बुधवार, 10 अगस्त 2011

…land of cows, bulls and bullshit


ऑस्ट्रेलिया में किसी रेडियो जॉकी ने India को shit hole और गंगा को junkyard कह दिया तो वहाँ बवाल हो गया। भारतीय समुदाय ने लड़ने को कमर कस ली। गाय और गंगा को पवित्र मानने वाले देश के लिये तो वाकई यह अपमानजनक है। shit hole विशेषण/संज्ञा सोच में डालती है।

इतिहास रूपक - राजा पृथु ने गाय रूपधारी पृथ्वी का दोहन कर
 मनुष्यों के लिये धान्य का उपाय किया। 'पृथ्वी' नाम उन्हीं से पड़ा।
चित्राभार - विकिपीडिया 
बहुत बार लगता है कि India i.e. land of cows, bulls and bullshit. 

Bullshit गोबर का slang है और बकवास के लिये प्रयुक्त होता है। आप उत्तर भारत के छोटे बड़े नगरों में देखिये, सड़क पर cows, bulls और bullshit(literally) की भरमार है। ऑस्ट्रेलियन रेसिस्ट की बात पर ही सही, हमें एक बार अपने दामन में झाँकना चाहिये। नई विकसित होती कॉलोनियों में देखिये, पाँच छ: घर आये नहीं कि उनमें से ही कोई किसी भैंस वाले को लेकर आयेगा और पड़ोस के खाली प्लॉट पर या पार्क के लिये छोड़ी गई जगह पर भैंसियाना खुल जायेगा। शुद्ध दूध को लेकर हम इतने सम्मोहित हैं कि भैंसियाने की आड़ में बसती अवैध झुग्गियाँ, उनमें रहते असामाजिक तत्त्व, घुसपैठिये, छेड़खानियाँ, चोरियाँ, सड़कों के बीचोबीच बैठे गाय, भैंस, लोगों में आतंक फैलाते साँड़ आदि की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता या हम जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं। शुद्ध दूध के समर्थन में और तमाम असुविधाओं के लिये सरकार आदि पर दोष मढ़ने के लिये हम तमाम तर्क गढ़ लेते हैं जिन्हें simply bullshit कहा जा सकता है और हमारे दिमाग को shit hole जिसमें से bullshit टाइप आइडिया और तर्क निकलते रहते हैं। ऑस्ट्रेलियाई ने कुछ ग़लत नहीं कहा। 

धन्य गोधन! 
नई पुरानी कॉलोनियों के नाली सीवर हों या हमारी नदियाँ, उनमें कूड़ा फेंकने में हमें कोई गुरेज नहीं। घर चमचमाता रहेगा लेकिन बाहर अपने ही फेंके सड़ते कूड़े से हमें कोई परेशानी नहीं होती। 50 रुपया महीना तक कूड़े वाले को देने को तैयार नहीं। फेंका गया कूड़ा उड़ कर, पानी के साथ बह कर या सीधे फेंक दिया गया कूड़ा सीवर और नालियों को चोक कर देता है और फिर मुहल्ले की सड़क बहुत बड़ा नाबदान हो जाती है जिसमें सूअर लोटते हैं और हम सरकार को कोसते हुये बदस्तूर अपने shit कर्म में लगे रहते हैं। जैसा हमारे समाज में दिखता है वैसा ही हमारी सिविक बॉडीज में। बिना किसी प्रॉपर ट्रीटमेंट के या मानकों की परवाह किये नदियों में गन्दा पानी और औद्योगिक कचरा बहा दिया जाता है। नतीजन पानी प्रदूषित होता है। मछलियाँ और पानी में रहने वाले अन्य जीव मरते हैं। कभी कभी हो हल्ला मचता है लेकिन उस पर लीपा पोती करते हुये हमारे सिविक अधिकारी यथावत अपने काम में लगे रहते हैं। ऐसे कितने ही सीवर सिस्टम हैं जो ऑउटलेट से जुड़े ही नहीं हुये हैं। जरा सोचिये अगर वे भी जुड़ गये तो क्या हाल होगा? केवल गंगा ही नहीं, हमने लगभग सारी नदियों को junkyard बना दिया है। उस रेडियो जॉकी ने क्या ग़लत कह दिया?

