सोमवार, 11 जून 2012

चन्द्रहार ज्यों भारशिव पुरस्कार


मत मारो बेनामी बेलन रे आण्टी!
न भूलो कि तुम नहीं हमारी भाभी।

...जब आप किसी के सुन्दर घर में जाते हैं तो घर की प्रशंसा करते हैं लेकिन उस कालिख पुती दाँत निपोरती  फुटही घूँची के बारे में कुछ भी नहीं कहते या पूछते जो घर वाला दिठौने के तौर पर द्वार पर ऊपर टाँगे रखता है कि पहली नज़र उस पर पड़े और घर को नज़र न लग जाय। दिठौने का कोई खास तर्क नहीं होता। 
ऊपर की पहली दो बोल्ड पंक्तियाँ भी इस ब्लॉग लेख की दिठौना हैं, इनमें कोई तर्क नहीं, अर्थ नहीं, अतर्क्य हैं, इनके बारे में न पूछें और न बातें करें (समझ तो आप लेंगे ही लेकिन कभी कभी मौन वांछित होता है)। इस ब्लॉग को अपनी अभिव्यक्ति और अपनी सदाशयता की सुन्दरता का पूरा भान है, उसे दिठौने पर चर्चा अच्छी नहीं लगेगी ...
...मेरे व्यक्तिगत आयोजन को सफल बनाने के लिये आप सब को धन्यवाद बारम्बार।

अब पुरस्कार:
     ¶ चौथे से सातवें स्थान पाये ब्लॉगों को  प्रथम तीन के साथ अपने चन्द्रहार में स्थान देने की बात बता ही चुका हूँ। उनके पुरस्कार बस यही हैं। (यह बस कितना कस होने वाला है, मुझे पता है J )
     ¶ प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थानों पर आये ब्लॉगों के लिये यही मन कर रहा है कि कोई पुरस्कार न दूँ, मुझमें पात्रता नहीं है लेकिन भाव भव्यता तो है ही ...
...भारतीय इतिहास के अनजाने से चैप्टर में हजारो वर्षों पहले कभी भारशिव हुआ करते थे जो शिव प्रतीकों को मस्तक पर जूड़े की तरह सजाये फिरते थे। वैसे ही इन ब्लॉगों के अद्यतन आलेखों के छोटे अंश सहित लिंक इस ब्लॉग के मस्तक पर 31 दिसम्बर 2012 तक रहेंगे, जिसके लिये मुझे ब्लॉग प्रारूप में परिवर्तन करने पड़ेंगे।
     ¶ हर महीने इन पंचदेवों के पिछ्ले माह भर के आलेखों पर यह ब्लॉग अपनी आलसी कुंजिकाओं को खटखटायेगा। प्रथम सर्वप्रिय के लिये साल भर तक कई ‘सरप्राइज’ भी होंगे!

(मैं यह मान कर चल रहा हूँ कि मानव सभ्यता सम्पूर्ण विनाश की कथित माया भविष्यवाणी के आगे भी बनी रहेगी और मैं भी ऐसे ही आप के बीच बना रहूँगा ;))

आगामी 23 अप्रैल 2013 को हिन्दी ब्लॉगरी के दस वर्ष पूरे हो रहे हैं। 1 जनवरी 2013 से अगला ब्लॉग पुरस्कार आयोजन प्रारम्भ होगा जो उक्त तिथि को सम्पन्न होगा। आप सबसे इस बारे में राय निमंत्रित है। आप मुझे मेल कर सकते हैं/ सकती हैं। ‘क्रेज़ी से क्रेज़ी आइडिया’ को भी बताने से न चूकें। इस बार की तरह ही विश्वास रखें कि गोपनीयता बनी रहेगी। इस बार अपनी तरह के ही कुछ सनकी व्यक्तियों को भी आयोजक मंडल में जोड़ना चाहूँगा। यह भी विचारणीय होगा कि पुरस्कार क्या हों, कैसे दिये जायँ और आयोजकों के ब्लॉग भी किस तरह से आयोजन में सम्मिलित किये जायँ कि उनके रहते हुये भी वस्तुनिष्ठता और पारदर्शिता बनी रहें?    

