रविवार, 11 सितंबर 2011

पुरुषों का अवसान


चित्राभार: विकिपीडिया
 ('ए परफेक्ट सर्किल' बैंड के 'थर्टींथ स्टेप' अलबम का आवरण चित्र) 
बहुत पहले किसी स्त्रीवादी स्त्री का यह कथन पढ़ा था:

"रत्ती भर वीर्य के लिये मुझे सारी आयु एक सूअर के साथ बेड क्यों शेयर करना चाहिये?"

चौंक गया था। इस कथन ने मुझे स्त्रीवाद के अध्ययन की ओर प्रेरित किया। एक दूसरे कथन ने दूसरे पक्ष की ओर मुझे देखने को बाध्य किया:

"सृष्टि का सर्वशक्तिमान स्वामी पुरुष सम्भोग के समय कितना हास्यास्पद होता है! स्खलन के पश्चात कितना निर्बल!!"

जितना भी पढ़ा हूँ, उलझा हूँ। कोई स्पष्ट राह नहीं मिली। सामान्यत: मैं स्वयं के प्रेक्षण में विश्वास रखता हूँ। उसमें भी उलझाव मिला तो मैंने इस 'वाद' को अपनी बुढ़ौती के लिये छोड़ दिया।

जिन सहज और स्वस्थ स्त्री पुरुष सम्बन्धों में मेरा नैसर्गिक प्रकार का विश्वास रहा है, ऐसे सम्बन्धों में जो कि एक दूसरे की उठान में लैंगिक भिन्नता को सम्मान देते हुये विश्वास रखें, वे यथावत हैं। प्रेक्षणों के दौरान ही किशोर लड़कों में उपजती नई सी स्त्रैणता दिखी तो मुझे लगा कि यह खुलेपन के कारण हुआ है। मुझे लगता है कि यह एक तरह का विकास है लेकिन फिर भी ... लड़कों में कुछ घटित हुआ है जो खटकता है। मैंने उसे अपना दिमागी फितूर और कठमगजी मान उस पर सोचना छोड़ दिया है। लेकिन आज यह लेक्चर http://www.ted.com/ पर दिखा तो एक अलहदा पक्ष कुछ खुलासे के साथ सामने आया। 
इसे 1971 के बदनाम स्टैनफोर्ड जेल प्रयोग के नेता फिलिप ज़िम्बार्डो ने दिया है। विस्तार से आप नेट पर सर्च कर लीजियेगा। व्याख्यान का मूल अंग्रेजी पाठ नीचे दिया है। पाठकों की सुविधा के लिये स्वयं किया हिन्दी अनुवाद दे रहा हूँ (विशेषज्ञ जन त्रुटियों की ओर ध्यान दिलायें)। सबसे नीचे वीडियो भी है। 

तो आज, मैं चाहता हूँ कि हम 'पुरुषों के अवसान' पर दृष्टि डालें। अकादमिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में लड़के लड़कियों से पिछड़ रहे हैं और लैंगिक सम्बन्धों के मामले में स्त्रियों से। इनके अलावा, कोई खास समस्या नहीं है।  तो इस बारे में आँकड़े क्या कहते हैं? विद्यालयों और कॉलेजों की पढ़ाई छोड़ने के आँकड़े विस्मयकारी हैं। लड़कियों की तुलना में लड़कों के पढ़ाई छोड़ने की सम्भावनायें 30% अधिक हैं। कनाडा में पढ़ाई छोड़ने वाली लड़कियों और लड़कों का अनुपात 3:5 का है। अब प्राथमिक विद्यालय से लेकर स्नातक शिक्षा तक, लड़कियाँ लड़कों से हर क्षेत्र में बाजी मार ले जाती हैं। स्नातक स्तर पर लड़के लड़कियों से दस प्रतिशत के अन्तर से पीछे हैं। सुधार वाले विशिष्ट शैक्षिक कार्यक्रमों में लड़कों की संख्या दो तिहाई होती है। और जैसा कि आप जानते हैं, लड़कियों की तुलना में लड़कों के ध्यान सम्बन्धित कमी के विकार से ग्रसित होने की सम्भावना पाँच गुनी अधिक होती है --- और इसलिये हमें उन्हें रिटालिन दवा देनी पड़ती है।
अवसान का प्रमाण क्या है? पहला, अंतरंगता के क्षेत्र में उपजा नया डर है। अंतरंगता का अर्थ किसी और से दैहिक, भावनात्मक सम्बन्ध से है --- विशेषकर विपरीत लिंग के किसी ऐसे व्यक्ति से जो अस्पष्ट, विरोधाभासी और स्फुरदीप्त संकेत देता हो।    
 हर वर्ष कॉलेज विद्यार्थियों द्वारा स्वघोषित शर्मीलेपन के ऊपर शोध किये जाते हैं। नरों में लजाधुर होनी की प्रवृत्ति में हम लगातार वृद्धि देख रहे हैं। इसके दो प्रकार हैं। यह एक सामाजिक अटपटापन है। पुराना शर्मीलापन अस्वीकार का डर था। (लेकिन) यह एक सामाजिक अटपटापन है जैसे कि आप एक विदेशी भूमि पर परदेसी अजनबी हों। वे नहीं जानते कि क्या कहना चाहिये, विशेषकर विपरीत लिंगी एक-के-ऊपर-एक सम्बन्ध की स्थिति में वे नहीं जानते कि क्या करना चाहिये। वे उन अनकहे और कथनीय नियमों को नहीं जानते जो कि एक व्यक्ति को किसी और के साथ सहज रूप से बात करने और उसे सुनने में समर्थ बनाते हैं, वे चेहरे क्री भाषा नहीं जानते।