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि किसी ने भारत के बारे में ऐसा कहा हो। त्रिनिडाडी-ब्रिटिश लेखक वी एस नयपाल ने जब भारत के बारे में ऐसा कुछ लिखा जिसमें Toilet that is India का भाव था तो जोरों की बहस हुई थी। उन्हों ने लिखा था – Indians defecate everywhere. They defecate, mostly, beside the railway tracks. But they also defecate on the beaches; they defecate on the hills; they defecate on the river banks; they defecate on the streets; they never look for cover.. 

जब ऐसी बातें बार बार होती हैं तो हमें सचाई को स्वीकारना चाहिये। दूसरों पर पड़ने वाले प्रभाव का प्रश्न अपनी ज़गह है, पहले तो यह देखना है कि हम कैसे रहते हैं?हमारी क्वालिटी ऑफ लाइफ क्या है? नागरिक लापरवाही के ऐसे दबाव के चलते क्या सिविक प्रशासन साफ सुथरा वातावरण हमें दे सकता है या बनाये रख सकता है? 

नागरिक अगर सँभल जाँय और सिविक सेंस के साथ रहने लगें तो आधी से भी अधिक समस्यायें हो हीं न और जो हैं वे समाप्त हो जाँय। सिविक सिस्टम पर जो अनचाहा लोड है, उनके बजट पर जो बोझ है, वे सब हमारी जरा सी जागरूकता से बहुत कम हो जायेंगे तब सिस्टम बेहतर काम कर पायेगा और हम भी उस पर सही काम करने के लिये बेहतर दबाव बना सकेंगे। सोचिये, क्या आप तैयार हैंbullshit से मुक्त एक ऐसे भारत को बनाने के लिये जो shit hole नहीं और जिसकी नदियाँ junkyard नहीं? ज़रूरत है कि हम खुद सुधरें और दूसरों से इसके लिये निवेदन करें।

(इस पोस्ट का सतीश पंचम के 'क्या' वाद से कुछ नहीं लेना देना।) 

गुगल+ पर जब मैंने 'यथार्थ गीता' वाले स्वामी अड़गड़ानन्द की इस उक्ति को शेयर किया - The cow, an animal, is not Dharma - तो India News नामधारी किसी सज्जन ने अपनी विकृतियों को उजागर करते हुये मेरी माँ, बहन कर दी। आप लोग वैसा न कीजियेगा, बस सोचियेगा कि हमारी सोच में कितना bull shit भरा हुआ है। 

ज़रा इसे भी देखें:
cows-indian-roads 


चलते चलते एक और निवेदन। यहाँ अवश्य पहुँचें और पढ़ें:
Hall of Shame 

25 टिप्‍पणियां:

  1. वैसे उस तथाकथित "रेसीस्ट गोरी चमड़ी वाले आस्ट्रेलीयन" ने गलत क्या कहा था ? किसी विदेशी के कह देने से सत्य का परिवर्तन "गाली" मे नही हो जाता!

    वैसे भी किसी देशी के कहने से हम भारतीय मानते नही है, कम से कम किसी विदेशी के कहने से तो हम सुधर जायें!

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  2. पचास रूपये में भी जो कचरा नहीं उठाया जाए , उसको बेचारे कहाँ फेंके ...समस्या के दोनों पहलू पर नजर डाली जाये !

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  3. @ वाणी जी
    बोरी में भरकर निकट के म्युनिसिपल कचरेदान में फेंक आया जाय। अगर म्युनिसिपलिटी वाला कचरेदान न रखे तो 10 लोग मिलकर तय कर लें और लिखित चेतावनी दे दें कि यदि कचरादान नहीं रखा गया तो रोज ऑफिस के गेट से कचरा भीतर फेंका जायगा। लब्बोलुआब ये कि कचरा जब तक भीतर है, चाहे घर का हो या देह का, तब तक ठीक, बाहर आये तो उसे हायजिनिक तरीके से डिसपोज किया जाय।

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  4. हम गोबर दिमाग लोगों के लिए, आवश्यक पोस्ट लिखने के लिए, आभार गिरिजेश राव !

