शनिवार, 10 सितंबर 2011

हिडिम्बा - 1

हमारा कॉलेज एक ऐसे नगर के उद्घाटनी क्षेत्र में था जिसे बम्बई और दिल्ली जैसे महानगरों की तुलना में देहात कहा जा सकता था। आज भी ऐसी ही स्थिति है। समय प्रवाह ने यत्र तत्र कुछ अत्याधुनिक कचरे छोड़ दिये हैं जिनसे आभास होता है कि संसार बदल गया है लेकिन सच पूछिये तो कॉलेज की स्थिति बदतर ही हुई है। यह मात्र अतीत का प्रेम नहीं कह रहा। उस युग में भी नेपाल से निकटता के कारण इलेक्ट्रॉनिक सामानों के मामले में हम लोग महानगरों से आगे ही रहा करते थे और पूरे चार वर्षों में बस एक बार को छोड़ कर मुझे याद नहीं आता कि कभी बिजली दस मिनट से अधिक गुल हुई हो
बिजली कटने पर तिरसठ और सवा सौ के वी ए के दो जनरेटर ऐक्शन में जाते और हमलोगों के हीटरों पर दूध फिर से उबलते लगते। उस एक अवसर पर प्रिंसिपल अपने विवाह की कोई जुबली मना रहे थे और छात्रावासों के लिये लगा जनरेटर खराब था। लिहाजा जब बिजली गई तो हमें बैक अप नहीं मिला जब कि टीचर्स कॉलोनी जगमग करती रही। दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद विंग का नेतृत्त्व करते मैं ही उतरा था और वह जनरेटर भी बन्द हो गया। यह समझिये कि डी सी (डिसीप्लीनरी कमेटी) में पेशी से हमलोग बच गये क्यों कि बन्द डी जी रूम की चाभी किसी को कभी नहीं मिली और अपने फटफटिया स्कूटर से हॉस्टलों के छत्तीस चक्कर लगाने के बावजूद वार्डन को इस बात का कोई ठोस सबूत नहीं मिला कि वह काममंगल ग्रहियोंने किया था। 
अब छात्रावासों की खिड़कियों पर शीशों की जगह लगे हुये अखबार दुर्दशा बयाँ कर देते हैं जब कि कॉलेज ऑटोनॉमस हो चुका है। बरबस ही एफ के का पहला आर्ष वाक्य याद आता हैकुंजिका विलुप्त होने की परिस्थिति हो तो अर्गला को तोड़ो, ताला नहीं। पश्चात में मात्र दो पण दे कर कूट कुंजिका बन जायेगी और अर्गला तो दो घड़ी के भीतर ही प्रशासन लगवा देगा। पण माने रुपया और अर्गला माने कुंडी। एफ के माने फाल्गुनी कुमार। उसका कुलनाम उपाध्याय था। आज कल का समय होता तोएफ के यूको मैं हीफक यूबना देता लेकिन उस समय हम लोग इस नागर कुशब्द से अपरिचित थे। सम्भवत: नहीं भी बनाता क्यों कि हमलोगदेसीथे, ‘स्मार्टीनहीं और यह शब्द पक्का स्मार्टियों की लिंग्वा फ्रैंका का अंग होता जिससे हमलोग उतनी ही घृणा करते जितना वे हमारेखोंसनेसे करते थे। खोंसना माने वही ...
...तो घने आम्रकुंजों, अशोक वनों और राक्षसी लिपिस्टिक पेड़ों से परिपूर्ण और पीछे साल वन से रक्षित कॉलेज कैम्पस में हमलोगों का प्रवेश एक ऐतिहासिक घटना थी। ऐतिहासिक इस अर्थ में कि कॉलेज के पच्चीस वर्षों के इतिहास में पहली बार, जी हाँ पहली बार कैम्पस में लड़कियों ने प्रवेश पाया। एक नहीं तीन तीन। तीनों विद्युत अभियांत्रिकी में और सीनियरों ने उन्हेंबिजलियाँनाम दिया। पारम्परिक अर्थों में देखें तो उन तीनो मेंबिजलीजैसी कोई बात नहीं थी जो कि मेरे द्वारा किये गये परवर्ती नामकरण से स्पष्ट है – ‘छिपकली’, ‘गलफुल्लीऔरताड़का’, लेकिन केवल पहला नाम ही चल पाया। उस मरुस्थल में तीनों मरुद्यानों की तरह थीं लिहाजागलफुल्लीऑफिसियलबिजलीबनी रही। ताड़काकोहिडिम्बानाम मिला जिसका शत प्रतिशत श्रेय एफ के को जाता है। 