 मैं यहाँ उस कुछ को विस्तार दे रहा हूँ जिसे सामाजिक प्रगाढ़ता संलक्षण कहा जाता है, जो पुरुषों में स्त्रियों से सम्भोग की तुलना में स्वलिंगी से जुड़ाव को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति को व्याख्यायित करने का प्रयास करता है। इसका खुलासा यूँ होता है, प्रारम्भिक बचपन से ही लड़के और उसके बाद पुरुष स्वलिंगी के साथ को प्राथमिकता देते हैं दैहिक साथ। और जिसे हम देख रहे हैं वह वास्तव में मस्तिष्क की (एक तरह की) उत्तेजना है, क्यों कि नर जाति टीम में, क्लब में, गैंग में, भाईचारा संगठनों में, विशेषकर सेना में और मदिरालयों में स्वजातियों के साथ रहती आई है। और इस प्रवृत्ति का उठान रविवार के सुपर बाउल में होता है जब कि शराबखाने में जमा अजनबियों के साथ जवान लड़के ग्रीन बे पैकर्स के अतिरेकी ड्रेस से ढके हुये आरोन रोजर्स को देखते रहते हैं बनिस्बत बेडरूम में पूर्णत: नग्न जेनिफर लोपेज के। समस्या यह है कि सामाजिक सम्बन्धों के सहज मेल जोल की तुलना में वे अब तारतम्यहीन इंटरनेट को प्राथमिकता देते हैं।
इसके कारण क्या हैं? यूँ कहें कि यह एक अनभिप्रेत परिणति है। मेरे विचार से यह सामान्य तौर पर इंटरनेट का अति उपयोग है, वीडियो गेम्स की अति, पोर्नोग्राफी (अश्लील सामग्री) की ओर नई अतिरेकी पहुँच। समस्या यह है कि यह सब उत्तेजना से जुड़े हुये व्यसन हैं, लत हैं। ड्रग एडिक्शन, आप की चाहना और अधिककी होती जाती है। उत्तेजना एडिक्शन, आप की चाहना अलग, कुछ खासके प्रति होती जाती है। ड्रग, आप एक ही सामग्री की अधिकता चाहते हैं, अलग है। तो आप उत्तेजना को बनाये रखने के लिये नवीनता चाहते हैं।

समस्या यह है कि इंडस्ट्री इसकी आपूर्ति कर रही है। जेन मैक्गोनिगल ने हमें पिछले वर्ष बताया कि 21 वर्ष का होते होते लड़का वीडियो गेमों के 10000 घंटे खेल चुका होता है, जिनमें से अधिकांश एकांत के होते हैं। जैसा कि आप को याद होगा, सिंडी गैलोप ने बताया कि पुरुष सम्भोग करने और पोर्न(अश्लील) देखने में अंतर नहीं जानते। आज के दौर में एक लड़का औसतन पचास घंटे अश्लील वीडियो क्लिप देखता है। स्पष्ट है कि कोई ऐसा भी है जो सौ घंटे देखता है।  