    मगर शक है कि हमारे कूड़ा दिमाग में कुछ आ पायेगा पहले तो पोस्ट पढ़ कर यह देखेंगे कि लिखने वाला है कौन ...??

    क्या बेचता है ...?? हुंह ...

    क्वालिटी ऑफ़ लाइफ जानने के लिए, पास पड़ोस और मित्रों के क्रियाकलाप देख लें काफी होगा ! १२० करोड़ भीड़ वाले इस इस देश में, लोग रोज, कूड़ा फेंकने में योगदान करते हैं और गंदे हुए पब्लिक प्लेस की सफाई , इस भीड़ में से कोई नहीं करता !

    मेरे मोहल्ले में लगभग हर घर के आगे की खाली जगह को घेर कर पक्का और भराव कर घास आदि लगा कर सड़क का पानी निकालने का आउट लेट बंद कर दिया गया है ! पानी के निकास के अभाव में, वारिश के दिनों में भरा हुआ पानी एवं बाकी के मौसम में सड़क पर धोई जाती गाड़ियों के कारण जमा पानी , एक साल में ही सड़क पर गड्ढे बनाने को काफी है !

    यह सच है कि सड़क किनारे हगते, मूतते लोग सिर्फ इसी देश की धरोहर हैं, मगर चौंकते विदेशी इनकी जग दुर्लभ फोटो खींचते हैं तो हमारी त्योरियां चढ़ते देर नहीं लगती !

    ऐसी बुद्धि के चलते इन्हीं गड्ढों और कूड़े में रहना हमारी नियति है !
    मगर हम अपने को गोबर बुद्धि नहीं सुन सकते...?

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  5. आत्मावलोकन या बात-बेबात भडकना दोनों विकल्प हमारे सामने हैं। हम कौन सा चुनते हैं, इस पर भविष्य का दिशा-निर्धारण होता है।

    कूडा अपने आप में कोई समस्या नहीं है, समस्या है कूडे का निस्तारण न होना। दुनिया भर में जहाँ भी लोग होते हैं, वहाँ कूडा होता ही है और उसकी सफ़ाई के लिये नगर पालिका/निगम/पार्षद/सांसद/नेता/उपनेता आदि भी होते हैं।

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  6. हम अपना धन सड़कों पर छोड़ दें और जब कोई बताये तो उस पर धौंकने लगें। गाय का दूध तो सब चाहते हैं, गाय कोई नहीं चाहता है अपने यहाँ।

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  7. दरअसल हम लोगों में यही बहुत कमी है कि अपने लोगों द्वारा चेताये जाने पर ध्यान ही नहीं देते लेकिन दूसरा कोई बाहरी कहे तो चिल्लम चिल्ल होने लगती है। भावनात्मक उद्वेग में बहने लगते हैं।

    उस आस्ट्रेलियाई ने कुछ गलत नहीं कहा भले ही उसका ध्येय कुछ हेय मानसिकता से प्रेरित हो लेकिन गंदगी है तो है। इस पर ये हाय तौबा मचाना कि उसने ऐसे कैसे कह दिया, उसने वैसे कैसे कह दिया ...सब फालतू बकवास।

