शनिवार, 28 अप्रैल 2012

बंगलुरू - 1

यह पहला शहर है जिसकी सुबह मैंने सैर नहीं की। खिड़की के पार से प्रात कमरे में आई है और मुझे झिरी से झाँक याद आई है। लाल बोगेनबिलिया के फूल नहीं, काँच और सुबह के बीच एक सफेद दीवार है, देख ही नहीं सकता! कैसी प्रात? सुना है इस शहर के फूल बड़े जालिम होते हैं। मुझे उतरते लगा भी, मैं हवा में उन्हें सूँघ सकता था। वाकई दमदार होंगे क्यों कि उनके स्वागत को शरीर ने आदिम भंगिमाओं के संधान शुरू कर दिये जिन्हें अब रोग कहते हैं। मुझे उन जालिमों से नहीं मिलना, मुझे बाहर नहीं निकलना, नहीं देखना कि खिले पलाशों ने किसी के स्वागत को रेड कारपेट बिछा रखे हैं। मैंने आइने में नाक के रिज पर वह लाली देख ली है जो आधी रात के बाद से ही मुँह पर रुमाल बाँधने के कारण उभर आई है और अब आशंका है कि एक्जीमा जैसा कुछ न हो जाय!

बीते महीनों ने मुझे शंकालु बना दिया है। मुझे जालिम फूलों से सशरीर नहीं मिलना, जाने क्या कर बैठें? आधी रात जब पुन: खाँसियों के दौरे पड़े तो जाना कि हवा इतनी शक्तिशाली नहीं कि कमरे में कम्प्रेसर के साथ नाच सके। थक गयी होगी। उसकी पेशियों में लैक्टिक एसिड भर आया होगा और एक अतीन्द्रिय क्षमतावान ने नींद में भी खट्टेपन को महसूस लिया होगा...

नींद टूटी तो जाना कि केवल गले में नहीं, रात पूरे परिवेश में खटाई टपका रही थी। ए सी बन्द किया, खिड़कियों को खोला और नाक पर रुमाल बाँध सोने लगा। कभी कोई प्रयत्न कर के तो देखे! तब जब कि नासा विवर सूजे हों, हर साँस मन भर उसाँस लगती है, घुटती है जब कि सोना तो होता ही है। यह ऐसा कर्मकांड है जो प्रतिदिन जीवन को कम करता है और हम समझते हैं कि न सोये तो जान काम करना बन्द कर देगी!

नथुनों से आती जीवन की ऊष्मा रुमाल में अवरुद्ध हो भीतर सिंकाई करती रही। धीरे धीरे थिरता गया। सपने नहीं, हैल्युसिनेशन जैसे कुछ! यात्रा में पढ़ी गई कहानी के बूढ़े नाविक की समुद्र से अकेले लड़ी गई लड़ाई रूप  बदल बदल आती रही। वह सेवक बच्चे को साथ नहीं ले जा पाया था और उसके शिकार को शार्क चबा गये। हारपूनों से उसने कइयों को मार दिया लेकिन अन्तत: हार गया। कहानियों का क्या? उनमें तो लड़ना ही जीत हो जाती है। लगता है कि मेरे हारपून अब चुक रहे हैं, मैं खटाई के प्रेतों पर अब और नहीं चला सकता। समझौता कर लूँ? बूढ़ा तो नहीं कर पाया था, उसके पास विकल्प ही नहीं थे। एक तरह का समझौता हार पर तसल्ली का मुलम्मा भर होता है। वही कर लूँ?

शाम को जब कि हल्की बूँदे पड़ी थीं, कोई होंडा कार ले ढूँढ़ता आया। पैरों में हवाई चप्पल और बेल्ट से लटकता आई कार्ड जैसा कुछ। बच्चा घर गया और चेंज के नाम बस हवाई चप्पल पहन मिलने आने को भाग निकला! मुझे बताया – छुट्टी ले ली थी, आप जो आ रहे थे। तीन जन वैसे ही जमे जैसे कॉलेज के जमाने के बिछड़े साथी बहुत दिनों बाद मिले हों।
उसने बाइक के साथ अपने ऐडवेंचर सुनाने शुरू किये। मैंने सोचा – इश्क़ हो तो ऐसा, नहीं तो न हो! मुझे कल शाम एक बार पुन: यकीन हुआ कि सच में प्यार तो बस पुरुष कर सकते हैं। बेलौस हिंसा को स्पर्श करता बली प्यार जिस पर दूजे को भी उतना ही नाज हो! प्रकृति ने उनके ऊपर बन्धन नहीं रखे और समय उनकी अंगुलियों तले तारसप्तक रचता रहा। उनके वक्ष पर सौन्दर्य बिना किसी चिंता के अठखेलियाँ कर सकता है और कठोर हाथों के स्पर्श कोमलता से उसे निकाल ला सकते हैं जिसे नाच कहते हैं।

हमने उन खतरों की बातें की जिन्हें क़यामत तक सारे जहान को झेलना है। हम थोड़ा, बहुत थोड़ा उधर भी बहके जिसे जेंट्स टाक कह सकते हैं – google की वर्तनी! वो बतायें और हम सीखें J

उसने बीजिंग डिनर रखा। साथ के छोरे ने पंजाबी पराठे के बजाय जाने क्या क्या खाने का पहली बार साहस किया। एक शानदार डिनर और एक शानदार शाम – जैसे हम बीस वर्ष पीछे चले गये हों। विदा देते मैं सोच रहा था कि प्रकृति बहुत रहस्यमयी है। जाने कितनों को सहज अनजाने से भाव से जोड़े हुये हैं और उन्हें पता ही नहीं। सच में स्त्री है!  

आती मधुर खिलखिलाहटों पर मुग्ध हो मैंने छोकरे से कह दिया – अबे! ऊपर जो दो ठहरी हैं, उनमें एक तो ठीक ठाक है। जा प्रपोज कर दे, कितने दिनों से तीन तेरह, कुंडली फुंडली के चक्कर में तेरे जैसा गोरा चिट्टा स्मार्ट गौर ब्राह्मण अकेला है! वह रुआँसा सा हो गया – सर! बेकार है। उसका सरनेम है पव्वा। मेकअप के नीचे कुछ खास नहीं और वह ब्राह्मण भी नहीं। मैं मन ही मन भुनभुनाया – तो मियाँ पहले से ही ट्रांजिट वर्क कर चुके हो! जियो प्यारे, इंस्पेक्शन में साथ के लिये तुमसे अच्छा जूनियर नहीं मिलेगा ...  तेरी बात सही है। तेरी तीखी गढ़न से तो लाली टपकती है, तू क्यों न मेकअप के नीचे देखेगा? नासपीटे! और भी बातें देखनी होती हैं। रह कुँवारे, मुझे क्या?

