाद है, चीन में क्रूरता है, चीन में ताओइज्म है, चीन में दुनिया पर छा जाने का दुस्साहस है, चीन में दुनिया को धता बताने की क्षमता है .....और इस सबके बाद भी चीन में विकास है .........यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है.
    एक बार चीन की आधुनिक पीढी का एक वीडिओ देखने को मिला .....शर्मनाक ....एक मिडिल स्कूल की छात्रा को स्कूल के सभी छात्रों ने क्लास में सबके सामने किसी बात पर पीट-पीट कर निर्वस्त्र होने के लिए बाध्य कर दिया ....उसके निर्वस्त्र होने पर भीड़ ने खुशी में नारे लगाए ...इनमें लड़कियां भी शामिल थीं. और भी वीडिओ देखे जिनमें सार्वजनिक रूप से वर्ज्य कृत्यों का सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शन किया गया था ....अवर्णनीय .......अमानवीय ....

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  7. आह कलेजा मुँह को आया !! वैसे तो यहूदियों वाली भी कम नहीं है, उनका डेथ केम्पों में जीवन, उन पर भयानक मनोवैज्ञानिक प्रयोग, चेतन अवस्था में सर्जरी करना और भय पर शोध आदि-आदि |
    पर सिर्फ सुन लेना और दिन-रात ऐसे विषयों पर शोधन करते रहना दोनों बातों में बहुत फर्क है | ये तिब्बत वाली Ph.D. करते हुए आपका मानसिक संतुलन जवाब नहीं दे रहा है ये भी बड़ी बात है !! या जवाब दे रहा है, पता नहीं, पर जांच के देखिये क्या आपके व्यवहार में इन दिनों हिंसा बढ़ी ;-) या एंग्जायटी को पकड़ गए या अवसाद को पकड़ गए या वैराग्य को पकड़ गए ? ;-) हाँ, मनोचिकित्सकों के अनुसार तो वैराग्य भी एक मानसिक रोग ही है, उनके अनुसार गौतम बुद्ध भी किसी मानसिक रोग से पीड़ित हैं ;-) ;-)

    वैसे बाऊ-मण्डली, 273010, तिब्बत आदि ये सब थीसिस, इनकी किताब कब छपने जा रही है, एडवांस बुकिंग कर लो मेरी तो |

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  8. @ इस सबके बाद भी चीन में विकास है .........यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है.
    दैत्यराज में विकास हो सकता है - मगर होता मानवता की क़ब्र पर ही है क्योंकि वहाँ दो ही वर्ग होते हैं - एक शासक जोकि राष्ट्र का अकेला और सबसे बडा पूंजीपति भी होता है और दूसरा शासित जिसमें ग़रीब मज़दूर किसान आदि आते हैं। इसके अलावा, मानवीय सम्बन्ध, भावनायें, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति, सम्वेदना, दया, करुणा आदि के लिये ऐसी व्यवस्था में कोई स्थान नहीं होता। एक और बात, दैत्यराज अपने अतिरिक्त किसी अन्य ईश्वर की पूजा को बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिये उसके निशाने पर सबसे पहले धर्म आता है। हिरण्यकशिपु से लेकर आज तक ऐसी व्यवस्थायें सबसे पहले धर्म को ही कुटिल, क्रूर और नियोजित तरीके से निशाना बनाती रही हैं।

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  9. क्रूरता की हदें पार करती अमानवीयता!!

    अनुरागजी नें सही कहा……

    "हिरण्यकशिपु से लेकर आज तक ऐसी व्यवस्थायें सबसे पहले धर्म को ही कुटिल, क्रूर और नियोजित तरीके से निशाना बनाती रही हैं।"

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  10. क्रूर और वीभत्स!
    क्या ये फ़ासीवाद नहीं है?
    और लेखों की प्रतीक्षा रहेगी

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