रविवार, 20 सितंबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 29

पिछले भाग से आगे...

रमैनी काकी माने माया छाया एक देह। कुछ पहर पहले ही जिस नगिनिया भउजी के लिये मन में माया हिलोर ले रही थी वह जुग्गुल की एक बात से अपनी पुरानी छाया में आ गई थी। रक्कत देख सन्तोख नहीं पूरा था, काकी तमाशा देखने को गोहरा रही थी!

घेरा तोड़ते खदेरन आगे पहुँचे तो जो वीभत्स दिखा वह कहीं नहीं, कभी नहीं दिखा था, कमख्खा में भी नहीं। एक नवजात मानुष देह क्षत विक्षत पड़ी थी, पास ही मझोले कद का एक कुत्ता किसी धारदार हथियार से कटा पड़ा था और जुग्गुल भ्रष्ट भैरव बना एक हाथ में टाँगी और दूसरे में नवजात की टाँग लिये उछ्ल रहा था। लाल कपड़े पर भी रक्त के छींटे स्पष्ट थे, धरती पर खून ही खून। रमैनी काकी को पंडिताइन के लाल गोड़ निसान याद आ गये, खुद को सँभालने को लबदी का सहारा ले धीरे धीरे वहीं बैठ गयी। दोनो गोड़ पानी जैसे हो गये थे!

जुग्गुल चिघ्घाड़ उठा – महापातक भइल बा गाँव में, महापातक! मुसमात देवर संगे सुहागिन भइल, केहू जानल? नाहीं। नागिन पेटे जीव परल, केहू जानल? नाहीं। भवानी पैदा भइल, केहू जानल? नाहीं। खेला देख जा पंचे, खेला! भवनिया के मुआ के एहिजा, भरल गाँव के बिच्चे गाड़ देले रहलि हे नगिनिया! बसगित में मुर्दा गड़ले रहलि हे नगिनिया खोनि के पिल्ला नोचत रहलें हँ सो, आपन पलिवार त खाही घरलसि, गाँव के सत्यानास करे चललि बा नागिन। रउरा पाछ्न के लइके फइके कुँवारे रहि जइहें, के बियही ए गाँवे जब ई खिस्सा चहुँ ओर फइली? कुलटा हे नगिनिया, कुलटा!...

(गाँव में बहुत बड़ा पाप हुआ है, महापातक! विधवा देवर संग सुहागिन हुई, किसी ने जाना? नहीं। नागिन गर्भवती हुई, किसी ने जाना? नहीं। बेटी पैदा हुई, किसी ने जाना? नहीं। तमाशा देखो पंचों! तमाशा। बेटी को मार कर यहीं, भरे पूरे गाँव के बीच नागिन ने गाड़ दिया था! बस्ती में नागिन ने मुर्दा दफन किया था, कुत्ते खोद के नोच चोथ रहे थे! अपना परिवार तो खा ही गयी, नागिन अब गाँव का सत्यानाश करने चली है। जब यह किस्सा आस पास फैलेगा तो उसके बाद कौन अपनी संतान इस गाँव में ब्याहेगा? आप सब के बच्चे कुँवारे रह जायेंगे। नागिन कुलटा है, कुलटा!...)

... कुलटा हे नगिनिया कुलटा! – सोहित के कान बस यही स्वर पड़े। बुढ़िया आँधी भरे मन ने स्वर पहचाना – जुग्गुल काका? एक ही सहारा था, वह भी...गद्दार...हमार भउजी कुलटा?

नयनों के आगे भीड़ दिखी, लाल लाल जुग्गुल दिखा, लाल आँखें, भउजी की काली आँखें, करिखही राति, बबुना... ढेबरी की लौ सम भक भक करिखही आँख... मस्तिष्क में भरे अरबों तंतुओं का आपसी संतुलन टूटा और काला पर्दा तन गया। सोहित के गले से माँ से बिछड़े पड़वे सी गुहार निकली – हमार भउजी कुलटा नाहीं, कब्बो नाहीं रे जुगुला! नरखा फाड़ते, केश नोचते सोहित जुग्गुल पर टूट पड़ा। लँगड़ा कहाँ सँभाल पाता, जमींदोज हुआ और उसके गले सोहित के हाथ कस गये...  