एक और है जो स्विस, अमेरिका और जाने कहाँ कहाँ भटकता रहता है, फिर भी छोरी नहीं मिलती। इस तरह के चित्तपावन मुझसे ही क्यों टकरा जाते हैं? एक ने तो फेसबुक पर ही लिख दिया – गुगल की वर्तनी ऐसे पूछना सही नहीं है। करो गुगल सर्च! कब बुढ़ा गये, पता ही नहीं चलेगा।

अभी उससे मिलना है जो यह झुठलाता रहता है कि विवाहित पुरुष अकेले सुख चैन से नहीं रह सकते। प्रतिदिन नित नवीन व्यंजन और कमाल की सेहत! बोली ऐसी कि फोन से ही आप को अपनी ओर खींच ले!

पता नहीं, इस नगर की हवाओं की सवारी गाँठते खटाई प्रेतों की क्या मर्जी है? देखते हैं।            

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

लंठ महाचर्चा : बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 17

पिछ्ले भाग से आगे ...

...एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता  है। दुनिया जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है। खुदाई कसौटी दूजों को कसता रहता है!...   

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दिन बीत चले। भवानी के नैन नक्श बहुत सुन्दर! हिरनी सी आँखें। बेटी की जन्मपत्री देखते परसू पंडित ने पूरी कुंडली बनाने के लिये पत्रा खोला और ग्रह नक्षत्र देख सन्न रह गये...विलासिनी! ममता की बाढ़ में ज्योतिष का क्या काम? प्रसन्नता जौ भर भी कम नहीं हुई – ई सभत्तर सही थोड़े होला! (यह सब स्थान सच थोड़े होता है!)  परम्परा के अनुसार वर्ष भीतर ही महोधिया की पट्टी में मुंडन होता था। उन्हों ने नामकरण और मुंडन को एक अवसर में मिला दिया ...
... देसी अंग्रेजी दोनों तरह के बाजे बुलाये गये - पूरी वर्दी में! महोधिया की नातिन का मुंडन हो रहा था। छतरी गई तो गई लेकिन नाम की आन तो रखनी ही थी। काली माई के अस्थान तब जब कि बाजे बज रहे थे, स्त्रियाँ गीत गा रही थीं, सतऊ मतऊ की मेहरियाँ कराही चढ़ाने में व्यस्त थीं और केश अभी उतर ही रहे थे कि बेटी ने एकाएक किलकारी भरते हुये हाथ पैर चलाये। जाने कैसे हुआ कि हजाम के उस्तरे से उलटे उसकी ही एक अंगुली घवा गई। वह सन्न रह गया – पियरी पहने मतवा के दायें जंघे टप टप खून!  
आँख गड़ाई रमैनी काकी ने सिर पर हाथ मारा – हे भगवान! अइसन त कब्बो नाहिं भइल रे! (हे भगवान! ऐसा तो कभी नहीं हुआ!)  हजाम की घायल अंगुली हाथ में झपट उसने जोर से दबाया – गिर जाये दे जमीनी पर। कहाँ से आइलि ई (गिर जाने दो जमीन पर। कहाँ से आई ये...)  ...अधूरे छूटे शब्द लहू रूप भुइयाँ टपके – टप! टप्प! जुटी हुई स्त्रियों में खुसफुस शुरू हो गई। आगे तो रमैनी काकी को करना ही था। परसू पंडित तड़क उठे – ए काकी! एहिजा से चलि जा नाहीं त अनरथ क देब(काकी! यहाँ से चली जाओ नहीं तो अनर्थ कर दूँगा) । काकी कहाँ मानने वाली – पंडित हो! आपन देख, हमार का? (अपना देखो, मेरा क्या?)  बड़बड़ाते हुये रमैनी काकी चली गई। पंडित के संकेत से बाकी काम सम्पन्न हुये।...  
 ...शुभ मुहुर्त देख परसू पंडित ने अपनी बेटी का आज नाम रखा है – सुनयना। मुंडन में तो खीर जेवनार की रीति नहीं लेकिन नामकरण हुआ है, सुनयना का नामकरण! परसू पंडित खदेरन के यहाँ भी जेवनार की खबर भेजवाये हैं – प्रसाद पावे अस्थाने आ जइह, जात बिरादर आपन जगह, खून खानदान आपन जगह (प्रसाद लेने देवस्थान आ जाना। जाति बिरादरी अपनी जगह, खून खानदान अपनी जगह)
खून खानदान! महोधिया वंश के नाश की शपथ लिये हैं खदेरन, कैसे जायें? देवस्थान तो जा ही सकते हैं।
इनार पर रमैनी काकी नाक सिकुड़ा हाथ चमका चमका चार स्त्रियों को सुना रही हैं – पंडितवा पगला गइल बा। भवानी के नाव रखलसि हे त गाँव भरि के जेवनार नेवतले बा। भवानी त अस्थाने देखाइ दिहलसि कि का करीऽ! बिटिहिनिन के राख ओहार, दुसरे घर करें उजियार। ई त ... कलऊ एहि के कहल जाला। नगिनियो इहाँ कहववले बा(पंडित पागल हो गया है! बेटी का नाम रखा है तो गाँव भर को ज्यौनार पर बुलाया है। बेटी ने तो काली स्थान दिखा ही दिया कि क्या करेगी! बेटियों को परदे में रखा जाता है। वे दूसरों के घर उजाला करती हैं। ये तो ... कलियुग इसी को कहते हैं। नागिन के यहाँ भी सन्देश भेजवाया है!)     
इतने दिनों बाद गाँव ने पूछा भी तो अस्तकाल! अब कितने दिन बचे? ...नागिन गर्भभार ले कैसे जाय? बबुना परसादी ले अइहें। (देवर प्रसाद ले आयेगा) ...
मुंडन के बाद उस दिन जेवनार की तैयारी से असंपृक्त सतऊ मतऊ अपनी गिरहस्ती में लग गये - गोंयड़े के खेत में लदनी थी। रास्ते पर गाड़ा निकलने भर की जगह थी। लद गया तो बैल लगाने के लिये जब सिपावा हटाया गया तो ठरक कर एक पहिया एकदम खाले किनारे आ गया। मतऊ ने पीछे दाब लगा घुमाने को जोर लगाया तो उल्लड़ हो टेंढा हुआ और अटक गया। अब या तो पूरा गाड़ा खाली कर सीधा हो सकता था या नेबुआ की बाड़ को काट घुमा कर। सतऊ ने सलाह दी कि पूछ लिया जाय। खदेरन भइया की भुतहाई से जन्मी उस खुरपेंची जगह से वे दोनों भी सहमते थे। उन लोगों को जाना नहीं पड़ा, जुग्गुल खुद सूँघता हुआ आ पहुँचा। सतऊ ने बात रखी तो जुग्गुल की आँखें फट पड़ीं जैसे पूछने वाले जितना चूतिया उसने देखा ही न हो! उसने साफ मना कर दिया।
