शनिवार, 28 दिसंबर 2013

योनि वास्तुशिल्प

फुटबाल और लॉन टेनिस मेरे प्रिय खेल हैं (खेलता तो एक भी नहीं!)। इन्हें ले कर उत्सुकता बनी रहती है। वास्तुशिल्प का विद्यार्थी होने के कारण क़तर में होने वाले 2022 के प्रस्तावित फुटबाल स्टेडियम को ले कर भी उत्सुकता रही सो आज सर्च किया तो यह सामग्री हाथ लगी।

कहूँ तो वास्तुशिल्प के क्षेत्र में 2013 नैराश्यपूर्ण रहा। कोणार्क शृंखला में मैने स्त्री और पुरुष वास्तुशिल्प अवधारणाओं की बात बताई है। पश्चिमी वास्तु में अंग विशेष को ले कर संकल्पना की जाती है जब कि पारम्परिक भारतीय वास्तु में समग्र देह को लेकर जिसके कारण एक पूर्णता और समन्वय की स्थिति बनती है। क़तर देश में वर्ल्ड कप स्टेडियम का प्रस्तावित स्त्री वास्तुशिल्प चर्चा में है। इसका विरोध भी हो रहा है। इसे योनि वास्तु का एक उदाहरण बताया जा रहा है। इसकी डिजाइनर हैं - ज़हा हदीद।

इस स्टेडियम का वास्तु स्त्रीवादी रुझान लिये है जिसके मूल में यह है कि लिंग का आकार अब तक वास्तुशिल्प पर छाया रहा है, योनि आकार को भी स्थान मिलना चाहिये। एक मध्यपूर्वी देश में इसे आकार लेते देखना रोचक होगा।

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चित्राभार:http://www.dezeen.com

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

अय्याsss ऊssss अकबक! और जगराता

प्रात:काल का समय ऐसा होता है कि आप मौन, शांति और सुकून चाहते हैं। यदि कोई उससे पहले की ब्रह्मबेला में जगने वाला मनुष्य है तो परम शांति की अपेक्षा रखता है।  दुर्भाग्य से भारत ही नहीं संसार के अनेक देशों से यह शांति छीन ली गयी है। समय होता नहीं कि दायें बायें ऊपर नीचे हर ओर से लाउडस्पीकरों की ध्वनियाँ कानों से बलात्कार करने लगती हैं – अय्या sss ऊ ssss अकबक!

पहले कोई एक कढ़ाता है और तदुपरांत
एकाध मिनट के अंतर से एक के बाद एक वही ध्वनि चारो ओर मानो गन्ने के खेत में सियार देखा देखी हुँआ हुँआ कर रहे हों! जब लाउडस्पीकर नहीं थे तब क्या लोग आराधन को नहीं उठते थे? किसी को सर्वोपरि सर्वश्रेष्ठ एकमएक मानते हो तो दूसरों को भी उसे ही श्रेष्ठ मनवाने को क्यों आमादा हो भाई? अपने काम से काम रखो न!

तनातनी परम्परा में रतजगे या जगराते के उल्लेख तक नहीं मिलते। निशापूजन की परम्परा भी गुह्य ही बताई गई जिसे बहुत ही संयम और सावधानी के साथ किया जाना चाहिये लेकिन चिढ़ और नैराश्य को कैसे निकालना चाहिये, नहीं बताया गया। अब तनातनी तो हर काम विस्तृत विशाल ढंग से करने के आदी ठहरे - बिना दो चार अरब शंख वर्ष और एकाध लाख योजन के इनके काल आयाम पूरे ही नहीं होते, तो प्रतिक्रिया भी वैसी ही होनी चाहिये कि नहीं!
इसलिये हुँआ हुँआ से तंग किसी तनातनी नासपीटे ने जगराते की योजना मय लाउडस्पीकराँ बनायी होगी - तुम मेरा प्रात:काल खराब करते हो! लो झेलो अब रात भर माई के गुणगान को। देखता हूँ कौन माई का लाल रोकता है?

जिस प्रकार से सरस्वती का प्रसार सप्तसैन्धव पँचनद होता हुआ गंगा यमुना के प्रयागी संगम तक हुआ उसी प्रकार यह योजना भी पंजाब से चल कर गोबरपट्टी तक पहुँची होगी। खरमास में विवाही वाद निनाद बन्द हैं तो यह फोकटी परम्परा चालू आहे। बजरंग बली से साँई तक, फिल्मी धुनों की मलिकाइन से ले कर भोजपुरिया माई तक ये बेसुरे चंचलचंट गलाबाज गले के साथ साथ रात भर स्पीकर फाड़ते आम जन की नींद का सत्यानाश किये रहते हैं, कमबख्तों को न ठंड लगती है और न उनका गला खराब होता है! सुर ताल तो खैर मनविनाशन होते ही हैं!

यदि आप ध्यान दें तो अय्या sss ऊ ssss अकबक! हो या रतजगा, इनका आराधना से कुछ नहीं लेना देना। ये बस वर्चस्व के अस्त्र हैं। मध्यपूर्वी सर्वोच्चता का अघोषित किंतु बहुत ही स्पष्ट एजेंडा लिये समूचे संसार को रौंदता मत हो या पड़ोस के नये मान्नीय कोई सिंघ, यादो, पाँड़े, साँड़े; ऐसे आयोजनों से इन्हें बस यही तसल्ली मिलती है - हम हैं तो हैं, हमें कौन रोक सकता है, हमारी बड़ी प्रतिष्ठा है, देखो कैसे सबका जीना हराम किये रखते हैं!

इस प्रतिष्ठा के अंत में जो 'ठ' है, उसका भाईचारा ठसक से जुड़ता है और इसका एक ही उपचार है - शोर करने वाले का टेंटुआ दबा देना - बहुत चिल्ला रहे थे न अब चिल्ला कर दिखाओ लेकिन कोई भी सभ्य अमनपसन्द नियम क़ानून को मानने वाला, उनसे डरने वाला व्यक्ति लाख चाहने, मन्नते माँगने या शाप देने के बावजूद ऐसा कर नहीं सकता। हम भी उसी श्रेणी के हैं, यहाँ लिख कर भँड़ास निकाल ले रहे हैं। कल को पुन: झेलना ही है - अय्या sss ऊ ssss अकबक! ....माई तू है शोराँ वाली, घनचक्कर वाली साँई तू :(
... लाहौर बिना कुवैत!!
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 नोट:
इस आलेख का संसार के किसी भी भूतपूर्व, वर्तमान या भावी अत मत सत आय दाय गाय सम्प्रदाय लगाय बझाय से रत्ती भर का भी सम्बन्ध नहीं है। यह प्योर फ्रस्ट्रेशन का उद्घोषण भषण भर है, दिल पर न लें; सीरियसली तो कत्तई नहीं क्यों कि इसमें कुछ भी सीरियस नहीं है, हो ही नहीं सकता। यह तो सतरंगी जीवन पद्धति का एक क्षुद्र आयाम भर है। 

रविवार, 3 नवंबर 2013

महो अर्ण: सरस्वती प्रचेतयति केतुना

आज दीपावली है। कार्त्तिक मास की अमावस्या। सूर्य स्वाति नक्षत्र पर। चन्द्र भी निशा बेला में उत्सव समाप्ति तक स्वाति नक्षत्र में। स्वाति यानि सु+अति यानि बहुत अच्छी। दो सप्ताह पश्चात पूर्णिमा के दिन चन्द्र कृत्तिका राशि पर होगा इसलिये इस महीने का नाम कार्त्तिक है।