...सोहित के चेहरे की बदलती रंगत किसी ने सबसे पहले पहचानी तो इसरभर ने। उसे जुग्गुल की और झपटते देख इसरभर को चमैनिया अस्थान से जुड़ी सारी पुरानी घटनायें एक साथ याद आ गईं, वह पीछे मुड़ा और भाग चला – जल्दी से कुछु करे के परी,  लेकिन का? इसरभर सिर इसर सवार थे – मन में जाने कितने समीकरण बनने बिगड़ने लगे!  मलकिन के माटी कइसे पार घाट लागी? भइया त पगला गइलें! (मलकिन की मृत देह का संस्कार कैसे होगा? भैया तो पागल हो गये!)  कुलटा मलकिन, नगिनिया मलकिन ... सरापल गाँव में अब के अनरथ करी, खदेरन पंडित? ना, कब्बो ना!...(इस शापित गाँव में अब अनर्थ कौन करेगा? खदेरन पंडित? नहीं, कभी नहीं!)

...”सोहिता रे!” खदेरन पंडित ने स्वर पहचान लिया – बेदमुनि के महतारी? पीछे मुड़े और पियराती मतवा के उठे हाथ ने जैसे समझा दिया कि क्या करना है! झपट कर सोहित पर पिल गये जिसके नीचे गों गों करते जुग्गुल की आँखें बाहर निकल सी रही थीं। खदेरन को देख और लोग भी जुड़ गये। बहुत मुश्किल से सोहित का हाथ छूटा। जुग्गुल आश्चर्यजनक गति से पुन: खड़ा हो गया और सोहित? चुप्प! आँखें दूर तकती, जैसे किसी की तलाश में हों। अधखुले मुँह से लार बह रही थी, सुन्दर चेहरा विकृत हो गया था। खदेरन की आँखें भर आईं – इतने कम समय में कितनी यातना! सोहित लड़खड़ाता चल पड़ा। दूर सधी आँखें, पागल प्रलाप – भइया हो! ले चलs, भउजी के, हमके, गाँव के। घवराई भीड़ ने राह दे दी।

मन्नू बाबू के बाप के प्रचंड स्वर ने भीड़ को यथार्थ पर ला पटका – बरस बरस के नवमी के दीने, कुलदेबी पूजा के दीने अइसन गरहित कांड! थू। दुन्नू के गाँवे से बहरियावे के परी। (वर्ष में एक ही बार आने वाले इस नवमी के दिन, कुलदेवी की पूजा के दिन ऐसा घृणित कांड! थू। दोनों को गाँव से बाहर करना पड़ेगा।) विजयी स्वर में उन्हों ने प्रश्न किया - बोलs खदेरन पंडित! तोहार सास्त्र अब का कहता? कवनो दूसर उपाइ बा? आ कि चमइनियन जइसन फेंसे कुछु ...? (बोलो खदेरन पंडित!  तुम्हारा शास्त्र क्या कहता है? कोई दूसरा उपाय है? या वैसा कुछ करना है जैसा चमाइनों के साथ ...?)   

अधूरे छोड़ दिये गये व्यंग्य वाक्य में अहंकार कम, राक्षसी प्रवृत्ति का कोलाहल अधिक था। निर्बल मतवा को सहारा देते खड़े खदेरन भूत लोक में पहुँच गये। फेंकरनी गा रही थी – राम के कड़हूँ खरउँवा, कन्हैया जी के झूलन हो ... अमा की रात में सुभगा – मैं धरती हूँ बावले जिसकी वासना कभी समाप्त नहीं होती। युगों युगों से मैं तुम्हें भोगती आई हूँ, यहाँ जीवन मुझसे है। हाँ, हाँ, मुझे प्रेम करो, कहो सबसे कि मैंने धरती का सुख भोगा, कहो क्यों कि तुम्हारा कहना मुझे प्रबल करता है। हा, हा, हा...

