tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post5067194422691284621..comments2023-10-30T15:17:40.771+05:30Comments on एक आलसी का चिठ्ठा ...so writes a lazy man: इतिहास का मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत - 3गिरिजेश राव, Girijesh Raohttp://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comBlogger22125tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-47733071332951469412010-07-12T19:19:32.698+05:302010-07-12T19:19:32.698+05:30bade se bade gyanii kii bhii sochne-samjhne kii ek...bade se bade gyanii kii bhii sochne-samjhne kii ek siima hoti hai. koi bhii siddhant hamesha khara utare, yah jaroorii nahin. paristhitiyon ke saath sab kuchh badalta jata hai..usmen nity shodh karne va navvicharon ke aadhar par vav siddhant gadne kii avashyakta hai. lakkiir ka fakiir ban kar sirf marksvaad kii duhai dena uchit nahin.<br />aapkii pahal svagat yogy hai. <br />hindii tools gayab hone ke karan km hii kamen kar raha hoon..abhi apne ko rok nahi saka..aabhar.देवेन्द्र पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/07466843806711544757noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-63177032475929892192010-07-12T09:17:36.174+05:302010-07-12T09:17:36.174+05:30मैंने पहले ही कहा था कि मुझे पूरा अनुवाद पढ़ लेने ...मैंने पहले ही कहा था कि मुझे पूरा अनुवाद पढ़ लेने दिया जाये किन्तु पिछली किश्त में आपने मुझे दौड़ा दौड़ा कर...<br /><br />मेरे ख्याल से मार्क्सवाद की व्यवहारिक असफलताओं को लेकर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है और यहां इस सम्भावना पर विचार का कोई अवसर नहीं दिखता कि व्यवहारिक असफलतायें ,क्रियान्वयन कर्ता एजेंसियों और कम अनुकूल परिस्थितियों का परिणाम हो सकती हैं ! <br /><br />उल्लेखनीय होगा कि व्यवहारिक असफलता और तद्जनित विरोधाभाषों के टैग लगा कर टिप्पणीकर्ता मित्रों नें अगर सीधे सीधे सिद्धांत को ही ख़ारिज कर दिया है तो बहस समय से पूर्व ही समाप्त हुई मानिये जबकि रास केली के विचारों पर आपके द्वारा अनुवादित अंश अभी प्रकाशित होना शेष हैं !<br /> <br />ईमानदारी से कह रहा हूं कि सैद्धांतिक स्थापनाओं के पारस्परिक तुलनात्मक विवेचन के समय जिस निरपेक्ष दृष्टि की आवश्यकता होगी ,फिलहाल मुझमें उसका अभाव है , क्योंकि इस खंड खंड की बहस में मेरे विचार रवि जी के साथ जाकर अटक गये लगते हैं ! अतः मुझे रास केली का और अधिक अध्ययन करवाने के बाद ही , कुछ कहने का अवसर दिया जाये ! <br /><br />तब तक पूंजी के विषय में अपने पूर्वाग्रहों को झटकने की कोशिश कर लूं :)उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-67399407583674864622010-07-12T08:14:43.584+05:302010-07-12T08:14:43.584+05:30सही समय पर सही चिंतन ...
