बुधवार, 27 जून 2012

एक पुनर्प्रस्तुति - मोलई माट्साब

कभी कभी ऐसा समय सामने आ जाता है जब आप अवाक हो बस देखते रहते हैं। बीच बीच में आँखें मलते रहते हैं कि क्या यह सच है जो सामने घटित हो रहा है? सब कुछ बुलबुलों जैसा लगने लगता है - सच लेकिन फूटता हुआ, अस्तित्त्व का सातत्त्य अस्तित्त्व के निरंतर भंग होने से ही बनने लगता है। आप उलझ जाते हैं कि सचाई है क्या बला? 
अचानक ही ऐसी ही एक दीवार के आगे अपने को खड़ा पा रहा हूँ। आँखें साथ छोड़ती सी लगने लगी हैं - इधर बहकीं, उधर बहकीं, किधर बहकीं? और मन अवसाद में धसता जा रहा है... नहीं, कारण ब्लॉगरी या ब्लॉग जगत से जुड़े हुये नहीं हैं , नितांत व्यक्तिगत हैं। Man proposes and destiny disposes पर यकीन करने को मन करने लगा है, वैसे भी मेरे करने या न करने से क्या होता है? 
ऐसे में अपनी एक कहानी पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसका सम्बन्ध भी किसी तरह से वर्तमान के घटित से नहीं है। बस ऐसे ही ...
(इस कहानी का किसी जीवित या मृत व्यक्ति या नई पुरानी घटना से किसी तरह का साम्य संयोग मात्र है। सचाई का कोई दावा नहीं और न ही किसी दावे पर कोई विचार)
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प्रस्तावना:
दुनिया में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनके बारे में लिख कर बताना बहुत कठिन होता है। अनिवार्य रूप से उनके चर्चे उनसे पहले आप तक पहुँचते हैं और जब उनके आधार पर आप एक व्यक्तित्त्व गढ़ चुके होते हैं तो किसी दिन अचानक वे साक्षात होते हैं और आप की सारी गढ़न एक क्षण में ध्वस्त हो जाती है। बात वहीं समाप्त नहीं होती, आप के लिये वे ज्यों ज्यों पुराने परिचित होते जाते हैं त्यों त्यों नये भी होते जाते हैं। अर्थ यह कि आप उनके बारे में कभी कुछ अंतिम सा नहीं सोच समझ पाते और एक दिन पता चलता है कि उन्हों ने अंतिम साँसें भी ले लीं। आप बाकी जीवन और परिचितों के साथ बैठ कर यह समझने की नासमझ कोशिश करते रहते हैं कि आदमी कैसा था!

मोलई माट्साब ऐसे ही थे। उनके बारे में सोचते ही लोगों को उनकी मूँछें सबसे पहले ध्यान में आती हैं। मूँछ भी कोई चीज होती है भला? लेकिन जब बाईं ओर की मूँछ म्यूनिसिपलिटी के झाड़ू सी हो और दाईं ओर की घर के फूल झाड़ू जैसी तो समग्र का चीज कहलाना स्वत: हो जाता है। माट्साब जब तब मूँछों को हाथ फेर सँवार दिया करते थे जिसके लिये वे चारो अँगुलियों का प्रयोग सहलाते हुये करते। उस समय वह यह ध्यान रखते कि एक तरफ के बाल सीधे रहें और दूसरी ओर के घुँघराले से। टेरीकाट का पीलापन लिये कुर्ता, खादी की धोती और पाँव में प्लास्टिक के जूते। यह उनका पहनावा था। कुर्ते का एक ही तरह का कपड़ा और रंग देख कर लोगों को यह भ्रम हमेशा बना रहता कि उनके पास एक ही था या एक ही सूरते रंग के कई थे? इस बात की पूरी सम्भावना है कि एक समय में उनके पास एक ही रहता। सिर के केशों पर कभी कंघा नहीं फिरा। उनके लिये पाँचों अंगुलियाँ पर्याप्त थीं। मझोले कद के थे और शरीर का वर्ण गेहुँआ था।