और अमेरिका में पोर्न उद्योग सबसे तेजी से बढ़ता उद्योग है वार्षिक पन्द्रह बिलियन डॉलर। हॉलिवुड द्वारा बनाई गई हर 400 फिल्मों के मुकाबले अब 11000 पोर्न वीडियो बनते हैं।
तो प्रभाव बहुत तेजी से पड़ता है, यह एक नये तरह की उत्तेजना है। बदलाव, नवीनता, जोश और निरंतर उत्तेजना के लिये लड़कों के मस्तिष्कों की एक पूर्णत: नई विधि से डिजिटल री-वायरिंग की जा रही है। इसका अर्थ यह है कि वे उन पारम्परिक कक्षाओं में पूरी तरह से तारतम्यहीन हैं जो अनालॉग, स्थैतिक, संवादी स्तर पर चेष्टारहित हैं। वे रुमानी सम्बन्धों में भी, जो कि धीरे धीरे और सूक्ष्म सम्वेदी तरीके से विकसित होते हैं, पूर्णत: तारतम्यहीन हैं। तो हल क्या है? यह मेरा काम नहीं। मैं यहाँ आप को सचेत करने आया हूँ। समस्या हल करना आप का काम है।
           

चित्राभार : विकिपीडिया
Banana Slug
 लेकिन इसकी फिक्र किसे होनी चाहिये? केवल उन लोगों को चिंतित होना चाहिये जो लड़कों और लड़कियों के माता पिता हैं, शिक्षक हैं, गेमर हैं, फिल्मनिर्माता हैं और उन स्त्रियों को भी होना चाहिये जिन्हें एक असल पुरुष की चाहना है जिससे वे बातें कर सकें, जो नाच सके, जो धीरे धीरे सम्वेदी सम्भोग में लिप्त हो सके और इस तरह वे लोग विकास के (उन) दबावों में अपना योगदान देंगे जो कि हमारी जाति को ‘बनाना स्लग’ से ऊपर बनाये रखेंगे। (इस कथन में) बनाना स्लगस्वामियों के अपमान का कोई इरादा नहीं है।       
   

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So today, I want us to reflect on the demise of guys. Guys are flaming out academically; they're wiping out socially with girls and sexually with women. Other than that, there's not much of a problem. So what's the data? So the data on dropping out is amazing. Boys are 30 percent more likely than girls to drop out of school. In Canada, five boys drop out for every three girls. Girls outperform boys now at every level, from elementary school to graduate school. There's a 10 percent differential between getting BA's and all graduate programs, with guys falling behind girls. Two-thirds of students in special ed remedial programs are guys. And as you all know, boys are five times more likely than girls to be labeled as having attention deficit disorder -- and therefore we drug them with Ritalin.
What's the evidence of wiping out? First, it's a new fear of intimacy. Intimacy means physical, emotional connection with somebody else -- and especially with somebody of the opposite sex who gives off ambiguous, contradictory, phosphorescent signals. (Laughter) And every year there's research done on self-reported shyness among college students. And we're seeing a steady increase among males. And this is two kinds. It's a social awkwardness. The old shyness was a fear of rejection. It's a social awkwardness like you're a stranger in a foreign land. They don't know what to say, they don't know what to do, especially one-on-one opposite sex. They don't know the language of face contact, the non-verbal and verbal set of rules that enable you to comfortably talk to somebody else, listen to somebody else.
There's something I'm developing here called social intensity syndrome, which tries to account for why guys really prefer male bonding over female mating. It turns out, from earliest childhood, boys, and then men, prefer the company of guys --physical company. And there's actually a cortical arousal we're looking at, because guys have been with guys in teams, in clubs, in gangs, in fraternities, especially in the military, and then in pubs. And this peaks at Super Bowl Sunday when guys would rather be in a bar with strangers, watching a totally overdressed Aaron Rodgers of the Green Bay Packers, rather than Jennifer Lopez totally naked in the bedroom. The problem is they now prefer asynchronistic Internet world to the spontaneous interaction in social relationships.
 What are the causes? Well, it's an unintended consequence. I think it's excessive Internet use in general, excessive video gaming, excessive new access to pornography. The problem is these are arousal addictions. Drug addiction, you simply want more. Arousal addiction, you want different.Drugs, you want more of the same -- different. So you need the novelty in order for the arousal to be sustained.
And the problem is the industry is supplying it.Jane McGonigal told us last year that by the time a boy is 21, he's played 10,000 hours of video games, most of that in isolation. As you remember, Cindy Gallop said men don't know the differencebetween making love and doing porn. The average boy now watches 50 porn video clips a week. And there's some guy watching a hundred, obviously.(Laughter) And the porn industry is the fastest growing industry in America -- 15 billion annually.For every 400 movies made in Hollywood, there are 11,000 now made porn videos.
So the effect, very quickly, is it's a new kind of arousal. Boys' brains are being digitally rewired in a totally new way for change, novelty, excitement and constant arousal. That means they're totally out of sync in traditional classes, which are analog, static, interactively passive. They're also totally out of sync in romantic relationships, which build gradually and subtly.
So what's the solution? It's not my job. I'm here to alarm. It's your job to solve.
(Laughter)
(Applause)
But who should care? The only people who should care about this is parents of boys and girls,educators, gamers, filmmakers and women who would like a real man who they can talk to, who can dance, who can make love slowly and contribute to the evolutionary pressures to keep our species above banana slugs. No offense to banana slug owners. Thank you.
(Applause)
https://www.ted.com/talks/zimchallenge?utm_campaign=tedspread&utm_medium=referral&utm_source=tedcomshare