यह सिर्फ सिद्धांत और व्यव...सही समय पर सही चिंतन ...<br />यह सिर्फ सिद्धांत और व्यवहार का फर्क है या सिद्धांत ही गलत है ...विश्लेषण की इस यात्रा में ज्ञानवर्धन हो रहा है ...<br />टिप्पणियों में स्वस्थ विचार विमर्श स्वागत योग्य है ...वाणी गीतhttps://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-29029561422057408432010-07-11T23:48:02.372+05:302010-07-11T23:48:02.372+05:30एनी रैंड की 'वी द लिविंग' पढ़ रहा हूँ. एक ...एनी रैंड की 'वी द लिविंग' पढ़ रहा हूँ. एक पैराग्राफ में एक कोमरेड कहता है 'अच्छा तो तुम भी वैसी ही हो जिन्हें हमारे सिद्धांतों से सहमती है लेकिन हमारे तरीके तुम्हे पसंद नहीं'. लड़की जवाब देती है 'नहीं मुझे तुम्हारे सिद्धांतों से भी घृणा है ! तुम्हारे मूल सिद्धांत ही गलत हैं...' <br />आगे पढता हूँ... वैसे धीरे धीरे मुझे भी उस लड़की की ही तरह लगने लगा है. आपके यहाँ भी पढ़ के कुछ समझ ही रहे हैं.Abhishek Ojhahttps://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-35334018353870357472010-07-11T23:42:57.490+05:302010-07-11T23:42:57.490+05:30हम एकोनोमिस्टों से ज़्यादा अच्छा कौन जानेगा दोनों ...हम एकोनोमिस्टों से ज़्यादा अच्छा कौन जानेगा दोनों को...डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali)https://www.blogger.com/profile/13152343302016007973noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-75583213831070365032010-07-11T21:48:00.413+05:302010-07-11T21:48:00.413+05:30@ अरविन्द जी
:)
ओरिजिन मैंने नहीं पढ़ी है। अब एक...@ अरविन्द जी <br />:) <br />ओरिजिन मैंने नहीं पढ़ी है। अब एक साथ तो सब कुछ नहीं किया जा सकता। लेकिन आप की राय पर अमल अवश्य होगा। उत्तर आधुनिकता पर भी अध्ययन होना है। <br />ज्वाय आफ सेक्स और नेकेड वूमन तो द्वितीय प्राथमिकता में हैं। मार्क्सवाद पर इसलिए केन्द्रित हूँ कि यह तार्किक चिंतन होन्दे के साथ साथ आधुनिक काल से भी सम्बद्ध है। मनुष्य की मूलभूत समस्याओं के निराकरण और जीवन की बेहतरी पर कुछ अधिक ही केन्द्रित है - कम से कम लगता तो ऐसा ही है।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-21057367772485730772010-07-11T21:37:38.263+05:302010-07-11T21:37:38.263+05:30@ सिद्धार्थ
बन्धु! मेरी छटपटाहट और व्यग्रता को भ...@ सिद्धार्थ <br /> बन्धु! मेरी छटपटाहट और व्यग्रता को भी अवश्य समझ रहे होगे। संक्षेप में कहूँ तो तुमने मेरे मुँह की बात छीन ली।<br />तय कर चुका हूँ कि खुद पढ़ूँगा खुद समझूँगा - चाहे जितना समय लगे। मुझे जड़ तक पहुँचना ही है। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप का जो हाल है वह क्यों है? जन का हाल बेहाल क्यों है? कारण और निवारण क्या हो सकते हैं? कुछ अधिक ही सोच रहा हूँ - शायद सामर्थ्य से अधिक लेकिन भीतर की व्यग्रता का क्या करूँ? चैन ही नहीं लेने देती।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-8477335387558210672010-07-11T21:32:33.302+05:302010-07-11T21:32:33.302+05:30जब मार्क्स ने दास कैपिटल डार्विन को समर्पित करनी च...