यह समय धान की फसल का है। प्राचीन काल में वृहि या शालि या धान की शस्य पवित्र और क्षुधापूरक मानी गयी। इस नये अन्न के भात से ही देवतुल्य पितरों को श्रद्धांजलि दी जाती। कृषक के लिये यह धान्य से घर भरने का समय होता, व्यापारियों के लिये धन के आगमन का और राजन्य के लिये कराधान का। वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी होती और आवर्द्धित विशाल सरस्वती के पवित्र तट श्रौत सत्रों, सुदूर समुद्र के अभियान पर निकलने वाली व्यापारिक  नावों और खाली खेतों को पुन: तैयार करने को उद्यत कृषकों की गतिविधियों से गुंजायमान हो उठते। सरस्वती उनकी जीवन प्राण थी। यह समय हर वर्ग के लिये यज्ञ जैसा होता।

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ऐसे आह्लाद के समय कवियों की मेधा ऋत अनुशासित सुखी और समृद्ध समाज की कल्पना और संरचना के सूत्र रचने लगती। उसके आह्वान को, उसके आशीर्वाद को और उससे संवाद को देखिये वैश्वामित्र मधुच्छन्दा ऋषि क्या कहते हैं! (ऋग्वेद 1.3.10-12) 
saraswati पावनकारी, अन्नयुक्त और धनदात्री सरस्वती धन के साथ हमारे यज्ञ की कामना करें।
 
सत्य की प्रेरक, सुमतिशील जनों को चेताने वाली सरस्वती हमारे यज्ञ को ग्रहण कर चुकी है।

अगाध श्रेष्ठशब्दशाली सरस्वती बुद्धिमानों को चेतनाशील बनाती है। वही समस्त शुभ  कर्मज्ञान को प्रकाशित करती है। 

दीपावली पर्व में धन की पूजा और अमावस की रात श्रेष्ठ शब्दों वाली प्रकाशमयी विद्यादायिनी सरस्वती की उपासना के बीज वैदिक परम्परा में निहित हैं। धन धान्य का मद विद्या से अनुशासित रहे, यही उद्देश्य है।

आप सबको दीपपर्व की शुभकामनायें।  
2012-11-28-265

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 26

पिछले भाग से जारी ...
सोहित के घर की ओर बढ़ती मतवा, अगल बगल बहतीं गंगा जमुना! नगिनिया का हाल बूझ गंगा हिलोर ले आगे बढ़ती तो सम्भावित लांछन, बहिष्कार की जमुना जैसे गोड़ के नीचे से जमीन ही बहा ले जाती! कसमकस, छोटी सी राह और पवन बहान! गंगा बीस पड़ती गई और मतवा सुध बुध खोती आगे बढ़ती गईं। नेबुआ मसान दिखा और दिखे दूर आसमान में मेहों से मुँह करियाते चमकते ढूह। मतवा की आँखें बढ़िया गईं, लाली उतरी – सब सुभ होई! झड़क चली। छिपाव कि कोई देख न ले जाने कहाँ छिप गया।
खिरकी दिखी ही थी कि साड़ी टाट की खोंच फँसी, थमी ही थीं और दोनो गोड़ तीखी चुभन धँसती गई। ऊपर की ओर लहराती पीर बढ़ती, देह थरथराती; उसके पहले ही मसानों ने स्वेद की गगरियाँ उड़ेल दीं। घस्स से भुइँया बैठ गयीं, होश ठिकाने आ गया। साफ पता चला कि लीक पर सूखी नेबुआ की डाल किसी ने आड़ी डाल रखी थी। चोख काँटे! पाँवों में गहरे उतर गये थे। निकाल कर फेंकती मतवा के कानों में स्वर पड़ा – कवन ह रे! कहेनी कि देखि के चलs सो, बाबू के टाट तिसरिये टूटेला।
 समूचा अस्तित्त्व एक ही अंग - बस कान कान! मतवा ने साफ पहचाना – रमईनी काकी! धुँधलाती चेतना पतियाती कि जानी पहचानी कर्कश हँसी ने जैसे चेतना ही हर ली – अरे काकी! पाँवपुजवा हे, कुच्छू न कहs- लँगड़ जुग्गुल!
देह नहीं, केवल भीतरी संवाद थे – क्या बचा मतवा? बेटा धतूरा पी बेसुध सोया है, सँवाग अचेत है और जो गोपन बनाये रखना चाहती थी वह तो खुले बजार उघार हो गया! ये दोनों जान गये तो अब किसे जानना शेष है?
काँटे के घाव से अचानक तीखा दर्द उठा, नयन भर भर उठे। अब जो होना हो सो हो। लहराती पियरी बुला रही थी, पाँव यंत्रवत बढ़ चले। गंगा जमुना दह बिला गईं, पीर पटा गई।
 
टाट की आड़ से झाँकती दो जोड़ी आँखों ने देखा। लीक की चिकनी चमकती कठभट्ठा माटी पर पाँवों के लाल लहू निशान ज्यों देवी देवकुरी में पइस रही हो। दोनों सन्न!

भउजी ने आहट पहचानी और चौखट पर ही मतवा से लिपट गई। मतवा ने जाना उनकी आँखें सूख गई थीं। इतनी जल्दी! लम्बे जर बोखार से उऋन होने पर जैसे देह हो जाती है बस वैसी थी। अभी तो सब सँभालना था।
काठ ने देखा – पाथर! यह चेहरा परसूत की पीर झेलती मेहर का नहीं हो सकता, नहीं।
नइहर कि माई मूरत ध्यान में आई – पाथर!  दरद कहाँ छिपा रखा है इसने?
भउजी झट से बैठ गई। पाँव पड़ी नागिन को उठा मतवा ने गले लगा लिया। एक मौन सहमति में दोनों उस कोठरी की ओर बढ़ चलीं जहाँ नागिन का रात का बासा होता था - परसूता का घर।
हाँफती पुकार ने दोनों को थाम लिया – भउजी! सोहित आ पहुँचा था। उसने मतवा को देखा। बहुत बार कुछ कहने सुनने की आवश्यकता ही नहीं होती। भीतर की आश्वस्ति चारो ओर फैलने लगी। जिस मुँह कालिख लगी थी, जिस पर पट्ठा बैल मरने जैसी गम्मी थी, वह अब भावी पिता था। उसने चेतावनी सुनी - सोहित! केहू भीतर जनि आवे, हम सब सँभारि लेब। हाथ की लाठी मुट्ठी की भींच, कस कराह – सब ठीक होई।

इसरभर आया, पिटा और भूखे पेट घर वापस गया। भूख तो जन्म के बाद होती है न?  

...रात गझीन है। आसमान में बदरी है। अँजोरिया अन्हरिया बराबर। चारो ओर फुसफुसाहटें हैं। खदेरन नींद में ही जागे हैं। सुभगा आ रही है। आश्वस्त चुप्पी है। सब तैयारी पूरी हो चुकी है। अब तो बस स्वागत का अगोरा है। गुड़ेरवा नहीं बोल रहा, पिहका है। खेंखर नहीं, खेंचातान है। दूर की कामाख्या पितरों की भूमि पधार रही है। आओ माँ! बताओ तो मैं कहाँ हूँ? किस काल में हूँ?...