अपनी बात:

यह आयोजन नितांत व्यक्तिगत आयोजन था। दुहरा रहा हूँ – नितांत व्यक्तिगत आयोजन, उसी तरह जैसे ब्लॉग लेख होता है – व्यक्तिगत पर सब के लिये खुला।
यह स्थिति ही इस आयोजन की शक्ति थी और सीमा भी। सतही तौर पर देखें तो ऐसे आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं लगती और सब कुछ फिस्स से हँस देने लायक मूर्खता लगती है। अरे भाई बहिनी! लोग अपना अपना कह सुन रहे हैं, खुश हो रहे हैं, दुखी हो रहे हैं; उन्हें वैसे ही रहने दो न! लेकिन मामला क्या वाकई इतना सरल है? मनुष्य ने अपने अस्तित्त्व से जुड़े किस पक्ष को सरल रहने दिया है?
  जब शब्द और विचार खुल कर, छप कर सामने आ जाते हैं तो वे मूर्तन को आकर्षित करते ही हैं। शिव या अशिव दोनों तरह के हाथ उन्हें लपक सकते हैं, उन्हें मंच पर तमाशे के लिये या यज्ञ के लिये ला सकते हैं। यह आयोजन शिवपक्ष में किया गया। भविष्य कोई नहीं जानता कब पेजर हो जाय और कब मोबाइल! और यह भी कि कब कोई आइडिया 'पैड' हो जाय! 
मैं जहाँ काम करता हूँ वहाँ हर वर्ष ‘प्रशंसा माह’ के आयोजन होते हैं, आभार ज्ञापन आयोजन भी होते हैं। सब लोग काम करते हैं, वेतन पाते हैं, तन ले कर झुके आते हैं, तन लिये तन कर साँझ को घर जाते हैं; क्या आवश्यकता है ऐसे आयोजनों की?
महत्ता तब समझ में आती है जब मेल में आप को यह पता चलता है कि जिस बात को साधारण सी समझ आप भूल चुके थे उसने आप के साथी को कितना द्रवित किया, उसके जीवन में कितना ‘प्लस’ किया? लिखते हुये वह कितना प्रसन्न हुआ होगा!
तब और अच्छा लगता है जब वह आ कर बताता है और सरेआम कहता है। पढ़ते हुये, सुनते हुये और देखते हुये आप आँखों की नमी नहीं रोक पाते। अच्छाइयाँ ऐसे अनुष्ठान माँगती हैं, बुराइयों के अभिचार तो चलते ही रहते हैं। उन्हें न रोक पायें तो क्यों न कुछ छोटा सा ,सच्चा सा कर दें!
हिन्दी ब्लॉगरी की यह वास्तविकता है कि अधिकांश को ब्लॉग लेखक ही पढ़ते हैं। इतने छोटे से संसार में भी उन्मुक्त शिवनृत्य नहीं है तो कुछ भारी गड़बड़ है। पिछले आलेखों में बिखरे कारणों के अतिरिक्त यह आयोजन गड़बड़ ठंड को ऊष्मा दे द्रवित करने के लिये भी था और इसके लिये भी कि आत्मालोचन किया जा सके – कम से कम मैं तो यही चाहता हूँ।
एक बहुत ही सुन्दर सी अंग्रेजी फिल्म है – A Beautiful Mind. विलक्षण प्रतिभा के धनी लेकिन सीजोफ्रेनिया रोग से ग्रसित एक गणितज्ञ के जीवन पर यह फिल्म आधारित है। 
जिस विश्वविद्यालय में गणितज्ञ प्रोफेसर है, वहाँ peer recognition यानि साथियों द्वारा प्रशंसा की एक परिपाटी है। वहाँ के कॉफी हाउस या कैंटीन में जब लोग जुटे खा पी रहे होते हैं तो कोई एक खड़ा होता है और जिसे प्रशंसित करना होता है उसके आगे अपनी पेन रख देता है।... प्रोफेसर जिसे रोग के कारण ऐसे जन दिखते हैं जो वास्तव में होते ही नहीं, एक तरह से स्वीकारा जा चुका है और वह उन आभासी जनों को देखते हुये भी उन पर ध्यान देना बन्द कर चुका होता है। 
 वह साहस कर उस दिन कैंटीन में आता है जब नोबेल पुरस्कार समिति से एक व्यक्ति यह जाँचने के लिये आया होता है कि जिसे पुरस्कार देना है वह प्रोफेसर कहीं पागल तो नहीं? आखिर नोबेल के लेबल की बात है। कैंटीन में बैठा प्रोफेसर स्वीकारता है कि वह क्रेज़ी है, उसे रोग है, वह दवाइयों के बल चल रहा है और उसे अब भी वे लोग दिखते हैं जो हैं ही नहीं! 
ठीक उसी समय किसी  टेबल से कोई एक उठ खड़ा होता है और अपनी पेन प्रोफेसर के सामने रखता है – Professor Nash!... Its good to have you here John! और फिर तो एक एक कर जैसे पेन सामने रखने की झड़ी लग जाती है।
आगंतुक अचम्भित है और प्रोफेसर! आप स्वयं देख लें -  



