बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

उत्तरोर्मि - मैं तुम्हें लिखती हूँ


स्वेद पगा तुम्हारा कोरा कागज बिछा है इस धरती। पुलक गात भर ममत्त्व सिहरती हूँ। उसी पर वही लिखती हूँ। न कहना कि इसमें कुछ नहीं! यह कम नहीं कि थम गये हैं धड़कन प्राण, जो कहती हूँ। मैं मरती हूँ।

कागज वही, खुला है इस रात वही श्रावणी वातायन और कुबेर भर गया है वसंत। झर झर झरती हूँ। मैं भीगती हूँ।

कमरे की छ्त है तारों भरा आसमान। सुना है तुमने कभी कूक कोई रातों में? नीरवता को समेट कहती हूँ, लोग कहते हैं कुहुकती हूँ। मैं तुम्हें कहती हूँ।


तुम सीझते हो – रह रह? संचित हैं युगों के बीज, तुम्हारी सोच मैं रत्नगर्भा रह रह। अँगड़ाइयाँ लेते हैं अनकहे अरमान रह रह। फूटती हूँ तुम्हारी आँच से। सहती हूँ। मैं हँसती हूँ।

मेरा आशीष सदा तुम्हें है। अपने सिर हाथ यूँ ही नहीं रखती बार बार! इस सीले कागज पर कैसे धरोगे हाथ जैसे रख देते हो मेरे मुँह पर? लो आज फिर कहती हूँ किसी जनम तुम थे मेरी कोखभार और किसी जनम खींच चोटी भागे बार बार। इस जनम लगती हूँ तुम्हारा अंग विस्तार कि अगले में खेलना है गोद में टपकाती लार! तुम्हें रचती हूँ और मरती हूँ हर बार। बुद्धू! कहाँ जीती हूँ? मैं तुम्हें रचती हूँ।

छोड़ो यूँ लिखना, आहें भरना, दूर से बातें बनाना। बस आ जाओ। न! कोई बहाना नहीं।
मेरा नाम लेना और खुल जायेगी टिकट खिड़की जंगल के परित्यक्त स्टेशन पर। हाथ हिलाना नभ की इकलौती परछाईं की ओर और पटरियाँ जुड़ जायेंगी। बस ट्रेन में बैठ लेना।
आ जाओ कि रिज की चट्टानें धुल दी हैं मैंने (अश्रु और स्वेद मुझे भी आते हैं)। 
आ जाओ कि बबूलों में बो दिये हैं काँटे अनेक।
साथ साथ लिखेंगे इबारतें अनेक। सूँघ लेना मेरी भूमा गन्ध (वही जिसे निज स्वेद सनी खाकी में पाते हो)।
मैं पा लूँगी घहरती कड़क झमझम बेमौसम (तुम्हीं तो हो ऋषियों के पर्जन्य!)
ठसक तुमसे है, तुम पर ही लदती हूँ।

मैं तुम्हें लिखती हूँ।
  
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ध्वनि मिश्रण: स्वयं 
सॉफ्टवेयर: Audacity
नेपथ्य संगीत:
Piano Acoustic Guitar Ballad, Artists: Jocelyn Enriquez, Kylie Rothfield, Julie Plug, Scott Iwata

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

... पुन: तुम्हें लिखता हूँ



जब तुम्हें लिखता हूँ, स्वेद नहीं, झरते हैं अंगुलियों से अश्रु।
सीलता है कागज और सब कुछ रह जाता है कोरा
(वैसे ही कि पुन: लिखना हो जैसे)। जब तुम्हें लिखता हूँ।
  
नहीं, कुछ भी स्याह नहीं, अक्षर प्रकाश तंतु होते हैं
(स्याही को रोशनाई यूँ कहते हैं)।
श्वेत पर श्वेत। बस मुझे दिखते हैं।
भीतर भीगता हूँ, त्वचा पर रोम रोम उछ्लती है ऊष्मा यूँ कि मैं सीझता हूँ।
फिर भी कच्चा रहता हूँ
(सहना फिर फिर अगन अदहन)।
 जब तुम्हें लिखता हूँ।

डबडबाई आँखों तले दृश्य जी उठते हैं।
बनते हैं लैंडस्केप तमाम। तुम्हारे धुँधलके से मैं चित्रकार।
फेरता हूँ कोरेपन पर हाथ। प्रार्थनायें सँवरती हैं।
उकेर जाती हैं अक्षत आशीर्वादों के चन्द्रहार।
शीतलता उफनती है। उड़ते हैं गह्वर कपूर।
मैं सिहरता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।

हाँ, काँपते हैं छ्न्द। अक्षर शब्दों से निकल छूट जाते हैं गोधूलि के बच्चों से।
गदबेर धूल उड़ती है, सन जाते हैं केश। देखता हूँ तुम्हें उतरते।
गेह नेह भरता है। रात रात चमकता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।

जानता हूँ कि उच्छवासों में आह बहुत।
पहुँचती है आँच द्युलोक पार।
तुम धरा धरोहर कैसे बच सकोगी?
खिलखिलाती हैं अभिशप्त लहरियाँ। पवन करता है अट्टहास।
उड़ जाते हैं अक्षर, शब्द, वाक्य, अनुच्छेद, कवितायें। बस मैं बचता हूँ।
स्वयं से ईर्ष्या करता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।

न आना, न मिलना। दूर रहना। हर बात अधूरी रहे कि जैसे तब थी और रहती है हर पन्ने के चुकने तक।
थी और है नियति यह कि हमारी बातें हम तक न पहुँचें। फिर भी कसकता हूँ।
अधूरा रहता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।

तुम्हें चाहा कि स्वयं को? जीवित हूँ। खंड खंड मरता हूँ। 
 साँस साँस जीवन भरता हूँ। मैं तुम्हें लिखता हूँ।