वे गणित के अध्यापक थे। बेजोड़ अध्यापक। उनके नैष्ठिक विद्यार्थियों में कोई ऐसा नहीं होगा जिसे कनिष्ठका, अनामिका, मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों के अनुपात 1:1.25:1.5:1.15 अभी तक याद न हों। जिस किसी ने इस अनुपात पर प्रश्न उठाने का साहस किया, नैष्ठिक विद्यार्थी नहीं रह पाया। उसे माट्साब व्यक्तिगत बातों के चौथे सूत्र से अभिषिक्त कर देते थे – पाड़ा!
बाकी तीन सूत्र यह थे – हमार बचिया, हमार चटनवा और हमार भैंसिया। ये तीन सूत्र उन्हें 3:1 के अनुपातांतर से विकराल श्रेणी के परिवारकेन्द्रित व्यक्ति के रूप में स्थापित कर देते थे। किसी को यह नहीं पता कि अपने घर के भीतर उनका अपने परिवारियों – बचिया यानि बेटी, चटनवा यानि बेटा और भैंसिया यानि भैंस से संवाद किस तरीके का होता था। हाँ, भैंस की संतान का पद अनुपात प्रश्नकारी शिष्य के लिये आरक्षित रहता।

वे अपने माँ बाप के दसवें और एकमात्र जीवित संतान थे। नौ की अकाल मृत्यु होने के बाद दसवें की बेरी उनकी माता से बगल के गाँव की एक नट्टिन ने उन्हें बिन पैदा हुये ही मोल लिया था। उनकी माँ ने यह टोटका इसलिये किया कि बच्चा जीवित रहे। इस दृष्टि से उनका नाम ‘बिकाऊ’ होना चाहिये था लेकिन नट्टिन की मर्जी से नाम ‘मोलई’ रखा गया। नाम बिगाड़न की परम्परा को जारी रखते हुये उन्हों ने अपने बेटे का नाम सिर्फ इसलिये चटनवा रख दिया कि उसे बचपन में अपनी जीभ निकाल होठ और अगल बगल जहाँ तक हो सकता था, चाटने की लत थी। माजरा खासा कौतुहलपूर्ण होता था। बाप का बिगाड़ा नाम हाईस्कूल में चतुर चन्द प्रसाद और बाद में डा. सी सी प्रसाद हो जाने के बावजूद प्रबल रहा। उनका बेटा कस्बे के जान पहचान वालों के लिये चटनवा ही रहा। डाक्टरी पास कर लेने के बाद मामूली से संशोधन के साथ डगचटनवा हो गया।
मजबूरी में बेचारे को क्लिनिक दूसरे कस्बे में खोलना पड़ा।

मोलई माट्साब सूद का धन्धा करते थे। खुद पर खर्च कुछ खास था नहीं और भैंस के साथ बच्चों को भी बहुत मितव्ययिता से रखते थे। जिस समय बन्दगोभी पन्द्रह रूपये मन होती और भूसा बीस रूपये, उस समय बिना मात्रा या पोषण मूल्य या किसी और बात की परवाह किये वे भैंस को भूसे का मात्रास्पर्श दे बन्दगोभी की छाँटी खिलाते और घर में भी उसी की सब्जी बनवाते। भैंस पर इतना आतंक रहता कि वह चुप चाप इस राशनिंग को स्वीकार करती और दूध देती रहती। भैंसे आती जाती रहीं लेकिन माट्साब का दिब्य प्रभाव जमा रहा। बचत होनी ही थी और बैंकिंग तंत्र पर भरोसा न रखने के कारण वह नट्टिनटोले को अपना बैंक बना लिये। उनकी सुबह नहा धो कर नट्टिनटोले की लछमिनिया के दर्शन से शुरू होती – ठीक साढ़े सात बजे। लोग कहते कि चाहे तो घड़ी मिला लो, एक मिंट का भी फर्क नहीं मिलेगा। उस समय उनके कन्धे से झोला टँगा होता जिसमें कॉपी और दो रंगों की स्याही वाले पेन होते। माट्साब तगादा करते, वसूली करते और नई उधारी करते। उस दौरान उनके मुँह से धाराप्रवाह गालियाँ निकलती रहतीं। सच कहा जाय तो कस्बे में नट्टिनों से गाली जंग में विजयी रहने वाले वह अकेले शख्स थे। सवा नौ बजे बेटी के हाथ की बनी रोटी दूध के साथ खाकर वह स्कूल की ओर चल देते। उस समय वह एकदम मास्टर होते। बेटी के खाना बनाने के लायक होने से पहले वह खुद राँधा करते थे – बारहो महीने खिंचड़ी दूध। जय गुरु गोरख! जय महिमा!!