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  8. 'स्लमडोग मिलियेनर ' फिल्म में भी कुछ ऐसी ही छवि दिखायी थी तब किसी ने आपत्ति नहीं की?
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    सुबह की फ्लाईट से जब भी दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से हम घर की ओर रवाना होते हैं तब सड़क के दोनों ओर कहीं न कहीं लोग बैठे नज़र आएंगे.अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से पश्चिमी दिल्ली की ओर जाते हुए एक बहुत ही बदबूदार एक बड़ा नाला पड़ता है.इसी राजधानी में थोडा दिन होते ही पशु धन सड़क पर नज़र आता है.
    रेल से कभी जाएँ तो अक्सर ऐसे दृश्य पटरी के दोनों तरफ दिखेंगे तो बाहर के लोग /पर्यटक क्यूँ नहीं ऐसे शब्द कहेंगे?
    राजधानी दिल्ली में ही कूड़े के बड़े ढेर दिखाई देना कोई नया नहीं ..कवर किये हुए कूड़ेदान बनवाए गए हैं लेकिन कूड़ा बाहर ही पड़ा मिलता है .अब अगर राजधानी का यह हाल है तो ईश्वर जाने बाकी हिस्सों में कैसी व्यवस्था होगी?
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    बहत ज़रुरी है नागरिकों में सिविक सेन्स जागने की ..नहीं तो सख्त कानून लागू करने की ...यहाँ सडक पर कचरा आदि फेंकने पर ५०० दिरहम का जुर्माना है .यहाँ -वहाँ सडक किनारे मल - मूत्र विसर्जन करने पर भी जुरमाना है और पुलिस ने खुले में पब्लिक प्लेस पर करते देख लिया तो सीधा पकड़ कर बंद.
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    सहमत हूँ कि प्रशासन की व्यवस्था का इंतज़ार किये बिना
    ज़रूरत है कि हम खुद सुधरें और दूसरों से इसके लिये निवेदन करें।

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  9. @नागरिक अगर सँभल जाँय और सिविक सेंस के साथ रहने लगें तो आधी से भी अधिक समस्यायें हो हीं न और जो हैं वे समाप्त हो जाँय।

    भैया ये सिविक सेन्स के मायने तो मेरे ख्याल से लोकल गवर्नमेंट को कोसते रहना ही है ........

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  10. गिरिजेश जी, हम अपने देश में नहीं सुधरेंगे. लेकिन हम जब सिंगापूर, जाते हैं तो हमारे ही मिटटी के लोग कितने सुधरे नज़र आते हैं. सख्त कानून ही एक उपाय है. हम लतखोर जो हैं.

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  11. अब बनारस से बढ़कर यह पदवी और कहाँ सुशोभित हो सकती है-पहले हम भूखे अधनंगे सपेरों बहचरियों के देश वाले लोग थे और आज हर जगहं बुलशिट बिखरा हुआ है -यह तथ्य है और नग्न सत्य है -हम नागरिक बस कहने भर के हैं -मगर यही लोग जब दूसरे देशों में जाते हैं तो बहुत शिष्ट सभ्य व्यवहार करते हैं -
    इस देश के पानी में ही तो नहीं कुछ गड़बड़ है ?

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  12. ..और, अभी तो हम मुहल्ला ऑफ़ स्ट्रीट डॉग में रह रहे हैं क्योंकि पास ही में कोई 'अफसर' दान पुण्य (?) के चक्कर में स्ट्रीट डॉग्स (कृपया गली के कुत्ते न समझें,) को हर महीने दस हजार रुपयो से अधिक का दूध-बिस्किट-ब्रेड खिलाता है!

    ऐसे में कहाँ तो सिविक और कहाँ तो सेंस!

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  13. फ़ेकिंग न्यूज की लिंक अच्छी मिली. इस पर एक छोटी सी पोस्ट लिखी है. अभी ही. :)

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  14. क्या किसी ने कुछ किया है इसके लिए? या आगे कुछ करने की सोची है किसी ने? बस लिखना ही हो रहा है।

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  15. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  16. दुनिया का सच है कि गरीबी होगी गंदगी भी बहुत अधिक होगी ही। फ्लाइट और ट्रेन की बात करने वाले बस अपनी समस्या के चलते बोलते हैं। ट्रेन में बैठकर गंदा लगाना आसान होता है पर कौन साफ करेगा? कहते तो हैं कि सफाई कर्मचारी का काम ही यही है, हम तो गंदा लगाएंगे।