करुणा की कीच सने मन को ठाँव मिली, उत्तर के पहले चेतना आई – धरती, भोग। यह सब षड़यंत्र है, जमीन हड़पने का। पंडितों की जमीन हड़पे, अब पट्टीदारों की जमीन हड़पने को ये नीच लगे हैं। खदेरन! तुम्हें यह सब समाप्त करना है। जाने कितनी बलियाँ इस गाँव में और होंगी। तुम्हारी करनी यह जगह शापित है, कुछ करो, कुछ करो!

“गाँव से बाहर कोई नहीं जायेगा बाबू! कोई नहीं। इस गाँव का शाप जायेगा!” खदेरन थम गये। चढ़े सूरज को घूरते तांत्रिक खदेरन का वही पुराना कौवे जैसा कर्कश स्वर भीड़ ने बहुत दिनों के बाद सुना:  

“त्वं जानासि जगत् सर्वं न त्वां जानाति कश्चन

त्वं काली तारिणी दुर्गा षोडशी भुवनेश्वरी

धूमावती त्वं बगला भैरवी छिन्नमस्तका

त्वमन्नपूर्णा वाग्देवी त्वं देवी कमलालया

सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं सर्वदेवमयी तनु:”     

 

तेज स्वर की सहम दस दिशाओं को मथती चली गयी, एक विकार से दूसरे विकार में प्रवेश करते जन जड़ हो गये थे!

“तव रूपं महाकालो जगत्संहारकारक:

महासंहारसमये काल: सर्वं ग्रसिष्यति

कलनात् सर्वभूतानां महाकाल: प्रकीर्तित:

महाकालस्य कलनात् त्वमाद्या कालिका परा ...

साकाराsपि निराकारा मायया बहुरूपिणी

त्वं सर्वादिरनादिस्त्वं कर्त्री हर्त्री च पालिका

... जो भवानी भूमि पर क्षत विक्षत पड़ी है, उसकी साक्षी मान मैं इस स्थान पर अब तक हुये सारे पापों को अपने सिर लेता हूँ। साथ ही यह शाप देता हूँ कि आज के बाद अगर किसी ने यहाँ कुछ भी टोना टोटका किया तो उसका और उसके परिवार का सर्वनाश हो जायेगा।“

धीमे स्वर में सबको सुनाते हुये खदेरन ने कहा – यह सब जमीन हड़पने की गर्हित कुचाल है। आप लोग खुद विचारें और समझें। विधि की विधना जो होनी थी, हो गयी, आगे आप सब के हाथ लेकिन अगर किसी ने यहाँ कोई टोना टोटका किया तो माँ काली की सौंह... ।

मतली आते हुये भी खदेरन ने नवजात की देह के टुकड़ों को उठाया, गमछे में लपेट भीड़ को चीरते चँवर की ओर चल पड़े। मतवा उनके अनुसरण में थीं।

 

जुग्गुल को चेत हुआ, उसने भीड़ को ललकारा – ई पखंड कवनो नया थोड़े ह, सोहिता त भटकते बा, नगिनिया के पकड़ि के बहरे कर के परी!

प्रतिक्रिया नहीं होते देख उसने पट्टीदारों को पुकारा – खून खनदान के फिकिर बा कि नाहीं? एक छोटा सा समूह सोहित के घर की ओर चल पड़ा। लोग घर में घुसे, जुग्गुल सबसे आगे भउजी की कोठरी में।

कोठरी एकदम व्यवस्थित साफ सुथरी थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो! न तो नागिन का अता पता था और न ही इसरभर का!