बचिया:
सुरेसवा उनका खास चेला था और आजन्म चेलवाई निभाता रहा। हुआ यूँ कि हाईस्कूल में सात दिनों तक कक्षा से फरार रहने के बाद जब एक दिन अचानक गली में वह उनसे मुखातिब हुआ तो मारे डर के उसे पसीने छूट गये लेकिन माट्साब ने उससे उस बावत कुछ नहीं कहा। उन्हों ने कहा,”हमार बचिया, राति राति भर पढ़ती है। जब भी रात में पेशाब करने के लिये उठता हूँ, खड़ाऊँ की पहली खट से ही उठ जाती है और पढ़ने लग जाती है”।

इस अप्रत्याशित सी बात से सुरेसवा स्तब्ध रह गया। अगले दिन से उसने पढ़ाई छोड़ बाप की दुकान पर बैठना शुरू कर दिया और शाम को उनके घर आ कर उनसे व्यावहारिक गणित पढ़ने लगा जिसे वे बैदिक गणित कहा करते थे। यावदूनम, आनुरूप्येण सूत्रादि रटते, सीखते हुये वह प्रेम पूर्वक हमार बचिया की पढ़ाई के बारे में सुनता उसके प्रेम में गिरफ्तार होता गया और माट्साब का मानसिक गणित मन में मन की ही रफ्तार से भागता रहा। यह एक ऐसा मामला था जिसमें किसी को जल्दी नहीं थी। माट्साब को ट्यूशन की बढ़िया कमाई हो रही थी जिसका निवेश नट्टिन टोले में हो रहा था। सुरेसवा के पिता लालाराम को जल्दी नहीं थी – आवारा बेटा अनुशासित हो चला था, दुकान सँभालने लगा था और कुछ सीख रहा था। जब उन्हें नहीं थी तो सुरेसवा और बचिया को किस बात की होती?

दो वर्ष बीत गये और लगातार दस दिनों से माट्साब का गुणकसमुच्चय: समझ पाने में असफल रहे सुरेसवा ने तय किया कि अब विलोकनम् से आगे की क्रिया होनी चाहिये। उसने माट्साब से विदा माँगी जो मिल गई। अगले ही दिन गुरुदक्षिणा रूप दुहिता अपहरण कांड सुरेसवा के द्वारा सम्पन्न हुआ। कस्बे में हाहाकार मच गया पर माट्साब अगले दिन भी साढ़े सात बजे नट्टिन टोले में माँ बहन कर आये और उसके बाद थाने में रपट लिखा कर निश्चिंत हो गये।

आजकल अखबार के लोकल वरिष्ठ सम्वाददाता बोधी बाबू कामरेड ने इस प्रकरण में खास रुचि ली। उनके सद्प्रयासों से बचिया निकट के शहर से मय सुरेसवा बरामद हो गई। उसे तो कुछ नहीं हुआ लेकिन पूछ्ताछ के दौरान हुई बातचीत में सुरेसवा ने इतनी तेजी से उत्तर दिये कि उसके आगे के दो दाँत टूट गये। आतंकित दारोगा जी ने आगे पूछ्ताछ न करने का निर्णय ले मामला रफा दफा कर दिया। दोनों के घर वालों को कुछ खास नहीं पड़ी थी।

माट्साब ने इसके बाद अपनी महानता दिखाई। शहर के आर्यसमाज मन्दिर में साथ जा कर बचिया और सुरेसवा की शादी करा दिये। लालाराम को जीवन का सबसे बड़ा घाटा झेलना पड़ा लेकिन वह कर ही क्या सकते थे? बोधी बाबू इस घटना से इतने प्रभावित हुये कि अखबार के भीतरी भाग में चौथाई पृष्ठ घेरते हुये मोलई कामरेड के जातितोड़ू क्रांतिकारी काम की क्लिष्टतम शब्दों में प्रशंसा छप गई। वे सर्वहारा मसीहा हो गये जिन्हों ने एक खामोश क्रांति का सूत्रपात किया था। अंतिम पंक्तियों में नट्टिन टोले में उनके द्वारा किये जा रहे आर्थिक सुधारों का लेखा जोखा था। सम्भवत: सूद तक आते आते स्थान चुक गया था सो वह नहीं छपा था लेकिन समाचार लेख को पढ़ने से अधूरेपन का अहसास तो होता ही था।