मतऊ ने बात बढ़ने से रोकने के लिये गाड़ा खाली करने की बात कही लेकिन कुछ बात का निरादर और कुछ जेवनार में पहुँचने में देरी होते देख सतऊ थोड़ा अकड़े –देरी होता जुग्गुल बाबू! मालिक के बोलाव। ऊ अगर नाहीं कहि दीहें त खलिया देहल जाई(देर हो रही है जुग्गुल बाबू! मालिक को बुलाओ। उन्हों ने अगर नहीं कह दिया तो गाड़ा खाली कर निकाला जायेगा)   
रास्ते पर एक ओर से जेवनार के लिये निकले खदेरन आ पहुँचे थे तो दूसरी ओर से सोहित। जुग्गुल को अपनी आब दिखाने का इससे अच्छा अवसर क्या हो सकता था? उसने सोहित की ओर देख शिकायत भरी ललकार सी लगाई – देखतल दुन्नू पंडितन के दबंगई! नेबुआ काटे के कहतने सो। उप्पर से मालिक के बोलावे के बाति करतलोग! (देख रहे हो इन दो पंडितों की दबंगई! नीबू काटने को कह रहे हैं! ऊपर से मालिक को बुलाने की बात भी कर रहे हैं।) सोहित के लिये तो जुग्गुल ही आस था, उसका एकमात्र राजदार। समझ कर वह तड़क उठा – ए पंडित! ई नाहीं होई। बिना नेबुआ अस्थान के कुछु कइले जौन करे के होखे कर(ऐ पंडित! यह नहीं होगा। नीबू स्थान को बिना कुछ किये जो करना है, करो)  
सतऊ की आँख छ्लक गई – बाबू आज जीवित होते तो यह दिन न देखना पड़ता। खदेरन कैसे चुप तमाशा देख रहा है!  क्रोध में उन्हों ने मतऊ को चेताते हुये पीछे से जोर लगाया कि लदा हुआ भारी गाड़ा उलट गया। मतऊ नीचे दब गये और खुद सतऊ छटके तो सिर पर पीछे से बाड़ की थुन्ही जोर से लगी। वह वहीं लुढ़क गये।
अनर्थ हुआ देख हाँ, हाँ करते हुये खदेरन दौड़े जबकि जुग्गुल घर की ओर झड़क चला लेकिन सोहित स्वयं गाड़ा सीधा करने की कोशिश करते हुये लोगों को बुलाने को चिल्लाने लगा –दउर  जा हो! (दौड़ो लोगों!) ...
...सुनयना के नामकरण का जेवनार आयोजन स्थगित हो गया। महोधिया चंडी के दुआर पर दो घायल जन लेटाये गये थे। मतऊ का सीना दब गया था, बेहोश थे और सतऊ की आँखें खुल रही थीं, बन्द हो रही थीं लेकिन वाणी मौन थी। खदेरन के कहने पर तेल गर्म कर मालिश की जा रही थी। साँझ घिर आई, गाँव में एक बार फिर से आतंक की छाया डोलने लगी। नेबुआ के झाँखी से लेकर चमैनिया अस्थान जैसे नाम ले ले लोग लुगाइयाँ स्मृतियों की दबी आग उकसाने लगे और खदेरन? ...
... रात है। सतऊ मतऊ अभी भी होश में नहीं आये हैं। खदेरन लेटे हैं। पता नहीं नींद है कि क्या है? वही दृश्य है, चेहरे अधिक स्पष्ट हैं। गोरख जैसी आकाशवाणी है - सुभगा अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई। अब सुनयना बन पितरों के देश आई है। उसका उद्धार यहीं होगा।...  दहकते हुये दो कुंड - एक के आगे कामाख्या की विराट तिलकधारी वृद्धा माँ और दूसरे के आगे कोई जटाधारी वृद्ध बैठा है। दाढ़ी है लेकिन चेहरा नहीं है। मंत्र ध्वनियाँ अस्पष्ट हैं, बादलों में मृदंग बज रहे हैं – डम डम डम डम, म ड, म न ड, मुंड, मुंड ...माम बलि!...देहि मे!! आहुति! सतऊ-मतऊ के मुंड जल उठे हैं और वृद्ध की दाढ़ी के ऊपर मुँह, नाक, आँख, कान, ललाट सब उभरते जा रहे हैं।...जैसे एक साथ सैकड़ो पिशाचिनें चित्कार कर उठीं ...खें, खें, खें ...
घबरा कर खदेरन उठ गये। देह बर्फ जैसी ठंढी हो गई थी। अग्निशाला से बाहर निकले तो सबेरा हो गया था। वह चंडी चाचा के घर की ओर दौड़ चले। कुछ रात भर की थकान और कुछ ठंड का असर – सतऊ मतऊ को घेरे घर वालों में जो जहाँ था, वहीं सो गया था। घबराये खदेरन ने एक रजाई उठाई –मतऊ का सिर एक ओर लुढ़क गया था, खुले मुँह से लार बहने के निशान थे। उन्हों ने दूसरी रजाई उठाई - सतऊ की नाक से रक्त बह कर सूख गया था। दोनों मर चुके थे।
महोधिया वंश का नाश! नेबुआ के झाँखी  - खदेरन को अपना शपथ और अभिचार दोनों याद आये। एक क्षण में ही सब कुछ जैसे पुन: आँखों के आगे घूम गया। अब तो केवल परसू पंडित बचे। जड़ खदेरन को निज आतंक ने ही चेतन किया, मुँह से चीत्कार निकली – होंऽ ऽ, होंऽ ऽ ऽ ऽ । उस मृत्युघोष में पहले परसू पंडित और उसके बाद स्त्रियों के स्वर जुड़ गये। हाहाकार मच गया...भउजी ने कोलाहल सुना और ओका उठी ओऽ, ओऽ।  सोहित ने सुना और चंडी पंडित के घर भागने को उद्यत उसके पैर थम गये – ई का क दिहनीं हम राम!(यह क्या कर दिया मैंने राम!)  वह घस्स से वहीं बैठ गया।
खदेरन मौन विलाप में थे - उबारो माँ! किसी और को चुनो, अब नहीं सहा जा रहा!  
रमैनी काकी रास्ते में सुनयना नाम वाली धीया के बारे में सोच रही थी – कवन जनमलि फेर से? काल बनि के आइलि बाऽ। (फिर से कौन पैदा हुई? काल बन के आई है।) गाँव भर की अकाल मृत्यु प्राप्त कुमारियों की सोच सोच वह अनुमान लगा रही थी।
अपने चाचा के साथ महोधिया चंडी के घर की ओर जाता जुग्गुल अनुरोध कर रहा था – काका! एगो घोड़ौना खातिर बतियवले बानीं। आपन मन्नी बाबू साथे बढ़िहें त बादि में सवारी कइले में असानी रही(काका! एक घोड़े के बच्चे के लिये बात कर रखा हूँ। अपने मन्नी बाबू साथ बढ़ेंगे तो बाद में सवारी करने में और सुविधा रहेगी।)   मन्नी बाबू यानि मान्धाता सिंह नामधारी बच्चे के बाप ने घोड़े के बच्चे की खरीद को हामी भर दी।
... सबेरे सबेरे दूर किसी दूसरे गाँव में अपनी भैंस पर सवार एक बनमानुख घरघुमनी के बियाह को याद कर रहा था। कैसे उसने घोड़ों पर अपने बैल की मदद से जीत हासिल की! मुन्नर और मनसुख उससे भी अधिक उत्साह से हुँकारी पार रहे थे – हँ बाऊ! हँऽ
 (जारी) 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

गिफ्ट वाली पायल - अंतिम भाग

पहला भाग 
दूसरा भाग 
तीसरा भाग 
चौथा भाग 
अब आगे ... 

