सोमवार, 23 सितंबर 2013

अथर्वण संहिता - 1


  प्राचीन छान्दस में रची अथर्वण संहिता में ऐसा बहुत कुछ है जो इसे त्रयी नाम से प्रसिद्ध बाकी वैदिक संहिताओं ऋक्, साम और यजु से अलग करता है। सम्पूर्ण संहिता के मंत्रद्रष्टा ऋषि और कुल केवल एक हैं - अथर्वांगिरस। परम्परा की मानें तो लगभग 3000 ई.पू. में कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा वैदिक संहिताओं को व्यवस्थित किया गया। वह समय बहुत ही उथल पुथल का था - आर्यावर्त के दो प्रसिद्ध शक्तिशाली राजकुलों कुरु और पांचाल के बीच वैमनस्य, वैदिक मुनियों की उनके पक्ष विपक्ष में गोलबन्दी, 'लौकिक' और 'अलौकिक' के बीच बढ़ता विभेद, कर्मकांडों की जटिलता के कारण बौद्धिक वर्ग से जनसामान्य का दुराव, अवैदिक नागादि परम्पराओं से वैदिकों का संघर्ष और लुप्त होती उत्तर पश्चिम भारत की जीवन संस्कृति जननी महान सरस्वती!

ऐसे में थोड़े अंतराल से दो समनामधारी मेधावी व्यक्तित्त्व उभरते हैं - कृष्ण। एक जो कि एक साथ ऋषि पराशर, कुरुवंश और निषाद कुल से जुड़ता है - द्वैपायन। यह लोकधर्मी व्यक्ति एक ओर तो वैदिक ऋत की संकल्पना को लोक से जोड़ता है तो दूसरी ओर राजवंशों में अपने प्रभाव से उथल पुथल को शमित करने के प्रयास करता है। यह व्यक्ति जानता है कि स्वास्थ्य और कल्याण से जुड़ी अथर्वण विद्या को बिना संहिताओं में स्थान दिये लोक और वेद का वैभिन्य बना रहेगा। उसके इस प्रयास का स्थापित 'राज' ऋषि संस्थाओं द्वारा घनघोर विरोध होता है जिसकी अगुवाई हस्तिनापुर का पुरोहित वर्ग करता है।

   समान पुरखे कुरुओं की ही एक पुरानी शाखा यदु में जिसे कि अभिशाप है कि उनके यहाँ कोई राजा नहीं हो सकता, यादव कृष्ण का उद्भव होता है। स्पष्ट है कि यह शाखा विकासशील वैदिक कर्मकांडों से तालमेल न मिला पाने के कारण पीछे रह गयी और इस कारण ही अधिक 'लौकिक' हैं। पशुचारी गोपों के सान्निध्य में रहने वाले इस अ-राजस कृष्ण की दृष्टि बहुत ही व्यापक और नवोन्मेषी है। छलिया तो वह है ही! उसकी विराट सोच द्वैपायन के प्रयासों से इतर चलती है। वह कृषि आधारित समांतर आराधना परम्परा को पुन: व्यवस्थित करता है। ध्यान रहे कि सभी वैदिक सत्र ऋतु और कृषि चक्र आधारित ही थे और आर्थिक गतिविधियों से जुड़े थे। कृष्ण सागर पार के यम और मग प्रदेशों से व्यापारिक सम्बन्धों को सुदृढ़ करता है और अपने उद्योग से जीवित ईश्वर की उपाधि प्राप्त करता है।

लेकिन इन दोनों पर भारी है सूखती सरस्वती। सरस्वती जिसके तट पर, जिसके पवित्र कुंडों पर पवित्र ऋचायें गढ़ी जातीं, जो वर्ष भर चलने वाले श्रौत सत्रों की वाहिका है, अब सदानीरा नहीं है।

इस पृष्ठभूमि में रहने के नये स्थान, व्यापार और आर्थिक गतिविधियों के नये केन्द्रों के अन्वेषण और स्थापना के उद्योग होते हैं। वन कटते हैं, वैदिकों और अवैदिकों में आपसी और विरुद्ध संघर्ष होते हैं। निर्बल होते कुरु और पांचाल घरानों का भीतरी संघर्ष और उससे जुड़े तमाम समीकरणों के कारण भारत युद्ध होता है जो अपने प्रसार और विनाश के कारण कालांतर में महान कहलाता है। यादव कृष्ण सूत्रधार होता है और द्वैपायन कृष्ण महाविनाश की गाथा लिखता है।
परिणामत: संहिता सृजन की धारा क्षयी होती है और ईसा से लगभग 1900 वर्ष पहले तक सरस्वती के साथ ही अंतत: सूख जाती है। ऋषि द्वैपायन और यादव कृष्ण मिथकीय महापुरुषों का आकार ले लेते हैं जिनके नाम तमाम चमत्कार कर दिये जाते हैं। द्वैपायन अब वेदव्यास हैं, संहितायें अपौरुषेय ईश्वर वाणी हैं जिन्हें द्वैपायन द्वारा सुनिश्चित किये गये घरानों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी सँजोना है। अथर्वण परम्परा अब संहिताओं में स्थापित है जिसके आचार्य 'ब्रह्मा' कहलाते हैं।
 इसकी नौ शाखाओं में अब केवल दो शाखायें बची हैं - शौनक और पिप्पलाद। अन्य भागों के अलावा शौनक शाखा वर्तमान गुजरात और उत्तर प्रदेश में पाई जाती है तो पिप्पलाद शाखा उड़ीसा में।
 आरम्भ में वाणी के देवता या देवी की स्तुति की परम्परा सम्भवत: अथर्व से ही प्रारम्भ हुई। पिप्पलाद का स्त्रीसूचक शन्नो देविर्भिष्टये हो या शौनक का पुरुष सूचक ये त्रिषप्त..वाचस्पति ...हो, अनुमान यही होता है।  