 उन तीनों के आगमन से गेटवासी कबीर की बीवियों और उसकी पर्दाविहीन छोकरियों को थोड़ी राहत मिली। छात्र अपनी रचनाधर्मिता का संकेन्द्रण तीन बिजलियों पर कर दिये लेकिन एकम, दोहर, तेहरन और चोथन जैसे विचित्र नामों वाले कबीर के उन बेटों कोसालेसंज्ञक सम्बोधनों से मुक्ति नहीं मिली जिनके बारे में सरनाम था कि उनके पिता विभिन्न पीढ़ियों के कॉलेज के दादा लोग थे। वार्ड ब्वाय सँवारू चटकारे लेकर उन जवानों के प्रतापी कारनामों को सुनाता जिनका समापन कबीर बहू की दिन दहाड़े की गई कॉलेज कैम्पस की उस अंतिम यात्रा की कथा से होता जिसके बाद एकपिताको मारे शर्म के हॉस्टल छोड़ना पड़ा। सँवारू समापन एक लम्बी साँस के साथ यह कहते हुये करताकॉलेज में बबुनियाँ आई नहीं कि बाबू लोगों की मर्दानगी हवा हो गई।
फाल्गुनी, जो कि नाम अनुरूप ही रसिक था और विचित्र संस्कृतनिष्ठ हिन्दी प्रयोग के लिये कुख्यात था, इस पर कुछ इस तरह  कहतासाले! पौरुष के विभिन्न आयाम होते हैं। जिसे तुम मर्दानगी कह रहे हो वह लम्पटई थी। इस दुरूह वाक्य के आतंक के कारण सँवारू को कोई कोई भूला काम याद जाता और वह चल देता। कुशीनगर वासी एफ के बुदबुदाताशूकरमुख जब खुलता है तो मल की ही बात करता है। वह अँगड़ाई लेता और फैले ऊपर उठे हाथों को नीचे लाते साँसों की उतार के साथ उदात्त स्वरित उद्घोष करतामादरचोऽऽऽ...  
 ताड़का उर्फ हिडिम्बा का असल नाम शिल्पी वर्मा था। एक बार एफ के ने उसकी तुलनासिपावासे की यानि उल्लड़ की हुई बैलगाड़ी को सहारा देने के लिये प्रयुक्त बाँस जिस पर मैं हँसा लेकिन बाकियों ने बुरे मँह बनाये और उसे और से प्रारम्भ होने वाले तमाम सम्बोधनों से नवाजा। 
शिल्पी का शिल्प कुछ इस तरह का था। पौने : फीट प्लस एक डेढ़ इंच की ऊँचाई और दो-ढाई फीट की चौंड़ाई। शरीर किसी भी तरह से आवर ग्लास फिगर का होकर उस मेजरिंग जार जैसा जिसमें मैन्यूफैक्चरिंग डिफेक्ट के कारण कुछ स्थानों पर बड़े गुम्मड़ निकल आये हों। भारी चेहरा जिससे बड़ी बड़ी आँखें उबल कर बाहर आने को उद्यत रहतीं और मुस्कान! उफ्फ!! वैसी हसीन मुस्कान मैंने आज तक नहीं देखी। भोलेपन और वात्सल्य का सम्पूर्ण मिश्रण। उसकी मुस्कान तीनों बिजलियों में से उसके सबसे अधिक लोकप्रिय होने का एक कारण भी थी। लेकिन हँसी, बाप रे! जैसे वाकई बिजलियाँ चमक रही हों और तड़प भी रही हों। रंग वैसा जिसे एफ के ससम्मान नीलम पत्थर का रंग बताता। राम जन्मभूमि आन्दोलन की भीड़ में गिरफ्तारी से रिहा हो कर आने के बाद एफ के उसे कसौटी पत्थर का रंग बताने लगा जिसका कारण आरक्षण विरोधी आन्दोलन में गिरफ्तारी का वह अवसर था जिसकी कसौटी पर हिडिम्बा खरी उतरी थी और एफ के मौका चूक गया था।                                
साढ़े चार फीट की ऊँचाई वाले डेढ़ पसली एफ के की छोटी सी चुटिया कई बार हिडिम्बा के हाथों परीक्षित हो चुकी थी। एक दिन लंचकाल में नहा कर आते एफ के से मैंने पूछा तो उसने कारण हिडिम्बा द्वारा किया गया 'शिखा अपमान' बताया लेकिन उसके लिये स्नान? एफ के ने भरसक  निर्विकार चेहरा बनाये हुये चालू हिन्दी में स्पष्टीकरण दियाउसके पहले उसने उसी हाथ से अपनी जींस के भीतर खुजली की थी। मैं भी निर्विकार ही रहा क्यों कि हिडिम्बा की यह आदत जितनी उसके लिये सामान्य थी उतनी ही हमलोगों के लिये भी थी। (जारी                                      