...लहू रुकने का नाम नहीं ले रहा, कितनी पीड़ा ले कर आयी भवानी? माँ नग्न है, ले मैं ब्राह्मणी भी आधी होती हूँ – मतवा ने अपनी साड़ी फाड़ी और नागिन को उसमें कसती चली गईं – केहाँ, केहाँ।
ढेबरा के अँजोर भवानी की आब, दप दप! यह तो महीने दो महीने जैसी लग रही है! मतवा रूप निहारने लगीं।
... होश आया। जान पहचान कर नागिन रोने लगी – जमीन को बचाने वाला नहीं आया, इस दुआर दिया जलाने वाला नहीं आया। मुझ पापिनी की कोख कैसे आता?
मतवा ने अँकवार भर लिया – ई नाहीं कहे के रे! एकरे कोखि से होई। आई रे आई!
अन्हार सन्न। दुख जब सहन के परे हो जाता है तो मनुष्य में शक्ति जगती है। आखिरकार भउजी ने कहा – बबुना के बता देंई। आपन भवानी सँभारें।
उसके बाद उसने मतवा को मुक्त किया – जाइये मतवा! अपना घर सँभालिये। इस घर के दो जन पर कृपा दृष्टि बनाये रखियेगा। जनम दे हमार जनम सुफल, पूर गइल।
पाँवों की पीर का तेहा अब जबराने लगा था। मतवा ने बची खुची साड़ी लपेटी और बाहर आ गईं। लाठी का सहारा लिये बैठी सोहित की छाया प्रतीक्षा में दिखी। कन्धे पर हाथ रख मतवा ने बताया – भवानी ... संतान और सँवाग की देखभाल करना। कुल चलाने बेटी आई है। उन्हों ने सोहित का चेहरा उठाया। अन्धेरे में क्या दिखता? सोहित ने जैसे सहमति में सिर हिलाया – पाँय लागीं मतवा! हम बाप बनि गइलीं मतवा, हम बाप बनि गइलीं!
मतवा के मन में स्वर पुन: उठे – जनम दे हमार जनम सुफल, पूर गइल। अर्थ समझ में आया, आशंका सी उठी लेकिन उन्हों ने अशुभ को शब्द तक नहीं लेने दिया। कंठ में रूदन भर आया। सोहित को अधूरा ही छोड़ अन्धेरे में भागीं। कुछ देर की तेज हवा ने आसमानी बदरी को तो छिन्न भिन्न कर दिया था लेकिन मतवा का मन ...   

काँटा! काँटा गड़ि गइल!! पाँवों तले नमी थी। जाने फिर से घायल हुए थे या नहीं लेकिन मतवा को सँभालने के बाद खदेरन ने हाथ लगा देखा। मद्धिम रोशनी में लहू करिया लग रहा था। गर्म लहू! भवानी न? मतवा ने सिर हिलाया और जाने किस प्रेरणा से दोनों आलिंगन में कस गये। कौन है? माँ?? सुभगा???
मेरे साथ साधना करोगे पापी!

भउजी के ललाट पर हाथ फेर, कन्या को दुलरा कर सोहित कोठरी से बाहर आँगन में ही नंगी धरती पर चौड़ा हो गया। चौखट पर एक छाया उभरी और अकन कर किनारे हो गई।
...देह में जाने कहाँ की शक्ति भर आयी है, नागिन छोटकी डेहरी पर चढ़ तर उपर ओसौनी सहेज रही है। मतवा की साड़ी कमर में नहीं, गले में है।
....एक उछाल, बन्धा, झटका ...देह झूल गयी।

सन्नाटे को चीरते तीखे स्वर से नींद टूटी, खदेरन उठ कर चौकी पर बैठ गये। वेदमुनि सो रहा था। उतरने को पाँव नीचे किये तो मतवा की देह से लगे। झपट कर हाथ लगाया तो पाया कि मतवा की देह भट्ठी हो रही थी।
इतना ज्वर, ताप! काँटे थे या कुछ और? उठा कर चौकी पर लिटाने के बाद उन्हों ने चादर भिगो कर निचोड़ा और मतवा को ओढ़ा दिया  ...गिलोय, इस समय गिलोय कहाँ ढूँढ़ें खदेरन? (जारी)                                                  

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

प्रसाद

जीवन की गति ऐसी ही है। गंगाजल वारुणी के लिये प्रयुक्त होने पर अपनी महिमा खो देता है किंतु वारुणी आराध्या देवी को समर्पित हो प्रसाद हो जाती है।   

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

अथर्वण संहिता - 2

[1] से आगे


(क)
किताबी मजहबों के आने से पहले संसार भर में स्त्री पुरुष सम्बन्ध समग्रता में देखे जाते थे। उनमें गोपन तो था किंतु घृणास्पद कुछ नहीं था। विक्टोरियन 'पवित्रता' और इव की कथित पतनमुखी प्रलोभनी वृत्ति को ले स्त्री के प्रति इसाई घृणा भाव का जुड़ाव 'नारी नरक का द्वार' की चरम नकारात्मकता के साथ हुआ तो स्त्री पुरुष सम्बन्धों के प्रति जो सहज स्वीकार्य भाव था वह विकृत हुआ। सभ्यता का नागर देहात के गँवार पर चढ़ बैठा।
नवरात्र पर्व स्त्री तत्त्व को समझने का पर्व है। ऋतु परिवर्तन के साथ जननी के नव रूपों की आराधना का पर्व है। वर्ष में विषुव के दो दिन जब कि दिन रात बराबर होते हैं और ऋतु परिवर्तन की भूमिका बनती है, धरती गहिमणी होती है, नभ आतुर होता है तो सृष्टिजनक काम के अनुशासन को नवरात्र पर्व मनाया जाता है। छ: महीने पश्चात 20 मार्च को विषुव पड़ेगा और 31 मार्च को युगादि या वर्ष प्रतिपदा यानि नववर्ष का प्रारम्भ। मदनोत्सव कामपर्व उच्छृंखल होली बीत चुकी होगी। पुन: अनुशासन पर्व होगा मातृ आराधना के नव दिनों के रूप में।
इस बार नवरात्र के पश्चात विजया पड़ेगी यानि सुपुरुष राम की कुपुरुष रावण पर विजय। उस समय रामनवमी पड़ेगी यानि राम का जन्म। यह जो जन जन में रमा राम है न, बहुत पुराना है। ऋतुचक्र के साथ उसके जन्म और विजय को देखिये। मातृशक्ति उपासना के साथ उसकी संगति को समझिये और समझिये कि ये पर्व महज प्रदर्शन या ढकोसले नहीं, समाज के नियामक रूप में ऋतुचक्र की संगति में गढ़े गये हैं। अब यह हम पर है कि हम इनका क्या करते हैं।
(ख)
ऋचि यजुषि साम्नि शांतेऽथ घोरे - गोपथ ब्राह्मण

