मंगलवार, 13 नवंबर 2018

छठ पर्व, स्कन्द एवं सूरसंहारम, कृष्ण, सन्तान गोपाल मन्‍त्र

यह मास कार्त्तिक कहलाता है क्यों कि इस मास पूर्णिमा के दिन चन्‍द्र कृत्तिका नक्षत्र पर होंगे। कृत्तिकायें अतिप्राचीन काल से ही गाँवों के स्वच्छ आकाश में अपनी विशिष्ट समूह आकृति के कारण नाक्षत्रिक प्रेक्षण एवं कथाओं का केन्द्र रहीं। ऋषि पत्नियाँ होने से ले कर स्कन्द माता होने तक कृत्तिकाओं की परास बहुत ही व्यापक है, जटिल है। वैदिक ग्रर्न्थों में वे सप्तर्षियों की सात पत्नियाँ हैं जिनका संयोग नहीं हो पाता क्यों कि सप्तर्षि उत्तर में रहते हैं तो कृत्तिकायें पूरब में।
एक बहुत ही प्राचीन प्रेक्षण है जब वसन्‍त विषुव (आज का 21 मार्च) के दिन सूर्य कृत्तिका नक्षत्र में उगते एवं नववर्ष का आरम्भ होता। कृत्तिका नक्षत्र के साथ नवरस नवसृष्टि भी जुड़ा हुआ था तथा कृत्तिकायें प्रजा या संतान प्राप्ति में सहयोगी पाई गईं। बहुत ही पुराने एवं अब सीमित प्रचलित मान्यताओं में शिव सूर्य स्वरूप हैं जिसके अवशेष आज भी प्रत्येक माह की कृष्ण त्रयोदशी/चतुर्दशी को शिवरात्रि मनाने से है जब पूरब में सूर्योदय से पूर्व द्वितीया कला समान दिखते चंद्र अस्त होते हैं तथा प्रतीत होता है कि शिव रूपी सूर्य चंद्र रूपी सोम को सिर पर धारण किये हुये थे। सूर्य में ताप है, ऊष्मा है तथा उनका अग्नि रूप वैदिक ग्रंथों में मिलता है। अग्नि की पत्नी स्वाहा सात ऋषि पत्नियों में से अरुंधती को छोड़ कर छ: के रूप धारण कर पति ऋषियों से युगनद्ध हुईं। कृत्तिका के सात तारों के छ: कृत्तिकाओं में परिवर्तन की कथा का मूल यह है। आगे शिव के पुत्र स्कन्द का जन्म हुआ जिन्हों ने देवसेना का नेतृत्त्व कर धरा को त्रास से मुक्ति दी। योद्धा पुत्र की जननियों के रूप में छ: कृत्तिकाओं की प्रतिष्ठा हो गयी तथा एक लम्बे कालखण्ड में स्कन्द एवं उनकी माताओं की आराधना होती रही जैसे आज कृष्ण एवं यशोदा की होती है। अग्नि अज अर्थात बकरे की सवारी करते दिखाये जाते हैं। अजमुख एक देवता भी होते थे - नैगमेष जिनकी बहुत प्रतिष्ठा थी तथा वे शिशुओं के संरक्षक रूप में माने जाते थे। नैगमेष को बाल स्कन्‍द एवं छ: माताओं के साथ चित्रित किया जाता था।
सूर्य-शिव-स्कन्‍द की समेकित संश्लिष्ट आराधना पद्धति आगे विकसित होती रही। कार्त्तिक मास के शुक्ल पक्ष की छठी तिथि एवं छठ मइया के मूल में यह धारा है जिसका सूर्य केंद्रित पक्ष शास्त्रों की आँखों से ओझल है। सन्दर्भ मिले तो लिखूँगा। स्कंद एवं छ: स्कंद माताओं की उपासना धारा के मूल में योग्य पुत्र की प्राप्ति की अभिलाषा रही जो कृष्ण आराधना की प्रबलता के साथ साथ क्रमश: तिरोहित होती चली गयी। पुत्रेष्टि यज्ञ आप ने सुना होगा जो कि अथर्वण परमरा केंद्रित था। उसी उद्देश्य से सरल पौराणिक रूप आया - सन्‍तान गोपाल मन्‍त्र अनुष्ठान जिसमें कृष्ण से अच्छी संन्तति हेतु प्रार्थना की जाती है - देहि मे तनयं कृष्ण .. एवं जिसका विधि विधान आज भी उपलब्ध है। विशाखा को स्कन्दप्रिया भी कहा जाता है, संयोग से आज सूर्य विशाखा नक्षत्र पर ही हैं। छ्ठ व्रत में पुरोहितों के न्यूनतम हस्तक्षेप होने का कारण लुप्त स्कन्द परम्परा से है जिसका कोई सूर्य पक्ष भी रहा होगा। छठ के स्कंद से जुड़े होने का प्रमाण अब दक्षिण में मिलता है। आज की तिथि कन्द षष्ठी के रूप में मनाई जाती है, व्रत उपवासादि होते हैं। व्रत प्रतिपदा से आरम्भ हो कर छ: दिन षष्ठी तक किया जाता है। माना जाता है कि इस दिन स्कन्‍द या मुरुगन ने सूरपद्मन नामक दैत्य का वध किया था। यह दिन सूरसंहारम कहलाता है।
चित्र आभार : drikpanchang.com
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