 अथर्वण परम्परा के साथ एक और खास बात है कि यह पश्चिम से भी पुरानी और अलग थलग विकसित हुई पूरब की संस्कृति से कुछ अधिक ही जुड़ी है। इसके आचार्य पिप्पलाद और वैदर्भी इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार हिरण्यनाभ के राज्य में निवास करते हैं। यह वही वंश है जिसमें कृष्णों से भी 'एक युग पुराने' राम का जन्म हुआ था। 
आश्चर्य नहीं कि कालांतर के पुरबिया प्रतिद्वन्द्वी धर्म जैन और बौद्ध अथर्वण परम्परा से कुछ अधिक ही खीझे दिखते हैं। वे इसे अग्गवान या अहवान वेद कहते हैं। 
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यह एक उत्सुक प्रयास भर है। फुटकर नोट हैं, मन की तरंगे हैं। अकादमिक गुणवत्ता की अपेक्षा न रखें।  

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

चुपचाप चले

शहर में भीड़ अकेली शोर में चुपचाप चले
उठे नारे जब यंत्रणा में हम रहे कराह भले

कुछ यूँ हैं तनहा सड़क पर मोड़ पर भी
पहने जिस्म कोई अतर रूह बेनकाब चले
(पहन कर जिस्म कोई रूह बेनकाब चले)  

फिकर थी न जब उजाले की न अँधेरे की
बँटवारे हुये मुकम्मल मेड़ पर साँझ ढले

बसर हो रही है खास यूँ भलमनसाहत में
मन में खुदकुशी दामन विषधर नाग पले

अब के आना तो जहर काफिये ले आना
गायेंगे साथ यूँ कि चख लेंगे उतार गले

~गिरिजेश राव~
बनारस, 201309130744 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

शायर कुहासा गढ़ता है

ashshuara1

जब जलते हुये घरों से धुँये उठ रहे होते हैं, जब चीखें अंतर्लय में बेसुरापन भर रही होती हैं तो शायर कुहासा गढ़ता है। वह देखता है कि धुँये उसके चूल्हे की आँच से तो नहीं जुड़ रहे, वह सुनता है कि चीखें उस तरफ से तो नहीं आ रहीं जिस ओर का मसीहा बना बैठा वह वाह वाही और जाम दोनों का लुत्फ उठा रहा है।

निश्चिंत हो लेने के बाद वह अपनी वह कलम उठाता है जिसमें रोशनाई नहीं, मक्कार स्याही भरी होती है। वह खुश होता है, वक़्त को धन्यवाद देता है कि कुछ नया लिखने, प्रयोग करने को धुँये उठे, चीखें निकलीं। नज़्में, गजलें निखर उठती हैं। नगमानिगार वातावरण में कुहासा भरने लगता है।

वह जब भाईचारे की बातें लिखता है - बहुत हो गया, बन्द करो यह! तो उसका ध्येय जुल्मियों को बचाने का होता है, न कि इंसानियत को। उसे फिक्र रहती है कि कल को मुशायरे में उस पर लानतें न उतरें - हमने जब उन कठमगजों पर हमले कर उन्हें चोटें पहुँचाईं तो उनके जवाबी हमले से हमें बचाने के लिये तुमने क्या किया?

वह फिक्रमन्द होता है कि सड़क के उस बायें मोड़ पर जिसके आगे मुर्दा और जिन्दा दोनों तरह के गोश्त का इंतजाम रहता है, ऐसे गड्ढे न खोद दिये जायँ कि वह पहुँच ही न सके।

हमें इंसानियत की बातों पर उज्र नहीं, हमें आपत्ति है उनके मौके और उन हिलती जीभों पर जो तब तिजोरीबन्द जड़ रहती हैं जब मामला उलट होता है और तब भी जब उनके प्यारे काट मार मचा रहे होते हैं।

हमें आपत्ति है उन आँखों पर जो सिर के साथ रेत गड़े सजदे में ढकी होती हैं जब भरी दुपहर सूरज पर ग्रहण लग रहे होते हैं। हमें आपत्ति है उन दिमागों पर जो रस्सी को साँप समझते हैं और साँप को केंचुये की एक नस्ल भर!

वे जो समय से आगे देख नहीं सकते, वे जो समय रहते हर्फ़ों को समझ नहीं सकते, वे जो सब कुछ जानते बूझते हुये भी उल्टे राग गढ़े पढ़े कहे सुने जा रहे हैं, हमें उनसे सच में नफरत है।

हम यह मानते हैं कि ऐसी नफरत उन हजार मुहब्बतों पर भारी है जिनके आलिंगन में सभ्यतायें कराहती मौत माँगती हैं।

हाँ, तुम्हारी परिभाषा में हम प्रगतिशील नहीं क्यों कि हमें घूमते चक्के देख उनकी लीक का अनुमान सटीक हो जाता है।

 शायरी से बेहतर है कि इंसान अपने जिस्म को मवाद से भर ले।