इसे अर्चना जी ने अपने ब्लॉग पर स्थान दिया है। लिंक यह है: आलसी का काम 



शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

लोक : भोजपुरी - 5 : घुमंतू जोगी - जइसे धधकेले हो गोपीचन्द, लोहरा घरे लोहसाई

पिछली कड़ियाँ: 
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अघोरियों और अत्रि-अनुसूया के पुत्र दत्तात्रेय की अवधूत परम्परा बहुत प्राचीन रही है। ऋक्, साम और वाजसनेयि संहिता में इनके संकेत मिलते हैं। सांसारिकता को तज चुके और सामाजिक व्यवस्था के उलट रहने और व्यवहार करने वाले अवधूत संन्यासी पश्चिम में दूर गान्धार देश (वर्तमान अफगानिस्तान) से ले कर पूरब में कामरूप अहोम (असम) देश तक और उत्तर में कश्मीर से ले कर दक्षिण में महाराष्ट्र तक विचरते और लोक जीवन को गहराई तक प्रभावित करते पाये जाते रहे हैं। पंजाब की जालन्धर नगरी योगी जलन्धरनाथ की कर्मभूमि थी। इनके प्रमाण इतने प्रबल हैं कि गुजराती कन्हैयालाल मुंशी ने अपने उपन्यास भगवान परशुराम में परशुधारी राम जामदग्नेय(परशुराम) को अघोरियों के साथ जीते, उनसे अतीन्द्रिय शक्तियों को ग्रहण करते और अंतत: उन्हीं शक्तियों के प्रयोग द्वारा सहस्रबाहु का वध करते प्रदर्शित किया है।
इसी परम्परा विकास की एक कड़ी है हठयोगी नाथपंथियों की। सनातन मान्यताओं और सामाजिक संस्कारों को चुनौती देते, संझा सधुक्कड़ी उजड्ड बानी बोलते, चमत्कार दिखाते, वीभत्स गालियों को बकते और लोकरंजन करते पूर्वी उत्तरप्रदेश के जोगीड़े और कबीरे आज भी हैं। कबीरों से वैरभाव रखने वाली जोगी परम्परा अपने को महायोगी शिव से जोड़ती है। ‘नाथ’ शब्द का अर्थ शरण देने वाले शिव से लिया जाता है।
हठयोग द्वारा शरीर को साध पंचमहाभूत काया का अतिक्रमण कर प्रकृति के पाँच तत्त्वों क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर पर विजय और तत्पश्चात कुंडलिनी जागरण द्वारा महासमाधि – नाथों की क्षात्र परम्परा बहुरंगी रही है। एक ओर ये वाममार्गी पंचमकारों का निषेध करते हैं तो दूसरी ओर दो महासिद्धों मछिन्दर(मत्स्येन्द्रनाथ) और गोरखनाथ के रूप में तिब्बती महायानी और बज्रयानी बौद्ध परम्परा में भी स्थान पाते हैं। गोरखपुर की गोरखनाथ पीठ आज भी सक्रिय है और समस्त पूर्वी उत्तरप्रदेश और नेपाल में इसका प्रभाव है। यह परम्परा जाति पाति में विश्वास नहीं रखती। नाथ गुरु द्वारा दीक्षित योगी नाद परम्परा के माने जाते हैं तो गृहस्थ योगियों के पुत्र बिन्द(दु) परम्परा के।
जगविख्यात त्रिशतकों शृंगार, नीति और वैराग्य के रचयिता राजा भर्तृहरि(लोक में भरथरी नाम से प्रसिद्ध) नाथ परम्परा से जुड़े हैं। उनके भांजे राजा गोपीचन्द उनके साथ नौ महासिद्धों में स्थान रखते हैं। लोक में इनका बहुत प्रभाव रहा है। आश्चर्य होता है जब संतों की निर्गुण और सगुण भक्तिधारा भी इनसे निकसती दिखाई देती है। गुरु गोरखनाथ (गो = इन्द्रिय, रख – रखवाला अर्थात इन्द्रिय संयमी) को साधना की नई तकनीकों के आविष्कार का श्रेय प्राप्त है। त्रियाराज में अखंड भोग भोगते पतित हो चुके अपने गुरु मछिन्दरनाथ का उन्हों ने उद्धार किया:  
चेत मछिन्दर गोरख आया, अगम निगम हिय हेला जी
एतियो नींद में सोया नाथ जी, आप गुरू हम चेला जी।
उनका प्रभाव इतना व्यापक रहा है कि ओशो रजनीश ने कहा है:
“बिना गोरख के न कबीर होते और न नानक, न दादू होते, न वाजिद, न फरीद और न मीरा।“
इसलिये कबीर जब गाते हैं ‘अवधूता जुगन जुगन हम जोगी, हमहीं सिद्ध, समाधि हमहीं’, तो इसमें हमें बहुत से संकेत छिपे समझने चाहिये।  
नाथ परम्परा की दीक्षा बहुत कारुणिक होती है। संन्यास लेने पर विवाहित व्यक्ति को गुदड़ी और खिचड़ी की पहली भीख अपनी पत्नी से माँगनी होती है तो कुँवारे को अपनी माँ से। घर त्याग चुके संन्यासी को जीने के लिये केवल भोजन और कपड़ों की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति भीख में मिली गुदड़ी (लुगरी) और खिचड़ी (अन्न का पंचमेल) से होती है। पहली भीख से प्रारम्भ हुई यह यात्रा बारह वर्षों तक चलती है। बारह वर्ष तक जोगी दुबारा अपने गाँव नहीं आता। आता भी है तो एक बार और उसके बाद पंचमहाभूतों के इस संसार में विरम जाता है कि इससे मुक्त हो सके।