और नीचे है सिंडी गैलोप के एक लेक्चर का वीडियो। लाल इसलिये कि 'adult content' है। 
जो लोग अवयस्क हैं या वयस्क सामग्री में रुचि नहीं रखते, न देखें : 
आभार: ted.com

18 टिप्‍पणियां:

  1. पतली कमर, बारीक और मधुर आवाज़, जींस से झांकती हुई चड्डी, कान छिद्दे हुए, आँख की पुतली के उपर भी रिंग....... आज के १८-२० साल के मेट्रो युवा... खुदा खैर करे... ऐसे 'मर्दों' की जरूरत भी क्या रह गयी.....

    सत्य कह रही हैं नारीवादी भी...:)

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  2. क्या हम एक बडे बदलाव के साक्षी हैं या आंख के सामने का परिवर्तन आंख से छुपे से बडा लगता ही है? मुझे लगता है कि प्रकृति के पास अपने करैक्टिव मैज़र्स हैं, समस्याओं के हल भी हैं, भले ही हमें वे हल भी एक बड़ी समस्या दिखें।

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  3. @ प्रकृति के पास अपने करैक्टिव मैज़र्स हैं,
    हाँ यह बात तो है. पर प्रकृति के करेक्टिव मेजर्स पर, सब कुछ जानकर भी भरोसा कहाँ हो पाता है ? दरअसल हमारी चिंताएं और प्रयास भी (स्वाभाविक होने से ) उसी प्राकृतिक करेक्टिव मेजर्स के ही भाग हैं. प्रकृति से परे तो कुछ भी नहीं है न ! अन्यथा फिर हमारे पूरी तरह भाग्यवादी होने से अकर्मण्यता का डर बना रहेगा.

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  4. रोचकता के नये अध्याय सामने आ रहे हैं, सामान्य जीवन शैली से पके लोग असामान्यता की ओर भाग रहे हैं,संतुष्टि तो बाहर है ही नहीं। अपने भीतर के सुख दुख का स्रोत लोग औरों में ढूढ़ते हैं।

