शनिवार, 26 अप्रैल 2014

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 27

 

पिछले भाग से आगे ...

 

नवरातन अष्टमी की रात। रमैनी काकी को नींद नहीं - आँखों में देवी ने अपने लहू लुहान पाँव जमा दिये थे! रह रह याद आते - लीक की चिकनी चमकती कठभट्ठा माटी पर पाँवों के लाल लहू निशान ज्यों देवी देवकुरी में पइस रही हो। मतवा!

 “जुगुला का करी रे?” सब जानते हुये भी पुछार मन पर असवार है। उत्तर निसंक है – अनरथ करी, अउर का! करवटों के नीचे कीच काच। बिछावन में काँटे उग आये थे, मतवा के गोड़ की चुभन काकी के अंग अंग समाने लगी। देह को किसी ने उछाल दिया और मन कराह उठा – हम नाहीं होखे देब, हम नाहीं होखे देब। जिसे नगिनिया बता स्त्री समाज से बहिष्कृत करा दिया था, आज उसी के लिये रमैनी काकी के हिया ममता उमड़ रही है!

दक्खिन पच्छिम अकास में हनवा डूबने वाला था। बरसों पहले अपनी खींची रेख को एक ही दिन दूसरी बार लाँघने काकी सोहित के घर की ओर झड़क चली...

...लाल बस्तर, लाल फेंटा, लाल गमछा बाँधे हुये जुग्गुल की एकांतिक ‘निसापूजा’ सम्पन्न हुई। आज की रात बलि की रात है, मन्नी बाबू की भेंट के रास्ते में जनम आये ‘काँटे के नास’ की रात है।

 

...जिस समय खदेरन पंडित विशल्या व्रणहा गिलोय की सोच में थे, उसी समय नेबुआ की झाँखी में कुदाल छिपाने के बाद डाँड़ा में सूखी अरकडंडी खोंसे दबे पाँव जुग्गुल सोहित के घर में घुसा। सोहित के नासिका गर्जन ने उसे उत्साह दिया। पहले कभी आया नहीं, किधर जाये? मदद करो बकामुखी! हुँ फट् स्वाहा ... नथुनों में धुँये की रेख पहुँची। ताड़ते हुये जुग्गुल परसूता के कक्ष में घुसने लगा कि लतमरुआ से ठोकर लगी। लँगड़े पाँव ने जवाब दे दिया, वहीं लुढ़क गया! बाहर सोहित की नाक बजनी बन्द हो गई थी, जुग्गुल जहाँ था वहीं पटा गया। सन्नाटा! कुछ पल कुछ नहीं हुआ तो खुद को जमीन पर सँभालते हुये कोहनियों के बल रेंगता हुआ भीतर पहुँच गया। पसीने पसीने हाथ जल्दी जल्दी बिस्तर टटकोरने लगे, बिस्तर खाली था!

 कहाँ गयी नागिन? मारे घबराहट के देह में थरथरी फैल गयी। मक्कार मन में जमा जम और हाबी हो गया। वस्त्र में लिपटे शिशु तक हाथ पहुँचे। टटोलते हुये उसने एक हाथ मुँह पर जमाया और दूसरे से गला दबाने वाला ही था कि मन ने चुगली की – लेके भागु! आ गइल त सब खटाई हो जाई। जैसे तैसे खुद को सँभालते नवजात के मुँह पर एक हाथ जमाये लँगड़ा बाहर को निकला, सोये सोहित को पार किया तो हिम्मत बढ़ी। दुआर से आगे उसने अपनी स्वाभाविक तिगुनी लँगड़ी चाल पकड़ ली। नेबुआ मसान तक आते आते वह पूरा जुग्गुल था। मन्नी बाबू, मन्नी बाबू ...जैसे कोई ओझा मन्तर पढ़ रहा हो, अधखुली आँखें और पूरी तरह से शांत मन लिये जुग्गुल ने नवजात बालिका का गला मरोड़ दिया। छटपटाहट शांत हुई तो वहीं गड्ढा खोद उसे तोप दिया...

... कोई उत्पात या शोर नहीं, सब ओर शांति ज्यों त्रिताप से मुक्ति मिली हो। जुग्गुल पीछे मुड़ा और रमैनी काकी की छाया से साक्षात हुआ – ई का क देहलऽ  जुग्गुल नवरातन में? भवानी रहलि हे भवानी!  

मौका अनुकूल रहता तो जुग्गुल जोर जोर से हँस पड़ता। साँप की फुफकार सी आवाज निकली – भवानी रहलि होखे चाहे भवाना, मूये के रहबे कइल? कब से तोहरे हिया माया ममता जुड़ाये लागल हो काकी? चुप्पे रहिह नाहीं त..

अधूरे छोड़ दिये गये वाक्य में छिपी धमकी और बात के उल्लंघन की स्थिति में परिणति कि काकी बखूबी समझ गयी। दिवाली और अष्टमी की रातों में रमैनी काकी द्वारा किये जाने वाले टोने टोटके गाँव भर में विख्यात थे। जुग्गुल बहुत कुछ कर सकता था!

बिना कुछ कहे मौन रूदन करते काकी अपने घर की ओर चल पड़ी। पावों में, हिया में, सर में पाथर ही पाथर थे जैसे हत्या जुग्गुल ने नहीं बल्कि काकी ने खुद की हो।

 

भोर हुई। मतवा का ज्वर वैसे ही था। खदेरन पंडित ने मड़ई से बाहर निकल आसमान निहारा और बीते जन्माष्टमी की वह रात याद आ गई जिसमें सोहित और उसकी भउजी ने सारे बरजन तोड़ दिये थे! उत्तर से दक्षिण तक बहती आकाशगंगा वैसी ही बढ़ियाई लग रही थी और शिशुमार भयानक! श्रावण, ज्येष्ठा, विशाखा सब मन्द थे। रामनवमी की बेला में यह सब! यज्ञशाला में पूर्वाभिमुख हो मन की शांति के लिये स्तवन करने लगे:

मातर्नीलसरस्वती प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे,

प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननांभोरुहे

फुल्लेन्दीवर लोचने त्रिनयने कर्त्रीकपालोत्पले...

 

प्रातकी के साथ ही गिलोय की खोज में वे अन्हरिया बारी में प्रविष्ट हुये। औषधि प्राप्ति से किंचित संतुष्ट खदेरन हाथ में भिषक्प्रिया अमृता तंत्रिका गुडूची गिलोय लिये बाहर आये ही थे कि कानों में भीषण चीत्कार की ध्वनि पड़ी - सोहित! स्वर पहचानते ही क्षणिक संतुष्टिमय शांति हवा हो गयी।

नेबुआ मसान में हुये पुराने अनर्थों की शृंखला में एक कड़ी और तो नहीं जुड़ गयी! सारे लक्षण, संकेत, संयोग तो वैसे ही आ मिले थे। खदेरन के पाँवों में पंख उग आये। आबादी से निकट होते जाना कि कोलाहल बढ़ता जा रहा था ...

(अगले भाग में जारी)

1 टिप्पणी:

  1. bade dino ke baad ! main to roz intezaar karta hoon.itne lambe antral ke baad bhi pakad bani hui hai.agli kadi jaldi aaye,ye laalsa hai…….BAU KA DEEWANA.

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