माट्साब को कामरेडी से अच्छा नट्टिन टोले में अपना काम सुहाता था, लिहाजा वे स्थितप्रज्ञ बने रहे। अगले हफ्ते ही बचिया के दहेज के बच गये रुपयों का निवेश भी नट्टिन टोले में करने का उन्हों ने निर्णय लिया। उनसे यह ग़लती हो गई कि बोधी बाबू कामरेड के आँगन अक्सर पाई जाने वाली जट्टा नट्टिन को उसमें से हिस्सा नहीं मिला। अगले दिन आजकल अखबार में ठीक उसी पन्ने में उतनी ही जगह में रंगे सियार मोलई मास्टर की सूदखोरी की चर्चा थी। विद्वान किस्म के जिन लोगों ने भी पढ़ा, यह कहते हुये प्रशंसित किया कि अब लेख पूरा लग रहा है, पहले वाला तो लेखन से ही अधूरा लगता था। बोधी कामरेड वाकई काबिल आदमी है।

माट्साब फिर भी स्थितप्रज्ञ बने रहे। बचिया के विदा हो जाने के बाद वापस खिंचड़ी और दूध का आहार शुरू कर दिये। उन्हों ने चटनवा को दलाल जिह्वा पर ध्यान न देकर विद्यावातायन नेत्रों से पढ़ाई पर ध्यान देने की हिदायत दी और जीवन फिर यथावत हो चला।
अनुपातांतर 2:1 रह गया क्यों कि उसके बाद उन्हों ने अपने श्रीमुख से कभी हमार बचिया नहीं उचारा। उनकी दुनिया हमार चटनवा, हमार भैंसिया, पाड़ा और अदृश्य सूद पर केन्द्रित हो गई। बचिया तो किसी अज्ञात प्रमेय की ‘इति सिद्धम्’ होकर सेठाइन बनी सुख काट रही थी। फिक्र किस बात की?

सब प्रकरण समाप्त होने के बाद एक दिन सुरेसवा उनके यहाँ आया और यह कह कर चरण स्पर्श करने के बाद चलता बना कि माट्साब मैं आप का दामाद नहीं, हमेशा चेला ही रहूँगा। इस पर माट्साब ने अपनी दुर्लभ मुस्कान की छ्टा बिखेर दी थी।

क्षेपक:
(मोलई माट्साब की जिन्दगी जाने कितने क्षेपकों से भरी थी। एक नमूना यह है)।

बैसाख के महीने में स्थानीय चुनाव आ पहुँचे। कस्बे के लिये न तो चुनाव कोई नई बात थे और न उनमें खानदानी पार्टी का हमेशा जीतना लेकिन इस बार खास बात यह हुई कि लाल पार्टी ने सेंध लगाना तय किया। इस दिशा में जमीनी स्तर पर काम और श्रीमार्क्साय नम: करने के लिये बोधी कामरेड चुने गये और स्थानीय चुनाव में पार्टी प्रत्याशी बना दिये गये। पब्लिक ने इसे मजाक की तरह लिया – ऐसे चुनावों में दलगत बातें! बोधी कामरेड खुद विधानसभा से नीचे उतरने के पक्ष में नहीं थे लेकिन पलट बूरो को ज़मीनी समझ नहीं थी, किताबी हिसाब से कदम एकदम सही था और बोधी कामरेड अनुशासनबद्ध थे, लाल बिगुल बज उठा। पहली बार कस्बा पोस्टरों से लाल लहा हो उठा।

बोधी कामरेड किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में थे जब कि लोहा लाल हो और हँसिया हथौड़ा बनाने को वार किये जायँ। दिन कम रह जाने पर उन्हों ने खुद कुछ करने का निर्णय लिया और जट्टा नट्टिन के सौजन्य से नट्टिन टोले में आग लग गई – बैसाखी आग में सब स्वाहा हो गया। बोधी कामरेड को सहायता कर वोट बटोरने की ललक नहीं थी। वे इतने मूर्ख नहीं थे। उन्हें तो नटों से बच रही पब्लिक को कुछ दिखाना था लेकिन इस चक्कर में वह एक महामूर्खता कर चुके थे। ऐसा सोचते और करते वे मोलई माट्साब को भूल गये थे।