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  5. नारीवादियों के विषय में आपका यह कथन 'रेडिकल नारीवादियों' के लिए है. असल में नारीवाद की एक धारा यह मानती है कि स्त्री-पुरुष के अंतरंग संबंधों में भी पितृसत्तात्मक उच्चावचता है. मतलब उन संबंधों को ऐसे परिभाषित किया जाता है जैसे कि पुरुष भोगी हो और स्त्री भोग्या. ऐसा कुछ मामलों में होता भी है.सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं पूरे संसार में दो-तिहाई स्त्रियों के लिए यौन-संबंधों में आनंद जैसी कोई चीज़ नहीं होती क्योंकि पुरुष केवल अपनी स्वार्थ-सिद्धि करके 'निवृत्त' हो लेता है और स्त्रियों के आनंद के विषय में नहीं सोचता.(मैं ऐसा सिर्फ़ अध्ययन के आधार पर नहीं कह रही, बल्कि मैंने एक ग्रुप के साथ काम किया है और सैकड़ों औरतों से बातचीत की है)
    जहाँ तक अन्य स्त्रीवादियों की बात है, तो वे मानते हैं कि जिस प्रकार सभी स्त्रियाँ एक जैसी नहीं होतीं, उसी प्रकार सभी पुरुष एक जैसे नहीं होते. परस्पर अंतरंग सम्बन्धों में एक दूसरे का सम्मान बनाए रखकर समानता संभव है. इसके लिए लड़के और लड़कियों को वयस्क होते ही, मुख्यतः विवाह से पूर्व यौन-संबंधों की सम्पूर्ण शिक्षा दी जानी चाहिए. लड़कियों को भी ऐसे मामलों में बोलने के लिए प्रेरित करना चाहिए.
    मैंने आपका लेख पढ़ा, पर वीडियो नहीं देखे और अंग्रेजी वाला हिस्सा नहीं पढ़ा. लड़कों के हेट्रोसेक्सुअल होते जाने को मैं एक फैशन मात्र मानती हूँ और आप ज़रा टीवी चैनल बिंदास की 'दादागिरी' और एम टीवी 'रोडीज़' देखिये. मुझे लगता है कि इन कार्यक्रमों में लड़के-लड़कियाँ आपको जिस तरह से गाली-गलौज करते दिखेंगे, आपकी धारणा हो सकता है थोड़ा बदले.

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  6. कुछ नया, कुछ और रोमांचक पाने की चाह व्यक्ति को भौतिकता और स्थूलता की और तेजी से खींचे जा रही है...
    पर, अति सर्वत्र वर्जयेत...अकाट्य, सिद्ध है यह....
    चक्र है... ऊब होगी इससे भी और सुख की चाह में फिर से निकलेंगे नए संधान में...

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  7. मैं तो इसे 'identity crisis' मानता हूँ।परिवार के स्नेह,सरंक्षण,विश्वास से वंचित युवाओं द्वारा अपने वजूद की भटकन भरी तलाश।अवसान दोनों तरफ है।

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  8. मुक्ति जी, सम्भवत: आप होमो कहना चाह रही थीं और हेट्रो कह गईं। होमोसेक्सुअलिटी एक अलग विषय है। यहाँ पुरुष की उस सहज नैसर्गिक प्रवृत्ति को कुन्द किये जाने पर बात की गई है जो कि साथी के रूप में स्त्री का अधिकार है और आधी आबादी के रूप में पुरुष का कर्तव्य भी। कोई आश्चर्य नहीं कि स्त्री पौरुषहीन पुरुष में आकर्षण न पाये। यहाँ पौरुष से तात्पर्य बल और बलात नहीं, उस केयरिंग है जो स्त्री में विद्यमान 'माँ' अपने साथी से चाहती है।
    रोडीज वगैरह प्रोग्राम अन्तत: उसी 'सृजन' से जुड़ते हैं जो पोर्नो के लिये उत्तरदायी है।
    आप और रंजना जी का धन्यवाद जो अपने विचार रखे। 'स्थूल' - रंजना जी द्वारा प्रयुक्त यह एक शब्द बहुत गहरे अर्थ रखता है।
    ऐसे विषयों पर 'हिन्दी पुरुष' भी कुछ कहने से बचते हैं। इसके लिये दीपक बाबा, स्मार्ट इंडियन, कौशलेन्द्र, प्रवीण पाण्डेय और रोहित विष्ट को भी धन्यवाद देना चाहूँगा कि अपने विचार यहाँ रखे। यह एक बहुआयामी, विशाल और जटिल विषय है। आप लोगों की प्रतिक्रियाओं से मुझे सीखने को मिला है।
    बस एक निवेदन है कि अपने परिचितों को लड़कों में वीडियो गेम, पोर्नो और नेट के प्रति बढ़ते व्यसनी झुकावों की ओर से सचेत करते रहें। आज अमेरिका जिस स्तर पर इन्हें झेल रहा है, उससे हमलोग बहुत दूर नहीं हैं।