 

बचे दिन गाँव सरेह में दोनों की खोज चलती रही लेकिन वे नहीं मिले तो नहीं मिले! साँझ को दिया बारी पूजन के बेरा दक्खिन कोने किसी घर एक फुसफुसाहट उभरी – ऊ भवनिया देवरा के नाहीं, भरवा के रहलि हे। एहि से सोहिता पगला गइल हे अउर नगिनिया सँगे भरवा नपत्ता बा! धुँअरहा के धुँये और चूल्हे की आग के साथ यह बात घर घर में बँटती चली गयी। (वह भवानी देवर से नहीं, इसरभर के साथ हुये संबंध से थी। इसी से सोहित पागल हो गया और नागिन संग इसरभर लापता है!)  

 

शुद्धिस्नान और कर्मकांड के पश्चात कार्त्तिक शुक्ल पक्ष नवमी की उस सन्ध्या यह बात खदेरन पंडित के कान पड़ी और वह कराह उठे। शांति अब बस भ्रम थी। भीतर दाह उठने लगा। वहीं निखहरे चौकी पर लेट गये। मतवा ने हाथ लगाया तो जाना अब खदेरन की बारी थी। फीकी मुस्कान के साथ खदेरन बड़बड़ाये, सतमासी भवानी थी, नवमी के दिन सात महीनों की सँभाल व्यर्थ हुई। वे गलदश्रु हो उठे – आह, कहीं से भी सतमासी नहीं लगती थी... सुभगा!

... बेदमुनि की माँ, यह इकट्ठे पापों की ताप है, जल्दी नहीं जायेगी। धीरज रखना। जब भी यह काया ठीक हुयी, शिकायत ले थाने तो जाऊँगा ही।       

 

छिप कर सुने गये खदेरन के निश्चय के साथ लोगों की थू थू को जुग्गुल अपनी कोठरी में दुहरा रहा था।  उसके हाथ पीले बस्ते के वही कोरे कागज थे जिन पर अंगूठों की छाप थी। चेंचरा बन्द कर ढेबरी जला वह कुटिल मुस्कान लिये लिखता जा रहा था - हम कि सोहित सिंह वल्द ...

 

(अगले भाग में जारी)

रविवार, 13 सितंबर 2015

फेयरनेस क्रीम, आर्यत्त्व और नासमझी

तमिळ भारत में विज्ञापन दिखा - ‘गोरेपन’ की क्रीम का। इस लगभग कम काले, काले और पूर्ण काले क्षेत्र में गोरेपन की क्रीम के इतने महँगे प्रचार का एक ही तुक समझ में आता है – गोरी प्रभु जाति के सम होने की दमित इच्छा का पोषण। गोरा सुन्दर हो, आवश्यक नहीं। सुन्दरता तो एक सम्पूर्ण प्रभाव होती है जिसमें ढेर सारे कारक काम करते हैं। प्रभु वर्ग का गोरापन हमारे भीतर सैकड़ो वर्षों से पैठा हुआ है। इसके साथ कहीं न कहीं आक्रांता, अत्याचार, दमन, जातीय नाश आदि, वर्तमान अकादमिकी को रोजी रोटी प्रदान करने वाली केन्द्रीय अवधारणायें और उनसे सम्बन्धित तप की अट्टालिकायें और ध्वंस भी जुड़ते हैं। 

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भारतीय सन्दर्भ में आर्य आक्रमण और जातीय सर्वनाश की चूर चूर हो चुकी परिकल्पनायें अभी भी केन्द्र में खरमंडल मचा रही हैं क्यों वे कि दारू बोटी से ले कर सम्मान तक की मौलिक वासनाओं की पूर्ति का साधन हैं। इन्हें वेंटिलेटर पर जीवित रखने वालों के तर्क बहुत सरल हैं:

(1) मुख्यभूमि भारत का बहुसंख्य काला है। स्पष्ट है कि गोरा रंग बाहर से आया।

(2) वर्ण व्यवस्था के शीर्ष पर जो हैं वे अधिकतर गोरे और तीखे नयन नक्श वाले हैं जिसकी साम्यता कॉकेशियन और मध्य भौगोलिक जातियों से है।

(3) जीन सम्बन्धित आधुनिक शोध भी इन साम्यताओं को दर्शाते हैं।

पूर्वग्रह और संस्कारजन्य आग्रह सबमें होते हैं, अकादमिकी में भी हैं लेकिन इस मामले में बहुसंख्य को अन्धा किये हुये हैं। तथ्यों का नकार है, तोड़ मरोड़ है और सुविधा पूर्वक पूर्ण उपेक्षा के साथ बकलोली भी!