15 टिप्‍पणियां:

  1. यह संस्मरण नहीं, कहानी है। कितनी कड़ियों में होगी, नहीं पता। अनुरोध है कि धैर्य बनाये रखियेगा। पूरी करने में समय लगेगा।

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  2. 90 के शुरूआती दिनों में पूर्वांचल की कालेज हॉस्टल की बानगी.........

    पाठकगन अपेक्षा रखते हैं की आगामी अंक जल्दी जल्दी प्रकाशित होंगे...

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  3. इस ग़दर-ए-गर्दिश सीरीज की पहली पोस्ट के बाद मैं तो पूछने वाला था कि कहीं नाम भी तो असली नहीं डाल दिए आपने :) वैसे आप कहानी कह रहे हैं तो ठीक है.

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  4. @ धैर्य बनाये रखियेगा ,
    :)
    जी लबों पे ताला डाल लिया समझिए !

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  5. धैर्य की बात छोड़िये, ऐसा लिखते रहिये, हम बरसों बरस इंतज़ार करेंगे। बहुत दिनों के बाद आचार्य, बहुत दिनों के बाद..।

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  6. आप कहानी कह रहे है तो मान लेते है, वैसे हमें तो हमारे कालेज के मेकेनिकल डिपार्टमेंट की कहानी लगी थी !

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  7. गजब.....।

    किंतु ये हिटलरपंती क्यों ....एक मोर्चे की बजाय कई कई मोर्चे एकसाथ खोलना खटक रहा है।

    पहले बाऊ या उर्मि को निपटा लिये होते तो इसे पढ़ने में और आनंद आता :)

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  8. बाऊ पर लेखन जारी है। उर्मी से तो कभी पार नहीं पा सकता...। उसके लिये 'निपटाना' शब्द प्रयोग भी खटक रहा है :)
    लिखूँगा बाऊ वाला एपीसोड समाप्त कर के।

    एफ के, हिडिम्बा और उसके 'यार' (एफ के की बोली में जार) की कथा तो बस ऐंवे। ;)

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  9. आपसे शिकायत है .......

    आपने उन दोनों कथाओं को अधर में छोड़ कर न जाने और क्या क्या लिखने लगे.......

    पाठक की तारतम्यता बनी रहे ये अति आवश्यक है ......

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  10. विषय:सभ्याचरण
    धन्यवाद के लिए धन्यवाद !

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  11. प्रतीक्षारत रहने को विवश करता है यह संस्मरण :)

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  12. छात्रावासों का साहित्यतन्त्र विशेष होता है, हम सब लोगों में जानवरों के बिम्ब देखा करते थे।

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  13. प्रवीण जी से शत प्रतिशत सहमत
    हम लोग सहपाठियों की बजाय अपने गुरुजनों के विशिष्ट नामकरण के लिये विख्यात (कुख्यात)थे.

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