सनीप ने उसे फिर से चुप रहने को डाँटा। एडवोकेट ने जुट आई भीड़ से मुखातिब होकर तंज कसा – तो अब झुग्गी वाले हमलोगों से बराबरी करेंगे! ... ऐ सनीप! यहाँ तमाशा लगाने से कोई फायदा नहीं। तुम लोग मेरे घर चलो, वहीं बात होगी। मामला सीरियस है।
बिनती कहाँ चुप रहने वाली थी – हम तुम्हारे घर क्यों आयें? जिसे गरज हो वो जाये। उसने सनीप को भी कसा – चाहे जहाँ चलना हो चलूँगी लेकिन इस वकील के यहाँ तो मैं न जाऊँगी। तुम्हें जो सुहाये वो करो।
सनीप को स्टेडियम के अलावा कुछ नहीं सूझा। उसने प्रस्ताव रखा और सभी मान गये। बाकी लोगों को पीछे आने से मना करते एडवोकेट के होठों पर अर्थ संकेत भरी मुस्कान थी जिसने बाकी झुग्गी वालों को कई शामों की बतकूचन का मसाला दे दिया – दूसरे के साफ चोले पर दाग दिखने की खुशी अनिर्वचनीय होती है!

स्टेडियम के आगे किनारे की वही बेंच थी। इस बार सामने वाली बेंच भी आबाद थी और दूर खेलते बच्चों में सूरा और नीरा भी थे। रजनी ने चश्मा उतारा और बिनती से आँखें मिलीं – यही बच्चे उस दिन कैसे थे और आज कैसे लग रहे हैं? इस राँड़ को सजा कर तो आँखें खुल गईं। सनीप इसे कभी नहीं छोड़ेगा।
बिनती की आँखों में चुनौती ही चुनौती थी। रजनी को उसकी दीठ सही नहीं गई। उसने आँखें हटा लीं और बोली – सनीप, मैं लड़ने नहीं आई अपना हक़ लेने आई हूँ।
एडवोकेट ने उसकी बात आगे बढ़ाई – देख सनीप, छुट्टा छुट्टी को कोर्ट नहीं मानेगा। क़ानूनन रजनी आज भी तुम्हारी बीवी है। एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह करना हिन्दुओं में अपराध है। बेकार की लड़ाई में न पड़ कर सुलह सफाई कर लो। रजनी की माँग मान लो वरना ठीक नहीं होगा।
बिनती बिफर उठी – हो जी, इनसे कहो कि अपने समाज में तो ऐसे ही चलता है। दोनों के बाप सामने थे जब छुट्टा छुट्टी हुई। उसकी नौबत क्यों आई? यह भी बताओ। पूछो तो मैं भी जानूँ कि इतने बरस बाद क्यों सुध आई?
उस भोली को नहीं पता था कि बात इतनी सीधी नहीं थी। सनीप को चुप देख कर एडवोकेट मे माँग रख दी – बाइपास वाली ज़मीन में आधा हिस्सा और ...वह रुका, बिनती की ओर देख कुटिल मुस्कान के साथ बात पूरी की – छोटा नीरा...उसने अर्थ भरे मौन के साथ बात अधूरी छोड़ दी।
सनीप और बिनती दोनों स्तब्ध हो गये! इसकी तो कल्पना भी नहीं थी!!   
बिनती चीख उठी – इस राँड़ को मैं अपना बेटा दूँगी? चौराहे चौराहे भीख माँगते कितने घूमते हैं, उनमें से ही किसी को क्यों नहीं ले लेती?
मारे क्रोध के उसका चेहरा विकृत हो उठा – इतने साल तो सैकड़ों के आगे टाँगें फैला चुकी होगी, खुद पैदा क्यों नहीं कर लिया कोई हरामी?
चोट मर्म पर लगी थी। तमतमा कर रजनी उठी और उसने चाटा मारने को हाथ चलाया लेकिन बिनती की वज्र पकड़ ने उसे थाम लिया। फुफकारते हुये बिनती बोली – ऐ रंडी! परिवार का इतना ही शौक है तो चल हम सब तेरे साथ चलते हैं। तेरे सैलून में मैं नौकरी कर लूँगी। घर घर बरतन घिसने से छुट्टी मिलेगी। तुम्हें कहने सुनने को एक मरद भी मिल जायेगा और बच्चों को एक और महतारी। जमीन जायदाद तो रहेगी ही। बोल, तैयार हो?
रजनी ने इतना बवंडर सोचा ही नहीं था। उसे बिनती के ऐसा होने की उम्मीद ही नहीं थी। रूप हो, उमर हो, तेजी हो – बिनती बीस थी।
प्रकट में उसने जवाब दिया – जबान सँभाल कर बात कर! ऐसे चक्कर में डालूँगी कि अन्न के दाने तक को तरस जाओगे तुम लोग! किस बात का तुम्हें इतना गरूर है? ठेले का कि बरतन घिसने का? बारह बरस तक तेरे जैसी मर्दमार ने जिसे चूसा हो उस मर्द से अब क्या मिलने वाला? मुझे कोई दिलचस्पी नहीं। जो चाहिये था बता दिया। तुम लोगों के पास कल तक समय है, मानना हो या न मानना, कल तक बता देना। चलिये वकील साहब!
जुट गये कुछ तमाशाइयों के बीच से रजनी निकली और कुछ सोच कर फिर से बिनती के पास आई – छोटा इसलिये चाहिये कि एकदम सनीप की नकल लगता है। सनीप से मुझे अब भी दिल्लगी है लेकिन पुराने सनीप से, इस छिछोड़े से नहीं, इसे तू ही रख।
उत्तेजना न सँभाली गई तो बिनती घस्स से बेंच पर बैठ गई। बच्चों को पुकारते सनीप की आवाज खोखली थी, चिंता ने सारी मजबूती हर ली थी।