ये सारी बातें समीकरण के दायीं ओर दिखती परिणाम हैं। इनके आधार पर बायीं ओर को गढ़ा जाता है। एक परिणाम के आधार पर उसकी जननी प्रक्रिया गढ़नी हो तो चर कारकों की संख्या, उनका स्वभाव और उनमें आपसी सम्बन्ध आदि का चयन बहुत कुछ शिल्पी पर निर्भर करता है। यहीं पर मामला वस्तुनिष्ठता से परे हटता है।

 

आइये देखते हैं। पहले बिन्दु क्रमांक 3, क्यों कि वह ‘वैज्ञानिकता’ का आवरण पहने हुये है। जीन सम्बन्धी शोधों में भी वही चयनी मानसिकता काम करती है। मातृपक्ष के जीन देखे जायँ या पिता के पक्ष के, नमूनों की संख्या, विविधता और उनका प्रसार परास कितनी हो, किस कारक पर केन्द्रित हुआ जाय और सबसे बड़ी बात कि उद्देश्य क्या हो। पक्ष और विपक्ष दोनों ओर पर्याप्त परिणाम उपलब्ध हैं, सबकी अपनी सीमायें हैं। उन पर न जाते हुये उस खोज की बात करते हैं जिसके अनुसार पचास-साठ हजार वर्ष पहले अफ्रीका से पहले मानव निकले, कुछ नीचे से और कुछ ऊपर भूमध्य सागर के आसपास आ कर बँटते हुये भारतीय क्षेत्र और यूरोप की और बढ़े। इसका भी खंडन अब अफ्रीका और भारत में मिले कुछ अवशेषों से होने लगा है लेकिन बात है महत्त्वपूर्ण, इतनी महत्त्वपूर्ण J कि इस तथ्य को नकार जाती है कि मूल स्रोत में तो लगभग सब काले मोटी रूपरेखा वाले हैं लेकिन अन्य स्थानों पर लाल, पीले, श्वेत, गेंहुये रंग और तीखे मोटे नयन नक्श वाले कैसे? रंग को छोड़ दें तो स्वयं भीतरी अफ्रीका में भी कद काठी और नयन नक्श में पर्याप्त विविधता है। कुछ लोग उत्परिवर्तन और जलवायु के प्रभावों से इसका उत्तर देने के प्रयास करते हैं लेकिन बात उतनी आसानी से मन में नहीं उतरती जितनी आसानी से प्रश्न। इसका एक आसान उत्तर है – विश्व के कई भागों में समांतर रूप से मनुष्यों की जातियाँ थीं जो पहले तो अलग थलग रहीं लेकिन कई कारणों से प्रवजन और लैंगिक मिलन में लिप्त हो समूची धरा पर फैल गईं। विविधता आज भी उतनी ही है लेकिन भौगोलिक रूप से सुनिश्चित सीमाओं में बँधी हुई नहीं है। हाँ, उत्परिवर्तन और जलवायु के प्रभाव निस्सन्देह हैं लेकिन ऐसे नहीं कि प्रमुख माने जायँ।

 