ये घुमंतू जोगीड़े अपने सिद्धों की गाथा गाते फिरते रहते हैं। घुमंतू वीरगाथाओं की परम्परा सारे संसार में पाई जाती है लेकिन संन्यासीगाथाओं की परम्परा सम्भवत: केवल भारत में ही है। इनके लोकलुभावन गीत प्राय: करुणरस प्रधान होते हैं जिनमें संन्यास ले चुके पुरुष परिवारी के दुख में सीझती स्त्रियों की मनोदशा भी वर्णित होती है। इनकी कहानियों में विरोधाभासों की विविधता होती है और लोकरंजक कौतुक चमत्कारों की बहुलता भी। गैरिक वेश, सारंगी और तप का सम्मोहन कुछ ऐसा होता है कि लोग मुँह बाये सुनते रहते हैं।
राजा भर्तृहरि की बहन मैनावती के पुत्र गोपीचन्द ने 12 वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ले लिया। लोकमान्यता दो प्रकार से है – एक, स्वयं माँ ने उन्हें प्रेरित किया; दूसरी, उन्हें गुरु ने प्रेरित किया। उनकी गाथा ऊपर वर्णित समस्त क्षेत्र में जोगी गाते फिरते रहे हैं। देखिये सन् 1880 के दशक के पंजाब में एक अंग्रेज क्या बताता है? संन्यास लेने के पहले स्नान करते गोपीचन्द को देख माँ मैनावती की प्रतिक्रिया:
करन लगे अश्नान राव ने, चन्दन चौक बिछाई
चमकत बदन कनक जैसा, और मुख चन्दर की नियाई
निकसा भान गगन में, सूरज की एक जोत छिप छाई
हे मिरग नैन, कंठ कोइल, मुख ना उपमा कही जाई
मोरी बैठी, नैन निहारी, मैनावती माई
टप टप आँसू परे धरन पर, थमत नहीं थमाई।‘ 
चित्राभार : सतीश पंचम
... सौ से भी अधिक वर्षों के पश्चात दूर पूर्वी उत्तरप्रदेश के रामकोला कस्बे की एक दुपहर है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता एक किशोर गाते हुये जोगी को अपनी माँ के साथ सुन रहा है। ...
 बारह वर्ष की कच्ची अवस्था में गोपीचन्द संन्यास ले पहली भीख की गुदड़ी माँगने माँ के सामने हैं। माँ क्या करे? लुगरी बगल में दबा कर पुत्र को मनाने का अन्तिम प्रयास करती है। आज वह गर्वीली रानी नहीं, एक माँ भर है – सीधी साधी साधारण। उसके तर्क और उसकी मनावन सब आम स्त्रियों जैसे ही हैं। जोगी तर्कातीत हो गया है – रानी झोपड़ी में रहने वाली साधारण माँ रह गई है जिसने अपने पुत्र को वैसे ही पाला है जैसे कोई मजदूरन। उसे मौसमी उपद्रवों की भी चिंता है। भोजपुरी में कहते  हैं – कोखियासन यानि कि कोख की ममता। ममता की अग्निस्वभावी उपमा लोक की देन है। कोख में आग और आँखों में पानी! आगी-पानी का यह संगम जाने कैसा हठयोग है!   
 गाता हुआ श्वेत श्मश्रुधारी गैरिकवसन घुमंतू वृद्ध जोगी जाने कितनी माताओं से अपने को जोड़ लेता है! उसके स्वर में कष्टप्रद जीवन की पीर है, घर बैठी दुख झेलती स्त्रियों की ममता है और आँखों में बैरागी सूखा पड़ा हुआ है। वह स्थितप्रज्ञ है या पीर के उस स्तर तक पहुँच चुका है जिसके आगे जो है वह अकह्य है?  
माँ ने भीख वाली गुदड़ी को किनारे रख पुत्र को समझाना शुरू किया है – बेटे! माँ की कोख में आज तुमने अग्नि धधका दी। तुम्हारे निर्णय  से माँ की कोख वैसे ही धधक रही है जैसे लोहार की भट्ठी । दुख की रह रह फूँक है और दाह बढ़ता है, चुकता है, बढ़ता हैबेटा भी तो बैराग की भट्ठी में तपने को जा रहा है।   
अरे धइली हो गुदरिया माई, बाबू के समझाई
माइ के कोखिया अगिया हो बेटा, आज दिहल धधकाई॥1॥
जइसे धधकेले हो गोपीचन्द, लोहरा घरे लोहसाई
अरे वइसे धधकल माइ के, कोखिया तर अगिनी ॥2॥
आज माँ महलनिवासिनी नहीं, ग्राम निवासिनी है। वह कहती है – गाँव  में आग लगती है तो गाँव वाले बुझा देते हैं लेकिन माँ के कोख की अग्नि को कौन बुझायेगा? किस कारण मुझसे रूठ गये बेटे? मुझे क्यों तज रहे हो? माँ से बताओ तो सही!   
गँउवा के अगिया रहते हो बेटा, गाँव के लोग बुताई
बाकिर माई के कोखिया के अगिया, दुनिया में कोइ न बुताई॥3॥ 
कवने करनवा ए गोपीचन्द, तेजत बाड़ माई
मनवा के किरोधवा हो बेटा, देब बतलाई॥4॥ 