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  17. ब्लॉग जगत में भारतीये संस्कृति का परचम लिये खड़े लोग यहाँ आप के परचम के नीचे अपनी ही संस्कृति को गलियाँ भी दे रहे हैं और अभिभूत भी हो रहे हैं
    विदेशो में भी बहुत सी जगह हैं जहां आप को कचरा दिखता हैं बस शहर से कुछ दूर हैं पर उनकी चर्चा नहीं होती कारण भारत की चर्चा करना आसन हैं क्युकी वो उभरती ताकत हैं
    पैरिस में एक जगह कूड़े के डिब्बे दे फेका हुआ बर्गर बन खाते हुए देखा हैं एक आदमी को मैने
    इटली के पास बसे छोटे गाव में जाए आप को टूटे मकान मिल जायेगे .
    बाकी आबादी जितनी ज्यादा होगी परेशानी उतनी ज्यादा होगी

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  18. सिविक सेन्स की कमी राष्ट्रीय चरित्र ओर बौद्धिक ईमानदारी के अभाव को भी दर्शाती है।भारतीय मध्यम वर्ग दवाबों,मजबूरियों,ओर आदतों के चलते दुहरी जिंदगी जी रहा है।आत्मावलोकन ओर सुधार द्वारा फूहड़ सोच वाले बयानों का जवाब देना चाहिए।

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  19. @ चन्दन कुमार मिश्र
    बन्धु! अच्छा प्रश्न उठाया आप ने। पोस्ट लिखने वाला बन्दा अपनी सीमा भर सुधार की दिशा में काम भी करता है और 'अकेला' पड़ता है। पोस्ट इसीलिये लिखा कि 'अकेलापन' घटे।

    ग़रीबी का गन्दगी से सम्बन्ध नहीं है। सामाजिक कल्चरिंग(संस्कार) का प्रभाव पड़ता है। दादरा नगर हवेली के वनवासी गरीब हैं लेकिन उनके क्षेत्रों में कभी कोई खुले में शौच करना तो दूर पेशाब करता भी नहीं नज़र आता। जंगल की सड़कों के किनारे कहीं भी मल की पंक्तियाँ नहीं दिखतीं।

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  20. @ रचना
    अमेरिका में घेट्टो हैं, दुनिया भर का जरायम है, भूख भी है और शोषण भी है। विकृतियों के स्वर्ग में गन्दगी भी है।
    पड़ोस का छोटा सा एक देश भूटान 'index of happiness' को अपनी प्रगति का मानक बनाये हुये है... कहने का अर्थ यह कि हर तरह के उदाहरण हर जगह हैं।
    बस 'आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:' को मानते हुये या भर्तृहरि के इस कथन को मानते हुये कि 'संसार में सबसे कुछ न कुछ सीखा जा सकता है, यहाँ तक कि व्यर्थ प्रलाप करते पागल से भी' या 'सार सार को गहि रहै थोथा देइ उड़ाइ' को मानते हुये हमें कुछ सार्थक ठोस करते रहना चाहिये - चाहे सेतु बन्ध की गिलहरी जितना ही हो सके। ... यह हमारे लिये और भी आवश्यक है क्यों कि हमलोग 'उभरती ताकत हैं'।

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  21. जनसंख्या से अधिक समस्यापूर्ण उसका प्रबन्धन है। बहुत बार जब हमलोग जनसंख्या की बात कर रहे होते हैं तो अनजाने ही उसके 'घनत्त्व' की बात कर रहे होते हैं और घनत्त्व पूर्णत: 'मैनेजेबल' है-उत्पत्ति में भी और निष्पत्ति में भी। इच्छाशक्ति तो हो!

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  22. आपकी बातों से काफी हद तक सहमत हैँ। लोग घर तो साफ रखते हैं पर सार्वजनिक स्थानों पर गन्दगी फैलाने में संकोच नहीं करते। व्यक्तिगत स्तर पर मेरी कोशिश होती है कि कूड़ा-कबाड़ सही जगह ही फेंकू हालाँकि कभी-कभी सुविधा न होने पर कहीं और भी फेंक देना पड़ता है।

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  23. राजेंद्र सिंह जी (वही जो कउनो पुरस्कार जीते हैं)का लेख पढा जिसका भाव भी कुछ ऐसा ही था कि हमे नीर,नदी और नारी का सम्मान करना होगा तभी हमारा पर्यावरण संरक्षित रह सकेगा

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