बाकी दो बिन्दुओं को मिला जुला कर समझते हैं। पहले एक प्रश्न - भारत की सीमायें शाश्वत हैं या कुछ प्राकृतिक और राजनैतिक कारकों के आधार पर हमने खींची है? स्पष्टत: हमने खींची हैं। जो आज है वह 1947 के पहले कुछ और था, वह 1700 में कुछ और था तो 700 में कुछ और। सात हजार वर्ष पहले तो एकदम अलग था। यह बहुतेरे कारकों के लिये सत्य है और सीमाओं के लिये भी। भौगोलिक कारणों से एक दूसरे से अलग थलग प्रजातियाँ यहाँ भी थीं, विकसित होती रहीं। समय ने करवट ली तो एक दूसरे के साथ युद्ध, संवाद, सम्मिलन हुये। मनुष्य ने यात्रायें भी खूब कीं। इन सबका पहला आभास आदिकाव्य रामायण में मिलता है जिसमें वानस्पतिक और भौगोलिक विविधताओं के जीवंत वर्णन हैं। उत्तर पश्चिम में दूर तक फैली वैदिक जनजाति थी जिसमें गतिशीलता अधिक थी। व्यापार उनका एक मुख्य कर्म था और पुरोहित मुख्य कर्मी जो संगीत, काव्य और कथावार्त्ता में निपुण थे। यह भी संभव है कि वे गेंहुये पहले तो वे पूरे भारत में फैले थे लेकिन किसी बहुत ही विनाशकारी प्राकृतिक घटना ने उन्हें उत्तर पश्चिम में सीमित कर दिया। उनकी ऋचायें उन पुरनियों का स्मरण बहुत ही लगाव के साथ करती हैं, साथ ही उहात्मक गाथाओं के माध्यम से वैसी घटनाओं के संकेत भी देती हैं। वे अपनी विधि ‘अपनाने’ में बहुत आगे थे। व्यापार, संघर्ष और जीवनपद्धति को साथ लिये वे बढ़ते मिलते गये। हारे भी, जीते भी लेकिन समायोजन के अपने विशिष्ट गुण के कारण दूसरों को अपनाते, उनके जैसे होते और उन्हें अपने जैसा करते चले गये। समय ने करवट बदली, नदियाँ सूखीं, अकाल पड़े, विराट स्तर पर प्रवजन हुये। वैदिकों ने नयी बातें सीखीं, नये जन को अपने में स्थान दिया, उनके हुये और धारा बहती रही। वे आक्रांता, आक्रमणकारी या बाहरी तो थे ही नहीं! हाँ, उनके समाज और बनावट में दीर्घजीविता सबसे प्रबल शक्ति थी, समायोजी जो थे!

 

जब हम उस समय में पहुँचते हैं जिसे कि आज इतिहास कहा जाता है तो पाते हैं कि सुदूर उत्तर, मध्य और पश्चिम से पर्थियन, मेसीडोनियन, बैक्ट्रियन, सीथियन, शक, हूण आदि भारत में घुसे चले आ रहे हैं। इनमें से अधिकतर उस कथित आर्य रक्त वाले ही हैं जिन्हें कि वैदिक आक्रांता बताया जाता रहा है। कुछ का शासन क्षेत्र मगध तक फैला मिलता है और फिर कुछ सौ वर्षों में ही इनकी अलग पहचान समाप्त हो जाती है। गये कहाँ वे? कहीं नहीं गये, यहीं हैं - हमारे रक्त में। यहाँ के उन समायोजी पुरोहितों ने उनको अपना लिया। यदा कदा ऐसा हुआ कि राजा ने भी अपने लिये पुरोहित वर्ग बना लिया। चूँकि वे अधिकतर शासक और व्यापारी प्रभु वर्ग से थे इसलिये उनका समायोजन भी क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में हुआ जो कि प्रभु वर्ग था। जो थोड़ी सी जीन साम्यता मिलती है न, उनके कारण है न कि किन्हीं आक्रांता आर्यों के कारण। वर्ण व्यवस्था के शीर्ष पर गोरे गेंहुये रंग और तीखे नयन नक्श की बहुलता का एक कारण यह भी है।

 