रात घिर आने तक सभी वहीं बैठे रहे। चूल्हा नहीं जला, बच्चे पावरोटी और चाय खा सो गये। बेटी को सुला कर छोटे नीरा की बात की लौ पकड़ बिनती सिसकने लगी – मम्मी! वो आंटी अंकल के साथ क्यों आई थीं? तुम चिल्ला क्यों रही थी? सूरा ने तो इतना भी नहीं पूछा – जाने क्या समझा होगा निबोला?
सहानुभूति में सनीप ने हाथ लगाया तो उससे लिपट कर बिनती फूट फूट कर रो पड़ी। कुछ देर में शांत हुई तो भारी आवाज़ में कहना शुरू किया – हो जी, एक बात बतानी है...बुरा मत मानना। कुछ तुमने छिपाया था तो कुछ मैंने भी। जानते हो उस वकील के यहाँ मैं क्यों नहीं गई? क्यों उसका काम पहले छोड़ दिया था? ...एक दिन जब उसके यहाँ किचेन में बरतन धो रही थी तो पीछे से आकर उसने पकड़ लिया था। बीवी जी थी नहीं, गन्दी बातें करने लगा। जबरदस्ती की कोशिश भी किया। उस दिन मैं यह धमका कर बच पायी कि छोड़ दे नहीं तो बीवी जी के आने पर बता दूँगी... अगले दिन ही काम छोड़ दिया। बीवी जी नाराज़ हो गईं लेकिन कारण न बताया...इतनी अच्छी बीवी होने पर भी जाने क्यों लोग...उसी का बदला आज ले रहा है।
सनीप देर तक चुप रहा। उसकी चुप्पी नहीं सही गयी तो सहमी बिनती सिसक उठी – मुझे मारते क्यों नहीं? तुमने रजनी को तो मारा था न?  
किनारे सरकते सनीप ने उत्तर दिया – बिनतो! मेरा मन यह सुन कर और भारी हो गया है। मारूँगा क्यों? उसमें तुम्हारी क्या गलती थी? छिपाने पर मैं कुछ कहने लायक नहीं बिनतो! ... हम लोग लड़ नहीं पायेंगे। उस कलमुँही को पूरा पता है कि बहुत जल्द उस ज़मीन का दाम सोना उगलने वाला है। हमारी इतनी कहाँ बिसात कि लड़ सकें?
सुलह कर लेने में ही भलाई है।
बिनती का पछ्तावा भाव उड़न छू हो गया। वह उठ बैठी – हो जी, तुम जमीन दे दोगे? और नीरा को भी? ऐसा कैसे सोच लिया सूरा के पापा?  
रात भारी हो चली थी, भार उठाये न उठता था। दोनों देर तक अबोले ही रहे।
स्पर्श की पहल सनीप ने ही की – रिसान गई बिनतो! तू ही बता क्या करूँ?
बिनती ने हाथ झटक दिये तो सनीप ने हथियार डाल दिये – तू जो कहेगी, वही होगा। बताओ क्या करूँ?
प्रश्न नहीं, यह समर्पण था। सजनी सजन के अंग लग गई। मन के भारी भावों को, आशंकाओं को, डर को, सबको दो देहों के बहाव बहा ले चले। बाढ़ थमी तो दोनों हल्के थे। तीन बच्चे सोये हुये थे, चौथे का बपन हो चुका था...

अगले दिन बच्चे स्कूल गये और सुबह काम पर जाने से पहले सनीप ने बताया – सेठ के भाई वकील हैं। उनसे बात करूँगा। तुम्हारे पास तो सेठ का नम्बर है न? बिनती ने हामी भर दी। निर्णय हो चुका था – लड़ना है।
सनीप को मौका ही नहीं मिला। दुपहर बाद ही रजनी ने उसे गली में पकड़ लिया और सख्त इनकार पाया। रजनी जैसे पहले से ही सब तैयारी किये हुई थी, तिजहर को ही सनीप को पुलिस पकड़ ले गयी।

बिनती को खबर सेठ के फोन से ही मिली। उन्हों ने अगले दिन कुछ उपाय करने की बात कही। जब बेटी कह कर सेठ ने धीरज रखने को कहा तो बिनती रोने लगी।
बच्चों को यह सांत्वना दे कि तुम्हारे पापा बीमार पड़ गये हैं, इसलिये रो रही हूँ; उसने सुला दिया और फिर देर तक रोती रही। पड़ोस की झुग्गियों ने कोई खबर नहीं ली।

दाँत बैठाये चुप बिनती ने अगले दिन भी बच्चों को स्कूल भेजा और बेटी को टाँगे सेठ के यहाँ पहुँच गयी।
देख बिनती! मामला साफ है – सेठ के भाई वकील श्यामसुन्दर ने समझाते हुये कहा – सनीप का केस कमजोर है लेकिन उसे शादी वाले मामले में नहीं कोई झूठा संगीन आरोप लगा कर फँसाया गया है। इतनी जल्दी गिरफ्तारी की कोई और वजह नहीं बनती। इसका मतलब यह कि तुम लोगों को दो दो मुकदमें लड़ने पड़ेंगे – पहला झूठा वाला और दूसरा सच्चा वाला। कैसे कर पाओगे तुम लोग? ...उसे तो छुड़ा लिया जायेगा, मैं बात करता हूँ। यहीं बैठो, थोड़ी देर में आता हूँ।
दो दो मुकदमें! सच्चे और झूठे!! – बापों के आगे जुबान की कोई बखत ही नहीं? कैसी फाँस में डाल दिये भगवान? ऐसा कौन सा पाप कर दिया था मैंने? सूनी आँखों छ्त निहारती बिनती के प्रश्न का छत या आसमान किसी के पास कोई उत्तर नहीं था।
श्यामजी खबर ले आये - छुड़ाने में पन्द्रह हजार लगेंगे। बिनती चाहे तो मिल सकती है।

श्यामजी की बदौलत बिनती जेल में सनीप से मिली  – एक रात में ही जैसे उसका सब कुछ चूस लिया गया था। वह चुप था – न रोना और न बात। पूछ्ने पर बस हाँ, हूँ।
बिनती न रो पाये और न चुप रह पाये – हो जी, सबर रखो। बस एक दिन। रकम का जुगाड़ कर तुम्हें कल ही छुड़ा लूँगी।
सनीप ने पहली बार मुँह खोला – जा कर रजनी से कह दे कि हम आधी जमीन देने को तैयार हैं लेकिन नीरा नहीं देंगे। मान गई तो वही छुड़ा लेगी वरना ... मुझे सूरा की चिंता लगी है, जाने क्या ... सनीप ने डबडबाई आँखों को रोका और ऊपर देखते हुये उमड़ आये आँसुओं को पी जाने की कोशिश करने लगा।
स्वयं को सँभाल कर उसने फिर कहा – अगर न माने तो जो कुछ भी है, बेच कर और उधार ले रकम का जुगाड़ कर लेना।
दोनों चुप हो गये। सनीप की नज़र ज़मीन को नाखून से कुरेदते हुये बिनती के पैर पर पड़ी, उसने झुक कर उसके पैर पकड़ लिये। घबरायी बिनती ने पैर खींचे – हो जी, क्या करते हो?
कुछ नहीं बिनती...इन पायलों को न बेचना। हरगिज न बेचना ... पिये जा चुके आँसुओं को आँखों ने उड़ेलना शुरू कर दिया। अब सनीप लाचार था।
झटके से बिनती मुड़ी और भाग चली। बाहर आ कर गेट पर रुकी तो डूबते सूरज पर नज़र पड़ी – नहीं, नहीं।
चेहरे पर जाने कितनी लाली निचुड़ आई, मैं रजनी के पास कहने भी नहीं जाऊँगी। यह तो हम दोनों की बेइज्जती होगी - बिनती कुछ भी नहीं देगी। कुछ भी नहीं!
उसने पैर को जमीन पर जोर से पटका। उड़ती धरती मइया से पायल ने कहा – मैं तुमसे अलग नहीं हो पाऊँगी।
... हवलदार बिनती को वापस सनीप के पास जाने से रोक रहा था। दीवारों से बिनती की चीखें टकरा कर बल खा रही थीं – हो जी! ... सूरा के पापा!!...हम जमीन नहीं देंगे। हम लड़ेंगे, लड़ेंगे ...
...स्टेडियम के बाहर बेंच पर सूरा प्रतीक्षा में था – पापा न सही, मम्मी तो जरूर आयेगी। उसने नीरा को बहला कर वहीं सुला दिया था। पहला अवसर था जब एक माँ को न तो बच्चों की भूख की पड़ी थी और न बच्चों को भूख ने सताया था।  (समाप्त)          