जब मार्क्स ने दास कैपिटल डार्विन को समर्पित करनी चाही तो गुरुवर ने विनम्रता से अस्वीकार दी -फिर शिष्यों को तो गुरु जी ही गुरु मन्त्र दे गए ..यहि तन कैपिटल मिलन अब नाही ! भले ही उसमें अमृत का नुस्खा छुपा हो ! पढना ही है तो बहुत से नए ज्ञान की किताबे हैं -कब तक पुरान- कुरआन और दास कैपिटल पढ़ती रहेगी मानवता ?<br />कितनो ने ओरिजिन पढी है पूरी ? कितनो ने अलेक्स कम्फर्ट की ज्वाय आफ सेक्स पढी है ? कितनो ने देज्मंद मोरिस की नेकेड वूमन पढी है ?<br />प्रवीण जी ठीक कह रहे हैं --आगे बढिए ..Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-58553968029197021452010-07-11T21:27:23.122+05:302010-07-11T21:27:23.122+05:30@ स्मार्ट इंडियन
बाप रे! आप ने तो पूरा पंडोरा बॉक...@ स्मार्ट इंडियन <br />बाप रे! आप ने तो पूरा पंडोरा बॉक्स ही खोल दिया। :) <br />ये बातें आज सभी सोचने समझने वालों के दिमागों को दही किए हुए हैं। चरम विरोधाभास हैं - सिद्धांत और व्यवहार में। <br />यह पुष्प तो नवप्रवर्तन (Innovation) पर ही केन्द्रित है। एपल का जिक्र इसीलिए हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि मार्क्सवादी सिद्धांतों पर चल रहे राष्ट्रों से ऐसा कोई नहीं निकला। चीन से छोटे छोटे कई उदाहरण सामने आते हैं लेकिन वे भी तब शुरू हुए जब उसने पूँजीवादी-साम्यवादी खिचड़ी चोला धारण कर लिया।<br />मार्क्सवाद की भारी भरकम शब्दावली से लोग आतंकित होते रहे हैं। छद्म बौद्धिक संतुष्टि को प्राप्त होने की भावना घातक है।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-55418411861171294702010-07-11T21:05:43.051+05:302010-07-11T21:05:43.051+05:30@ रवि जी,
मुझे केली रॉस की बातें समझ में आ रही हैं...@ रवि जी,<br />मुझे केली रॉस की बातें समझ में आ रही हैं और लगता है कि दूसरों को भी समझ में आसानी से आ जाएँगी। डा. रॉस बस एक सोपान भर हैं। छ्लाँग नहीं लगानी स्टेप बाइ स्टेप आगे बढ़ना है। <br />मन में कोई निष्कर्ष नहीं है। एक विद्यार्थी भर हूँ। रॉस की शब्दावली अकादमिक क्षेत्रों के लिए आम है। उसमें व्यक्तिगत मान मर्दन जैसा मुझे कुछ नज़र नहीं आता। <br />नहीं, मैने कोई निष्कर्ष निकाल कर पढ़ना नहीं शुरू किया है। ऐसा हो तो यह श्रम ही बेमानी हो जाएगा। कोई कूटनीति नहीं, बस भारतीय सीख को पकड़ चल रहा हूँ। मेरी पसन्दीदा पंक्ति है - आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-20177515764039909442010-07-11T21:05:36.762+05:302010-07-11T21:05:36.762+05:30Just as Marx used to say, commenting on the French...Just as Marx used to say, commenting on the French "Marxists" of the late [18]70s: "All I know is that I am not a Marxist." <br />just googled!Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-18136455201386092402010-07-11T20:56:53.195+05:302010-07-11T20:56:53.195+05:30@ अरविन्द जी