द्वैपायन व्यास द्वारा संकलन और पुनर्व्यवस्थन के पहले एक समय ऐसा भी था जब पाँच वेद थे। यह जो अथर्ववेद है न, उसकी दो धारायें थीं - अथर्वण और अंगिरा। अथर्वण धारा भैषज विद्या यानि आयुर्वेद से सम्बन्धित थी जिसे 'शांत' कहा गया और आंगिरस धारा यातु यानि जादू, टोने, टोटके से सम्बन्धित थी जिसे 'घोर' कहा गया। आंगिरस धारा के ही हैं देवगुरु वृहस्पति और ऋषिशिरोमणि भृगु भी!
छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर आंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण मगदेश (वर्तमान ईरान) से सूर्यपूजक अग्नि परम्परा के (सकलदीपी, शाकल या शकद्वीप के वासी, वर्तमान पारसी) ब्राह्मणों को बुला कर मूलस्थान (मुल्तान) में सूर्यमन्दिर की स्थापना करवाते हैं। ये सकलदीपी आज भी यातुविद्या प्रवीण माने जाते हैं। कृष्ण के पुत्र साम्ब का कोढ़ अर्कक्षेत्र कोणार्क में इन्हीं पुरोहितों के निर्देशन में की गयी आराधना से दूर होता है।
पुराण भी मगदेशियों के चार वेद बताते हैं - वाद, विश्ववाद, विदुत और 'आंगिरस'।
एक बात स्पष्ट है कि देव दानव या आर्य अनार्य के आजकल के अकादमिक भेद अति सरलीकरण हैं और दूसरी यह कि वैदिक संस्कृति का प्रसार वर्तमान भारत की सीमाओं से परे बहुत दूर तक था। कतिपय भेदों के साथ उनमें आपसी सम्वाद, सम्पर्क और प्रतिद्वन्द्विता भी थी। तीसरी यह कि चाहे मगदेशियों को बुलाना हो या द्वारिका तट से समुद्र मार्ग दवारा यमदेश (मालागासी, मेडागास्कर?) से सम्पर्क बनाना हो, कृष्ण का योगदान अप्रतिम है।

(ग)
ये जो राम और कृष्ण हैं न, बहुत रहस्यमय हैं या यूँ कहूँ कि अथर्वण धारा में बढ़ते हुये मेरे लिये रहस्यमय हुये जा रहे हैं। अवतारवाद के पीछे बहुत कुछ छिपा हुआ है जो आज दिखता ही नहीं। विकासवादी वाममार्गी क्षत्रिय जनक के दरबार को उपनिषद और आरण्यकों से जुड़ा और वेद परवर्ती बताते हैं लेकिन ऐसा है क्या?
बृहदारण्यक को ही ले लीजिये। यह बहुत पुरानी शतपथ परम्परा का अंश है। इसके पाँचवे अध्याय के तेरहवे ब्राह्मण में चार मंत्र हैं। ये चार वेदों से एक एक कर जुड़ते हैं। पहले में ऋग्वेद के लिये उक्थं का प्रयोग है, दूसरे और तीसरे के यजु: और साम स्पष्ट हैं। चौथे के लिये 'क्षत्रं' का प्रयोग है:
'क्षत्रं प्राणो वै क्षत्रं हि वै क्षत्त्रं त्रायते हैनं प्राण: क्षणितो: प्र क्षत्त्रमन्नमाप्नोति क्षत्त्रस्य सायुज्य ँ सलोकतां जयति य एवं वेद'
आचार्य शर्मा अर्थ करते हैं:
प्राण ही क्षत्र (बल) है, इसलिये प्राण की उपासना करें। प्राण ही क्षत्र है अर्थात् इस शरीर की शस्त्रादि जनित क्षति से रक्षा करता है। अत: क्षत से रक्षा करने के कारण प्राण का क्षत्रत्व प्रसिद्ध है। अन्य किसी से त्राण (रक्षा) न पाने वाले क्षत्र (प्राण) को प्राप्त करता है। जो भी व्यक्ति इस तरह जानता है, वह क्षत्र के सायुज्य और सालोक्य को प्राप्त कर लेता है।
अथर्वण का क्षात्र से सम्बन्ध प्रमाणित है - चाहे भैषजविद्या द्वारा प्राण रक्षा हो या यातुविद्या द्वारा या शस्त्रविद्या द्वारा।
आचार्य शर्मा आगे अन्यत्र बताते हैं:
गायत्री का चतुर्थ पद 'परो रजसे सावदोम्' भी आठ अक्षरों वाला कहा गया है। विश्वामित्र कल्प तथा प्राचीन संध्या प्रयोगों में इसका उल्लेख मिलता है। उपनिषद् का कथन है कि गायत्री के तीन पाद ही जपनीय हैं, यह चौथा पाद 'दर्शत' पद - देखा जाने वाला - अनुभूतिगम्य कहा गया है। इसका पदच्छेद होता है - परो रजसे - असौ- अद: ॐ अर्थात रजस् पदार्थ या प्रकाश से परे यह और वह सब ॐ अक्षररूप ब्रह्म ही है। जब साधक के प्राणों के स्पन्दन गायत्री के तीन पदों से एकात्मकता स्थापित कर लेते हैं, तो चौथे पद का आभास-अनुभव होने लगता है। इसलिये इसे दर्शत पद कहा है।... (विद्रोही) विश्वामित्र पर अटक जाता हूँ। याद आता है कन्हैयालाल मुंशी के उपन्यासों लोपामुद्रा लोमहर्षिणी में कहीं एक अवैदिक स्त्री को गायत्री का दर्शन कराता और उसे आश्रम की प्रथम पूजनीया बनाता विद्रोही विश्वामित्र। ... 'दर्शन' महत्त्वपूर्ण है। महत्त्वपूर्ण हैं राजा के दरबार में दार्शनिक बहसें, महत्त्वपूर्ण है philosophy के लिये दर्शन शब्द का प्रयोग और महत्त्वपूर्ण है मंत्र के लिये 'द्रष्टा' की परिकल्पना। कहीं यह विश्वामित्र की गायत्री के बाद ही तो प्रचलित नहीं हुई?
...पहले देख चुका हूँ - इक्ष्वाकुओं की राम धारा में फलते फूलते अथर्वण आचार्य। यह रजस, यह प्रकाशमार्गी सूर्य, अग्नि और उससे भी परे जाने की क्षात्र अभिलाषा, गोपन यातु, अवतारवाद, विष्णु के वक्ष पर लात मार कर उसकी महत्ता सिद्ध करते 'आंगिरस' परम्परा के भृगु... जाने कितने संकेत छिपे हुये हैं।

आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:

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यह एक उत्सुक प्रयास भर है। फुटकर नोट हैं, मन की तरंगे हैं। अकादमिक गुणवत्ता की अपेक्षा न रखें। 

सोमवार, 23 सितंबर 2013

अथर्वण संहिता - 1


  प्राचीन छान्दस में रची अथर्वण संहिता में ऐसा बहुत कुछ है जो इसे त्रयी नाम से प्रसिद्ध बाकी वैदिक संहिताओं ऋक्, साम और यजु से अलग करता है। सम्पूर्ण संहिता के मंत्रद्रष्टा ऋषि और कुल केवल एक हैं - अथर्वांगिरस। परम्परा की मानें तो लगभग 3000 ई.पू. में कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा वैदिक संहिताओं को व्यवस्थित किया गया। वह समय बहुत ही उथल पुथल का था - आर्यावर्त के दो प्रसिद्ध शक्तिशाली राजकुलों कुरु और पांचाल के बीच वैमनस्य, वैदिक मुनियों की उनके पक्ष विपक्ष में गोलबन्दी, 'लौकिक' और 'अलौकिक' के बीच बढ़ता विभेद, कर्मकांडों की जटिलता के कारण बौद्धिक वर्ग से जनसामान्य का दुराव, अवैदिक नागादि परम्पराओं से वैदिकों का संघर्ष और लुप्त होती उत्तर पश्चिम भारत की जीवन संस्कृति जननी महान सरस्वती!