...एक बहुत बड़ा हाल है ब्लॉगजगत। सब अपने अपने में रमे। ब्लॉग और ब्लॉगर या पाठक के विभेद को रखते हुये भी उसे भुला कर (और कोई राह नहीं थी), मैंने केवल आवाज़ दी कि जिसे पसन्द करते हो उसे कहो तो, उसके आगे अपनी पेन तो रखो!  और लोग अलग अलग मेजों पर पहुँचते गये, प्रशंसितों के नाम अपने आप जुड़ते गये, मैंने कुछ नहीं किया, नाम तक नहीं सुझाया।
...अनेक अनदेखे रह गये। कुमाउँनी चेली, बेचैन आत्मा, सत्यार्थ मित्रसंजय व्यास, मन का पाखी, सुदर्शन, वाणी गीत, अवधी कै अरघान, शिल्पकार के मुख से, महाजाल पर सुरेश चिपलूनकरदशमलव, रेत के महल, सिंहावलोकन, छम्मकछल्लो कहिस, शब्दों का सफर,  मैं घुमंतू, पुरातत्त्ववेत्ता, मल्हार, जय हिन्दी   ... जाने कितने। अनेक। इनमें वे भी हैं जिन्हें टिप्पणी करना छोड़ देने के बाद भी, आज भी मैं ई मेल से अपनी प्रतिक्रियायें भेजता रहता हूँ।  
...यह उनकी नहीं, मेरी सीमा थी, मेरी पहुँच की सीमा थी लेकिन अब मुझे उन तक पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता!
मैं अपनी पेन उन सबके सामने रखता हूँ आप का यहाँ होना शुभ है।

सीमायें:

लिखते हुये अपने दो आचार्यों की स्मृति हो आई है।  
डा. प्रसाद के सामने जब मैं अपनी थीसिस का ड्राफ्ट ले कर गया तो मेरे निष्कर्षों को देख उन्हों ने सबसे पहले कहा – Bold, too bold for a theorist. ग्रिड फ्लोर सिस्टम पर मैंने काम किया था जो कि कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग और गणितीय मॉडलिंग पर आधारित था। उस युग में मेन फ्रेम का यूनिक्स आधारित वह टाटा एलेक्सी कम्प्यूटर किसी भारतीय संस्थान में लगा दूसरा सबसे तेज कम्प्यूटर था। मुझे किलो के किलो कागजी प्रिंटों के परिणामों पर पूरा भरोसा था। लैब में तो मैं झाँकने तक नहीं गया था कि अनुप्रयोगात्मक अड़चनें आयें। 
इसलिये अपने निष्कर्षों में मैं बोल्ड था, बहुत बोल्ड। डा. प्रसाद ने मुझे अपने संकलन से जो दिखाया उससे मेरी सारी बोल्डनेस हवा हो गई! मैं ऊँचा इसलिये देख पा रहा था कि ऊँचे कदों के कन्धों पर खड़ा था जब कि चश्मा न लगने के बावजूद मेरी प्राकृतिक सी नज़र असल में धुँधली थी...