नहीं भैया! इसे पढ़ना समझना आवश्यक है।...@ अरविन्द जी<br />नहीं भैया! इसे पढ़ना समझना आवश्यक है। पूँजीवाद को समझने के लिए मार्क्सवाद और मार्क्सवाद को समझने के लिए पूँजीवाद का अध्ययन आवश्यक है। दर्शन का विद्यार्थी होता तो चाणक्य के अर्थशास्त्र और अन्य भारतीय चिंतनधाराओं को भी खँगाल चुका होता। वैसे अभी भी देर थोड़े हुई है :) <br />कुछ स्रोतों के अनुसार मार्क्स ने शायद यह कहा था ," Thank God, I am not Marxist". अब मार्क्स ईश्वर का नाम लें और यह भी कहें कि मैं मार्क्सवादी नहीं तो गूढ़ार्थ हैं। मैं प्रसंगों और उन सन्दर्भों की खोज में हूँ जब मार्क्स ने यह कहा।<br />शायद बात स्पष्ट हो सके।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-17651698766022581322010-07-11T20:47:02.514+05:302010-07-11T20:47:02.514+05:30@ अमरेन्द्र जी
अन्विति का अभाव - प्रयास यही है कि...@ अमरेन्द्र जी<br /> अन्विति का अभाव - प्रयास यही है कि ऐसे मोड़ों पर रुका जाय जहाँ समझ का एक सोपान पूरा हो। इस लेखमाला को इसी तरह से पढ़ने की आवश्यकता है - धीरे धीरे चुभलाते हुए ताकि रसोपाक पूर्ण हो सके :) <br /><br /><b>- इन छोटे छोटे तर्कों को .... ज्ञानात्मक-तटस्थता ???</b> <br />मुझे इसकी परवाह नहीं। बस अपने काम की चीज बीन लेनी है जिससे बाद में मिलान कर समझने में आसानी हो। <br />मानव पूँजी तो लेख में ही स्पष्ट कर दी गई है। <b> इसे सरलता से ऐसे समझा जा सकता है कि काम करने के अलग तरीके नए ज्ञान और नई पूँजी को निरूपित करते हैं। इस प्रकार, आधुनिक अर्थशास्त्र में ‘मानव पूँजी’ की अवधारणा स्थान बनाती है जिसका निहितार्थ यही है कि कुछ लोग काम को औरों से बेहतर तरीके से करना जानते हैं। </b> <br />तीसरा प्रश्न शायद आगे की कड़ियों में उत्तरित हो। <br />अंतिम पैरा का तो आप ने सम्वर्द्धन कर दिया है। इतने करीने से पढ़ने के लिए धन्यवाद ।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-72326383468134400462010-07-11T20:17:52.888+05:302010-07-11T20:17:52.888+05:30यहाँ कुछ सार्थक विचार मन्थन की गुन्जाइश दिख रही है...यहाँ कुछ सार्थक विचार मन्थन की गुन्जाइश दिख रही है। हिन्दी ब्लॉग्स की छवि को इससे सम्बल मिलेगा। <br /><br />मैं सोचता हूँ कि मार्क्स का समर्थक और विरोधी केवल दो श्रेणियाँ ही क्यों रखी जाय? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मार्क्स की अच्छी बातों का अनुशीलन हो लेकिन अन्ध भक्त की तरह हर विरोधी बात को सीधे खारिज करने के बजाय उनपर भी खुले दिमाग से सोचा जाय। पूरा का पूरा पैकेज यदि डेढ़ सौ साल पुराना है तो उसमें कुछ नयी बातें तो जरूर जुड़नी चाहिए।<br /><br />अच्छा से अच्छा ज्योतिषी भी भूतकाल की बातें ही सही बता पाता है, भविष्य की बातें सटीक बताना सम्भव ही नहीं है। मार्क्स ने भी इतिहास की व्याख्या तो ठीक कर दी लेकिन भविष्य बताने में जरूर खामी रह गयी। बहुत से तत्व उस समय अनदेखे अन्जाने रहे होंगे जो इस समय प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन कुछ लौहपुरुष इन तत्वों के प्रभाव को मानने को तैयार ही नहीं हैं, इसलिए, क्यों कि मार्क्स ने उसकी चर्चा नहीं की। कोई भी सिद्धान्त या प्रतिपादन यदि अपने दरवाजे आगे के लिए बन्द कर ले तो उसमें रूढ़ियाँ घर बना लेती हैं। मार्क्सवाद जैसा ही हाल इस्लाम का भी है।<br /><br />मुझे मार्क्सवादियों की गोलबन्दी नहीं सुहाती।सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठीhttps://www.blogger.com/profile/04825484506335597800noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-27064394191898549362010-07-11T20:10:28.773+05:302010-07-11T20:10:28.773+05:30पहले तो इस साहसिक पहल के लिये धन्यवाद स्वीकारें। ह...पहले तो इस साहसिक पहल के लिये धन्यवाद स्वीकारें। हिन्दी ब्लोगिंग में इस प्रकार की उच्च-स्तरीय, विष्लेषणात्मक, सामयिक जानकारी की काफी कमी है। <br /><br /><>शायद उन्हों ने यह सोचा कि द्वन्द्वात्मक सिद्धांत द्वारा प्रदत्त सहज स्वाभाविक अवधारणा से प्रेरित हो एक दिन अशोषित मज़दूर साथ बैठेंगे और सेल फोन बनाना शुरू कर देंगे<br />या फिर वही मज़दूर और किसान गूगल जैसी पूंजीवादी कम्पनी बनाकर अपने हिंसक विरोधियों को ब्लोगिंग पर प्रचार का एक अभूतपूर्व मौका मुफ्त में देंगे? <br /><br />स्पश्त है कि कम्युनिस्ट विचारधारा बहुत से द्वन्दों और विरोधाभासों से से भरी पडी है। इनोवेशन के बारे में कम्युनिज़्म क्या कहता है? और सारे देश/विश्व की पूंजी पर कब्ज़ा कर के सबसे बडा और अकेला पूंजीवादी बन जाने वाले कम्युनिस्ट शासन के बारे में मार्क्स का क्या ख्याल था? <br /><br />कम्यून का राग अलापने वाले अपना खुद का परिवार और निजी धन-सम्पत्ति कैसे रख पाते हैं? कम्युनिस्त दलों से चुनाव लडने वाले अनेकों उम्मीदवार करोडपति क्यों हैं? सबसे लम्बे समय के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री का बेटा चन्दन बसु क्या लक्ज़री कारों का इम्पोर्ट मज़दूर किसानों के हल जोतने के लिये करता रहा है? जहाँ-जहाँ भी निरीह जनता की लाशों पर कम्युनिज़्म थोपा गया, अद्वितीय दमन के बावज़ूद वह एक शताब्दी तक भी टिका क्यों नहीं? <br /><br />मार्क्स और कम्युनिज़्म इतना नासमझ और अदूरदर्शी नहीं हो सकता है कि समाज, प्रशासन और वित्त के सामान्य सिद्धांतों को समझ ही न सके। मेरी नज़र में वे सिर्फ जनसामान्य पर अपने नियंत्रण के लिये शब्दाडम्बर, हिंसा और भय द्वारा उन्हें दिग्भ्रमित करते रहे हैं। <br /><br />विभिन्न कम्युनिस्ट गिरोहों के वैचारिक अंतर को समझने की उत्सुकता भी है - यथा माओवादी, मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माले,....Smart Indianhttps://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-59918870221356140652010-07-11T19:12:53.705+05:302010-07-11T19:12:53.705+05:30...मार्क्स को यह भरोसा हो चला था कि एक बार रेलवे क...<b>...मार्क्स को यह भरोसा हो चला था कि एक बार रेलवे का काम पूरा हो जाने के बाद मज़दूरों और पूँजी दोनों के पास करने को कुछ नहीं रहेगा<br /><br />पूँजी के काल्पनिक स्वभाव वाला मार्क्सीय सिद्धांत<br /><br />मार्क्स यह सोच समझ ही नहीं पाए कि लोग अपनी पूँजी का उपयोग कैसे कर पाएँगे।<br /><br />उन्हों ने यह सोचा कि द्वन्द्वात्मक सिद्धांत द्वारा प्रदत्त सहज स्वाभाविक अवधारणा से प्रेरित हो एक दिन अशोषित मज़दूर साथ बैठेंगे और सेल फोन बनाना शुरू कर देंगे<br /><br />मार्क्स का पूँजी पर कोई भरोसा नहीं था....</b><br /><br />डॉ. केली रॉस की निष्कर्षात्मक खुशफ़हमियां ही मूल मंतव्यों को एक दम स्पष्टता से सामने रख रही हैं.... इन्हीं से पता चलता है कि उन्हें मार्क्स और उनके द्वारा प्रतिपादित आर्थिक सिद्धांतों के बारे में शुरूआती ज्ञान भी नहीं है.... या तो वह उनकी समझ के बाहर की चीज़ है, या वे अपनी पूंजीवादी संरचना के पोषक हितों के चलते सतही तौर पर मार्क्स नाम के भूत का सिर्फ़ व्यक्तिगत मान-मर्दन कर अपनी आंखें मींच लेना चाहते हैं.....