ऐसे में थोड़े अंतराल से दो समनामधारी मेधावी व्यक्तित्त्व उभरते हैं - कृष्ण। एक जो कि एक साथ ऋषि पराशर, कुरुवंश और निषाद कुल से जुड़ता है - द्वैपायन। यह लोकधर्मी व्यक्ति एक ओर तो वैदिक ऋत की संकल्पना को लोक से जोड़ता है तो दूसरी ओर राजवंशों में अपने प्रभाव से उथल पुथल को शमित करने के प्रयास करता है। यह व्यक्ति जानता है कि स्वास्थ्य और कल्याण से जुड़ी अथर्वण विद्या को बिना संहिताओं में स्थान दिये लोक और वेद का वैभिन्य बना रहेगा। उसके इस प्रयास का स्थापित 'राज' ऋषि संस्थाओं द्वारा घनघोर विरोध होता है जिसकी अगुवाई हस्तिनापुर का पुरोहित वर्ग करता है।

   समान पुरखे कुरुओं की ही एक पुरानी शाखा यदु में जिसे कि अभिशाप है कि उनके यहाँ कोई राजा नहीं हो सकता, यादव कृष्ण का उद्भव होता है। स्पष्ट है कि यह शाखा विकासशील वैदिक कर्मकांडों से तालमेल न मिला पाने के कारण पीछे रह गयी और इस कारण ही अधिक 'लौकिक' हैं। पशुचारी गोपों के सान्निध्य में रहने वाले इस अ-राजस कृष्ण की दृष्टि बहुत ही व्यापक और नवोन्मेषी है। छलिया तो वह है ही! उसकी विराट सोच द्वैपायन के प्रयासों से इतर चलती है। वह कृषि आधारित समांतर आराधना परम्परा को पुन: व्यवस्थित करता है। ध्यान रहे कि सभी वैदिक सत्र ऋतु और कृषि चक्र आधारित ही थे और आर्थिक गतिविधियों से जुड़े थे। कृष्ण सागर पार के यम और मग प्रदेशों से व्यापारिक सम्बन्धों को सुदृढ़ करता है और अपने उद्योग से जीवित ईश्वर की उपाधि प्राप्त करता है।

लेकिन इन दोनों पर भारी है सूखती सरस्वती। सरस्वती जिसके तट पर, जिसके पवित्र कुंडों पर पवित्र ऋचायें गढ़ी जातीं, जो वर्ष भर चलने वाले श्रौत सत्रों की वाहिका है, अब सदानीरा नहीं है।

इस पृष्ठभूमि में रहने के नये स्थान, व्यापार और आर्थिक गतिविधियों के नये केन्द्रों के अन्वेषण और स्थापना के उद्योग होते हैं। वन कटते हैं, वैदिकों और अवैदिकों में आपसी और विरुद्ध संघर्ष होते हैं। निर्बल होते कुरु और पांचाल घरानों का भीतरी संघर्ष और उससे जुड़े तमाम समीकरणों के कारण भारत युद्ध होता है जो अपने प्रसार और विनाश के कारण कालांतर में महान कहलाता है। यादव कृष्ण सूत्रधार होता है और द्वैपायन कृष्ण महाविनाश की गाथा लिखता है।
परिणामत: संहिता सृजन की धारा क्षयी होती है और ईसा से लगभग 1900 वर्ष पहले तक सरस्वती के साथ ही अंतत: सूख जाती है। ऋषि द्वैपायन और यादव कृष्ण मिथकीय महापुरुषों का आकार ले लेते हैं जिनके नाम तमाम चमत्कार कर दिये जाते हैं। द्वैपायन अब वेदव्यास हैं, संहितायें अपौरुषेय ईश्वर वाणी हैं जिन्हें द्वैपायन द्वारा सुनिश्चित किये गये घरानों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी सँजोना है। अथर्वण परम्परा अब संहिताओं में स्थापित है जिसके आचार्य 'ब्रह्मा' कहलाते हैं।
 इसकी नौ शाखाओं में अब केवल दो शाखायें बची हैं - शौनक और पिप्पलाद। अन्य भागों के अलावा शौनक शाखा वर्तमान गुजरात और उत्तर प्रदेश में पाई जाती है तो पिप्पलाद शाखा उड़ीसा में।
 आरम्भ में वाणी के देवता या देवी की स्तुति की परम्परा सम्भवत: अथर्व से ही प्रारम्भ हुई। पिप्पलाद का स्त्रीसूचक शन्नो देविर्भिष्टये हो या शौनक का पुरुष सूचक ये त्रिषप्त..वाचस्पति ...हो, अनुमान यही होता है।  

 अथर्वण परम्परा के साथ एक और खास बात है कि यह पश्चिम से भी पुरानी और अलग थलग विकसित हुई पूरब की संस्कृति से कुछ अधिक ही जुड़ी है। इसके आचार्य पिप्पलाद और वैदर्भी इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार हिरण्यनाभ के राज्य में निवास करते हैं। यह वही वंश है जिसमें कृष्णों से भी 'एक युग पुराने' राम का जन्म हुआ था। 
आश्चर्य नहीं कि कालांतर के पुरबिया प्रतिद्वन्द्वी धर्म जैन और बौद्ध अथर्वण परम्परा से कुछ अधिक ही खीझे दिखते हैं। वे इसे अग्गवान या अहवान वेद कहते हैं। 
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यह एक उत्सुक प्रयास भर है। फुटकर नोट हैं, मन की तरंगे हैं। अकादमिक गुणवत्ता की अपेक्षा न रखें।  

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

चुपचाप चले

शहर में भीड़ अकेली शोर में चुपचाप चले
उठे नारे जब यंत्रणा में हम रहे कराह भले

कुछ यूँ हैं तनहा सड़क पर मोड़ पर भी
पहने जिस्म कोई अतर रूह बेनकाब चले
(पहन कर जिस्म कोई रूह बेनकाब चले)  

फिकर थी न जब उजाले की न अँधेरे की
बँटवारे हुये मुकम्मल मेड़ पर साँझ ढले

बसर हो रही है खास यूँ भलमनसाहत में
मन में खुदकुशी दामन विषधर नाग पले

अब के आना तो जहर काफिये ले आना
गायेंगे साथ यूँ कि चख लेंगे उतार गले

~गिरिजेश राव~
बनारस, 201309130744 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

शायर कुहासा गढ़ता है

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जब जलते हुये घरों से धुँये उठ रहे होते हैं, जब चीखें अंतर्लय में बेसुरापन भर रही होती हैं तो शायर कुहासा गढ़ता है। वह देखता है कि धुँये उसके चूल्हे की आँच से तो नहीं जुड़ रहे, वह सुनता है कि चीखें उस तरफ से तो नहीं आ रहीं जिस ओर का मसीहा बना बैठा वह वाह वाही और जाम दोनों का लुत्फ उठा रहा है।

निश्चिंत हो लेने के बाद वह अपनी वह कलम उठाता है जिसमें रोशनाई नहीं, मक्कार स्याही भरी होती है। वह खुश होता है, वक़्त को धन्यवाद देता है कि कुछ नया लिखने, प्रयोग करने को धुँये उठे, चीखें निकलीं। नज़्में, गजलें निखर उठती हैं। नगमानिगार वातावरण में कुहासा भरने लगता है।

वह जब भाईचारे की बातें लिखता है - बहुत हो गया, बन्द करो यह! तो उसका ध्येय जुल्मियों को बचाने का होता है, न कि इंसानियत को। उसे फिक्र रहती है कि कल को मुशायरे में उस पर लानतें न उतरें - हमने जब उन कठमगजों पर हमले कर उन्हें चोटें पहुँचाईं तो उनके जवाबी हमले से हमें बचाने के लिये तुमने क्या किया?