...फेसबुक, गुगल प्लस, ब्लॉग, ई मेल, चैट आदि तक ही मेरी पहुँच है और उनमें भी स्त्रियों तक तो बहुत ही कम है। तो मैं अपने निष्कर्षों में बोल्ड नहीं हो सकता। विनम्रता मेरे गुरुओं की सीख है। उनसे मुझे पूरी सहमति है।...

... अपने में मस्त रहने वाले एक थे डा. स्वामी ठीक कोमल कवि सुमित्रानन्दन पंत की तरह दिखते। अपनी दोनों बेटियों को अंगुली पकड़ाये झूमते जब आइसक्रीम खिलाने ले जाते तो साँझ पर ममत्त्व की ठंडी सी लेप लग जाती। हम लोग अपने माँ बाप को याद करने लगते। वह सिस्टम एनलिसिस पढ़ाते। सबको कंफ्यूज कर देते और मुझे बहुत समझ में आते।

एक बार उन्हों ने डाटाबेस के महत्त्व के बारे में बताया। उन्हों ने ऐसा कुछ कहा - सच जैसा कुछ होता ही नहीं! आप असल में जो देखते हो, मस्तिष्क उसका विश्लेषण कर चोर रास्ते ढूँढ़ लेता है, दौडा देता है रस्ते पर कि अंत में सच है जब कि वहाँ वैसा कुछ नहीं होता। अजीब है कि संसार ऐसे ही चलता है। 
 (ऐसी बातों के दौरान वे पूरे संसार को सिस्टम मान कुछेक सौ वैरिएबल्स की मदद से हुये एक कागजी अध्ययन की बात भी बताते जिसके अनुसार पर्यावरण पर तत्काल सुधारू कदम न उठाने पर संसार 2020 तक तहस नहस होना था और कदम उठाने पर 2020 तो बचने वाला था लेकिन 2040 में सम्पूर्ण विनाश होना था। मैं सुनता और मन ही मन कहता – सेत्ताराम! सेत्ताराम!!)

वह बोर्ड पर बड़े प्रेम से दो ग्राफ बनाते और बताते कि सच ऐसे ही दिखते हैं यानि कि या तो होते ही नहीं या ठीक उलट होते हैं। 
डाटाबेस की महिमा यहाँ भी लागू है और सर्वत्र भी।  
(टाइम पत्रिका के सर्वे में जाने कितनों ने कम्प्यूटर बदल बदल, ब्राउजर बदल बदल, कनेक्शन बदल बदल एक वोट को हजार वोट किये। मेरे यहाँ तो ऐसा नहीं हुआ, जाने उनका सच है या मेरा? डाटाबेस तो वाकई उनका बहुत बड़ा है।)  


  (मत प्रक्रिया के दौरान पाठकों ने जो कारण बताये वे अपने आप में एक बहुत ही गहन विश्लेषण की माँग करते हैं। उनके बारे में विस्तार से फिर कभी लिखूँगा। अभी तो यही लिखूँगा कि जारी, आलसी जारी है।)


जनप्रियता की चोटियों पर पहुँचे सभी के लिये ढेरों शुभकामनायें। 
उन्हीं की जुबानी कहूँ तो शुभकामनाओं में दायित्त्वों को और भारी करने का भाव अंतर्निहित है।     
     

30 टिप्‍पणियां:

  1. पोस्ट दो बार पढ़ चुका हूँ. गुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ.
    आयोजन को लेकर पूर्णतः निश्चिन्त था और शंका कोई मन में न थी.
    आगामी आयोजन से जुड़ना चाहूँगा, सनकी होने के बारे में पता नहीं. जवानी के देहलीज़ पर कई बार सब्सटेंस एब्यूज किया था जिसके फ्लैशबैक अभी तक ज़रूर आते हैं :)
    बाकी जो मन में है उसे मेल में विस्तार से लिख भेजूंगा.