<br /><br />आप इनसे प्रभावित हुए हैं, लगता है आपकी समझ को ये रास आ रहे हैं...<br /><br />आपके महत्वाकांक्षी प्रकल्प में इनका संधान आपको ज़्यादा मदद नहीं दे पाएगा, ऐसा लगता है...उच्च स्तर की गंभीर मार्क्सवादीय आलोचना भी उपलब्ध है....<br />हां, यह आपकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को शायद तुष्ट कर पाने में सहायक हो सकते हैं...<br /><br />और यह भी आप बड़प्पन या कूटनीतिवश कह गये लगते हैं, क्योंकि आप निष्कर्ष तो लगभग पहले ही निकाल लिये लगते हैं...अब तो सिर्फ़ उसे तार्किक आधार देना चाहते हैं...यह आपके इस वक्तव्य से परिलक्षित हो रहा है...<br /><br /><b>"ब्लॉग जगत के सामने रखने का उद्देश्य हिन्दी को समृद्ध करना और ऐसे लोगों को एक लीक दिखाना भी है जो राजमार्गों की बर्बरता से संतप्त हो नई राहों की तलाश में हैं। आगे उनकी इच्छा - साथ चलें तो ठीक न चलें तो ठीक ।"</b><br /><br />राजमार्गों की बर्बरता से संतप्त लोगों को नई राह दिखाने के उपक्रम में हमें भी साथ ही समझें...रवि कुमार, रावतभाटाhttp://ravikumarswarnkar.wordpress.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-33103476371809240162010-07-11T19:11:44.869+05:302010-07-11T19:11:44.869+05:30पहले कैपिटल पढ़ नहीं पाया अब वैचारिक सन्ततियों का ...पहले कैपिटल पढ़ नहीं पाया अब वैचारिक सन्ततियों का रुख देख पढ़ने का मन नहीं है । स्टीव जाब्स से प्रभावित हूँ अतः पढ़ गया । साधारण मानवीय प्रवृत्तियों पर भारी भरकम ओढ़नियों से दम घुटने लगता है। सरलता सुहाती है और राह वहीं जाती है ।प्रवीण पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/10471375466909386690noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-43122615496100737502010-07-11T18:45:56.865+05:302010-07-11T18:45:56.865+05:30हम जैसे मार्क्सवाद की कम समझ वालों के लिए उपयोगी ...हम जैसे मार्क्सवाद की कम समझ वालों के लिए उपयोगी श्रृंखला! <br />वैसे सामान्य जानकारी के मुताबिक़ अब मार्क्सवाद को पढना अपना वक्त बर्बाद करना जैसा है ...यह अप्रासंगिक है अब ! शोध छात्र और संस्थानों तक ही इसकी उपयोगिता रह गयी है अब ...और यह विषय निरंतर विकृति और अपरूपता का भी शिकार हुआ है -मार्क्स ने घबरा कर कहा था ..मैं... मैं....मार्क्सिस्ट नहीं हूँ !Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-27477566495170768302010-07-11T17:32:35.227+05:302010-07-11T17:32:35.227+05:30पढ़ रहा हूँ....समझ रहा हूँ....। विभिन्न द्रष्टिकोण...पढ़ रहा हूँ....समझ रहा हूँ....। विभिन्न द्रष्टिकोणों से परिचित होने का आनंद मिल रहा है। <br /><br /> बढ़िया।सतीश पंचमhttps://www.blogger.com/profile/03801837503329198421noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-69083016863731542482010-07-11T15:34:40.961+05:302010-07-11T15:34:40.961+05:30कुछ भी कहा जाय पर खण्डों - खण्डों में समझने में अन...