जब श्वेत अंग्रेज यहाँ आये तो किस लिये आये? व्यापार करने आये। शासन करने की सुविधा दिखी तो उसमें भी लग गये। चालाक थे – वैश्य और क्षत्रिय तत्त्व की सामाजिकता को शीघ्र समझ गये। तथ्यों को तोड़ मरोड़ अपने अनुसार ढाल लेना आसान था, आखिर वे अपने द्वारा रचे ‘आर्य’ जन के समान ही तो काम कर रहे थे! हमने उनके छ्ल को भी अपना लिया और वे उसे यहाँ छोड़, हमारा धन ले चले गये। यह व्यापार नहीं, वह वृत्ति थी जिसे हमारे यहाँ राक्षस कहा जाता था, जिसे अपनाने वाला गोरा हो या काला, ब्राह्मण की संतान हो या शूद्र की – ‘अनार्य’ कहलाता था। उन अनार्यों को भी उनके परिवारी और अनुचर ‘आर्य’ कह कर ही बुलाते थे वैसे ही जैसे हम लोग आज भी ‘साहब’ को अपनाये हुये हैं। 

  

भारत आज भी साँवलापन प्रधान है। इसके दो साँवले अवतारी पुरुष आज भी जन जन में रमे हुये हैं। नस्ल या प्रजातीय शुद्धता की विदेशी मान्यता यहाँ कभी प्रधान नहीं रही। यहाँ आर्य का अर्थ श्रेष्ठ जीवन मूल्य से रहा न कि गोरे दुधिया वर्ण से। आम जनता का किसी पुराने शासक वर्ग के देह समान होने की इच्छा, वह भी ऐसी कि क्रीम पोत कर उनके जैसा होने के हास्यास्पद प्रयत्न होने लगें, उसकी धारा में बाभन, ठाकुर, बनिया, सूद सभी वर्णों के साँवले बहने लगें और गोरापन एक बहुत समृद्ध, फलता फूलता अरबी खरबी उद्योग हो जाये; समझ के बाहर है। कोई समझायेगा?    