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

निबन्ध -1 : घुटन्ना


आज पहली बार बरमूडा पहने। जे मने ये कि हमहूँ एडवांस हो गये। अरे वही बरमूडा जिसे निर्मलानन्द भैया प्यार से घुटन्ना कहते हैं! घुटन्ना कहने से बरमूडा को लेकर मन में समाया खतरा खत्म हो जाता है। सुना है बरमूडा त्रिभुज में जहाज सहाज भी एकदम से नपत्ता हो जावें! अपन की क्या बिसात

घुटन्ने में कुल छ:+दो जेबें हैं। दो पीछे, दो साइड में और दो आगे। आगे वाली दोनों जेबों के भीतर भी जेबे हैं। वह घुटने से आठ दस सेंटीमीटर नीचे जाकर समाप्त हो जाता है गो कि सिलते हुये कपड़ा घट गया हो! जे भी हो सकता है कि कपड़े की कटौती कर के ही इत्ती सारी जेबें लगाई गई हों (लेकिन गणित ठीक नहीं बैठता)।

इतनी जेबें तो यात्रा में ठीक हैं कि एक में पर्स, दूसरी में पहला मोबाइल, तीसरी में ब्रश, चौथी में दूसरा मोबाइल, पाँचवी में बोतल, छ्ठी में बिस्कुट वगैरह और छिपी हुई में इमरजेंसी नगदी लेकिन घर में इसे पहनने का कोई तुक समझ  नहीं आता सिवाय इसके कि कोई आये तो उसे धनी दिखें  - जितना पैसा उतनी जेब! (भले हर तीसरे सप्ताह वेतन की प्रतीक्षा रहती हो और बैंक वाले ई एम आई को लेकर हैरान रहते हों कि यह कमबख्त एकमुस्त पोस्ट डेटेड चेक या ऑटो डेबिट एडवाइस क्यों नहीं दे देता!)
धनी होने का इम्प्रेशन पड़ने से उधारी माँगने वालों के आने का खतरा बढ़ जाता है इसलिये घुटन्ना घर में नहीं पहना जायेगा। चूँकि यात्रा बार बार तो होती नहीं इसलिये घिसेगा भी कम - एक निर्णय, दो लाभ। 

कमरबन्द में एलास्टिक लगा है और बटन भी। साथ में एक फैंसी मैचिंग बेल्ट भी है। तीन चार जगहों पर बिन मतलब ही घुंडियों के आकार में पट्टियाँ बँधी हुई हैं। वजन करना हो तो शरीर टाँगने में सहूलियत के अलावा उनका कोई और उपयोग मुझे नहीं समझ में आता (लेकिन स्प्रिंग बैलेंस से किसी मानव का टंगान अवस्था में वजन होते मैंने आज तक नहीं देखा)। 

पीछे अकड़म बकड़म भाषा में कुछ लिखा है जिसका इंटरप्रेटेशन यह है कि असली ब्रांडेड है... 

... आज देबुआ की भगई और कक्का की लँगोट दोनों याद आये हैं। 

पुनश्च: 

चेन के बारे में लिखना भूल गया था। टी के की चेन नहीं है इसलिये शक हो रहा है कि कहीं ऐन वक्त धोखा न दे दे। एक बार जब जोर की लगी थी और पैंट की चेन बीच में ही अटक गई थी, न नीचे जाय, न ऊपर तो सुधियाने में इतनी मेहनत करनी पड़ी थी कि लगी हुई सटक गई। जान में जान आई तो ध्यान से देखा कि चेन टी के के बजाय एम के की थी। 

वैसे इसकी चेन के आगे घुंडी को गोल कर जो चिह्न बनाया गया है वह किसी बाज जैसा दिखता है। जाने क्या है?  चेन भी ब्रांडेड ही होगी। 

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

पहली भेंट...

अचानक एक दिन 
ठिठके हम अनजान प्रांतर।  
देखा मैंने - गौर मुख, आँखें कुछ सिकुड़ीं स्वच्छ, रजत पात्र गंगाजल बीच शालिग्राम 
  गौर ललाट, धूप गौर - झुठलाये जाते कारे केशों से
फिसल रहा प्रकाश हारता कालेपन से। 
  
 हवा कजराये केशों पर फुनगियाँ टाँकती रही।  
तमतमाई दुपहर धूप आरक्त कपोल दुलराती रही।
पहली बार मेरी आँखों ने तुम्हें उस समय छुआ - 
प्रस्तावना थी पहली भेंट की
(परिचय पगे अनजानेपन का सहसा मिलना भेंट नहीं, 
तब हो जब निमंत्रण हो, स्वीकार हो)

सदेह स्पर्श का अवसर आया तो मैं तुम्हें वैसे ही छूना चाहता था
कि फुनगियाँ खुलें और चिड़ियाँ उड़ जायें।
कि लाली निकसे और अंगुलियाँ ऊष्ण हो जायें।
कितना भोला था मैं! युगसंचित परिवर्द्धित परिपाटी को पहली भेंट में ही सिद्ध कर लेना चाहता था!
कितना भोला था मैं! धूप के आँचल में छिपे अरुण से मित्रता करना चाहता था!
कितना भोला था मैं! इन्द्रधनु की बूँदों से एक रंग चुराना चाहता था!
कितना भोला था मैं! हवा से लुकछिप खेलना चाहता था।
कितना भोला था मैं! लाज से अनभिज्ञ था!
पूछा तुमने - क्यों आये?
मैं बगलें झाँकने लगा।
दूसरा प्रश्न - आने के मायने समझते हो?
मैंने समझा कि मौन गला भी घोंट सकता है।
तुम मुस्कुराई - कुछ कहोगे भी?
पुस्तक का वाक्य कौंधा - शब्द ब्रह्म है।
जीभ लड़खड़ाईमैंने नहीं कहा - समय क्या हुआ होगा?
तुम्हारे चेहरे पर समय जम गया।
मैंने जाना कि जमे सतरंग में लहरें भी उठती हैं,
आँखें पुन: तुम्हें वैसे ही छूने लगीं।
कपोल आरक्त हुये
फुनगियाँ खिल उठीं
खग पाँख उगे ओठ ऊपर
दाँत दबे प्रगल्भ
भूली लाज अछ्न्द पसरी
समय रुका
शब्द मौन
ब्रह्म गुम!
हवा फुसफुसाई - जाऊँ?
अँ..हँ..हाँ...


तुम्हें जाते निरखता रहा
जब स्पर्श दीठ टूटी
तो पाया
भीगी अंगुलियाँ शीतल थीं। 

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

गिफ्ट वाली पायल - 4

पहला भाग 
दूसरा भाग 
तीसरा भाग अब आगे ...