गोपीचन्द कहते हैं कि इसे विधि का लिखा मानो माँ! लुगरी दे भीख देने की रस्म का निबाह करो। बेटे को भुला दो। ऐसा समझना कि तुम्हारी कोख से कोई पुत्र पैदा ही नहीं हुआ था। इतना सुन माँ झर झर रोने लगती है – अरे बेटे! तुम्हारी सूरत मैं कैसे भुला दूँ?
कहें समझावें गोपीचन्द, जनि रोव हो माई
का करबू करमवा में ब्रम्हा, लिखलें हमरे जोगी॥5॥ 
बरहे बरसवा ले रजवा, लिखलें रहले हो माई
तेरहे बरसवा में जोगी, हो गइलीं हो माई॥6॥
अरे देइ द लुगरिया ए माई, बेटा के द बिसराई
अस मन जनिह कोखिया में बबुआ, पैदा भइलनि नाहीं॥7॥ 
झर झर झर झर रोवे लगली, गोपीचन्द के माई
अरे तोहरा सुरतिया हो बबुआ, कइसे हम बिसराईं?8॥ 
समझाती दुखिया माँ अब वह कहती है जिसे कोई भी माँ कहने से बचती है। क्या करे, और कोई चारा भी तो नहीं!
 तुम्हें बहुत तपस्या और देवी देवता की आराधना के बाद पाया। देवस्थानों पर सिर पटकते पटकते मेरा ललाट घिस गया। नौ महीने तुम्हें मैंने गर्भ में ढोया। दसवें में तुम पैदा हुये तो तेल और उबटन लगा कर तुम्हें पोसा।
आज माँ दास दासियों की सेवा लेती रानी नहीं है, एक आम माँ है जिसने अपने पुत्र को तेल और उबटन स्वयं लगा कर पोसा है।        
अरे बड़ बड़ तपेसवा क के, तोहरा के जनमाई
जहवाँ देखलीं हो देबिय देवता, सिरवा हम झुकाईं॥9॥
अरे सिरवा पटकते माइ के, लिलरा गइलें खियाई
नव महिनवा गरभ में ढोवलीं, हम असरा लगाईं॥10॥ 
दसवे महिनवा कोखिया में, लिहल मोर अवतार
अरे तेल अबटन लगा के, बबुआ हो तोहके पोसीं॥11॥
उसकी व्यथा हर ग़रीब माँ की व्यथा हो गई है। वह कहती है कि माघ और पूस के घनघोर जाड़े में तुम्हें आग की आँच सेंक मैंने गर्म रखा, जाड़े की ठंड से बचाया। जेठ बैसाख की तपती धूप में तुम्हारे सिर अपनी आँचल की छाँव की। तुम्हें दूध पिला इसलिये बड़ा किया कि गाढ़े दिन मेरे काम आओगे। माँ के पास अब कुछ नहीं बचा। तुमने उसका आसरा ही तोड़ दिया। हारी हुई माँ और क्या कहे?    
मघवा पुसवा जड़वा बेटा, अगिया के आहे सेकीं
ठंढा जड़वा सितिया हो बाबू, तोहरा के बचाईं॥12॥  
जेठवा बइसाख घमवा, हम अँचरा ओढ़ाईं
सात दुधवा हो गोपिचन्द, तोहरा के पियाईं॥13॥  
अरे दुधवा पिया के हो बेटा, हम कइलीं सयान
जनलीं माइ के गार्हे दिनवा, बबुआ अइहें कामे॥14॥
माँ की ममता हिलोर लेती है। उसे जोगी जीवन के कष्ट ध्यान में आते हैं। समृद्धि में पले पुत्र का कोमल शरीर उन्हें झेल पायेगा?
बहुत दुख हैं बेटे इस जीवन में! किसी दिन समय कुसमय भोजन मिलेगा तो किसी दिन खेत में चने की डाल से चना तोड़ ही पेट भरना पड़ेगा। तुम्हारी कोमल देह कुम्हला जायेगी। तुम माँ के इकलौते बेटे हो, भीख माँगते द्वार द्वार भटकोगे।
माँ का कलेजा फट गया है।
तवनो हमार असरवा तुड़ल, बनि गइल हो जोगी
जोगी होके जइब हो बबुआ, बड़ा दुखवा बीती॥15॥  
कहियो भोजनियाँ मीली,  जुनिया कुजूनी
कहियो मुठि भर चाना फुटहा, तुरलब हो डारी॥16॥
अरे कोमल बदनिया बाबू, ओ रे जइहें कुम्हिलाई
माई के हो एकलवता बेटा, जइब केकरे द्वारे॥17॥ 
गायक जोगी की अपनी व्यथा मैनावती की जुबानी बह निकली है।
दूसरे की माँ को माँ कहोगे, दूसरे की बहन को बहन। कोई कड़वा बोलेगी तो कोई झुँझलायेगी। कोई प्रेम से बैठायेगी तो कोई हृदय की कठोर मिलेगी। जोगी घरदुआर पर अकेली स्त्रियों से अपनी करुणा डोर जोड़ लेता है, कहता है कि साधू का दर्द छोटा होता है और धर्म ही उसकी पूँजी होती है।   
आन के माई के माई कहब, आन के बहिना के बोहिनी
केहु माई तीत बोलिहें,  केहुअ झपिलाई॥18॥  
केहू माई बहिनिया हो गोपीचन्द, प्रेम से बइठाई
केहु माई बहिना मिलिहें, हिरदया के कठोर॥19॥  
छोटी साधु दरदिया हो बाबू, लिहलें धरमी पूँजी 
माँ के इतना समझाने पर भी गोपीचन्द नहीं मानते। जो नियति में लिखा है, उसे कौन मिटा सकता है?
अरे एतना समझावेले माई, बबुआ समझेलें नाहीं
करम करे लिखलका हो माई, दुनिया में कोइ ना मेटाई॥20॥
... जोगी यह गाते हुये चला गया –
‘आगि के महलिया तोहरी, कइसे आईं हो जोगी? ...
आँखें डबडबाती रह गईं। 
    