आग दुपहर के पहले लगी थी। रस्मी सहानुभूतियों के समाप्त हो जाने के बाद अगले दिन नट्टिन टोले में बोधी कामरेड की सभा होनी थी लेकिन किसी भी हाल में वह साढ़े सात बजे से पहले नहीं हो सकती थी और साढ़े सात माने मोलई माट्साब का टोले में आगमन!
माट्साब को अपना अर्थ साम्राज्य ढहता नजर आया। बंजारा किस्म के नट जाने क्यों इतने वर्षों से यहाँ टिके हुए थे लेकिन अब? शिवस्थान के पीपल तले चबूतरे पर वह खड़े हो गये और नटों को बुलाने लगे – ए मकोदर! लछमिनिया रे! ए ढैंचिया! विपत्ति थी लेकिन माट्साब तो रोज की चीज थे! पब्लिक जमा हो गई। माट्साब ने सामने के जनसमूह को देखा और उन्हें ज्ञान की उपलब्धि हुई।

पीपल मूलधन की तरह था और चबूतरा सूद। पीपल की सरपरस्त छाँव में और चबूतरे के ठोस मजबूत आधार पर उनका वजूद खड़ा हुआ था, जिन्हें चारो ओर से गरीबी, भूख, रोग और दुख की बाढ़ घेरे हुये थी। लहरें भयानक हुईं तो पहले चबूतरा बहेगा, फिर पीपल ढहेगा। बेसिक नियम याद आया – खूँटा न हो तो भैंसिया के हेराते देर नहीं लगती। उन्हें किसी उपन्यास का वाक्य याद आया – राम करुणा वरुणालय हैं। भीतर करुणा लहरा उठी। सामने संतप्त जनों की वरुणा थी। बस आलय की कमी थी। खूँटा मास्टर! खूँटा!! और मोलई माट्साब राम और बुद्ध की करुणा परम्परा से जुड़ गये – साल भर का सूद माफ। हर घर को झोंपड़ी के लिये चार बाँस और चार बोझा फूस मिलेगा (उनकी भरपाई के बारे में भविष्य देखते हुये वह चुप रहे)।

रही सही कसर परम चेले सुरेसवा उर्फ सेठ सुरेशराम ने पूरी कर दी। हर घर को एक एक बोरी चावल पहुँच गया। उस समय बोधी कामरेड कस्बे की दीवारों पर लिखने के लिये क्रांतिपाठ फाइनल कर रहे थे। दल बल के साथ लेट लटाव होते जब बोधी कामरेड नट्टिन टोले पहुँचे तो सभी वयस्क छान छाने में लगे हुये थे और बच्चे अपनी अपनी थरिया में भात चटनी का प्रसाद पा रहे थे। जैसे सब कुछ सामान्य था। स्थितप्रज्ञ मोलई माट्साब क्रांति के बीजगणित को पहले ही हल कर गये थे।

अगले दिन अखबार में बीच के पन्ने पर आग की घटना पर सिर्फ शोक जताया गया। अंतिम वाक्य में खानदानी पार्टी की ओर इशारा था। कहना न होगा कि जिसे जीतना था वही जीता। बैसाख महीने की इस घटना ने मोलई माट्साब और उनके चेले दामाद की साख बढ़ा दी।

चटनवा और भैंसिया:

चटनवा और भैंसिया में संतान और माता जैसा सम्बन्ध था। बस इस दृष्टि से चटनवा को 'पाड़ा' कहा जा सकता था, वरना वह दिमाग से तेज था। यह सम्बन्ध इस तथ्य से और प्रगाढ़ हो जाता था कि एक विशेष जैविक सम्बन्ध के अलावा हर तरह से मोलई माट्साब भैंसिया को वैसे ही समझते और रखते थे जैसे कोई सद्गृहस्थ अपनी घरैतिन को। भैंसिया भी राँधने और घर सँभालने के अलावा घरैतिन की तरह ही रहती थी। जब दोनों बाप बेटे स्कूल चले जाते तो लम्बे पगहे से बँधी भैंसिया घर की रखवाली भी करती थी।