वह फिक्रमन्द होता है कि सड़क के उस बायें मोड़ पर जिसके आगे मुर्दा और जिन्दा दोनों तरह के गोश्त का इंतजाम रहता है, ऐसे गड्ढे न खोद दिये जायँ कि वह पहुँच ही न सके।

हमें इंसानियत की बातों पर उज्र नहीं, हमें आपत्ति है उनके मौके और उन हिलती जीभों पर जो तब तिजोरीबन्द जड़ रहती हैं जब मामला उलट होता है और तब भी जब उनके प्यारे काट मार मचा रहे होते हैं।

हमें आपत्ति है उन आँखों पर जो सिर के साथ रेत गड़े सजदे में ढकी होती हैं जब भरी दुपहर सूरज पर ग्रहण लग रहे होते हैं। हमें आपत्ति है उन दिमागों पर जो रस्सी को साँप समझते हैं और साँप को केंचुये की एक नस्ल भर!

वे जो समय से आगे देख नहीं सकते, वे जो समय रहते हर्फ़ों को समझ नहीं सकते, वे जो सब कुछ जानते बूझते हुये भी उल्टे राग गढ़े पढ़े कहे सुने जा रहे हैं, हमें उनसे सच में नफरत है।

हम यह मानते हैं कि ऐसी नफरत उन हजार मुहब्बतों पर भारी है जिनके आलिंगन में सभ्यतायें कराहती मौत माँगती हैं।

हाँ, तुम्हारी परिभाषा में हम प्रगतिशील नहीं क्यों कि हमें घूमते चक्के देख उनकी लीक का अनुमान सटीक हो जाता है।

 शायरी से बेहतर है कि इंसान अपने जिस्म को मवाद से भर ले।

सोमवार, 19 अगस्त 2013

पिता की सीख

जो दिखता है, जो मिलता है वह अवशिष्ट है, उच्छिष्ट। उत्कृष्ट का भोग हुआ तब ही वह बचा और हमें मिला जिसे हम इतना चाहते हैं, मान देते हैं।

 तुम्हें प्रार्थना के विश्राम की आवश्यकता है। एकाध घड़ी बुद्धि को परे रख समर्पित हो। वह वैसा ही होगा जैसे कुँये से पानी खींचते खींचते रुकना, साँसों को सम करना। तुम्हारी साँसें कुँये की जगत पर पड़ी रस्सियों के निशान से नहीं, हाथों के छालों से जुड़ती हैं।

सोमवार, 12 अगस्त 2013

अग्निपरीक्षा - 2

पहले भाग से आगे ... 

“कैसे पति हो राम?”
मन्द स्मित राम के मन में मेघ घिर आये – आर्ये! बस यही प्रश्न बचा था। कैसे पिता हो दशरथ? कैसी माँ हो सुमित्रा? कैसी पत्नी हो कैकेयी? कैसे भाई हो भरत? हर प्रश्न रुधिर पिपासु नाराच की तरह राम को घायल करता रहा है। जैसे प्रश्न संबंधित जनों के लिये न हो बस राम के लिये हों, सबका लक्ष्य एक – राम।

 आज यह क्या पूछ लिया ऋषि? क्या उत्तर है मेरे पास? वन वन भटकता सुरक्षा के लिये चिंतित राम उसे मातृत्त्व का सुख तक न दे सका जिससे पशु तक वंचित नहीं। कन्द मूल फल संचयन की टोकरी में निषिद्ध औषधियाँ! मौन से मौन संवादित – मेरे राम! अभी उपयुक्त समय नहीं है। अहेरियों का आखेट करने में संतान बाधा होगी। सब जानते हुये भी सीता को नहीं रोक सका राम। सीते! कितनी ऋतुयें व्यर्थ हुईं?

“कहाँ खो गये वत्स?” क्षितिज को निहारती सूखी आँखें लिये राम क्या उत्तर दें? लक्ष्मण ने बचा लिया – भैया! पाद्य अर्घ्य की सामग्री प्रस्तुत है...

... शिलायें आराधक को आधार देती हैं, ऊँचाई देती हैं कि वह वह देख सके जो और नहीं देख पा रहे। राम के सामने  चित्रावली चलने लगी!
गहन अमावस्या में सुदूर उत्तर में एक शिला पर बिठा कर कभी विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को वह दिखाया था जो तम से परे था।
आनुष्ठानिक अभिचार की वह शिला जिसकी साखी राजा जनक एक नागकन्या सीता को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के लिये विवश हुये, राम की प्रेमप्रतिज्ञा का आधार बनी। सीता के लरजते नेत्र जैसे राम की आँखों की पुतलियाँ बन गये!

फिर तो दाशरथि राम भार्गव राम की उस परशु शिला को भी भेद गया जिसकी ओट जनक ने वह शिवयंत्र सुरक्षित रखा था जिससे रावण का नाश हो सकता था। वीर्यशुल्का सीता उस नरशार्दुल की संगिनी होने वाली थीं जो उस यंत्र का संधान कर सकता था। जाने कितनी आशायें टूटी थीं उस दिन! नागों का प्रतिशोध भाव, जनक का प्रशांत निरपेक्ष प्रतीक्षा भाव और भार्गव राम का गर्व भी कि दशानन वध होगा तो उसी यंत्र से और कोई दूसरा युवा भार्गव सा शक्तिसम्पन्न हो ही नहीं सकता था जो सन्धान कर सके, दशानन अमर है!; सब टूटे। मनुष्य द्वारा गढ़े व्यापार कभी कभी उस पर ही चढ़ बैठते हैं। कालभंगुर शिवधनु और क्या था?

जनस्थान की वह सामरिक समर्थ शिला जिसकी आड़ ले राम ने एक पूरा रक्ष स्कन्धावार ही नष्ट कर दिया, वह शिला भी जिसके पीछे छिप राम ने बाली का वध किया। आततायियों का उन्मूलन उन्हीं की विधि, आर्यरीति का उल्लंघन कर राम ने युगांतर कलंक माथे लिया।... 
         
... भविष्य के लिये उदात्त यातना के तीन सागर दिनों  को सुरक्षित कर देने वाली उस शिला पर आज ऋषि दम्पति बैठे हैं जिस पर कभी राम के नेत्रों से झरते प्रकाश ने विजय मंत्र उद्घाटित किये थे। थके पाँवों को राहत दे राम ने लोपामुद्रा की ओर देखा जैसे अनुमति माँग रहे हों। वृद्धा ऋषि के समूचे अस्तित्त्व पर उल्लास उग आया – कैसे पति हो राम? बुलाओ उसे, पुकारो राम, पुकारो! राम का रोम रोम नीरव पुकार कर उठा – सीते!

... सीता आयेंगी? पहले कौन राक्षस अपहृत स्त्री वापस आई? किस पिता, भाई, पति, पुत्र ने उसका स्वागत किया? किस माँ ने उसके लिये आँचल पसारे?  स्वागत की छोड़ो, उसे वापस लाने को किसने उद्योग किया राम? क्यों नहीं किया राम?
तुम्हारा साहस उद्योग प्रणम्य है राम लेकिन भावी अग्निपरीक्षा का जो भय वर्षों तक रक्ष अनाचार से पृथ्वी को मेदिनी बनते देखता रहा, वह क्या इतना आसान है?

 महासंग्राम तो अब होना है राम! प्रतिपक्ष में रक्ष नहीं, मानवसंस्कृति है आर्य! शस्त्रास्त्र प्रहार नहीं होने, रुधिर नहीं बहना, इसीलिये हर व्यक्ति योद्धा है। मानव सब खोते रहे, जड़ता खोने से रहे। जहाँ खोने के लिये कुछ और न हो वहाँ सब योद्धा हैं, कैसे निपटोगे राम? बूढ़े ऋषिदम्पति के बल पर? ...


