शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

भूमि से नीचे बहुत - सच के सामने

पिछले से आगे ...


उन्नत, पतित, पतित, उन्नत घिरे हैं उलटबाँसी प्रश्नवाची आवर्त अविश्वास
नहीं, मैं नहीं सम्मोही अदृश्य यमदूतों की चुम्बकीय शीतलता से घिरा
महके गुलाब घेरे हैं उन्नतग्रीव ऊष्म सुकोमल गोरे बन्धन हाथ, साथ
तैर रही है देह सुचिक्कण फूलदार साटिन में जिस पर खिले कास कचनार
लिपटी है वह जो सुन्दर है, अलसाई आँखें कजरारी, रोज का जीवन है
कानों पर अटखेलियाँ हैं गर्म सिसकी, देह पिघले मोम जमती सर हवा।

लगा चाटा चटाक, जल उठे हैं गाल, जम गई है देह डाँट- कल्पना मूर्ख!  
दिव्य लोक आकर सोचता मल, मज्जा, विष्ठा, लार, लपार हासिल जो यूँ ही
तुम सचमुच आये हो सम्राट एकराट की दुनिया, किस्मत वाले हो, अटेंशन!
आ पहुँचे हो उनके सामने तैरते राख नदी पर, हवाई तिलस्म में घुलते
देखो! छिटक उठे हैं सितारे इस गहन चिरगर्भवती धरा की ममता कोख में  
देखो! निहारिकायें उड़ा रही हैं धूल धमाल अरे! साज ताल, सुनो पखावज
नाद निर्वात नित नृत्य नग्न हो उठा नवीन। काट खाया है निज को शोणित हीन
चमकती खाल से झाँकती शिरायें – यह सच है अज्ञानी, झुको सच के आगे!  

सामने सच विराट, श्याम मुंड लाट, श्याम भूधर हवाखोरों के वार
सहस्रों छिद्र मोहन, सहस्र रूप, सहस्र किनारे चमके  हजारो हजार
झुका हूँ, घुटनों को गला रहा शीतल तेज़ाब, देखा कभी कृष्ण प्रकाश?
इतना चौंधियाता! धड़के धड़ दिल हजार हजारो भुलक्कड़ साष्टांग अभिचार
उगलने लगी हैं पसीना घायल नोच दी गयी शिरायें, उतर रही है खाल
धीरे धीरे मांस पकता नमकीन जलन! देख रहा अस्थियों के चमके फास्फर;
 हे देव! तुम्हें ऐसे ही मिलना था। क्या करूँगा मैं जब देह ही नहीं रहेगी?

 हंग हहा गस्पा ज्या तुन ता मातल गहा.... सच स्वामी ने क्या कहा?
सिर उतार ले लिया है एक छाया ने हाथ में और कहा है बड़े प्यार से –
गुस्ताख! स्वामी से प्रश्न पूछते हो जैसे कि हम हों? सुनो जो सुना कहा –
भूमि के ऊपर प्रकाश वह अन्धकार, जीवन वह मृत्यु, देह वह हवा
मैं देता हूँ दिशायें उन्हें, मेरुप्रभायें दासियाँ मेरी जिनकी देह चुम्बक
भटका देती हैं राहों को जब मचलती हैं बिजलियाँ उनमें शाद को। 
मैं ऐसा ही हूँ कि तुम जान नहीं सकते, हाँ ऊपर नीचे जी सकते हो...
चूमा है मुझे अनुवादक ने, आह आनन्द! अभी बन्द भी न हुईं कि
घुसेड़ कोटरों में हड्डियाँ निकाल ली आँखें उसने, सौंप दिया है सच को
“रहेंगी तो रिसती रहेंगी, आका! तुम्हें भेंट है, तुम सब, तुममें सब रूप,
दिखने दिखाने का क्या काम?” गर्जन ध्वनि –तुन ता मातल गहाऽऽ
गलदश्रु हूँ मैं, ज्ञानचक्षु खुले हैं – पहला स्तवन, नासमझा बिला दहा।  (जारी)   

8 टिप्‍पणियां:

  1. टैगोर की कई कविताओं के बारे में लोग कहते थे कि लगती तो थीं सुबह की चिड़ियों के कलरव के मानिंद कर्णप्रिय मगर समझ के परे हो जाती थीं -वैसा ही रन झुन प्रभाव लगा इन शब्दों को पढ़ते हुए या तो फिर किसी नृत्यांगना के पैरों की घुंघरुओं की हलके थाप पर प्रतिक्रिया सी रुनझुनाती सी ......

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  2. ईमानदारी से कहूँ तो मैं खुद को इसका संदर्भ और प्रसंग दोनो समझ पाने में अक्षम पा रहा हूँ।

    लगता है इसका धरातल अपनी पहुँच से काफी ऊपर है। अरविंद जी ने सच ही कहा है।

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  3. प्रवाह मत रोकिये, एक बार में ही दे दीजिये...

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  4. .
    .
    .
    कुछ कुछ दूसरे लोक के आका से साक्षात्कार की कल्पना सी लग रही है यह कविता... डरा रहे हो कवि ?


    ...

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  5. गज़ब!

    द्यावापृथिव्योरिदमंतरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
    दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।।

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