पार्लर से वापस आती बिनती के पाँव रुनझुन थे – रजनी! आज देख लेना कि खबसूरती क्या होती है। बड़प्पन का धौंस जमाने आ रही हो न? वक़्त देने का और क्या मतलब हो सकता है? 
सनीप ने बिनती को देखा तो भौंचक रह गया। यह उसकी बिनती है!
“हो जी, ऐसे क्या देख रहे हो? मेहरी नहीं देखे कभी?” इठलाती हुई बिनती ने उसे बाहर जाने को कहा कि वह कपड़े भी बदल ले। सम्मोहित सा सनीप बाहर आ गया। कुछ देर बाद बिनती ने उसे भीतर बुला लिया - कोठी वाली दीदी की मेहरबानी है यह। वहाँ पालर की जो सबसे अच्छी ... बिनती को यह भूल गया कि उसे क्या कहते हैं तो अपना दिमाग लगाते हुये आगे बोली – जो सबसे अच्छी रँगरेजन थी उसने मेरा मेकाप किया।
मुँह बाये सनीप को कुछ न सूझा तो पूछ पड़ा –  रँगरेजन? समझा तो हँस कर बोला – रँगरेजन नहीं बिउटीशियन। बिनती ने जवाब दिया – हाँ, हाँ वही। पहली तो यही करती थी न? जो खुद रँगी रहे और दूसरों को भी रँगे। ऐसे का भेद कोई कैसे जाने?
सनीप गम्भीर हो गया  - यह सब किस लिये बिनतो?
“बियाह की बरसगाँठ मना रही हूँ और क्या? तुम्हारी पहली आ रही है न? उसे भी दिखाना है कि मैं और मेरे बच्चे कैसे हैं? तुम भी जाओ दाढ़ी बनवा कर आ जाओ। तब तक कपड़े निकाल कर रखती हूँ। सूरा और नीरा आयेंगे तो उन्हें भी तैयार करना है। कितना काम है!”
इठलाती बिनती गम्भीर हो गई – हो जी! कहीं उससे मोहा कर चले तो नहीं जाओगे?
हैरान सनीप ने उसे डपटा – फिर कभी ऐसा न कहना और दाढ़ी बनवाने निकल गया। पालर की रँगरेजन नहीं सैलून की ...उसने आगे के शब्द को गुटके के साथ थूक दिया, आओ आज! तुम्हारी खैर नहीं। बिनतो तुम्हारी मलामत कर के छोड़ेगी।



रजनी, सपनों की खान रजनी। सनीप से छुट्टा छुट्टी हुई तो उसने राहत की साँस ली और सीखने  के साथ साथ धन्धे में तन मन से लग गई। समय भागता रहा और मलकिन की कृपायें बढ़ती गईं। सैलून की केवल वही ब्यूटीशियन थी जिसे मलकिन गाड़ी भी दे देती थीं। रजनी ड्राइवर के साथ घूमती, शॉपिंग करती और अपने को भी सजाती रहती। शायद सातवाँ साल था जब उसे देहजी शिकायत हुई। लेडी डॉक्टर के यहाँ गई तो जाँच और टेस्ट के बाद उसने पति के साथ आने को कहा। रजनी असल बात छिपा गई और बताया कि उसकी शादी ही नहीं हुई थी।
डॉक्टर के ललाट पर बल पड़ गये – फिर ऐसा कैसे? और पूछने पर जब रजनी अड़ गई तो डॉक्टर ने बताया – ठीक है, तुम्हारे  निजी जीवन से मुझे क्या लेना देना? इन्फेक्शन है। बच्चेदानी निकलवानी पड़ेगी। लौट कर रजनी ने मलकिन को बताया तो उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आई – तो निकलवा दो। हर महीने की चिकचिक से छुट्टी भी मिल जायेगी। बहाना न होने से बने हुये कस्टमर भी खुश रहेंगे।
उस रात रजनी को सनीप बहुत याद आया। वह खूब रोयी लेकिन कर भी क्या सकती थी?

ऑपरेशन के बाद मलकिन ने खूब देखभाल की लेकिन रजनी ने ठंढेपन का अनुभव कर लिया। दिन बीतते रहे और धीरे धीरे रजनी की माँग घटती गयी। मलकिन ने उसे केवल मेकअप के काम में लगा दिया। कमीशन खत्म हो गया लेकिन रजनी की बिगड़ी आदतें तो वैसी ही रहीं। आये दिन चिखचिख होने लगी और एक दिन ताव में आ कर उसने काम छोड़ दिया। शहर भी छोड़ दिया। नई ज़गह एक बहुत ही मशहूर पार्लर में काम मिल गया। अपने काम में दक्ष तो थी ही, हाथों और बातों से स्नेह भी टपकता;  शीघ्र ही पार्लर की सबसे पारंगत ब्यूटीशियन मानी जाने लगी। वेतन भी बढ़ गया लेकिन अब अकेलापन सहा नहीं जाता था। असुरक्षा का भाव और लोगों की शंका भरी दृष्टि उसे सताने लगे।

सनीप ने उसे नि:स्वार्थ प्यार दिया था, क्या अब भी? इस ढलती आयु में? तब जब कि एक ज़वान बीवी भी है?
इसी शहर में तो है सनीप! रजनी ने पता लगाना शुरू कर दिया। महीनों बीत गये लेकिन कुछ पता नहीं चला। मायके या ससुराल में उसने पता नहीं किया। अभी ऐंठन बची थी और समय से पहले पहचाने जाने का खतरा भी था। मन के शैतान ने जाने कितने गणित जोड़ लिये थे। अगर सब कुछ ठीक रहा तो न हर्रे लगे न फिटकरी और रंग चोखा लेकिन सनीप मिले तो?

कुछ तो बात व्यवहार और कुछ प्रभाव – यहाँ भी वह पार्लर की काले काँच वाली स्कॉर्पियो में घूमती थी। झुग्गियों और सस्ते क्वार्टरों वाली गलियों में घूमती रही और एक दिन दिख गया सनीप – झुग्गी में नहीं, मेन मार्केट में ठेला खींचते हुये। सनीप उसकी गाड़ी के पास ही ठेला रोक कर सुस्ताने लगा और काले काँच के पीछे रजनी सुबकती रही। हैरान ड्राइवर को उसने रुकने और नज़र रखने को कहा। तिजहर को जब सनीप घर लौटा तो रजनी सब जान गयी – इतने पास रहता है सनीप और वह जाने कहाँ कहाँ ढूँढ़ती रही! कहीं उसने कभी देख तो नहीं लिया होगा? ड्राइवर को गाड़ी आगे बढ़ाने को कहते हुये रजनी ने सिर झटका – मैं गाड़ी से बाहर होती ही कहाँ हूँ! उसने नहीं देखा होगा। उसकी बीबी और बच्चों को देख ही लूँगी! जल्दी क्या है?
 सड़क के उस पार ही उसे बोर्ड दिखा था – विवेक प्रसाद, एडवोकेट।
रजनी उछ्ल पड़ी – बन गया काम! ड्राइवर ने पता किया तो एडवोकेट घर पर ही थे। सिर ढके और काला चश्मा पहने उनके घर में प्रवेश करती रजनी अपने भाग्य के पलटने पर इतरा रही थी। 