कुछ भी कहा जाय पर खण्डों - खण्डों में समझने में अन्विति का अभाव हो ही जाता है ! <br /><br />इन छोटे छोटे तर्कों को जहां गिराया जा रहा है वह सन्निपात बिंदु कहाँ है - ??? विवेचन में कार्यरत मनीषा में तटस्थता कितनी है , इसका ठहराव कहाँ है ? क्या वह पूंजीवाद की छायामय शरणस्थली नहीं है ? फिर ज्ञानात्मक-तटस्थता ??? <br /><br />'मानव पूंजी' जैसे टर्म को नीचे समझा भी सकते हैं आप , देव ! <br /><br />@ पूर्णत: नए उत्पाद और उद्योगों का प्रकटीकरण और उनका पूँजी निवेश के द्वारा सम्वर्धन एक ऐसी प्रक्रिया थी जो मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की समझ के बाहर की बात थी............... | <br />--- समझ - तंत्र खराब था या एक व्यक्ति ( यहाँ के सन्दर्भ में मार्क्स ) द्वारा समझा जाना !<br />अगर समझ तंत्र में खोंट है तो परवर्ती मार्क्सवादी 'पूंजी तंत्र ' की समीक्षा को आगे कैसे बढाते रहे ! ध्यातव्य है कि अमेरिका में रह रहे स्वघोषित मार्क्सवादी आलोचक कितनी नजदीक से देखकर 'पूंजी-तंत्र' की समीक्षा-आलोचना कर रहे हैं ! <br /><br /><br />@ अंतिम अनुच्छेद .........<br />--- यहाँ सहमती बनती है , कमोबेश मार्क्सवादी विचारधारा स्वेतर दलितवादी , स्त्रीवादी , सबाल्टर्न .... आदि के प्रति सोचती है कि उन्हें पूंजीवादी विचारधारा निगल जायेगी ! ...Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-16603109499439220842010-07-11T13:45:51.704+05:302010-07-11T13:45:51.704+05:30@ रवि जी,
कैपिटल पहले की पढ़ी हुई है। समालोचना और ...@ रवि जी,<br />कैपिटल पहले की पढ़ी हुई है। समालोचना और विश्लेषण के लिहाज से मेरे लिए यह यात्रा आवश्यक है। लम्बी यात्रा है लेकिन समझने की ललक है सो निभ जाएगी। इस यात्रा के बाद फिर से कैपिटल का अध्ययन करूँगा ताकि नीर क्षीर विभेदन कर सकूँ। समझ सकूँ कि इस देश की दुर्दशा, जन और नेतृत्त्व की पथभ्रष्टता के कारण निवारण क्या हो सकते हैं। <br />महत्त्वाकांक्षी प्रकल्प है लेकिन व्यक्तिगत आवश्यकता है। ब्लॉग जगत के सामने रखने का उद्देश्य हिन्दी को समृद्ध करना और ऐसे लोगों को एक लीक दिखाना भी है जो राजमार्गों की बर्बरता से संतप्त हो नई राहों की तलाश में हैं। आगे उनकी इच्छा - साथ चलें तो ठीक न चलें तो ठीक ।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-74326587139651598222010-07-11T13:34:07.136+05:302010-07-11T13:34:07.136+05:30शायद आपकी निराशा के पीछे आपका यही दृष्टिकोण काम कर...शायद आपकी निराशा के पीछे आपका यही दृष्टिकोण काम कर रहा है...<br />आपकी पक्षधरता रास्ते नहीं सुझाती...<br />और आपके संवेदनशील ह्र्दय को बेहतरी चाहिए...<br />भूल-भुलैया में उलझे हैं प्रभु...<br /><br />वाकई पूंजी को समझना चाहते हैं...सीधी दास-कैपिटल पढ़ जाईए...हम भी पढ़ रहे हैं...<br />पूंजी और उत्पादन का स्वरूप थोड़ा बदल गया है..पर आधारभूत उत्पादन संबंध और नियम वही काम कर रहे हैं...<br /><br />यह तो ऐसे ही...<br />कम से कम प्रतिबद्धता और ब्लॉगीय चर्चा के सही विषय तो सामने आ रहे हैं...<br />बेहतर प्रस्तुति...रवि कुमार, रावतभाटाhttp://ravikumarswarnkar.wordpress.comnoreply@blogger.com