सोमवार, 22 अगस्त 2011

मेंहदी वाला सज्जन


(1) 

...जाने कितनी प्रेम कहानियाँ मैंने सुनी हैं लेकिन किसी मेंहदी लगाने वाले को अपनी गाहक से प्रेम हुआ हो, नहीं सुना था। सुनता भी कैसे? वे हमेशा तो समूह में बैठते हैं और ध्यान वाला बारीक काम गो कि हथेलियों को ही निहारते रहो, भरी भींड़ में किसी के नयनों से काजल चुराने की बात सोच भी नहीं सकते। मेंहदियाँ रोज रोज तो लगती नहीं! एक से दूसरी के बीच इतना समय होता है कि सूरत बारम्बार नजरबन्द होने का सवाल ही नहीं उठता। पहली नज़र वाली बात भी यहाँ लागू नहीं होती। मेंहदी लगाने वाले थोड़े अलग टाइप के भी लगते हैं जिनकी देह धजा और बातचीत से मासूम सी मेहरई छिटकती दिखती है। युवतियाँ ऐसों को क्यों भाव दें? अधिकतर तो अपने ब्वायफ्रेंड या प्रेमी के चिह्न बनवाते शर्माती भी नहीं। इसे इस धन्धे की खूबी कहिये या ज़रूरत, बात वहीं की वहीं रहती है कि मेंहदी चढ़ती भी है तो दूजे के लिये, लगाने वाले के लिये नहीं।  
(2) 
मेंहदी वाला सलीम पत्रकारपुरम चौराहे से लगे सहारा संकुल के पक्के फुटपाथ पर अन्य मेंहदी लगाने वालों के साथ बैठता है। एक दिन जब रंग बिरंगे सिंथेटिक मोटे कागजों से मेंहदी उपारने का कोन बनाते वह झुका इंतज़ार कर रहा था, तब उसके पास सज्जन वहाँ आ कर पहली बार बैठा। उसके हाथ में एक ही कोन था और चेहरे से वह भूखा दिख रहा था। 
 सज्जन मेंहदी लगाने वालों जैसा न दिखता था और न उसने उस तरह की जनानी जींस पहन रखी थी। सही कहें तो वह कॉलेज में पढ़ता सींकिया जवान सा दिखता था। पहले दिन उसे कोई ग्राहक नहीं मिली। शाम ढलने को आई तो सलीम ने जल्दी का बहाना ले एक लड़की को उसकी ओर टरका दिया। लड़की मोटी सी थी और उसने छिछोरे कपड़े पहन रखे थे। सज्जन ने बहुत विनम्रता से उससे कहा - बहन जी, आप के ऊपर मेरा रंग नहीं चढ़ेगा।  लड़की की त्यौरियाँ चढ़ गईं और वह डपट कर चली गई - क्या मतलब है तुम्हारा?
सज्जन को समझ में नहीं आया कि लड़की  बहन जी कहने से चिढ़ी थी कि रंग की बात से कि उसके इनकार करंने से। सलीम को सज्जन अजीब सा लगा। सज्जन ने उससे माँग कर एक समोसा खा लिया और बिना कुछ कहे चला गया। न चाहते भी अगले दिन सलीम उसका इंतज़ार करता रहा लेकिन सज्जन नहीं आया। महेश और अयान से भी उसने पूछा लेकिन उन्हें तो ऐसे किसी मेंहदी वाले का पता ही नहीं था। होता भी कैसे? एक दिन में कोई किसी को पहचानता है भला? फिर वह तो मेंहदी वाला लगता भी नहीं था। 
(3) 
राखी से पहले वाले दिन मार्केट में हर तरह की रौनक थी और सबसे अधिक भींड़ मेंहदी लगवाने वालियों की थी। पत्तर चढ़े गत्ते पर सलीम नई डिजाइन की तलाश में अपने हाथ घुमा रहा था कि बगल में सज्जन आ बैठा। 
"यह क्या कर रहे हो?"
"प्रेक्टिस कर रहा हूँ.... तुम कहाँ ग़ायब हो गये थे?"
सज्जन ने कहा - प्रेक्टिस करने से रंग तो नहीं चढ़ने लगेगा और हाथ की गदेलियों की गढ़न का क्या? सपाट गत्ते बेकार होते हैं। 
सलीम को उसकी बात नई सी लगी और लड़कियाँ आने लगीं। किसी को कलाई तक मेंहदी चाहिये थी तो किसी को पूरी बाँह पर तो किसी को बस गदेली पर। एक को मेंहदी लगा चुका तो सलीम ने सज्जन की ओर देखा। वह अकेला अपने अकेले कोन के साथ खोया सा बैठा था। इशारे पर उसने कहा - मैं उसे ही मेंहदी लगाऊँगा जो खुद मेरे पास आयेगी। किसी को मेरे पास न भेजना। 
मुस्कुराते सलीम ने जवाब दिया - मियाँ, थोड़ा पास तो खिसक आओ। लगे तो सही कि मेंहदी लगाने वाले हो, माशूक के इंतज़ार में उसे मनाने के तरीके सोचते आशिक नहीं! और हँस पड़ा। सज्जन सरकने वाला ही था कि वह आई। सुतवा गोरी देह पर हरे रंग का सूट जम रहा था और सबसे बड़ी बात कि उसने दुपट्टा लगा रखा था। सलीम ने सज्जन की आँखों में चमक देखी लेकिन लड़की के सलीम के सामने बैठते ही आँखें बुझ गईं। सलीम कसमसा कर रह गया - लड़की खुद उसके पास आ गई थी और वह अब उसे सज्जन के पास नहीं भेज सकता था। 
"सुनो! मैं जल्दी में हूँ। बस कोई सादा सा डिजाइन लगा दो।....सुबह मेंहदी वाले आयेंगे क्या?" 
"सुबह?" 
"हाँ, भैया तो कल शाम तक आयेंगे, सोच रही थी कि उसी दिन ताजी मेंहदी लगवा लूँगी, खुद से होता नहीं। कल कोई नहीं मिला तो हाथ सूने रह जायेंगे इसलिये थोड़ा सा अभी लगा दो।" 
ताजी मेंहदी! 