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  9. मुक्ति जी, फिलिप ज़िम्बार्डो का लेक्चर देखने लायक है। उसमें कोई ऐसी वैसी बात नहीं है।
    सिंडी गैलोप थोड़ी बोल्ड हैं लेकिन एक अकादमिक व्यक्ति के लिये दर्शनीय हैं। उन्हों ने पते की बातें कहीं हैं हालाँकि उनकी बातें यहाँ विषयान्तर ही हैं।

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  10. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  11. शायद सदा से पुरुष वही थे जो आज हैं। अन्तर केवल उनके परिवेश का था। स्त्रियाँ स्पर्धा में भाग ही नहीं लेती थौं अतः पुरुष पिछड़ते भी नहीं थे व सर्वशक्तिमान, अति बुद्धिमान होने, व अकेले बुद्धिमान होने के भ्रम में रहते थे। यह भ्रम व अन्य बहुत सारे भ्रम के जाल बुनने में स्त्री भी शायद सहायता करती थी। क्योंकि वह स्वयं जीवन की किसी भी स्पर्धा में भाग नहीं ले पाती थी अतः अपने पिता, पति, पुत्र के माध्यम से ही विजयी हो सकती थी़। चाहे बुद्धि, कौशल, पत्नी ने लगाया हो, विजयी पुरुष ही गिना जाता था। उस विजय से कभी अतिरिक्त धन तो कभी अतिरिक्त मान सम्मान मिलता था व उसकी प्रतिबिंबित, रिफलेक्टेड महिमा में स्त्री भी स्वयं को महिमा मंडित अनुभव करती होगी।
    पुरुष की हर स्पर्धा की तैयारी स्त्री करती रही है़। कभी खिला पिलाकर, कभी युद्ध के लिए सजाकर, कभी उकसाकर तो कभी उसकी असली नकली महानता के बारे में उसे विश्वास दिलाकर।
    समस्या अब इसलिए आन खड़ी हुई है क्योंकि स्त्री स्वयं स्पर्धा में भाग लेने लगी है अतः एक तो इसी कारण पुरुष पिछड़ने लगा है क्योंकि उसकी नई प्रतिद्वन्दी आ गई है, दूसरा जितनी उर्जा स्त्री पहले उसे सजाने, संवारने, खिलाने पिलाने, उसके नखरे उठाने, उसके अहम् को सहलाने दुलारने में लगाती थी वह अब नहीं लगा रही, क्योंकि इसमें से काफी उर्जा अब उसे स्वयं के लिए चाहिए होती है।
    पहले के पुरुष के पीछे दरअसल दो मनुष्यों की उर्जा, प्रयास, दुआएँ काम कर रही होती थी, उसपर यह अनुभूति कि वह किसी मन्दबुद्धि, निर्बल, असहाय (स्त्री) को दिशा निर्देश दे रहा है, रक्षा कर रहा है, किसी का भाग्य विधाता है, साधारण से साधारण पुरुष को भी टार्जन या चाणक्य होने के भ्रम में डाल सकता है। हम स्वयं को जो समझने लगते हैं हम वैसा ही व्यवहार भी करने लगते हैं।
    घुघूती बासूती

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  12. घुघूती जी,
    जो आप ने कहा वह प्रकटत: तथ्य है लेकिन है लेशमात्र। इस तर्क की परिणति वहीं होती है जहाँ दोनों एक दूजे के प्रतिद्वन्द्वी कहे जाते हैं। आज स्त्रियाँ यदि आगे हैं तो उसका कारण पुरुषों का सहयोग और सहारा भी है। आप के ही तर्क से कहें तो पहले स्त्रियाँ पुरुषों को स्वयं को दबा कर भी सहयोग सहारा देती थीं तो आज दोनों एक दूसरे के लिये लगे हुये हैं।
    फिलिप ज़िम्बार्डो के व्याख्यान में लड़कियों के आगे रहने का वर्णन प्रस्तावना और ह्यूमर के स्पर्श के रूप में हुआ है। मुख्य बात यह है कि पुरुष अपनी कतिपय वृत्तियों के कारण ऐसे व्यसन में पड़ रहे हैं जो एक पूरी पीढ़ी के संतुलन को बाधित करने में सक्षम है/हो रहा है। पुरुष का अविकसित रह जाना या पतित होना जितना उसके लिये घातक है उतना ही स्त्री के लिये भी। यह बात उल्टी भी लागू होती है...
    जैसा कि मैंने कहा बहुत वृहद और गहन विषय है, कितने ही आयाम हैं। फिर कभी...
    ... आप ने अपने विचार व्यक्त किये, धन्यवाद। आभार।