शनिवार, 12 सितंबर 2015

कहनी कहानी

कहानियों का मेल कहने से बैठता है लेकिन हर कहा हुआ कहानी नहीं हो पाता। होने भर और हो पाने का विभेद कहानियाँ मिटा देती हैं।  जब मैं कहानी शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ तो मेरा कहनाम न तो संस्मरण से है और न ही उन ऐतिहासिक व्यक्तियों या घटनाओं से जो महाकाव्य और अतिशयोक्ति बन देवताओं और देवियों को अमरत्त्व और सौन्दर्य प्रदान करते हैं। कहानियाँ घटनाओं की निर्जीव समुच्चय नहीं, उनकी जीवित देह होती हैं जिसमें रक्त के स्थान पर अमृत बहता है और साँसों के स्थान पर शाश्वत भावनायें। कहानियाँ सबकी होती हैं और किसी की भी नहीं! मूर्खता वश ही सही या सही कहें तो उत्सुकता भर मैं प्राय: स्वयं से पूछता रहा हूँ कि पहली कहानी किसने रची होगी? यह प्रश्न अपने आप में एक कथ्थक की प्रस्तावना है, उस कथ्थक की जो कहते हुये थकता नहीं।
अपने सृजन में एक कहानी नितांत वैयक्तिक होती है लेकिन ओठ से मुक्त होते ही या यूँ कहें कि मन में उठान पाते ही सबकी हो जाती है, कह जो दी जाती है! यह वह चादर होती है जिसे किसी ठिठुरती रात में समय को उसका सही स्थान बताने और पीड़ा को विश्राम देने के लिये कोई माँ बच्चों के साथ ओढ़ती है और ऊषा की ऊष्मा छिटकते ही पंछियों के साथ आकाश की और छोड़ देती है कि जाओ, पूस की रातों से कुछ बच्चों को बचाओ! कड़कती धूप भरे दिन में दुपहरिया छुट्टी की छाँव होती है कहानी। तब जब कि श्रम सीकर सूखते हैं और भीतर की उमस थकान से बातें करती है कि देखो न! हाथों की झुर्रियाँ रेखाओं से उलझ नियति की लेखनी बन गई हैं, तो ऊँघते सपनों के नीरस भोजपृष्ठ रंगीन होने लगते हैं, काले, नीले, लाल, पीले। थके प्रकाश वाली साँझ को जब गमछा चिंताओं को खोलता बिछता है तो ओठ पर वे रंग सजने लगते हैं जिन्हें उकेरना किसी के वश का नहीं, कथ्थक के भी नहीं। कहानियाँ अनकही कहन होती हैं, कह भर देने से अपराधबोध टूटता है कि अब तक क्या जिये और एक नया दिन सामने आ खड़ा होता है, चलो, जीने को समय की किल्लत कभी नहीं!
कहानियाँ अच्छी या बुरी नहीं, बस होती हैं, वैसे ही जैसे रामसिंह किसान होता है और उसके बैल होते हैं। वैसे ही जैसे सचिव मीरा और उसकी कोई बॉस होती है, वैसे ही जैसे किसी भास्कर की कोई लीलावती होती है। इन सबकी तरह ही मुझे आज तक कोई भी अच्छी या बुरी कहानी नहीं मिली। अनजान, पास होते हुये भी किसी दूसरे लोक सम दूर जन में अच्छा क्या, बुरा क्या? पहचान भरा अचीन्हापन कहानियों को शाश्वत बनाता है। भीतर का सारा दुःख सुख हम उनमें उड़ेल उन्हें शून्य पी एच का बना देते हैं। उसके बाद कोई अच्छाई, कोई बुराई हमें भिगोती सताती नहीं। एकदम सहज भराव के साथ हम प्रारम्भ करते हैं – एक अच्छी परी थी और एक बुरा राक्षस... विश्वास करो, कहानियाँ अपने आप में अच्छी बुरी नहीं होतीं, वे प्रार्थना भरी होती हैं। मनुष्य की पहली ऋचा ‘अग्निमीळे’ से नहीं, उससे पहले, बहुत पहले ‘एक’ से प्रारम्भ हुई – एक था बच्चा, एक थी गइया... आश्चर्य नहीं कि मनुष्य की सबसे विवादास्पद खोज ईश्वर भी ‘एक’ ही है!
प्राणवायु के पश्चात जो सबसे आवश्यक उपादान है वह कहानी है। मनुष्य भूखे प्यासे रह सकता है लेकिन कहानी के बिना नहीं। यह कथन बहुत विचित्र गल्प सा लग सकता है लेकिन इस पर ध्यान देने से कि बात मनुष्य की हो रही है, स्पष्ट होने लगता है। क्षुधा और तृप्ति के बीच जो कुछ भी घटित होता है वह कहानी नहीं तो और क्या है? वायुमंडल का प्रदूषण यदि अब भी पराजित है तो वह इसलिये कि उसमें अरबो खरबो वर्षों की कहानियाँ घुली हुई हैं। कहानियाँ न मरती हैं और न हमें मरने देती हैं। अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है कि हम जब तक जीते रहेंगे, कहानियाँ कहते रहेंगे और जब तक कहानियाँ घटती रहेंगी, हम जीते रहेंगे। तुम कहोगी कि ऐसे तो प्रलय कभी होगा ही नहीं? जी, प्रलय जैसा कुछ होता ही नहीं। लय भर होता है। उसमें अनकही कहानियों के आवर्त होते हैं, आवर्त से अनुनाद और अनुनाद राग भर किसी स्तनाग्र से दुग्ध धार फूट पड़ती है। मनुष्य के बच्चे पहली रुलाई रोने लगते हैं – केहाँ, केहाँ ...
... ठहरो, ठहरो! तुम्हारी बात में दोष है, उलट पलट है।
धुत्त! तुम इस समय ‘व्यस्त’ हो इसलिये ऐसा कह रही हो। आज छुट्टी के समय किसी छाँव में बैठ विराम लेना, तुम्हें पहली कहानी सुनाई देगी, एक था मनु, एक थी शतरूपा और एक थी इड़ा। उस समय कान में कहते समीर से कहना - ठहरो, ठहरो! तुम्हारी बात में दोष है, उलट पलट है। वह हँसेगा, खूब हँसेगा। तुम भी मुस्कुरा नहीं दी तो कहना ...