(इस ऑडियो को कैसेट से लिया है। गुणवत्ता ठीक नहीं है। कुछ क्षणों में पीछे किंवाड़ खुलने, बच्चों के खेलने और प्रचार के भी धीमे स्वर सुनाई देते हैं। सारंगी और उससे लगे करताल की ध्वनि शोर सी हो गई है। अपेक्षित प्रभाव और समझ के लिये हेडफोन लगा कर सुनें। Audacity सॉफ्टवेयर से जितना ठीक मुझसे हो पाया, किया। अनुज cooleditpro सॉफ्टवेयर पर प्रयास कर रहा है। कुछ बेहतर हुआ तो अवश्य लगाऊँगा। सम्प्रति इसी से काम चलाइये।  क्या कोई इसे ठीक कर मेरे पास भेज सकता है?)


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मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

लोक : भोजपुरी - 4 : गउरा सिव बियाह

पिछली कड़ियाँ: 
(1) साहेब राउर भेदवा 
(2) कवने ठगवा 
(3) लोकसुर में सूर - सिव भोला हउवें दानी बड़ लहरी 
 
कहते हैं कि महाशिवरात्रि के दिन शिव का विवाह गौरी से हुआ था। दिगम्बर शिव से लिपट गौरी ने उन्हें दिव्याम्बर कर दिया। वही गौरी जिनके बिना शिव उनके शव को कन्धे पर लिये ब्रह्मांड में घूमने लगे और सृष्टि से शव लुप्त हो चले।

तो आइये देखते हैं कि लोक इस विवाह के बारे में क्या कहता है? लोक जीवन में गउरा महादेव एक आदर्श कम, सामान्य दम्पति के रूप में अधिक पहचाने जाने जाते हैं। उनमें आपसी झगड़े होते हैं, मेल मिलाप होते हैं; वे झगड़ा लगाते भी हैं और भेष बदल सुलझाते भी हैं। जाने कितनी लोक कथाओं में यह दम्पति गुम्फित है।
पिछली पोस्ट की इन पंक्तियों को देखिये:

खोआ मलाई के हाल न जानें, भँगिया पीसि के पीयेलें
भाँग पिसत में गउरा रोवें, गउरा रानी धइले बाड़ी नइहर के डगरीऽ।
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।

भाँग पीसते पीसते हाथ दुखते हैं, गउरा रोती हैं और फिर रूठ कर नैहर चली जाती हैं! आम जनजीवन से कितने जुड़े हैं ये दोनो! भारत ने महादेव दम्पति को घरेलू सा बना रखा है। 

अम्मा से जब गीत रिकॉर्ड करवा रहा था तो अचानक अम्मा ने गउरा बियाह गाने को कहा। मुझे क्या, जो मिल जाय वही अमृत।  

गीत बहुत सीधा सा है। शिव बारात का वर्णन है। शिव के गले के सर्प की फुफकार और उनके रूप को देख गौरी की माँ और उनकी सखियाँ डर जाती हैं, सब फेंक फाक भाग खड़ी हो उठती हैं। मैना महतारी कहती हैं ऐसे वर से गौरी का विवाह नहीं करना। मेरी गौरी कुमारी ही रहेगी।

तब कलश की ओट से गौरी उनसे निवेदन करती हैं कि एक क्षण के लिये ही सही भेष बदल दीजिये ताकि नैहर के लोक पतिया लें। इतना सुनते ही महादेव गंगा स्नान कर भभूत उतार देते हैं। चन्दन लेप करते हैं और पुकारते हैं – मेरी सास जी कहाँ हैं? मेरी सरहज कहाँ है? अब मेरा रूप देखें। उनका यह रूप देख मैना देवी गौरी शंकर के विवाह को राजी हो जाती हैं। अर्थ सहित गीत (अम्मा की मानें तो कीर्तन) इस प्रकार है: 


लेहु नाहीं बरिया रे हाथे के सोपरिया होऽ, देखि आव सिवा बरियात।
कइ सए हाथी आवे कइ सए घोड़ा आवे, कइ सए आवे बरियात?  
(एक स्त्री माली से कहती है कि हाथ में सुपारी ले उसे देने के बहाने शिव की बारात देख आओ न! वह उससे पूछती है कि कितने सौ हाथी आये हैं, कितने सौ घोड़े और कितने सौ बाराती? वह आँखो देखा हाल सुनाता है।)    
दस सए हाथी आवें, दस सए घोड़ा आवें, बीस सए आवे बरियात।  
बसहा बरध सिवाजी घुरुमत आवेलें, आठो अंगे भभूती लगाइ।
(दस सौ यानि एक हजार हाथी आये हैं और उतने ही घोड़े आये हैं। दो हजार बारात आई है। पर शिव तो बसहा बैल पर सवार हो घूमते हुये आ रहे हैं और उन्हों ने अष्टांग पर श्मशान की राख पोत रखी है।)     
दस सखी आगे भइली, दस सखी पाछे भइली, दस सखि गोहने लगाइ।  
परिछ्न चलेली सासू मएना देबी, सरफ छोड़ेलें फुफुकार।  
(भोजपुरी क्षेत्र में वर को स्त्रियों द्वारा परीक्षित करने की परम्परा है जिसमें मसाला पीसने वाला लोढ़ा थाली में ले कर अक्षत, हल्दी आदि में उसे बोर कर वर के चेहरे के चारो ओर घुमाया जाता है। शिव की भावी सास मैनादेवी दस दस सहेलियों के समूह के साथ उन्हें परिछ्ने गईं तो शिव के गले के सर्प की फुफकार से डर गईं।)    
कतो बिगली लोढ़ा, कतो बिगली थाली हो, पिछऊड़ भागेलि पराइ।  
अइसन बउरहवा सिवा से गउरा नाहीं बिअहब, मोर गउरा रहीहें कुँवारि।
(एक ओर लोढ़ा तो दूसरी ओर थाली फेंक पीछे हटते हुये भाग चलीं। ऐसे बौराये शिव से मैं अपनी गौरी का विवाह नहीं करूँगी। मेरी गौरी कुमारी रहेगी।)   
कलसा के ओटे भइले बोलेलि गउरा देई, सिवाजी से अरज हमार।  
छ्ने एक ए सिवाजी भेस बदलतीं हे, नइहर लोग पतियाइ।
(तब कलश की ओट ले गौरी ने शिव से प्रार्थना की। एक क्षण के लिये ही सही, अपना वेश बदल लीजिये ताकि मायके के लोग विश्वास कर लें।)  
एतना बचन जब सुनेलें महादेव, चलि भइले गंगा असनान।  
आठो अंगे भभूती उतरले महादेव, आठो अंगे चन्दन लगाइ।  
(उनकी प्रार्थना सुन महादेव ने गंगा स्नान कर अष्टांग से विभूतिभस्म उतार दिया और चन्दन लेपन किया।)
कहाँ गइली सासू, कहाँ गइली सरहज, अब रूप देखन हमार।  
अइसन सुन्दर सिवा से गउरी हम बिअहबि, मोर गउरा होइहें बियाह।
(उन्हों ने पुकार लगाई – मेरी सास और सलहज कहाँ हैं? अब आकर मेरा रूप देखें। उनका सुन्दर रूप देख मैनादेवी ने कहा कि ऐसे शिव से मैं अपनी गौरी का विवाह करूँगी। वह विवाहिता होगी।)   