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    1. आप की निश्चिंतता मेरी उपलब्धि।
      धन्यवाद जी। ज़ेन मेल की प्रतीक्षा रहेगी।

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  2. ब्‍यूटीफुल माइंड बीसीयों बार देखी है। फिल्‍म की शुरूआत में पेन रखने का दृश्‍य और आखिर में उसी दृश्‍य के साथ समाप्‍त होना, सीजोफ्रीनिया रोग से पीडि़त और नोबल पुरस्‍कार विजेता जॉन नैश के कैरेक्‍टर के साथ एक बेहतरीन न्‍याय था।

    आपने एक बार फिर ब्‍लॉगिंग का चस्‍का लगा दिया है। प्रतियोगिता और चयन के बहाने एक बार फिर उन ब्‍लॉगों में घूम आया, जहां कभी पहले जमा रहता था। ये सब वही ब्‍लॉग हैं। किसी पर अधिक समय तक टिका रहता था तो किसी पर कम। इनके अलावा भी बहुत से ब्‍लॉग हैं, जिन पर रातें गुजर जाती। पत्रकारिता में एक सधी हुई भाषा होती है, लेकिन वर्ष 2008 में सक्रिय रूप से लिखना शुरू करने के साथ ही मेरे लेखन में एक नयापन आने लगा। इसलिए नहीं कि लिख रहा था, इसलिए कि दुनिया जहान का पढ़ रहा था, फिर काम का बोझ बढ़ा और पढ़ने के साथ लिखने की रफ्तार भी कम हो गई। अब फिर से लिखने का मन बनने लगा है।

    पिछले पंद्रह दिन में रोजाना करीब बीस से तीस लेख पढ़ रहा हूं। पुराने लेख जिन्‍हें पहले कभी पढ़ चुका था, अब दोबारा पढ़ डाले। गिरिजेश जी आपको हृदय से धन्‍यवाद, एक बार फिर इस माध्‍यम को पुराने समय जैसा जीवंत बनाने के लिए...

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    1. आप का फिर से मन बना और आप ने जीवंतता का अनुभव किया, मेरा श्रम सफल हुआ।
      धन्यवाद।
      यह फिल्म मेरी अब तक की देखी फिल्मों में सबसे अधिक पसन्द है, वैसे मैं फिल्में बहुत कम देखता हूँ।

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  3. निशांत की तरह, मैंने भी इसे दोबारा पढा। इतने सुन्दर भवन के लिये जिसने भी दिठौना भेजा उसकी दानवीरता का गुणगान तो करना ही चाहिये, अच्छा किया जो आलेख की शुरूआत वहीं से की। अब मतलब की बात: आपकी भावना समझ आती है। हमलोग अक्सर कुछ अच्छा करना चाहते हैं, लेकिन कई बार कुछ कम-अच्छा (आप कोई अन्य शब्द का प्रयोग करने को स्वतंत्र हैं) उसका ट्रिगर बनता है। दोनों आचार्यों की बात पते की रही। माया भविष्यवाणी और स्कीज़ोफ़्रीनिया पर बात फिर कभी। फिलहाल तो बधाई, इस आयोजन के लिये।

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    1. :)
      अमिय सराहिय अमरता , गरल सराहिय मीचु।

      आप की विधेयात्मक सक्रियता पूरे आयोजन के लिये आशीर्वादी अभिषेक की तरह रही। नो थैंक्स।
      हाँ, बधाई के लिये धन्यवाद।

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  4. ब्यूटीफुल नाम आता हो जिसमें एक ऐसी फिल्म देखी है हमने लेकिन वो Life is beautiful थी, ये वाली भी देखना चाहेंगे अब|
    जो आयोजन हो चुका, उसमें मैं खुद को अप्रत्याशित रूप से लाभान्वित स्थिति में पा रहा हूँ इसलिए इसकी विश्वसनीयता, पारदर्शिता पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता| सिर्फ इतना जानता हूँ कि यहाँ रिज़ल्ट कुछ भी रहता. विशवास नहीं डोलने वाला था|
    थोडा बहुत सनकी मैं भी हूँ,मेरे लायक कुछ काम हो तो अपने सीमित ज्ञान\समय\प्रतिबद्धता के साथ अगले आयोजन से जुड़ना पसंद करूँगा| शुभकामनाएं तो अभी ही दिए देता हूँ|