महर्षि के नेहसंबोधन से राम चेत गये – यह दक्षिणापथ का सागर तट है राम! उत्तर के मानवों की नहीं; यहाँ वानर, ऋक्ष, किरात, नाग, कोल, भील, राक्षसादि की सभा है। सीता आ रही है राम! भूमितनया नागकन्या सीता का स्वागत करो। कैसे करोगे?  
(जारी)      

रविवार, 11 अगस्त 2013

अग्निपरीक्षा - 1

तेज चलो लोपा! हमें सागर तट तक शीघ्र पहुँचना है।“
“वृद्धावस्था है अगस्त्य! शक्तियाँ क्षीण हो चली हैं।“
“दायित्त्वों से मुक्ति होने को है देवी! राम समर में विजयी हुये हैं।“
“थोड़ा ठहरो। तुम्हारी लोपा अब चल नहीं सकती।“
घने शमी वृक्ष की छाँव में दोनों रुक गये। अपनी गोद में लोपा के थके पैर ले ऋषि अगस्त्य सहलाने लगे। कितनी प्रतीक्षा कराई राम ने विन्ध्य के पार आने में! उसके पश्चात रक्ष सत्ता को संहारने में कितना विलम्ब किया!!  आत्मलीन अगस्त्य की दृष्टि मुग्ध निहारती लोपामुद्रा पर पड़ी।
“ऐसे क्या देख रही हो देवी? सृष्टि के विभिन्न प्राणियों से अंग सौन्दर्य ले कर रचा हुआ तुम्हारा सौन्दर्य अब भी चकाचौंध करता है।“  
“कह लो अगस्त्य! अब तो न तुम कहीं जा सकते हो और न लोपा तुम्हें रिझाने को ऋचायें गढ़ सकती है। गोधूलि बेला में एक दूसरे की आँखों की टिमटिमाहटों में ही प्रकाश मिलेगा। तुम्हें ऐसे पादाति और शिष्यों के बिना जाने की क्यों सूझी?“
“रावण से निर्णायक युद्ध के पहले राम का आदित्य संस्कार करने हम अकेले ही गये थे। अब उन दम्पति का अग्नि संस्कार करना है। मृत देहों का नहीं, तपी हुई कुन्दन आत्माओं का संस्कार करना है। उसके लिये सुपात्र हम दोनों के अतिरिक्त कोई नहीं। भीड़ का क्या काम? वहाँ तो होगी ही। यह पैदल चलना हम दोनों का अंतिम तप है।“
“उसके पश्चात क्या होगा अगस्त्य!”
“चिर विश्राम देवी! चिर विश्राम। दूर नक्षत्रों में कहीं हम टिमटिमायेंगे। आने वाली मानव संतानें हम दोनों को लेकर अगणित कथायें कहेंगी। लोपामुद्रा और अगस्त्य, सीता और राम जन स्मृति से कभी लुप्त नहीं होंगे लोपा!”
“यह लुप्त और लोपा की तुमने अच्छी युति लगाई अगस्त्य! मैं तो लुप्त होने से रही। तुम्हारे साथ सर्वदा रहूँगी।”
“तुम्हें तो वन की प्रजा वरप्रदा भी कहती है। तुम तो सर्वदा वरदा हो।“
अगस्त्य ने रुक कहा -  यह तो ऋचा जैसी हो गई। गायत्री छ्न्द में इसे साथ साथ कहें?
 दोनों समवेत हँसे।
“वह ऋचायें सुना दो जो तुमने मुझे लुभाने को रची थीं।“ अगस्त्य के स्वर में दाम्पत्य प्रेम का आग्रह था।
“चली चलाई की बेला में उनका क्या काम?” लोपा के श्वेत केश समृद्ध वृद्ध मुख पर लाज की लाली आ फैली।
“बस तुम्हारे मुख से सुनने को मन कर रहा है। विश्राम विरम जायेगा।“
लोपा सचेत हो गईं और सहज स्वर में गा उठीं – पूर्वीरहं शरद: शश्रमाणा ....
नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित। 
लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तं॥ 
“साधु देवि! साधु!! तुम्हारे साथ मेरा जीवन सफल हुआ। हमारा धैर्य ही हमारा काम, हमारा प्रेम बन गया। हमारी साँसें एक हो गईं।“
लोपामुद्रा के स्वर में कौतुक उतर आया। बोलीं,“परचित्तानुरंजन तो कोई तुमसे सीखे! पूछोगे नहीं कि मेरा जीवन भी सफल हुआ या नहीं?”  
“उसका सफल होना जानता हूँ तभी तो कह पा रहा हूँ। अकेले अगस्त्य या लोपामुद्रा किस काम के? चलें अब? सीता और राम को हमदोनों की आवश्यकता है।”
चलते हुये ऋषि दम्पति के ऊपर मेघों ने छाँव कर दिया।
रक्ष संस्कृति के पराभव के पश्चात सात समुद्रों से घिरी पृथ्वी अब मुक्त थी। रावण की मृत्यु ने जो निर्वात जना था उसे शीघ्र पूरना अति आवश्यक था। वशिष्ठ संकीर्ण थे। नवसृजन करने वाले और अवैदिकों को भी वैदिक धारा में सम्मिलित करने वाले विश्वामित्र संन्यासी हो चले थे। राम को इस महत दायित्त्व योग्य दीक्षित कर सके, अगस्त्य के अतिरिक्त किसी में यह सामर्थ्य नहीं थी। विजयी राम को संस्कृति का नवसंस्कार करना था जो कोल, भील, किरात, वानर, ऋक्षादि को वैसे ही अपनी गोद में स्थान दे सके जैसे देव, मानव, दानव और यहाँ तक कि राक्षसों को भी देती आई थी। राक्षसों ने तो उन्हें आखेट योग्य पशुओं से इतर नहीं समझा और विभीषण निस्तेज था।
शीघ्र पहुँचो अगस्त्य! इसके पहले कि कोई अनर्थ हो जाय – उनके कदम तेज हो चले। साथ चलती ऋषि लोपामुद्रा समझ गईं कि उन्हें अब टोकना उचित नहीं। लोपामुद्रा को सीता और राम के साथ दण्डक वन में बिताये तीन दिनों की स्मृति हो आई।
...राक्षसों से संघर्ष की योजना बनाते अगस्त्य और राम। कौतुक वश लोपामुद्रा ने सीता से कहा था – लगता है जैसे मित्र और वरुण पुन: सृजन उद्योग में लग माता बनना चाह रहे हैं।
सीता ने उत्सुकता और आश्चर्य के साथ पूछा,"दो पुरुष माता?" 
वृद्धा लोपा ने उत्तर दिया,"सीमाओं को पार कर मित्रता और अनुशासन के साथ जन जन को उद्योगी बनाने वाले ऋषि अगस्त्य को मित्र और वरुण की संतान मैत्रावरुण भी कहा जाता है। लोक मनीषियों का ऐसे भी पुनर्जन्म करा उन्हें पारलौकिक बना देता है ... वैसे पुरुष क्या जानें मातृत्त्व?" उनका स्वर विनोदी हो चला था।    
सीता मुस्कुराई थीं – माँ, मुझे भी उसका अनुभव नहीं।
"धैर्य रखो पुत्री! सौभाग्य मानो, संसार में बहुत कम लोगों को धैर्यतप के अवसर मिलते हैं।"
... 
सागर तट पर प्रतीक्षारत राम। समूचे संसार को रुलाने वाला रावण अब स्वजनों के आँसुओं में बचा था। आस पास के  जन, मुनि गण उसकी मृत्यु पर हर्ष प्रकट कर जा चुके थे और इन्द्र अपना युद्धरथ ले कर।  लक्ष्मण सहित वानर सेना के सभी मुख्य पदाधिकारी लंका नगरी में थे - पृथ्वी को पददलित करने वाले महापंडित का अन्तिम संस्कार होने तक सीता को लंका में ही राजकीय अतिथि की तरह रहना था। राम को कूटनीति और राजनीति के सूक्ष्म विधानों पर झुँझलाहट हो आई - आतताई, बर्बर, बलात्कारी राक्षस मृत्यु के पश्चात भी राजकीय सम्मान का अधिकारी था।
प्रसन्न विजयी सेना में कोलाहल अभी भी था। घर लौटने की तैयारी!  
तापस भरत, अयोध्या में सूनेपन को जी रही मातायें... सीते! इतना विलम्ब क्यों? जिस प्रतीक्षा का हर क्षण युग की तरह बीता था, अब वह असह्य हो चली थी।
...सीता, सीता – हम दोनों किसी तापस कुल में उत्पन्न हुये होते तो कितना अच्छा होता! ... अच्छा नहीं होता। कोई रावण तब भी उठा कर ले जाता और मैं कुछ न कर पाता। क्या होगा जब उसके विनाश का समाचार फैलेगा? यत्र तत्र सर्वत्र फैले राक्षस स्कन्धावार अब केन्द्रीय सत्ता के अनुशासन से मुक्त। उन्हें कौन नियंत्रित करेगा? भोगवादी रक्ष संस्कृति पुन: मेदिनी को निरीहों के रुधिर मेदा से न भर दे! शोषण, दासता और बलात्कार का भय पुन: समय का सत्य न हो! कैसे? स्त्री अपहरण को वीर भोग्या वसुन्धरा से जोड़ने वाली संस्कृति पुन: बली न हो सीते! कैसे?... विजय का आनन्द राम से सहस्रों योजन दूर था।...निज शरीर के घावों को निरखते राम आत्मलीन हो चले, स्मृति बह चली... 