लीजिये सुनिये सीधी अम्मा की सादी गायकी:
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अगले अंक में: 
घुमंतू जोगी - जइसे धधकेले हो गोपीचन्द, लोहरा घरे लोहसाई 

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

लोक : भोजपुरी -3: लोकसुर में सूर - सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।

पिछली कड़ियाँ: 
(1) साहेब राउर भेदवा 
(2) कवने ठगवा 


 महाशिवरात्रि। आकस्मिक कारण से गाँव आना पड़ा। सोचा कि अनाम गायक की खोज भी कर लूँ  और आखिरकार मिल ही गये इलाके के अनाम गायक यानि शंभू पाण्डेय
shambhooआयु - 35 वर्ष
मौजा – खुर्द मठिया
टोला – जोगी छपरा
पोस्ट – सिंगहा
जिला – कुशीनगर
मोबाइल - 0-9936203868
(बिजली रहेगी तो चार्ज होने पर ऑन वरना ....)
इनके मिलने की कहानी फिर कभी। इसलिये कि महापर्व पर उपेक्षा और भयावह ग़रीबी के बीच जीवन जीने की त्रासदी को बयाँ करना कठिन होगा।
अभी सुनिये इनके स्वर में शिव स्तुति। परम वैष्णव सूरदास द्वारा भोजपुरी में शंकर का आश्रय ले बनवारी की स्तुति! यह लोक में ही सम्भव है।
संत कवियों की लोक में पैठ इतनी व्यापक है कि बिना भाषा, क्षेत्र, बोली आदि की परवाह किये सीधे सादे शब्दों में रची गई रचनायें उनके नाम हो जाती हैं। भोजपुरी इलाके में कबीर और अवधिया तुलसी के लिये यों समर्पण तो समझ में आता है, लेकिन सूरदास? यह लोक में ही सम्भव है:
बड़ऽ लहरी ए , बड़ऽ लहरी
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।
बसहा बएलवा साथ में लेहलें, हाथ में लेहलें डमरूऽ 
बगला में मिरछाल के दाबें, जटवा में गंगा लहरीऽ।
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।
 
खोआ मलाई के हाल न जानें, भँगिया पीसि के पीयेलें
भाँग पिसत में गउरा रोवें, गउरा रानी धइले बाड़ी नइहर के डगरीऽ।
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।
  
कोठा मारी के हाल न जानें, खोजें टुटही पलानीऽ
हाथ कवंडल, गल में सरप, पारबती धइले बाड़ीऽ बसहा के डोरीऽ।
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।
 
भस्मासुर जब किया तपेस्सा, बर दिहलें तिमुरारीऽ
जिनके  सर पे हाथ धरो तो, जरि के होय जयछारीऽ।
सिव भोला हउवें दानी, बड़ऽ लहरीऽ।
 
सिव के सर पे हाथ धरन को, मन में दुस्ट बिचारीऽ
तीन लोक में भगें महादेव, कहिं ना मिललें मुरारीऽ।
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।

पारबती के रूप बना के, आ गइलें बनवारीऽ
जो तू मुझको नाच देखावो, चलबे साथ तुम्हारीऽ।
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।

नाच करन के भस्मासुर जब कइ दिहलें तइयारीऽ
अपने सिर पर हाथ धरें तो, जर के होंय जयछारीऽ।
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।
भस्मासुर के भस्म के कइलें, संकर के दुख टारीऽ
सूर स्याम प्रभु आस चरन के,  हरि चरन हितकारीऽ।
सिव भोला हउवें दानीऽ, बड़ऽ लहरीऽ।
 
‘त्रिपुरारी' को मुरारी से जोड़ 'तिमुरारी' कर देना रोचक है। सुनिये इस महापर्व के अवसर पर शम्भू जी के स्वर में शंकर चरित:



अगले अंक में: सिव गउरा के बियाह  

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

उसके लिये जो कभी नहीं थी

अंग्रेजी कविताओं और गीतों में गोते लगाने और रचने का भी मुझे शौक रहा है। पाश्चात्य ध्वनियों में प्रवीणता न होने के कारण उन्हें प्रस्तुत करने से बचता रहा हूँ। कभी इनके लिये एक अंग्रेजी ब्लॉग भी बनाया था लेकिन ....
जोगी के गाये गीत के ऑडियो का परिष्कार करने के प्रयास में लगा हूँ तब तक एक अनाम काल्पनिक प्रेमिका के नाम रची इन अंग्रेजी कविताओं का आनन्द उठाइये:

(1) I seek your kiss

I seek your kiss!
flowers will die and leaves shall fall
this moment when dew is still falling
I seek your kiss
a little later
everything will turn to smoke
I shall die and fly high in the sky
never again to fall
this moment when dew is still falling
I seek your kiss. 


