रविवार, 13 दिसंबर 2015

केतु पेषियत


तुलसीदास राम के लिये प्रयोग करते हैं - रघुकुलकेतु। केतु शब्द का अर्थ उच्चस्थ या ध्वजा से है अर्थात रघुकुल का झंडा बुलन्द!तमिळ ज्योतिष परम्परा में केतु को इन्द्र का रूप माना गया है। इन्द्र शुभ कर्म और श्रेष्ठ बुद्धि का समन्वय है। हारा हुआ इन्द्र सूक्ष्म रूप ले केतु हो जाता है अर्थात सितार-ए-गर्दिश श्रेष्ठ।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के छठे सूक्त में प्रथम से तीसरी ऋचा के देवता हैं इन्द्र। इस सूक्त की एक विशेषता है कि यहाँ इन्द्र सूर्य रूप हैं। पहली ऋचा के रोचंते रोचना दिवि - समस्त दिशाओं को प्रकाशित करने वाले से अर्थ स्पष्ट हो जाता है। तीसरी ऋचा में प्रेरणा है कि भीतर ऐसे इन्द्र को विकसित करो जो सूर्यसमान अपेशसे (आकार और सौन्दर्य से हीन) को पेशो (सुन्दर आकारयुक्त) प्रकाशित कर देता है। आकार वह भी जो कि सुन्दर हो। पेश शब्द इसी कारण आगे चल कर आभूषण अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है। जब ऐसा होगा तो अकेतवे (शुभ कर्म और श्रेष्ठ बुद्धि से हीन) केतु (श्रेष्ठता) को प्राप्त होगा। ऐसा कैसे होगा? उष: अर्थात सुसंग से (सूर्य की चमक उषा की संगति का लाभ है।) यहाँ काव्य में उषा सूर्य का प्रभाव नहीं, वह संक्रमण काल है जब मनुष्य साधना में होता है। बड़ी बात यह कि सम्बोधन में मनुष्य मात्र के लिये मर्या शब्द प्रयुक्त हुआ है। जैसे अमृतपुत्रा: वैसे ही मर्य्या:।

शुभकर्म से हटने पर उसकी दैहिक परिणति भक्त कवियों का प्रिय विषय रही है। तुलसीदास भी बलतोड़ के फोड़े को राम से विमुखता का परिणाम मानते हैं। कैसा परिणाम है? रोम रोम देह का अलंकार बन निकल रहा है - ताते तनु पेषियत घोर बरतोर मिस! ऋग्वैदिक पेश का श कोसली मूर्धन्य हो ष हो गया है।
असन-बसन -हीन बिषम-बिषाद-लीन
देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को।
तुलसी अनाथ सा सनाथ रधुनाथ कियो,
दियो फल सीलसिंधु आपने सुभायको॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरूहाइबो,

बिहाइ प्रभु-भजन बचन मन कायको।
तातें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस,
फूटि-फूटि निकसत लोन रामरायको॥
- हनुमान बाहूक

कहीं 'पेशवा' का सम्बन्ध भी तो 'पेश' से नहीं?