रविवार, 20 जुलाई 2014

सावित्री सूत्र : यम सावित्री संवाद से

चित्र आभार : जागरण 
(1)
प्राहु: साप्तपदं मैत्रं ... मित्रतां च पुरस्कृत्य।
[सात पग साथ चलने से मैत्री हो जाती है। मुझे मित्रता का पुरस्कार दीजिये यमदेव!]

(2)
विज्ञानतो धर्ममुदाहरंति ... संतो धर्ममाहु प्रधानं
[विवेक विचार से ही धर्मप्राप्ति होती है। संत धर्म को ही प्रधान बताते हैं]

प्रश्न यह नहीं है कि सावित्री कितनी प्रासंगिक है या कितनी हानिकारक है। प्रश्न यह भी नहीं है कि वह आज के मानकों पर खरी उतरती है या नहीं। प्रश्न यह है कि आप अपनी समस्त प्रगतिशीलता और बौद्धिक प्रखरता के होते हुये भी उसके समान आदर्श गढ़ नहीं सके! यथार्थ अलग हो सकते हैं, होते ही हैं किंतु किसी समाज की गुणवत्ता उसके आदर्शों की भव्यता और दीर्घजीविता से भी आँकी जाती है। आप 'फेल' हुये हैं! आप का सारा जोर ऐसे प्राणहीन जल की प्राप्ति की ओर है जिसका स्रोत कृत्रिम है और जिसमें मछलियों के जीवित रहने की बात तो छोड़ ही दीजिये, वे हो ही नहीं सकतीं। 
(3)
 एकस्य धर्मेण सतां मतेन, सर्वे स्म तं मार्गमनुप्रपन्ना:, मा वै द्वितीयं मा तृतीयं च 
[सतमत है कि एक धर्म के पालन से ही सभी उस विज्ञान मार्ग पर पहुँच जाते हैं जो कि सबका लक्ष्य है,
मुझे दूसरा तीसरा नहीं चाहिये]

यम सावित्री की वाणी की प्रशंसा करते हैं - स्वराक्षरव्यंजनहेतुयुक्तया [स्वर, अक्षर, व्यंजन और युक्तियुक्त - वाणी तो सबकी ऐसी होती है, इसमें अद्भुत क्या है? अद्भुत यह है कि मर्त्यवाणी देवसंवाद करती है। अक्षर माने जिसका क्षरण न हो। जिससे मृत्यु भागे, अमरत्त्व की प्राप्ति हो। अमृतस्य पुत्रा: की अनुभूति का स्तर है वह]


(4)
सतां सकृत्संगतभिप्सितं परं , तत: परं मित्रमिति प्रचक्षते । 
न चाफलं सत्पुरुषेण संगतं, ततं सता: सन्निवसेत् समागमे॥ 
[सज्जनों की संगति परम अभिप्सित होती है, उनसे मित्रता उससे भी बढ़ कर। उनका साथ कभी निष्फल नहीं होता, इसलिये सज्जनों का साथ नहीं छोड़ना चाहिये] 

आप तो सज्जन हैं न यमदेव! आप का साथ कैसे छोड़ दूँ?

(5)
 अद्रोह: सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा 
अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्म: सनातन:॥
 
[मनसा, वाचा, कर्मणा सभी प्राणियों से अद्रोह का भाव, अनुग्रह और दान सज्जनों का सनातन धर्म]

(6)
 आत्मन्यपि विश्वासस्तथा भवति सत्सु य: 
न च प्रसाद: सत्पुरुषेषु मोघो न चाप्यर्थो नश्यति नापि मान:
 
[अपने पर भी उतना विश्वास नहीं होता जितना संतों पर होता है। उनका प्रसाद अमोघ होता है। उनके साथ अर्थ और सम्मान की हानि भी नहीं होती]

संतों की बात करते करते सावित्री उनके लिये आदर्श गढ़ देती है, उनकी कसौटी तय करती है। 
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महाभारत : वन पर्व 

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