(2) I know

When you melt outside
There are sweating and tears.
But I know a melting inside
Latent heat of which
Burns us, then we are warm
And then
We freeze together
And time dies!

इसका हिन्दी भावानुवाद ऐसे किया:

गुप्त ऊष्मा
बाहर पिघलन – स्वेद।
भीतर पिघलन – हवन।
तपते हम - जमते हम
काल – दिवंगत!

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

लोक : भोजपुरी - 2 : कवने ठगवा - वसुन्धरा और कुमार गन्धर्व : एक गली स्मृति की

(1) लोक : भोजपुरी - 1: साहेब राउर भेदवा से आगे ... 

भोजपुरी शृंखला में आज एक प्रसिद्ध निरगुन। रचयिता एक बार पुन: कबीर और गायकद्वय कुमार गन्धर्व और वसुन्धरा। मेरा प्रयास अनजान जन द्वारा गाये और आम जन जीवन में घुले गीतों को प्रस्तुत करने का रहेगा। यू ट्यूब आदि पर जो कुछ पहले से उपलब्ध है उसे भरसक नहीं दुहराऊँगा लेकिन यह गीत मेरे लिये बहुत ही खास है।

आकाशवाणी गोरखपुर की प्रात: वन्दना में इसे पहली बार सुना था। घर में रेडियो था और हमलोग उसके वन्देमातरम से जगते थे। जाड़े के दिन थे। पिताजी की गोद में रजाई में दुबका था और तभी यह गीत बजना शुरू हुआ। दुलराते (इंटरमीडिएट में पढ़ते पुत्र को भी दुलराया जा सकता है! और वह पिता के पास सोने की ज़िद भी कर सकता है!!) पिताजी एकदम शांत हो गये और मैं भी। “कवने ठगवा नगरिया लूटल हो!” – लगा जैसे भीतर वैराग और पवित्रता की धारायें बहने लगी हों। गीत समाप्त होने पर पिताजी ने कहा – कुछ होता जिससे इसे रोज सुन पाते (हमारे घर में ग्रामोफोन या टेपरिकॉर्डर नहीं थे)। उन्हों ने उसी दिन भिनसहरी गायन की परम्परा बताई। कुछ था उस निरगुन में, उन स्वरों में, गायन में जो मनप्रस्तर पर अमिट अंकित हो गया। पता किया तो बस यही जाना कि शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में कुमार गन्धर्व बहुत बड़ा नाम है।

उसी दिन से मैं शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और शाम को आकाशवाणी से ही प्रसारित जुगानी भाई द्वारा प्रस्तुत गाँव देहात भोजपुरी प्रोग्राम में सुनाये जाने वाले लोकगीतों में सुरों को ढूँढ़ने लगा। एक ऐसी यात्रा का प्रारम्भ हुआ जिसने मुझे लोक, शास्त्रीय, पश्चिमी, रॉक, डिस्को, ओपेरा, सूफी, कंट्री, जोगी और जाने किन किन संगीत धाराओं में अब तक नहाने का सुख दिया है जब कि संगीत का स भी मुझे नहीं आता। बाद में अम्मा से जाना कि जब मैं गर्भ में था तब गाँव की हर शाम लोकगीतों की होती थी – कीर्तन, फगुआ, चैती, निरगुन, कजरी, सोरठी, आल्हा आदि आदि और अम्मा ओसारे में बैठी सुनती रहती थीं। कुमार गन्धर्व ने सुप्त संस्कारों को जगा दिया!
.....
आकाशवाणी केन्द्रों में जाने कितने ही लोकगायकों के लोकगीत तालों में बन्द हैं। कितने ही एल पी रिकॉर्ड नष्ट हो गये/हो रहे हैं। आवश्यकता है कि उन्हें लोकहित में आम कर दिया जाय। कोई सरकारी बाबू सुन रहा है?
....
गोरखपुर इंजीनियरिंग करने गया तो खोज शुरू हुई। गोलघर में गीतांजलि म्यूजिक स्टोर को एक सिख परिवार चलाता है। स्टोर काफी समृद्ध है। मैं वहाँ पहुँचा और सहमते हुये फरमाइश कर दी। सरदार जी ने मुझे अजीब नज़रों से देखा और फिर से पूछा जैसे विश्वास न हुआ हो। मुझे आश्चर्य हुआ जब उन्हों ने एच एम वी के चार कैसेटों का डीलक्स संस्करण अलबम सामने लाकर रख दिया। तीन कैसेट तो शुद्ध शास्त्रीय थे लेकिन चौथे में त्रिवेणी नाम से ‘सूर, मीरा और कबीर’ की रचनायें संग्रहीत थीं – एक से बढ़ कर एक जैसे ‘सखी मोरि नींद नसानी हो’, ‘नीरभय नीरगुन’। दाम देखकर पाँव तले धरती खिसक गई (सम्भवत: तीन सौ रुपये, तब छ: सौ में महीने भर का खर्च चल जाता था!) । एक कैसेट लायक मुद्रा पास में थी और उसे खर्चा भी जा सकता था। मुझे पूरा विश्वास था कि एक वह कैसेट दिखाने पर पिताजी टेपरिकॉर्डर खरीद देंगे। डरते डरते सरदार जी से पूछा कि क्या वह केवल एक कैसेट देंगे? उन्हों ने उपेक्षा से मुँह बिचका कर उत्तर दिया – यही तो समस्या है। बाकी तीन कौन लेगा? वह अलबम वापस ले दूसरे ग्राहकों की ओर मुड़ गये। 
निराश मैं इन्दिरा गार्डेन, सिनेमा रोड और जाने कहाँ कहाँ घूम आया। जो चाहिये वह सामने था और मैं...!  साहस कर पुन: पहुँचा और इस बार अपने समवयस्क लड़के से जो सरदार जी का पोता था, पूछ बैठा। उसने भी अलबम सामने लाकर रख दिया। मैंने केवल एक कैसेट लेने की इच्छा जताई तो उसने भी वही उत्तर दिया। मैंने प्रस्ताव रखा – आप अभी केवल एक कैसेट दे दें। वादा करता हूँ कि एक एक कर बाकी तीनों भी ले जाऊँगा। जाने समआयु का असर था या मेरी कातरता का, लड़के ने यह कहते हुये कि किनारे रख रहा हूँ, जल्दी ले जाना और दुकान पर सिर्फ मुझसे माँगना; वह कैसेट मुझे दे दिया। अगले रविवार कैसेट पिताजी के सामने था और उसके अगले रविवार हमारे घर में पहला कैसेट रिकॉर्डर आया जिस पर बाद में मैंने घुमंतू जोगी का गाया एक गीत बैटरी लगा कर रिकॉर्ड किया। 

