शनिवार, 14 अप्रैल 2012

गिफ्ट वाली पायल - 3

पहला भाग 
दूसरा भाग 
अब आगे ...

पहर भर रात रहते बिनती जग गई। सनीप और बच्चे गहरी नींद में थे। उसने कृपा भरी चुप नज़र उस नीमअन्धेरे कोने की ओर डाली जिधर सनीप था और टंटाते सिर को थामे बाहर आ गई। ताज़ी हवा और खुले माहौल से थोड़ी तसल्ली मिली तो झुग्गी की टेक ले वहीं बैठ गई। इस समय उसे लग रहा था कि सनीप के लिये झटके में कह तो दिया कि कल की कल देखेंगे लेकिन मामला इतना आसान नहीं!

बैठे बैठे ही उसने अपने बीती ज़िन्दगी को सोचा। सोलह की थी तो छ: साल बड़े सनीप से बियाह हुआ। देरी हो गई थी सो मौका देख बाबू ने चट मँगनी पट ब्याह निपटा दिया। गवने की गुन्जाइश ही नहीं थी, बस रसमअदायी हुई। सतरह में सूरा हुआ और ओनइस में नीरा। बच्ची तो गये साल के पिछले साल। सनीप के साथ बारह साल कैसे गुजर गये, पता ही नहीं चला! सुख क्या होता है, उसके साथ ने समझा दिया।

अब रंडी क्यों आ धमकी? मेरा सुख छीनने? मेरा सुहाग छीनने?
वह गोरी चिट्टी है। बड़े लोगों के समाज में रह रही है। इत्र, फुलेल, मेकाप जाने क्या क्या? उमर में बेसी होते हुये भी मुझसे तो सुन्दर ही लगती होगी।
बिनती का दिल बैठने लगा – दस दस घरों में काम। फुरसत कहाँ? ज़रा सी देर हुई तो चिक चिक! बस ऐना देखा और बाल झाड़ लिया। हफ्ते में एकाध बार शम्पू , काजर पटार, हो गया सिंगार! याद ही नहीं आता कि कब अपनी देह निहारी? बाकी कामवालियों को सजने की फुरसत कैसे मिल जाती है?
उसके मन ने किलोल किया -  अरे, तुमने कभी यह सब सोचा ही नहीं, टैम तो निकल ही आता है।  
नीमउजाले में बिनती ने अपने हाथों को देखा और फिर एक दूसरे से मला – कितने खुरदरे हो गये थे! क्या हो अगर रजनी सनीप को साथ ले जाने को कहे और सनीप तैयार हो जाये? कैसे रोक पायेगी वह? कौन उसका साथ देगा? उसके बच्चों का क्या होगा?
उसने माथा ठोंका – क्यों आई बुजरी? उसे बाबू पर गुस्सा आया – मुझे हँकालने की इतनी जल्दी थी बाबू! सब काम तो करती थी, उसी का अहसान मान ढंग से पता तो कर लिये होते इस पितमूँहे को ब्याहते?
घुटनों में सिर दे रोते रोते बिनती की जाने कब आँख लग गई...

...जल्लाद जैसा एक आदमी ठठा ठठा हँस रहा है – बहुत शान था न बिनती रानी! अब झेलो। आ जाओ, मेरे पास आओ ...सब ठीक कर दूँगा। वह घेरा कस रहा है! निकल बिनती, निकल! वरना अनर्थ हो जायेगा। बिनती ने सारा जोर लगा दोनों बाजू एक साथ बाहर की ओर उछाल दिये...

...हड़बड़ा कर उठी तो पता चला कि वह जमीन पर ही सो गई थी। सपना उसके जेहन में धँस गया, कुछ याद आया और वह सहम गई – कैसा सपन! नहीं! सनीप को छोड़ वह कहीं नहीं जायेगी और उसे भी नहीं जाने देगी।
अन्धेरे ने जिया में रोशनी ही रोशनी उड़ेल दिया था! जिस बियाह को कुछ देर पहले कोस रही थी उस की बरसगाँठ इतने दिनों बाद मरद को याद आई? अपने साथ क्या लाई? बिनती ने दाँत पीसे और भीतर चली गई। माथे पर उसके स्पर्श से सनीप जागा – क्या है?
“आज काम पर मत जाना।“
सनीप ने पूछा – क्यों? और फिर समझ कर बोला – नागा किया तो घट्टी ही लगेगी। आज मोबाइल ले कर चला जाऊँगा। जब आयेगी तो कहीं से फोन कर मुझे बुला लेना।

बिनती के मन का सारा नेह देह में उतर आया। उससे लिपटते हुये बोली – हो जी, लोग घर की बला घरनी के जिम्मे रखते हैं। मरद जेब में बला ले कर बाहर घूमेगा तो काम क्या करेगा? ...बस ऐसे ही कह रही हूँ – न जाओ। बरसगाँठ की पहले नहीं बताये। इतने दिनों बाद याद दिलाये हो तो मुझे मना लेने दो। कहते हैं बारह बरस में घूरे के दिन भी बदल जाते हैं। आने दो उसे आज मेरे घर, देखती हूँ कौन घूरा है और कौन घरनी?
सनीप निहाल हो गया – तू तो बड़े लोगों जैसी बात करती है!
बड़प्पन वड़प्पन सब तुमसे ही तो है! – कह कर बिनती उससे लिपट गई।
दोनों की प्यार पूजा खत्म हुई तो बगल के मन्दिर से आरती की आवाज आ रही थी। सुबह हो गई थी। बिनती जल्दी जल्दी बेटों को जगाने लगी।