जगविदित है कि भैंसे बदलती रहती हैं जब कि गृहस्थ वही रहता है लेकिन माट्साब ने इस बावत इस नियम का पालन किया था कि नई भैंस में पुरानी वाली के जीन हमेशा रहें। इस तरह से किसी भी क्षण उनके दुआरे पाई जाने वाली भैंसिया मातृपक्ष की जीवंत परम्परा का सशक्त उदाहरण होती थी।
चटनवा भैंस का दूध दूहता था। अपने लिये कुछ बचा कर भी रखता था जिसे मुँह से सीधे धारोष्ण पी लिया करता, भले उस चक्कर में कभी कभार माता की लत्ती सहनी पड़ती थी।

एक दिन उससे किसी ने कह दिया कि दिमाग गाय के दूध से बली होता है, भैंस के दूध से तो...। होश सँभालने से ही डाक्टर बनने का सपना पाले चटनवा की चटक गई। सुनने में आया कि शाम को उसने गाय लाने की ज़िद की तो मोलई माट्साब ने गाय को गुहखइनी बताते हुये उसके दूध में भी खून का अंश और बदबू पाये जाने की बात बतला उसे विरत कर दिया।

उसके बाद जो घटित हुआ उससे चटनवा की अन्वेषी प्रतिभा का पता चलता है। चटनवा और भैंसिया दोनों हेरा गये। जैसा कि बचिया के मामले से सिद्ध ही है, माट्साब को कोई चिंता नहीं हुई। उन्हें अपने खूँटे और आश्रय पर पूरा भरोसा था सो अपनी दिनचर्या में लगे रहे। दूसरे ही दिन मुहल्ले में किसी ने माट्साब से पूछा तो उन्हों ने जवाब दिया कि चटनवा अपने ममहर गया है और भैंसिया को साथ ले गया है, आ जायेगा। जाने पूछने वाला इस अजीब भगिनाप्रस्थान से आतंकित हुआ था कि माट्साब के प्रशांत उत्तर से, वह आगे कुछ पूछ नहीं सका।

चौथे दिन हीन मलिन अवस्था में दोनों वापस आ गये। पता चला कि चटनवा सिर्फ इसलिये भैंसिया को ले फरार हुआ था कि भैंस के गुहखइनी यानि विष्ठा खाने वाली न होने को स्वयं प्रमाणित कर सके। वह खुश था कि वाकई वह गुहखइनी नहीं थी, भैंसिया घर वापस आ कर प्रसन्न थी जब कि माट्साब यथावत रहे।
एक घर में तीन प्राणी कैसे सुकून, स्वतंत्रता और साहचर्य की दिव्य भावना के साथ रह सकते हैं, माट्साब का घर उसका उदाहरण था।

चटनवा ने इंटर पास किया और साल भर रगड़घस्स करने के बाद मेडिकल की पढ़ाई करने बाहर चला गया। घर में सिर्फ भैंसिया और माट्साब बच गये...


...डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक कस्बे में खुली तो सबने स्वागत किया। बोधी कामरेड तक ने अपने अखबार में खबर छापी। रोगियों की भींड़ जुटने लगी और करुणा वरुणालय बना डगचटनवा मालदार होने लगा। उसके जीवन में दो दुख थे – एक परिचित लोगों द्वारा तब भी चटनवा पुकारा जाना और दूसरा यह कि खुद के और लभ मैरेज कर आई बहू के समझाने के बावजूद मोलई माट्साब का पुराना घर, भैंसिया और नट्टिन टोले के सूद व्यापार को छोड़ने को तैयार नहीं होना। एक दिन जब चैम्बर में ही एक परिचित से चटनवा ने यह सुना कि हम भी सोचे रहे कि ये कौन डा. सी सी प्रसाद हैं, ये तो अपना चटनवा है!, तो उसने कस्बे से क्लिनिक को उठा देने का निर्णय ले लिया।

जिस दिन डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक कस्बे से रुखसत हुई, उसके अगले दिन अखबार के इतवारी अंक में बोधी कामरेड की एक कालजयी कविता छपी – ‘माटी से गद्दारी’। उकसाने पर आज भी लोग उस कविता का सस्वर पाठ करते हैं। बोधी कामरेड के जीवन की यह पहली उपलब्धि थी।