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    1. विश्वास ही वह गठरी है जिसके सहारे कुछ यायावर राजमार्ग छोड़ पगडंडी अपनाते हैं।
      जब कोई कुछ लिख भेजता है तो उसके साथ सामने वाले की सदाशयता पर विश्वास भी आता है। यह बहुत ही गम्भीर बात होती है - अनंत आदर देने लायक।

      धन्यवाद।

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    2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    3. संजय जी - मेरा नाम तो ६६ में भी नहीं था [ sooooo saaaad :( ..........., :) ] - किन्तु जैस आपने कहा " सिर्फ इतना जानता हूँ कि यहाँ रिज़ल्ट कुछ भी रहता. विशवास नहीं डोलने वाला था| "

      सहमत हूँ - यह चन्द्रहार सच ही चन्द्र हार है - अनमोल, खूबसूरत, निर्दोष, पारदर्शी, इमानदार |

      गिरिजेश जी आपको कई कई बधाइयाँ और आभार इस खूबसूरत हार को सजाने / संजोने के लिए |

      ------

      and also girijesh ji - थैंक्स फॉर इन्क्लुडिंग में इन दिस - " ...अनेक अनदेखे रह गये। कुमाउँनी चेली, बेचैन आत्मा, सत्यार्थ मित्र, संजय व्यास, मन का पाखी, सुदर्शन,वाणी गीत, अवधी कै अरघान, शिल्पकार के मुख से, महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर, दशमलव, रेत के महल,सिंहावलोकन, छम्मकछल्लो कहिस, शब्दों का सफर, मैं घुमंतू, पुरातत्त्ववेत्ता, मल्हार, जय हिन्दी ... जाने कितने। "

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  5. हर आयोजन की अपनी सीमायें हैं, नभ और आकाशगंगाओं की भी होती हैं। यहाँ महत्वपूर्ण और पते की बात वही है जो अनुराग जी ऊपर लिख गए हैं - आपकी भावना!
    आत्मविवेक से पोषित जन जानते हैं कि किस समय, काल और वातावरण में उनका स्थान क्या है, होना चाहिए। वास्तव में प्रशंसित व्यक्ति सच्ची प्रशंसा करना भी जानते हैं।
    पुरस्कारों को ले मैं हमेशा उदासीन रहा हूँ, पर यहाँ बात परिणाम की न थी, प्रक्रिया की थी, जैसा कि संजय जी कहते हैं। क्रम में थोडा फेरबदल होने ने भी कोई सदाशयता कम न होनी थी इस आयोजन की।
    'प्रशंसा माह' आयोजन से याद आया, 'थैंक्स गिविंग डे' पर दूर देशों से आने वाले नोट/मेल कितना हर्ष दे जाते हैं।
    A Beautiful Mind देख रखी है, अच्छी फिल्म है।
    अपने गुरुजनों की बहुत सी बातें याद हो आयीं- उनपर फिर कभी।
    सभी पुरस्कृत वरीय जनों को बहुत बधाई।
    इस स्वच्छ-मधुप आयोजन की सफलता की शुभकामनायें स्वीकारें हे भारशिव!

    PS: घर से निकलते हुए दिठौना दिखा, अच्छा हैं। :)

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    1. ये ल्लो! आप निकलने के बाद देखे, प्रवेश करने के पहले न देखना था। कोई बात नहीं आप की नज़र तो सर्वदा शुभ होती है। :)
      सीमाओं को आप ने acknowledge किया, धन्य हुआ कि आप ने भाव को समझा और सराहा। धन्यवाद।

      हटाएं
  6. सार्थक और मजेदार रही पूरी प्रक्रिया, परिणाम सहित.

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  7. मन का होना समझ आता है, मन का कुछ हो जाना भ्रमित कर जाता है, विचारों में तत्व बना रहे..