 बेटों को स्कूल भेजने के बाद बेटी को सनीप के पास छोड़ नहा धो कर बिनती सुबह काम पर निकल गई। आज उसके कदम और हाथ दोनों तेज थे, बाकी दिन की छुट्टी जो लेनी थी!
अन्त में कोठी वाली दीदी के घर उन्हें उसने सोफे पर बिठाया और खुद पैरों के पास जमीन पर बैठ गई। दीदी हैरान थीं – क्या है बिनती?
बिनती ने लजाते लजाते पूछा – दीदी, सच्ची बताना, मैं कैसी लगती हूँ?
दीदी मुस्कुराने लगीं – यही पूछने को इतना सकुचा रही हो!
बिनती गम्भीर स्वर में बोली – हँसो न दीदी! सच्ची बताओ, जीवन मरन की बात है।
दीदी चिंतित हो गई – बात क्या है? फिर उसकी आँखों के मनुहार को पढ़ कह उठीं – तू तो बहुत अच्छी लगती है, लगता ही नहीं कि तीन बच्चों की माँ हो लेकिन हुआ क्या?
बिनती ने गहरी साँस ली – वो तो आप लोगों को पता चल ही जायेगा... मैं सैलून हो कर आऊँ तो और अच्छी लगूँगी?
दीदी को पहले तो कुछ समझ में नहीं आया - सैलून? जब समझीं तो खिलखिला उठीं – पार्लर कहो, ब्यूटी पार्लर! तो तू वहाँ जायेगी, क्यों भला?
बिनती वहाँ हो कर भी नहीं थी - दीदी, आप को तो पता होगा, कम से कम जितने में काम चल जाय उतना उधार दे दो। वहाँ से तुम्हें फोन करूँगी तो पालर वाली को बता देना कि क्या क्या करना है।
“आखिर बात क्या है?”
वो कुछ नहीं। हमारी शादी की बरसगाँठ थी कल, भगवान ने उसे मनाने का मौका मुझे आज दिया है। - बिनती ने उनके घुटनों में अपना चेहरा छिपा दिया।
न छिपा होता तो दीदी देख पातीं कि सुख, दुख, ­निश्चय, शंका, विश्वास सब एक साथ चेहरे को जैसा बना देते हैं, वैसा मेकअप कोई नहीं कर सकता, कोई नहीं!
लेकिन दीदी तो मैरिज एनिवर्सरी मनाना जान भौंचक्की रह गई थीं, उनको यह सब कैसे दिखता?
तो बड़ों की देखादेखी तुम लोग भी मनाने लगे! ... तुम्हारा सुहाग सलामत रहे, बच्चे आगे बढ़ें, तुम खुश रहो। ले जाओ पैसे,  जाओ अपने सैलून, मेरा गिफ्ट समझना!

बड़े लोग! सैलून!! गिफ्ट!!! बिनती के आसमान दिन दहाड़े तीन तारे टूटे थे। पल भर में ही उसने जाने कितनी मन्नतें माँग ली, दीदी का पैर छुआ और भाग चली।
जीवन मरन और एनिवर्सरी! दीदी यह पहेली बूझने में लगी थीं कि क्या पता चल जायेगा? यह क्या करने वाली है?
जब कि बिनती पार्लर को जा रही थी – लेडीज सैलून। देखती हूँ कि कैसा होता है सैलून जो किसी का मरद छीनने की ताकत दे देता है।
इस बात से अनजान कि सैलून सैलून में फर्क होता है, एक भोली सजने सँवरने को जा रही थी लेकिन उसके कदम घिसट रहे थे। जो ताकत थी वह पायलों की थी, सड़क के शोर शराबे में उन्हें सुनने वाला कोई नहीं था, कोई नहीं!! (जारी)           
              

9 टिप्‍पणियां:

  1. आगे क्या हुआ?... इंतज़ार रहेगा। आपके ब्लॉग की हर कड़ी में नए-नए (मेरे लिए) सुंदर शब्दों से परिचय होता है। अद्भुत शब्द-शिल्प। आज फणीश्वरनाथ रेणु जी के लेखन की याद आ गयी।

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    1. अहो भाग्य सर!...आप का आशीर्वाद सर आँखों पर।
      @ रेणु जी
      मैंने अपने कान छुये हैं। स्वस्ति!

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  2. एक साथ सीमों द बुवां और बासु भट्टाचार्य की गृह-प्रवेश नज़र के सामने से गुज़र गए!! देखें आगे क्या है!!

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    1. @ सीमों द बुवां

      बन्द रखे हैं कान कि आवाजें उधर से न आयें
      कमबख्त कदम बहकते भी हैं तो जाने किधर?

      आप का पढ़ना अच्छा लगता है यूँ कि उन झिर्रियों से झाँक दिखती है जिनके कपाट बन्द हैं। आभार और धन्यवाद।

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    2. मुझे भी बासु याद आए ! एकदम वही!

      मन भर सा आया :(

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