सज्जन की सपाट गत्ते वाली बात सोच सलीम को लगा कि इस लड़की के लिये सज्जन की आँखों में चमक आनी ही चाहिये थी। उसने सुनाते हुये से कहा,"सुबह कौन आयेगा मैम? थोड़ी लगा देता हूँ। वैसे कल एक बार आठ बजे के आस पास आकर देख लीजियेगा। शायद कोई ताजगी वाला मिल ही जाय।" 
लड़की चली गई। दोनों दूसरे हाथों में मेंहदी रचाते रहे। सलीम ने एक बात गौर की - सज्जन मेंहदी लगाते हाथ की ओर नहीं चेहरे की ओर देखता था जिससे लड़कियों को खासी परेशानी होती थी। हथेली को अपने हाथ में ले वह एक बार ऐसे देखता जैसे पुराने जमाने का घड़ीसाज हो, गदेली पर अँगूठे फिराता जैसे कोई अन्धा टटोल कर पढ़ रहा हो और फिर शुरू हो जाता, बिना हथेली की ओर देखे कोन घुमाता रहता। लड़कियाँ आश्चर्य करतीं और परेशान भी होतीं।          
(4) 
अगले दिन सुबह आठ बजे पत्रकारपुरम सहारा संकुल में सीढ़ी पर दो जन आमने सामने बैठे थे - मेंहदी लगाने वाला सज्जन और लगवाने वाली यानि कि सजनी। 
"एक शर्त है, डिजाइन मैं अपने हिसाब से बनाऊँगा और आप मुझे टोकेंगी नहीं।" 
सजनी ने पूछा,"क्यों भला?" और दूर खड़े सलीम ने हरसिंगार को यूँ ही झकझोर दिया। एक फूल तक जमीन पर नहीं गिरा। गिरता भी कैसे? फूला रहता तब न! 
"बस यूँ ही... मैं इस शर्त पर ही लगाऊँगा और बस ग्यारह रुपये लूँगा।"
सजनी की सज्जन से आँखें मिलीं और उसने हामी भर दी। 
जिस समय सज्जन घड़ीसाज की तरह हथेली को निरख रहा था और गदेली पर अँगूठा फिरा रहा था उस समय सजनी के चेहरे पर हरसिंगार फूल रहे थे और दूर सलीम को खुशबू आ रही थी। पहली बार, पहली बार सज्जन किसी की हथेलियों को निरखते हुये मेंहदी सजाने लगा। दो जोड़े झुके नैन अपनी अपनी देखते रहे और खिले फूलों की झिझक लाली पंखुड़ियों की सफेदी पर फैलती चली गई। 
जाती हुई सजनी ने पूछा - तुम यहीं बैठते हो न?   
"नहीं ... हाँ।" 
सजनी चली गई। सज्जन ने पाँच वाले दो समोसे खरीदे। एक खुद खाया, एक सलीम को दिया और बचे हुये सिक्के को हवा में दूर उछालते हुये चिल्लाया - उसके पास यह फुटकर भी था! सलीम को लगा जैसे किसी पिंजरे से पंछी आज़ाद हो गया हो!
(5) 
"माँ, देखो तो भला। कैसी अजीब मेंहदी लगाई है!"
माँ ने देखा, भैया ने देखा - हथेली पर छोटी छोटी सीधी रेखाओं से बनी सजनी घुटनों को हाथों से घेरे उन पर मुँह रखे बैठी थी जैसे किसी की प्रतीक्षा में हो। 
"रंग चढ़ा तो है...तूने देखा नहीं कि वह क्या बना रहा था?" 
"नहीं माँ, मुझे पता नहीं चल पाया।" सजनी असल बात छिपा गई। 
"?...तू एकदम पागल है।" 
भैया ने हथेली को परखते हुये कहा - यह मेंहदी वाला तो बड़ा कलाकार है और सभी राखी की रीत में लग गये। 
(6) 
कुछ दिन बाद सजनी मार्केट गई तो सलीम ने उसके हाथ में एक कागज पकड़ा दिया - आप को देने के लिये सज्जन ने दिया था। 
'मैं, सज्जन, सुल्तानपुर का रहने वाला हूँ।  बचपन से ही आर्ट का शौक है जिसे पापा पसन्द नहीं करते। फाइन आर्ट की पढ़ाई करने की ज़िद पर उतर आया तो पापा ने कहा कि अगर तुम केवल सीधी रेखाओं से ही मनुष्य़ आकृति बना दो तो मान लूँगा कि तुममें टेलेंट है । तुम्हें पढ़ने को भी भेज दूँगा। 
बहुत कोशिश किया लेकिन देह के घुमाव सीधी रेखाओं से नहीं गढ़ पाया। फिर हथेलियों पर मेंहदी का खयाल आया कि शायद बेजान सपाट कागज पर जो मुझसे न हो पाता हो, वह उन पर हो जाय और जाने क्या सोच मैं लखनऊ भाग आया। उस दिन आप को देखा तो लगा कि बस आप ही हैं जिनकी गदेलियों पर ... सलीम का एहसान तो उसकी खुशी में उतर गया लेकिन आप का? शायद जीवन भर न उतरे। सपनों की धरती मुम्बई जा रहा हूँ। अब मुझमें खुद पर भरोसा है। बालिग हूँ, पापा से क्या मदद लेनी?
कभी मुम्बई आइयेगा तो मुझसे मिलियेगा। मैं ढूँढ़ने लायक हो रहूँगा।' 
सजनी ने सोचा -  एक और एक ग्यारह। केवल सीधी रेखाओं वाला अंक। 
"पागल!" उसने एक आह भरी और खत वापस सलीम को दे दिया। 
"इस बात का किसी को पता न चले।"
(7)
सलीम के पास पत्तर चढ़े गत्ते के नीचे वह खत सुरक्षित है। प्रेक्टिस करते हुये वह सपाट गत्ते और गुदाज उभरी हथेलियों की सोच मुस्कुरा देता है। उसे उम्मीद है कि एक दिन जब सज्जन बड़ा आदमी बन जायेगा तो वह खत बहुत कीमती होगा और उसे सज्जन से मिला देगा।     
और सजनी का क्या
पता नहीं। अब वह पत्रकारपुरम मार्केट नहीं आती। आप को पता चले तो बताइयेगा।  