देवास्त्र सौंपते ऋषि अगस्त्य। दशानन के जीवनरक्षण के दश अवसर समाप्त हो चुके हैं रघुनन्दन! अब राक्षस के संहार का समय है। यह ऐन्द्रास्त्र ब्रह्मा द्वारा निर्मित है। वही ब्रह्मा जिनके कारण आज रावण को अमर माना जाता है। इसी से उसका वध होगा। वह अभिचारी तांत्रिक भी है। उसे मारने के लिये शरीर के दश मर्मस्थानों पर एक साथ प्रहार करना होगा राघव! यह अस्त्र कर सकता है किंतु इसे चलाने के दिक्काल का निर्धारण तुम्हें स्वयं करना होगा। तुममें वह क्षमता है। यह ध्यान रखना कि रथी रावण पर प्रहार के लिये तुम्हें भी रथारूढ़ रहना होगा नहीं तो ऊँचाई का अन्तर मर्मस्थानों पर प्रहार नहीं होने देगा...
... रावण से निर्णायक युद्ध की घड़ियाँ निकट आती गईं और राम बेचैन होते गये। पदाति सेना। रावण कैसे मरेगा? रथ का प्रबन्ध किया जा सकता था लेकिन देवास्त्र को चलाने योग्य धनुर्यन्त्र को सँभाल सकने वाला रथ कहाँ मिलेगा?...
...अर्धरात्रि। इन्द्र को साथ ले मारुति खड़े हैं। उसे ऋषि अगस्त्य ने भेजा है।
“मेरे रथ और सारथी मातलि का उपयोग करो राम! ऋषि ने मेरी सारी दुविधायें हर ली हैं। तुम सक्षम हो। मैं अक्षम सुपात्र नहीं। मुझ भोगी का तप नष्ट हो गया है।  उस अस्त्र को चला सकने की योग्यता मेरे पास नहीं है। मेरे लिये बनाये गये अस्त्र से राक्षस का संहार करो।“
‘यह ऋषि सभी साधक तापसों से भिन्न है।‘
 राम को लगा जैसे अगस्त्य समर्थ पिता की भूमिका में थे – गहन संकटों में पुत्र के तारणहार। दशरथ पुत्र राम दशकन्धर का वध करेगा। अमानिशा बीत चुकी थी।...
सामने दशदिशा विजयी रावण।  दशग्रीव कहा जाता है इसे – दश मनुष्यों के बराबर शक्ति और मेधा। आश्चर्य नहीं कि अजेय रावण ने मनुष्यों को अपने सामने ‘कुछ नहीं’ समझा। इसे अमर तो इसके समर्थकों,  संरक्षकों और इतर समर्थों की मृत सोच ने बनाया है – महादेव, इन्द्र, सहस्रार्जुन, यम, वेदवती, बाली, अनरण्य ...इसके नाश के कितने ही अवसर आये लेकिन कभी नियति, कभी पुलस्त्य, कभी ब्रह्मा- बचता गया।...
“मुझे मारो राम! मुझे मारो।“ दूर से रावण का दशमुखी बर्बर अट्टहास युक्त स्वर दशों दिशाओं से आती प्रतिध्वनियों सा लग रहा है।
मन में अगस्त्य वाणी - राम! दिक्काल उपयुक्त है। ऊँचाई और दूरी दोनों पर्याप्त हैं। आदित्यों का स्मरण कर अस्त्र सन्धान करो। वह दशानन है तो तुम सूर्यवंशी। द्वादश आदित्य तुम्हारे साथ हैं राम! सन्धान करो।
केन्द्रित होने को कुछ समय चाहिये। संकेत – हनुमान ने रावण को उलझा लिया है।
 “मातलि! कुछ क्षण रथ को ऐसे ही घुमाते रहो। मुझे स्वयं को साधना है।“
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोऽशुमान्॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तुते॥
"सृष्टि की समस्त शुभ शक्तियों! दाशरथि राम तुम्हारा आह्वान करता है। धरा को अत्याचार भार से मुक्त होना है, सन्नद्ध हो ....मातलि! सावधान!! अश्वों को स्थिर करो। निर्भय संकेत दो। स्वयं भी निर्भय सचेत रहो।“  
भीषण स्वर जैसे वज्र दामिनी की गड़गड़ाहट। इन्द्र सारथी मातलि स्तब्ध, समूचा युद्ध क्षेत्र स्तब्ध! अस्त्र के छूटते ही उसके दश भाग हो गये हैं।  रावण के हृदयक्षेत्र पर मुख्य आघात और बाकी भाग सटीक मर्मस्थानों पर! कवच छिन्न भिन्न हो चला है। मारुति की आनन्द भरी परुष किलकारी - रावण मारा गया राघव! रावण मारा गया!! ... 
...राम पुन: संज्ञस्थ हुये - मृत राक्षस जीवित से भी भयंकर है। कितने ही प्रश्न छोड़ गया। ऋषि! आप कहाँ हैं?
यह निर्वात और यह प्रतीक्षा। सीता से कब मिलना होगा? कैसे?
वरप्रदा! आप कहाँ है? सीता का स्वागत करने को क्या कोई स्त्री न होगी?
“हमें विलम्ब तो नहीं हुआ राम?”
अगस्त्य की वाणी ने राम को मुक्त किया। वह साष्टांग दण्डवत में भूमिशायी हो गये। उन्हें उठा कर गले लगाते हुये लोपामुद्रा ने पूछा – मेरी पुत्री सीता कहाँ है? अभी नहीं आई? कैसे पति हो राम?
(जारी)