उपसंहार:

बोधी कामरेड दुबारा चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर सके लेकिन उन्हों ने नट्टिन टोले से सर्वहारा पर प्रयोगात्मक सीखें लेनी शुरू कर दीं। जट्टा उनकी सहायिका थी जिसे वह साहिकाय कहा करते थे। असल में सहायिका शब्द से नायिका की बुर्जुवा अवधारणा की गन्ध आती थी जब कि साहिकाय शब्द से कायाधारित आदिम सह-भावना का पता चलता था। इसलिये वह सहायिका को साहिकाय कहते थे और आम जन शायिका कह कर चुटकी लिया करते थे। कम से कम इस मामले में बोधी कामरेड भावना को अपसांस्कृतिक सोच का अंग नहीं मानते थे।

कहते हैं कि बारह वर्ष तक रस्सियों के घिसने से कुयें की जगत जैसी जड़ वस्तु पर भी निशान पड़ जाते हैं, नट तो चेतन जीव थे। उन्हें सूद की चक्रवृद्धि का चक्कर समझ में आने लगा लेकिन तमाम प्रकार के मूलों की तरह ही मूलधन बहुत जबर होता है। बोधी कामरेड के पास मूलधन नहीं था मतलब कि मूल ही ग़ायब था जिसके अभाव में शोषण की ठोस बातें भी हवा हवाई हो जातीं।

हताश होकर बोधी कामरेड ने सशस्त्र क्रांति को आजमाने का निर्णय लिया। अपनी स्थितप्रज्ञता के कारण अनजाने ही वर्षों पहले जो घाव मोलई माट्साब बोधी कामरेड को दे चुके थे, वह अभी भी टभकता था। सशस्त्र क्रांति के आगे आभासी सम्बन्धों को दर्शाती हवाई गालियाँ नहीं रुक सकती थीं। नटों और नट्टिनों ने माट्साब से हिसाब माँगना और रुपये वापस करने से मना करना शुरू कर दिया। माट्साब की गालियाँ कमजोर पड़ने लगीं लेकिन रिटायरमेंट के बाद भी वह डटे रहे।

एक दिन ऐसी ही किसी झँवझोर में सशस्त्र क्रांति हुई। एक नट ने माट्साब को छूरा भोंक दिया। उस दिन संयोग से डगचटनवा उर्फ डा. सी सी प्रसाद घर आये हुये थे। आँगन में मोलई माट्साब को लिटाया गया तो माट्साब ने सबको बाहर जाने का इशारा किया – बचिया और चेले सुरेसवा को भी। उनके बाहर जाने के बाद उन्हों ने पुत्र से दरवाजा बन्द करने को कहा और बोल पड़े (इस बात का आज तक पता नहीं चल पाया कि किस तीसरे ने सुना और इसे पब्लिक कर दिया! ):
“बेटे! अस्पताल जाने का कोई लाभ नहीं। धन की हानि होगी। आत्मा तो जानी ही है ...
मूल और सूद धनी बनाते हैं लेकिन आदमी को चूस कर खोखला करते जाते हैं। जिन्दगी में खूब कमाना और खूब मौज मनाना। संग्रह में दुख होता है...
नट्टिन टोले से कभी कोई सम्पर्क न रखना। वहाँ तुम्हारे कई भाई बहन हो सकते हैं। तुम बहुत छोटे थे जब तुम्हारी माँ गुजर गई, तुम्हीं बताओ क्या करता? तुम दो संतानों के सिर न तो मैभा महतारी बैठाना था और न क्षणजीवी जीवन को प्यासे रह कर जीना था...
पुलिस के चक्कर में न पड़ना। आगे भी पुलिस और पत्रकार से बच कर रहना। जीवन सुख से कटेगा...
हमलावर को मैंने क्षमा कर दिया है, तुम भी उस हत्यारे को क्षमा कर देना...
खिंचड़ी और दूध के आहार का पुण्य रसोईघर से लगी जो कोठरी है, उसमें रखी बड़ी सन्दूक के नीचे दफन है। उसका उपयोग और उपभोग करना। बाढ़ै पूत पिता के धरमे तो मैंने सिद्ध किया ही सम्पति बाढ़े अपने करमे को झुठलाते हुये जा रहा हूँ। उस पुण्य को अगर ठीक से सँभाले रहे तो तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं।...
बैदिक गणित की पुस्तक अनामी छपवा देना। गोलघर में जो पन्ना प्रकाशन है, उसका मालिक मेरा शिष्य है। वह बिक्री सँभाल लेगा।
भैंसिया तुम्हारे लिये मातावत है। आजन्म उसकी सही देखभाल करना। उसकी नस्ल सुरक्षित रहनी चाहिये। बटाई से काम चला लेना, तुमसे नहीं निभ पायेगा। “...