16 टिप्‍पणियां:

  1. इस कहानी में फर्स्ट हैण्ड एक्सपेरिएंस की बू आ रही है !:)

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  2. कमाल की डाक्टरी की गिरजेश भाई आपने मेहदी लगाने वालों पर..! इस अनूठी कहानी का रंग तो शायद ही कभी उतरे। वाह! आनंद आ गया।

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  3. आप ही के शब्द उठाता हूँ, जाने कितनी प्रेम कहानियां मैंने पढ़ीं हैं, लेकिन ऐसी नहीं।
    सुनता भी तो कैसे? :)
    वाह!

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  4. puri ki puri kahani ek baar main khatam....kahani uttam hai .....lakin hajam nahi huyee.....

    jai baba banaras....

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  5. "एक और एक = एक" जिसका गणित इतना उन्नत होगा, वही बता सकेगा।

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  6. वाह रे चित्रकार !
    वैसे आप पेंटिंग भी करते हैं क्या?

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  7. क्‍या बात है, खूब. अवलोकन की बारीकी और विवरण में पहला पैरा पूरी कहानी पर भारी.

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  8. अच्छा तो यह एक कहानी थी! हम तो सच समझ बैठे.

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  9. अरे अरे अरे... आचारज ... माफ़ी चाहेयेंगे... पता नहीं कैसे ये कहानी आँखों से निकल गयी.... शायद जनमष्टमी उत्सव था..

    इसे कहानी कहेंगे या ... सत्यघटना पर आधारित कथा...

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  10. हिना का रंग बहुत चोखा है.... दोस्त. जीवन के रंगों में रंगी इस कहानी सिरा गोमतीनगर के पत्रकारपुरम
    से होकर गुज़रता देखा तो और करीबी एहसास हुआ !!!!

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  11. जब मेंहदी वाले को पहली बार देखा तो यही पूछा - कि कितने दिनों से लगा रहे हो?
    कहानी अच्छी लगी ...

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