मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 31

पिछले भाग से आगे...

गोंइठे की आग हाथ में लिये फेंकरनी धिया माई घिघियाती रहीं। सतऊ मतऊ उन्हें धिराते रहे। जब झपकी आये देवी सी दिखे – अंग, भंग, झोंटे से कस कर बाँधे हुये, समूची देह पर एक बस्तर नाहीं, बस झोंटा। करिया झोंटा बस्तर। मुँह से पुकार सी निकलती – माई माई और भवानी के रूदन में बदल जाती – केहाँ, केहाँ।

कांड की रात रमैनी काकी सो नहीं पाईं। बरमबेला में खटिया पर लेटे लेटे ही खदेरन को सराप रही थी – दहिजरा चमइन चाटे के सब कांड करवलस। सराप के फरुवाही बना देहलसि! तभी गोड़ पर मस ने काटा, काकी ने खींचा तो झूलती खटिया के ओनचन में फँस गया। जम के फाँस! काकी हड़बड़ा कर उठी। बझा गोड़ निकालने के चक्कर में भुँइया आ पड़ी।

कवन मुवाई रे हमके? भीतर भभुका सा उठा, मन बहका तो फेंकरनी, ओक रमाई, सतऊ, मतऊ, महोधिया, नगिनिया – चमइन अस्थान से जुड़े सारे मरे हुओं पर करुणा उमड़ पड़ी। काकी अहक अहक रोने लगी। जाने कितनी देर पड़ी रही। पहिली किरिन देह पर पड़ी तो बोध हुआ। आँखें पोछ खड़ी हुई तो पता चला कि पूरी रात उत्तर सिर्हान किये सोई थी। काकी के मुँह से सीताराम के बजाय निकला – डाढ़ा लागो! दोहाई हलुमान जी, दोहाई!

चूल्ह के लिये आगी लेने के बहाने पूरे गाँव का एक चक्कर काकी लगा आई। लौटी तो अपने पीछे जाने कितनी सनपाती मेहरियों में डर सँजो आई। जिन जिन ने नेबुआ अस्थान पर कभी कोई टोटका किया था उनके लिये सार्वजनिक नुस्खा छोड़ आई – कब्बो ओ पड़े न जइह सो, अगर जहई के परे त देबी के अच्छत सेनुर अगिला सुक्क के चढ़ा के माफी माँगि लीह सो! ओइजा भवानी के देंहि कटल बा। पुरान जमाना रहित त सकितपीढ हो जाइत। जहाँ से भी घूमी – कहाँ गइले रे नगिनिया?  गोहराना नहीं भूली।

 

नगिनिया आ कि सनकल सोहिता क भउजी कहाँ गई? इसरभर संघे उढ़र गई? विचित्र स्थिति थी। स्मृति में एक ओर क्षत विक्षत नवजात देह का भयानक दृश्य था तो दूसरी ओर कुलटा युवा स्त्री का सेवक के साथ पलायन। लोग अंड बंड कुछ भी सोचें, जुग्गुल और उसके खवासी लहकायें लेकिन घटना की भयानकता इतनी प्रबल थी कि मनोविलास, घृणा, क्रोध, जुगुप्सा सब करुणा में सिमट जाते और अंत में बस बच जाती – सहम। सोहित की पगलई दिनों दिन चुप्प होती गयी। जब भी अवसर मिलता कपड़े पहने ही नहा लेता – दिन में कई बार। जप चलता रहता – हमार भउजी, हमार भवानी!

 

 खदेरन के पिछले बारह दिन बारह वर्ष जैसे बीते थे। बेदमुनि और सुनयना, इन दो बच्चों के आपसी प्रेम ने मन को सँभाला था तो बेदमुनि द्वारा अनजाने ही तांत्रिक यंत्र रचना और पेंड़ के एकमात्र शिवली फूल द्वारा उसकी प्रतिष्ठा ने मन को जाने कितनी आशंकाओं की और मोड़ भी दिया था। भविष्य में क्या है? जानने के लिये कुंडली बाँचने का साहस तक नहीं हुआ!

उस दिन यंत्रवत प्रात: संध्या करते उनके सामने जैसे सुभगा बैठी थी। हवनकुंड नहीं, अघोर यंत्र था। आहुति नहीं पाँखियों की रक्तहीन बलि ... खदेरन सिहर उठे थे। स्वयं को केन्द्रित कर जैसे तैसे संध्या समाप्त किये। उसके बाद खुरपी ले कोला में ऐसे ही चिखुरते रहे – मोथा, दूब, डभिला। तन रमे तो मन रमे!

 

  पसीने से जनेऊ भीगा और पीठ पर खुजली होने लगी। झटक कर उठे और जाने कितने समय से भरा धिक्कार सवार हो गया – थाने जाने वाले थे न? और कितना समय चाहिये? भयभीत हो? साधक हो? निर्णय और संकल्प किस दिशा के यात्री हैं?

krishna_yantra प्रश्नों के गुंजलक केन्द्रित हुये और आँखों के आगे उजास ही उजास छा गया। वह यंत्र तो कृष्ण यंत्र भी है, बेदमुनि तो अक्षर भी लिख रहा था – कृष्णाय गोविन्दाय क्लीं ... गोपीजनवल्लभाय स्वाहा... नम: कामदेवाय ल ज्वल प्रज्जवल स्वाहा... कौन कन्हैया यहाँ आने वाला है खदेरन? दुविधा से मुक्त हो चलो, चलो खदेरन! कान्हा की लीला होनी भी होगी तो अभी बिलम्ब है।

घर के भीतर घुस खदेरन ने स्वयं ही निकाल गुड़ की ढेली के साथ पानी पिया, लाठी उठाये और निकल पड़े। मतवा की टोकार कंठ में ही अटकी रह गयी!

गाँव के सिवान पर जुग्गुल ने टोका – कवने ओर हो पंडित? खदेरन ठिठके, दोनों की आँखें मिलीं और खदेरन ने जो देखा वह जुग्गुल के पीछे था – सामने से इसरभर आ रहा था। हाथ की लाठी छूट गयी। (जारी)                             

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