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  13. "विशेषकर विपरीत लिंग के किसी ऐसे व्यक्ति से जो अस्पष्ट, विरोधाभासी और स्फुरदीप्त संकेत देता हो।"
    यही तो आफत है और यही रोना है -
    भारत में वर्णित स्थितियां अभी उस परिमाण में नहीं हैं -पर शुरुआत हो चुकी है !

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  14. "पूरे संसार में दो-तिहाई स्त्रियों के लिए यौन-संबंधों में आनंद जैसी कोई चीज़ नहीं होती"
    यह तो भयावह आकड़ा है ,मैं केवल चंद नारीवादियों के बारे में ऐसी सोच रखता था और उनकी प्रवंचना पर सहानुभूति रखता था -सहानुभूति के आगे भी कुछ करने की सदा इच्छा रही है -मगर सीमाएं हैं ...आप जानते हैं /वे जानती हैं !
    यहाँ औरतों को वैकल्पिकता पर नजर रखनी चाहिए ..और पुरुषों को और जिम्मेदार ..हम आप जैसे ....

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  15. @गिरिजेश जी, मैं होमो नहीं 'मेट्रोसेक्सुअल' कहना चाहती थी. यह टर्म महानगरों में रह रहे उन युवाओं के विषय में प्रयुक्त होता है, जो उच्चआय वर्ग के हैं और अपनी देखभाल पर हर महीने हज़ारों रूपये खर्च कर देते हैं. स्पा, सलून और पुरुष ब्यूटी पार्लर इन्हीं लोगों की बदौलत चलते हैं. ऐसे ही पुरुष चिकने-चुपड़े बने रहना चाहते हैं और हाल ही में हुए एक अध्ययन में ये पाया भी गया है कि आजकल की युवा पीढ़ी की लड़कियाँ ऐसे ही पुरुषों के प्रति अधिक आकर्षित होने लगी हैं.
    अब पता नहीं ये Y क्रोमोसोम के लगातार कमज़ोर होते जाने के कारण है या महानगरीय युवाओं की फैशनपरस्ती के कारण अथवा बदलते समय की माँग कीकार्न, लेकिन ये ही सच है कि आजकल युवाओं को क्लीन शेव रहना अच्छा लगने लगा है और लड़कियों को ऐसे ही लड़के पसंद आते हैं. मूँछे रखना तक पिछडेपन की निशानी मानने लगे हैं आजकल के टीनएजर्स.

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  16. मैंने दोनों ही वीडियो देखे. सिंडी गैलोप ने जो बातें उठायी हैं, वो नारीवादियों के मध्य बहुत दिनों से चर्चा का विषय हैं, इसलिए मुझे कोई नयी बात नहीं लगी.
    बात ये है कि जब इन्हीं सब बातों पर नारीवादी बहस करते हैं, तो उन्हें संस्कृति विरोधी ठहरा दिया जाता है. जबकि ये बातें हमारे बाद की पीढ़ी के लिए बहुत महत्त्व की हैं. इंटरनेट की पहुँच गावों तक हो गयी है, महानगरों के तो क्या कहने? ये सोचने की बात है कि जब युवाओं को अपेक्षित ज्ञान सीधे नहीं दिया जाएगा, तो वो इधर-उधर से उस ज्ञान को अर्जित करेंगे, जो कि उनके लिए घातक होगा. नारीवादी बढ़ते बलात्कारों का एक कारण पोर्नोग्राफी को भी मानते हैं.

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  17. banana slugs ही समझ नहीं आया था. कुछ कुछ और पढ़ना पड़ा . ऊपर के कमेंट भी पढ़े.

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  18. .............
    dhyan se padha.........samjhne ki koshish ki.................'swa-sudhar' ki gunjayash hai...........bakiya, 'manishiyon-vidushiyon' ke vichar se 'sikh-ka-sambal' mila.......aap sab ko aabhar..........


    pranam.

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