अगले दो महीनों में मैंने बाकी तीन कैसेट भी खरीद लिये और आज तक उस निर्णय पर नाज करता हूँ। उस लड़के से चलती फिरती मित्रता हो गई, इतनी कि बैजू बावरा के एक गीत में मामूली सी गड़बड़ी की मेरी शिकायत पर उसने पूरा लॉट ही वापस कर दिया। कॉलेज से निकल जाने के कई वर्षों बाद एक दिन गोरखपुर गया तो सहज उत्सुकता से लड़के से मिलने (हमदोनों एक दूसरे का नाम तक नहीं जानते थे) गया। डबडबायी आँखों से सरदार जी ने सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु की बात बताई ... लौट कर बहुत देर तक मैं चुप इन्दिरा गार्डेन में बैठा रहा। उसके बाद दुबारा वहाँ जाने का साहस आज तक नहीं कर पाया ....
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कबीर की बानी का क्षेत्र पश्चिम में दूर पंजाब तक है। गुरुग्रंथसाहब में भी उनकी बानी दर्ज है। दक्षिणवासी कुमार—वसुन्धरा के स्वरों में अंत में ‘-ल हो’, ‘लयो’ और 'लओ' तीनों ध्वनित हैं लेकिन वह भोजपुरी ‘-ल हो’ ही है। वैसे भी कबीर को क्या बाँधना? एक पंक्ति में कहते हैं ‘आये जमराज पलंग चढ़ि बैठा’(व्याकरण की दृष्टि से देखें तो बिगड़ी पश्चिमी भाषा) और तुरंत दूसरी पंक्ति में कहते हैं ‘नयनन अँसुआ टूटल हो’ – ‘नयनन अँसुआ’ पर पुराने हिन्दुस्तानी का प्रभाव है तो ‘–ल’ से अंत होने वाली क्रिया विशुद्ध भोजपुरी। ‘चार जने मिलि’ भोजपुरी है तो ‘खाट उठाइन’ अवधी(?)। ‘चहुँदिसि’ ब्रजावधी है तो ‘धुमधुम’ ध्वनि भोजपुरी की। भाखा बहता नीर और सधुक्कड़ी के पर्याय कबीर किसी व्याकरण में नहीं बँधते लेकिन लोक में ‘कहत कबीर सुनो भइ साधो’ की टेक वाली रचनायें भोजपुरी की हैं जिनमें सधुक्कड़ी की चलती भाखा घुलमिल गई है। फक्कड़ी घुमंतू जोगियों के स्वरों ने उन्हें संस्कारित किया है।
  
इस निरगुन को कुमार गन्धर्व ने अपनी धर्मपत्नी वसुन्धरा के साथ गाया है। कुमार गन्धर्व उन गायकों में थे जिन्हों ने शास्त्रीय संगीत का उत्स लोक से ही माना और शास्त्रीयता को लोक के ऊपर कभी चढ़ने नहीं दिया। लोक प्रभाव और मस्त उन्मुक्तता के कारण उनके गायन की बहुत आलोचनायें भी हुईं लेकिन कुमार तो कुमार! हम इसक मस्ताना, हमको दुनियादारी क्या! एक मस्ताने कबीर और दूजे ‘नीऽरभय नीऽरगुन’ कुमार। सुनिये ये दोनों जब मिलते हैं तो कैसा दिव्य सर्जित होता है: 
कवने ठगवा नगरिया लूटल हो
चन्दन काठ के बनल खटोला, तापर दुलहिन सूतल हो।
उठ्ठो सखी री माँग सँवारो, दुलहा मोसे रूठल हो
आये जमराज पलंग चढ़ि बैठा, नयनन अँसुआ टूटल हो।
चार जने मिलि खाट उठाइन, चहुँ दिसि धुमधुम ऊठल हो
कहत कबीरा सुनो भइ साधो, जग से नाता छूटल हो।
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अगले अंक में : घुमंतू जोगी -जइसे धधकेले हो गोपीचन्द! लोहरा घरे लोहसाई