शनिवार, 10 नवंबर 2012

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 21

पिछले भाग से आगे ...


किसी से चिन्हार दो बार होती है। बहुत बार पूरा जीवन एक बार की पहचान में ही निपट जाता है। दइ के मारे और दैव की अदृश्य डोर से जुड़े जन दूसरी दफा पहचान के लिये जनम जनम भटकते रहते हैं। विधना पलक झपकाना भूल जाती है।    घटाटोप अन्धेरे में जब राह नहीं सूझ रही हो तो सहारा भर किसी की एक बाँह उससे दूसरी बार पहचान कराती है। जब सारे जग ने रुख मोड़ लिया हो, जब सगुन के स्वर किंवाड़ों से टकरा टकरा टूटने लग रहे हों तब संगत करने को जुड़ने वाले स्वर से पहली पहचान वालों में से हीतू चीन्हा जाता है। यह उसकी दूसरी चिन्हार होती है।
उमड़ते आँसुओं से आँखें धुँधली हो रही हों, कंठ गलदश्रु हो रहा हो, तब पहली टपक को मान देने के लिये जो दर्शन देता है, साफ आँखों से उसकी दूसरी पहचान होती है और जीभ से सरस्वती लुप्त हो जाती हैं...

ऊँचास छत वाले खपड़ा घर में भीतर अन्धेरा सा था। खुले आँगन की ओर मुँह कर देवर के फटे नरखे(अंगरखा) की तुरपाई करती लछमिनिया भउजी हर सीवन में अपने घर के लिये मंगल पिरो रही थी। कुलदीप उसकी कोख में पल रहा था और बाहर दुनिया भर भड़भुजवे भर भर आँवा बालू दहकाये हुये थे। उनकी दहकायी आग में अन्हार था, अन्हार।
देवर सोहित का हाल ठीक नहीं था। मरद मानुस जब धीरज छोड़ दें, कुसंग प्रबल हो जाय तो घर कुघर होते देर नहीं लगती। सब कुछ के बावजूद भउजी अब निश्चिंत थी। उसे भरोसा था कि सब ठीक होगा। उसे अपने ऊपर भरोसा था, अपनी मंगल कामना पर भरोसा था – जिनिगी होम क देहलीं, का अब्बो राम नाहिं पसीजिहें?
(मैंने जीवन का होम कर दिया, क्या राम अब भी दया नहीं करेंगे?)
   
उंगली में सूई चुभी तो छुद्दुर घाव (क्षुद्र चोट)  का आसरा ले पीर रिस उठी, मृत पति को सम्बोधित सी भउजी गाने लगी:
सइयाँ तोहार नगरी सुन्नर सुन्नर, जहाँ केहू आवे न जावे हे राम!
चाँद सुरज जहाँ, पवन न पानी, के हमार सनेसा पहुँचावे हे राम ...

सम पर रुकते ही आहट मिली – ई त बबुना नाहीं हउवें, के ह? (ये तो देवर जी नहीं हैं, कौन है?) भउजी ने खड़े हो मुँह फेरा - घरदुआरी से बाहर मतवा खड़ी दिखाई दीं- भीतर अन्हार बाहर अँजोर। पूरी बीती जिनिगी ज्यों निचुड़ कर सामने देवी मूरत बन खड़ी हो गई हो! लगा कि देह एकदम से हल्की हो गई।

बरसों के उपेक्षा बहिष्कार सब टूट गये! सच्चो, नगिनिया!!
देवता एतना जल्दी दुआर! का देबू ए मतवा? का देवे अइलू ए दुपहरिया?
(देवता इतनी जल्दी आ पधारे!  क्या दोगी ऐ मतवा? इस दुपहर क्या देने आई हो?) हाथ से नरखा छूट गया, टूटी पात लहर हिचकोले, भउजी बह चली। आँखों ने भरपूर चीन्हा और बन्द होती गईं।

मूर्च्छित  देह को सँभालते हुये  भीतर ले आती मतवा के कानों में बस बड़बड़ाहटें थीं, उनकी आँखें झर परीं – हमके असीस देईँ, असीस मतवा, असीस (मुझे आशीर्वाद दीजिये, आशीर्वाद  मतवा, आशीर्वाद)...

मतवा घरदुआरी लाँघ ठिठक गईं, जमीन पर कोई कपड़ा पड़ा था।
पाँव तले पड़े नरखे को पाँव की अंगुलियों से ही उठा अपने कन्धे पर रख लिया, सूई धागा नीचे छूट गये। (जारी)           


6 टिप्‍पणियां:

  1. देवता पसिझले आ अइसन पसिझले की का कहल जाय... २-३ गो चीज़ लउकल, बाकिर ओकरा के 'दस कोस पर पानी बदले बीस कोस पर बानी' के उदाहरण मानल जा सकेला. बाकिर, जे बा से कि अइसन कथानक आ कथा के दूनो-तीनो-चारो, जेतना भी छोर होखे, ओकरा बीच तारतम्यता...गदर.. एकदम गरदा...मानेकि भोजपूरिया में एगो अमर कथा और एगो अमर चरित्तर जनमलें, एकदंमे 'लोहा सिंह' मतीन

    बाउ अनंत, बाउ कथा अनंता

    एतना हाली-हाली बाउ अईहें त बाबा के आदत खराब हो जाई... काल्हे 'नेबुआ के झांखी' पूरा पढ़लीं, भाग एक से भाग बीस तक. मन अउर आतिमा दुन्नो तिरिपित हो गईलें

    सादर

    ललित

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  2. पता नहीं कुछ ऐसा लग रहा है कि कथा का सूत्र मुझसे कहीं छूट रहा है, अत: अभी नहीं पढ़ रहा ........

    जब बाऊ कथा पूर्ण हो जायेगी तो दुबारा से बैठकी लगाऊंगा.... :)

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  3. पाँव तले पड़े नरखे को पाँव की अंगुलियों से ही उठा अपने कन्धे पर रख लिया, सूई धागा नीचे छूट गये। kya jabardast wimb hai!!!!!!

    Regards

    Bau ka deewana.

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