मंगलवार, 12 जून 2012

हवन

इस साँझ जब कि बाहर लू से घिरा हूँ और भीतर संतृप्ति की शीतलता है, सुख है, आनन्द है, उत्सव के सकुशल बीत जाने पर संतुष्टि है; एक प्रिय कविता 'हवन' पढ़ने का मन कर रहा है। 
श्रीकांत वर्मा  के ये शब्द तब तक मेरी टेबल के शीशे के नीचे रहे, जब तक मैं फील्ड में रहा। जाने क्यों इन्हें देखते बहुत शक्ति मिलती थी। जाने पढ़ता था या नहीं, देखता अवश्य था।

अरसे बाद आज पुन: पढ़ रहा हूँ, मन ही मन - बोल कर नहीं: 

चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा? 

पहले मैं झुलसा, फिर धधका
चिटखने लगा
कराह सकता था
मगर कैसे कराह सकता था?
जो कराहेगा
कैसे निबाहेगा? 

न यह शहादत थी, न यह उत्सर्ग था
न यह आत्मपीड़न था
न यह सजा थी
तब क्या था यह?

किसी के मत्थे मढ़ सकता था
मगर कैसे मढ़ सकता था?
जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा!
*********

*************


.... कल से कोणार्क की ओर, आप मेरे साथ रहेंगे न?  

9 टिप्‍पणियां:

  1. सही में......

    तब क्या था यह?

    नहीं समझ पाए इसे,

    कभी कहता हूँ,
    तपस्या है ये = फल मिलेगा.

    कभी
    कर्म हैं ये = भुगतने पड़ेंगे.

    नहीं के सकता
    तब क्या था यह?

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  2. आप को मेरी पिछली पोस्ट समझ में नहीं आई और मुझे आप की यह टिप्पणी।
    साता पाता बराबर! आन्ही मानी दोष... हा, हा, हा :)

    वैसे आप की 'चेष्टा की चेष्टा' बहुत पसन्द आयी। जी+ पर टिपिया आया हूँ।

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  3. स्वीकार तो करना ही होगा, जैसा भी है, जो भी है, वहाँ से पुनः दिशा हो, उत्तर।

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  4. जो कराहेगा
    कैसे निबाहेगा?

    बेजोड़ रचना...साझा करने का शुक्रिया...

    नीरज

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  5. सही कहा!
    जो होनी थी वह हो रहती, अब अनहोनी का होना क्या?

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  6. हमारे 'राजा बाबू' से सुना था 'a picture in the room is the picture in the mind of a person' टेबल के शीशे के नीचे रखे कागज़ के लिए भी इसे इस्तेमाल कर ही सकते हैं| मेरे अपने कमरे में स्वामी विवेकानंद की तस्वीर हमेशा रही है, छाती पर हाथ बंधे हुए - उठो, जागो और ..|

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  7. दिल है तो धड़कने का बहाना कोई (क्यूँ) ढूंढे?

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