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  8. @वह सिस्टम एनलिसिस पढ़ाते। सबको कंफ्यूज कर देते और मुझे बहुत समझ में आते।


    आचार्य .... बहुत प्रोब. होती है, अब देखिये न २ बार पढ़ चुना हूँ आपकी पोस्ट, तीसरी बार फिर देखि ओर मात्र ये जाना :
    सर्वप्रिये ब्लॉग उपर लगे रहेंगे, दिसम्बर तक
    जनवरी से अगले वर्ष के ब्लोगर चुने जायेंगे :)

    बकिया उ चार्ट-वार्ट अपनी समझ में नहीं आये :)

    बाकि पांडेय जी सही बोले हैं : विचारों का तत्व बना रहे .

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    1. विचारों का/में तत्व के बारे में आप लोगों के मतैक्य से अवगत हुआ। :)

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  9. बहुत ही अच्छा लगा सब कुछ, सच पूछिए तो पहली बार एक अजीब सी तृप्ति का अनुभव हुआ है इस ब्लॉग जगत में, नहीं तो कहीं कुछ अटका सा रह ही जाता था...यहाँ सब निष्पक्ष और विश्वासपूर्ण था...
    मेरी पसंद की एक बेहद बेहतरीन फिल्म A Beautiful Mind का ज़िक्र देखकर और भी ज्यादा ख़ुशी हुई...Russel Crow का लाजवाब अभिनय,
    यह सिर्फ़ फिल्म नहीं है, ज्ञान है, कुछ भी असंभव नहीं है, अगर आप करना चाहे तो, और अगर आपके अपनों का साथ हो तो, प्रोफसर Nash की पत्नी Alicia को ना भूलें जो संग खड़ी रही हर पल...
    सब आनंदम, आनंदम है यहाँ..हम वैसे ही तो लोहा नहीं मानते न आपका :)
    आभार

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    1. मैं भी प्रसन्न हूँ :)
      ... बिना पत्नी के गृहस्थ क्या कर सकता है? अभी कमेंट लिखते हुये भी घी की ककोरी चीनी के साथ चाभ रहा हूँ - कर्टेसी श्रीमती जी।

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  10. मत प्रक्रिया के दौरान पाठकों के बताए कारण और उसका विश्लेषण जानने की उत्कंठा है। क्या कारण होते है जो ब्लॉग सर्वाधिक पसंद किए जाते है।
    यह तो निश्चित है कि दायित्वबोध प्रगाढ़ होता ही है।

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    1. जी, फिलहाल के माहौल में पाठकों के बताये कारणों का मुजाहरा हो रहा है। थोड़ी शांति हो जाय तो देखेंगे। वैसे आशा कम ही है। बहुत काम बाकी पड़ा है रे बाबा! आगे आगे देख। :)

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  11. ओझा को यहाँ पर देखना सुखद लगा, बाकी कोई और ब्लॉग को लेकर हैरानी नहीं हुई.

    कुछ बातें हैं मन में, लोग मुझसे झगडा नहीं करते इसलिए कह देता हूँ.
    सर्वप्रिय ब्लोग्स मैं इन्हें नहीं कहूँगा. क्योंकि एक तो आपने आखिर कितने लोगों को निमंत्रण भेजा होगा, बहुत सारे लोगों को निमंत्रण आपने ही नहीं भेजा होगा. आपकी स्वयं की एक विचारधारा है, इसलिए स्वयं के संकोच को त्यागकर, उदार बनकर आपने बहुत सारे विपरीत विचारधारा वाले लोगों को अपनी राय रखने को अगर कहा भी होगा, तो वे संकोच कर गए होंगे. या कि बहुत सारे लोग इस आयोजन का हिस्सा ही नहीं बनना चाह रहे होंगे. इसलिए जो भी मत आये होंगे वे नितांत परिजनों के रहे होंगे. यह सब कहने के बाद ओझा का यहाँ होना भी हैरानी नहीं पैदा कर रहा.