...और माट्साब ने आँखें मूँद लीं। बोधी कामरेड के जीवन की यह दूसरी उपलब्धि थी जिसके सुखमय शोक को उन्हों ने अखबार के उसी भीतरी पन्ने के उसी चौथाई भाग को अगले दिन काला कोरा छाप कर मनाया।

चटनवा ने भैंसिया को बटाई पर उठा दिया। शर्त केवल यह थी कि उसका या उसकी बेटी, पोती .. का ताजा दूध उसके यहाँ पहुँचता रहे। पिता के पुण्य से डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक सीसीएनएच यानि कि सी सी नर्सिंग होम में तब्दील हो गई जिसकी एक शाखा श्रीमोलईप्रसाद स्मृति धर्मार्थ अस्पताल के रूप में कस्बे में खुली। उसकी ओ पी डी का शुल्क आज भी सिर्फ पाँच रुपये है और अधिकतर दवायें मुफ्त हैं।

सेठ सुरेशराम की सद् इच्छा से नट्टिन टोले में एक बार और आग लगी। पहली लुत्ती लगाने वाले का कभी पता नहीं चल पाया और रहस्यमय परिस्थितियों में नट बस्ती छोड़ कहीं और चले गये। अगले महीने थाने में बैठा सेठ सुरेशराम ताजे लगवाये सोने के अपने दो दाँतों के बारे में पुलिस वालों के साथ हँसी ठठ्ठा करते पाया गया। उसने चेलाधर्म का निर्वाह पूर्ण कर दिया था। आगे चल कर धर्मार्थ चिकित्सालय का सारा प्रबन्धन बचिया ने अपने हाथों में ले लिया। बोधी कामरेड की आगे की कथा फिर कभी।

आज भी अगर फूलपुर रेलवे स्टेशन के सामने उस पार चमकते सीसीएनएच की जलपा हो चली बूढ़ी आया से कोई मोलई माट्साब के बारे में पूछ देता है तो वह सारी कथा बिना रुके सुनाती है। आखिर में अपना नाम बताना नहीं भूलती – लछमिनिया। (समाप्त)
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6 टिप्‍पणियां:

  1. सच है, व्यक्तित्वों के बारे में तो और भी। जितना पुराना होता जाता है, जितना अधिक जाना जाता है उसे, उतना ही नया लगने लगता है वह।

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  2. बै! महाराज... एतना लम्बा लम्बा लिखेंगे त के पढ़ी?

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  3. बहुत बढि़या...

    ऐसा लगता है लिछमनिया को माट्साब की संगत में कुछ अधिक ही जानकारी हो गई थी।


    लिछमनिया के मुंह से सुनी कहानी में लेखक निरपेक्ष कैसे रह सकता है... :)

    गांव के सूदखोर मास्‍टर के पक्ष में खड़े होकर लिखी गई कहानी में भले ही लेखक को निरपेक्ष बनाने में मदद करती है, लेकिन अवसरवादी मार्क्‍सवाद और ग्रामीण सूद संसार की दुर्दशा उसे एक विशिष्‍ट कोने में खड़ा पाती है।

    एक शानदार कहानी, शुरू से आखिर तक बांधे रखा...

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  4. गजब लंठ भरे हैं फेसबुक पर भी - कर दिये मेरे रिकॉर्ड की ऐसी तैसी! कान पकड़ता हूँ कि अब किसी रिकॉर्ड को फेसबुक पर शेयर नहीं करूँगा।

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    1. सोच रहे हैं आपका शिष्‍यत्‍व ग्रहण कर लिया जाए... आप देंगे तो नहीं जो स्‍वत: ही ग्रहण कर लेते हैं....

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  5. अद्भुद लिखते हैं आप... एकदम्मे अद्भुद

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