सनीप तैयार हो गया तो बिनती ने उसे सामने बैठा लिया – हो जी, बच्चों के आने तक हम अकेले हैं। मेरे पास रहो। जाने अब फिर से मौका मिले कि नहीं, क्या जाने क्या हो?
सनीप की आँखें उसकी आँखों से जुड़ गईं – तुझे क्या हो गया है? कभी निश्चिंत कर देती हो तो कभी परेशान। दिमाग तो मेरा भी भन्नाया हुआ है लेकिन उससे अधिक तो तुम्हें देख हैरान हो रहा हूँ। काम पर चला गया होता तो ही ठीक था। मन बझा रहता।
बिनती ने उसे पास खींच उसका सिर अपनी गोद में ले लिया – बस ऐसे ही रहो। सनीप के उठते हाथों को उसने रोक दिया – न, न! मेकाप खराब हो जायेगा।
सनीप ने आँखें मूँद लीं – ज़िन्दगी में ऐसा कभी नहीं हुआ। चिंता सुख के पिछवाड़े खड़ी हो गई। उसे पता नहीं चला कि निहारती बिनती के मन में चउवाई बह चली थी। सभी दिशाओं से घेर घेर हवायें, बादल कहीं नहीं। सुहागन अचानक आ धमके सूखे से सुख चुरा रही थी।  

एक युग बीता और बिनती को बच्चों की सुध आई - हो जी,  खाना तो बनाया नहीं! सूरा नीरा आयेंगे तो क्या खायेंगे? तुम्हें भी भूख लग रही होगी।
सनीप को रुपये पकड़ाते हुये उसने बी टी ड्बलू से खाना बँधवा कर लाने को कहा। सनीप कुछ कहना चाहता था लेकिन उसका मन देखते हुये चुप रहा।
सूरज और नीरज के आने पर सबने साथ ही खाना खाया। दोनों बच्चों को अंतर तो दिख ही गया था। सूरज पूछ पड़ा – आज पापा काम पर नहीं गये क्या?
नीरज ने दुलार दिखाते हुये, ऐसा आदतन वह करता रहता था, बिनती के चेहरे को दोनों हाथों से अपनी ओर स्थिर कर पूछा – ऐसे तुम रोज क्यों नहीं रहती मम्मी?
बिनती  निहाल हो गयी – हो जी, देखो तो दोनों समझदार हो गये हैं ... देख नीरा! बरसगाँठ रोज रोज तो नहीं मनाते न?
अब सूरज की बारी थी – बरसगाँठ? बर्थ डे न? किसका है मम्मी?
बिनती इठलायी – मेरा और किसका?
हैरान बच्चों को बिनती ने समझाते हुये बताया – तुम्हारे पापा से शादी कल के दिन हुई थी। शादी के बाद दूल्हे दुल्हन का नया जन्म होता है।
सूरज पूछ पड़ा – अभी तक क्यों नहीं मनाया मम्मी?
नीरज ने जोड़ा – अब तो हर साल मनाओगी न मम्मी? ... हमलोगों का भी मनाना।
सनीप और बिनती की आँखें एक हो गईं।
कितनी बातें! कितना कहें सुनें? क्या कहें, क्या छोड़ें? नया नया जुड़ता जा रहा है। जनम जनम नहीं तो केवल इस जनम ही साथ निभाना  ... न, न! रोना न बिनती, समय का फेर घेर लाया है तो चला भी जायेगा। सँभाल बिनती, सँभाल!
बिनती ने दोनों बेटों को अगल बगल कस लिया – मनाऊँगी , हर बार मनाऊँगी अब तो। तुम लोग याद दिलाना। मम्मी गँवार है, भूल जाती है। बड़े लोग, पढ़े लिखे लोग नहीं भूलते। तुम लोग भी पढ़ लिख कर खूब बड़े बनना...
जाने क्या क्या कहती गई बिनती। सनीप बस सुनता रहा।
पाँच का कुनबा एक दूसरे से चिपका पड़ रहा। दुल्हा दुल्हन बैठे थे और बच्चे नींद में।

दिन ढल गया लेकिन अभी भी उजाला था। मज़दूर लौटने लगे थे। सनीप ने बाहर से आती अपने नाम की पुकार सुनी। नहीं, एक समय की एक ही पुकार पहले बिनती ने सुनी और सहम गई – यह तो पड़ोस का एडोकेट है!
उसे रात का सपना याद आया और कुछ और भी जो केवल वह और विवेक एडवोकेट जानते थे। भीतर क्रोध उमड़ पड़ा – हो जी! मुझे देखने दो।
तमतमाई बिनती बाहर निकली और जड़ हो गई। साइड में बड़ी गाड़ी लगी थी। कुछ जन एडवोकेट को घेरे हुये थे और उसके साथ कोई और भी थी।
हरहराती बिनती पास आई तो पहचान गयी। उसके हलक का प्रश्न अटक गया।
सामने वह खड़ी थी जिसकी कल्पना तक बिनती ने नहीं की थी – रँगरेजन!
सनीप और बच्चे पीछे आते तब तक नैसर्गिक समझ ने अपना काम कर दिया। पल भर में बिनती के मन ने समय, संयोग और सपने तीनों को अर्थ भरे तारतम्य में ला दिया। सहज समझ ने रजनी के मन में भी वही काम किया।  सनीप को बताने की कोई आवश्यकता नहीं थी, रजनी और बिनती एक दूसरे को पहचान चुके थे।
काले चश्मे के पीछे रजनी की आँखों के आश्चर्य और अविश्वास तो छिप गये लेकिन वह घाघ भी जुबान को रोक नहीं पाई। वाणी लपकी – तुम!...
चुप नहीं रह सकती थी! छ्पाक! - रजनी पर खुद की चोट वैसी ही थी जैसे दाँतों तले किसी तने रबर ने टूट कर चेहरे पर तीखा तमाचा जड़ दिया हो।  
फोन पर रेगुलर कस्टमर के निर्देश मान जिसे पार्लर में सजाया, वह तो दुश्मन निकली!
बिनती की छाती से डर का पहाड़ उड़न छू हो गया - तो ये है बड़े नाज नखरे वाली खेंखर! रुपया मिले तो कुछ भी करती है। रुपया मिलने पर बड़ी बड़ाई वाली तो झुग्गी वाली को भी सजाती है, इससे क्या डरना?
बिफरती हुई वह एडवोकेट पर टूट पड़ी – साहेब! डाइन भी सात घर छोड़ देती है। तुम्हें मैं ही मिली थी? मेरा घर ही मिला था, यह यह ... उसने रजनी की ओर हाथ चमकाये ... यह बड़प्पन दिखाने को?
जुट गये लोग, सनीप, रजनी, बच्चे सब हैरान थे जब कि बिनती के तेवर की ताब ने एडवोकेट विवेक प्रसाद जैसे कुटिल को भी भीतर तक हिला दिया था।
सनीप को अब होश आया था, सबसे उलझ कर तो यह सब बिगाड़ देगी! उसने डाँटा – बिनती!
बिनती उखड़ पड़ी - हो जी, मुझे बोलने दो! (जारी)