    लेकिन, सच यह भी है कि यह केवल आप थे जिन्होंने लोगों की राय ली है, अब से पहले पुरस्कार देने वालों ने तो किसी की राय लेनी भी जरुरी नहीं समझी. और यह भी एक अजीब सा सच है कि जो ब्लोग्स सबसे ज्यादा पसंद किये जाने वाले बताये जाते थे, वही सबसे ज्यादा नापसंद भी किये जाते रहे हैं, हालांकि ऊंची आवाज में इसे कोई कहेगा नहीं. इस प्रतियोगिता से वो ब्लोग्स चुन कर आये हैं जिन्हें लोग पसंद तो एक हद तक करते ही हैं, लेकिन जिन्हें नापसंद करने वाले बेहद कम हैं. मैं कभी ओझा को नियमित नहीं पढता हूँ, परन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनका कोई पोस्ट पढने पर मैंने कहा हो, कि क्या बोर करता है यार ये.*

    जिन लोगों को भी आपने निमंत्रण भेजा और उन्होंने अपनी राय दी या नहीं दी, उन्हें यह कहने का कोई अधिकार नहीं कि यह गलत है, या यह असत्य है. उन्हें जनमत पर विश्वास नहीं है, शायद. आप पर अविश्वास करना आपके साथ ही ज्यादती होगी. सार यह है कि आप वाकई बधाई के पात्र हैं जिन्होंने इतने बड़े आयोजन को सफलता से संपन्न किया. यह चाय पानी का बंदोबस्त नहीं था, बल्कि एक चुनाव प्रक्रिया थी जिसमे सारे मेल, चैट, ब्लोग्स, और भी अनेक माध्यमों को आपने देखा, सांख्यिकी और गहन विश्लेषण था, और बेशक काफी परिश्रम भी था. मेरे जैसे लोगों को कम से कम यह मेहनत देखकर तो कुछ बोलने में शर्म करनी चाहिए.

    वे सभी लोगों को भी शुभकामनाएं जो सर्वप्रिय ब्लोग्स की सूची में स्थान बनाने में कामयाब रहे.

    * ओझा अपने ही वय के हैं, अतः उनका उदाहरण रखना धर्मसम्मत लगा. यकीन है वे इसका बुरा नहीं मानेंगे.
    ** आपमें से बहुत सारे लोगों की मैंने नेगेटिव मार्किंग की थी. उसकी जायज़ वजहें भी लिखीं थी.

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    1. धन्यवाद। आप को विशेष। आप जैसे युवाओं के 'बेबाक कारण' बहुत ही तोषदायी रहे और समझने में बहुत सहायता मिली...
      ...बाकी के बारे में यही कहूँगा कि सब कुछ इस आलेख में लिखित है। आप दुबारा पढ़ेंगे तो अवश्य समझेंगे।

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  12. ज्ञानदत्त जी का लेखन अच्छा है उनके उठाये कई मुद्दे भी रोचक लगते हैं .
    मो सम कौन .?.पहले शायद कभी पढ़ा हो ,याद नहीं..
    नए ब्लोगों से परिचय हुआ ,आभार.

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    1. अपनी बात बताने के लिये आप का आभार।
      'मो सम कौन' में जो मौलिकता है और जो perspective है वह बहुतों को आकर्षित करता है। पाठकों के साथ होते संवाद भी बहुत जीवंत होते हैं।
      मानसिक हलचल और इस ब्लॉग के अतिरिक्त भी जो आठ ब्लॉग हैं, एक से बढ़ कर एक हैं। पढ़ कर स्वयं समझ जाइयेगा। ... बाकी मेरी सीमाओं को तो आप ने पढ़ ही लिया होगा।

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  13. मंदिर में पूजन के बाद पहली पंक्ति में खड़े लोंग पा जाते हैं प्रसाद , पीछे खड़े पवित्र जल की छींटों से खुश हो जाने वालों जैसी अनुभूति हुई अनदेखे में शामिल होकर भी ...

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    1. अच्छी संगत देख के संगी बदले रूप
      जैसे आम के साथ में मीठी हो गइ धूप।

      सबकी पूजा एक सी अलग अलग है रीत
      मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत।

      हटाएं

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