tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post7623793903818655008..comments2023-10-30T15:17:40.771+05:30Comments on एक आलसी का चिठ्ठा ...so writes a lazy man: पुरुषों का अवसानगिरिजेश राव, Girijesh Raohttp://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comBlogger18125tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-16826423591127698992013-11-09T10:27:40.897+05:302013-11-09T10:27:40.897+05:30.............
dhyan se padha.........samjhne ki ko................<br />dhyan se padha.........samjhne ki koshish ki.................'swa-sudhar' ki gunjayash hai...........bakiya, 'manishiyon-vidushiyon' ke vichar se 'sikh-ka-sambal' mila.......aap sab ko aabhar..........<br /><br /><br />pranam.सञ्जय झाhttps://www.blogger.com/profile/08104105712932320719noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-37849618519284753452013-11-09T06:24:54.543+05:302013-11-09T06:24:54.543+05:30banana slugs ही समझ नहीं आया था. कुछ कुछ और पढ़ना ...banana slugs ही समझ नहीं आया था. कुछ कुछ और पढ़ना पड़ा . ऊपर के कमेंट भी पढ़े.<br />Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टूनhttps://www.blogger.com/profile/12838561353574058176noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-55329715032799141532011-09-14T10:26:43.933+05:302011-09-14T10:26:43.933+05:30मैंने दोनों ही वीडियो देखे. सिंडी गैलोप ने जो बाते...मैंने दोनों ही वीडियो देखे. सिंडी गैलोप ने जो बातें उठायी हैं, वो नारीवादियों के मध्य बहुत दिनों से चर्चा का विषय हैं, इसलिए मुझे कोई नयी बात नहीं लगी. <br />बात ये है कि जब इन्हीं सब बातों पर नारीवादी बहस करते हैं, तो उन्हें संस्कृति विरोधी ठहरा दिया जाता है. जबकि ये बातें हमारे बाद की पीढ़ी के लिए बहुत महत्त्व की हैं. इंटरनेट की पहुँच गावों तक हो गयी है, महानगरों के तो क्या कहने? ये सोचने की बात है कि जब युवाओं को अपेक्षित ज्ञान सीधे नहीं दिया जाएगा, तो वो इधर-उधर से उस ज्ञान को अर्जित करेंगे, जो कि उनके लिए घातक होगा. नारीवादी बढ़ते बलात्कारों का एक कारण पोर्नोग्राफी को भी मानते हैं.muktihttps://www.blogger.com/profile/17129445463729732724noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-65372916106717447142011-09-14T09:55:03.586+05:302011-09-14T09:55:03.586+05:30@गिरिजेश जी, मैं होमो नहीं 'मेट्रोसेक्सुअल'...@गिरिजेश जी, मैं होमो नहीं 'मेट्रोसेक्सुअल' कहना चाहती थी. यह टर्म महानगरों में रह रहे उन युवाओं के विषय में प्रयुक्त होता है, जो उच्चआय वर्ग के हैं और अपनी देखभाल पर हर महीने हज़ारों रूपये खर्च कर देते हैं. स्पा, सलून और पुरुष ब्यूटी पार्लर इन्हीं लोगों की बदौलत चलते हैं. ऐसे ही पुरुष चिकने-चुपड़े बने रहना चाहते हैं और हाल ही में हुए एक अध्ययन में ये पाया भी गया है कि आजकल की युवा पीढ़ी की लड़कियाँ ऐसे ही पुरुषों के प्रति अधिक आकर्षित होने लगी हैं. <br />अब पता नहीं ये Y क्रोमोसोम के लगातार कमज़ोर होते जाने के कारण है या महानगरीय युवाओं की फैशनपरस्ती के कारण अथवा बदलते समय की माँग कीकार्न, लेकिन ये ही सच है कि आजकल युवाओं को क्लीन शेव रहना अच्छा लगने लगा है और लड़कियों को ऐसे ही लड़के पसंद आते हैं. मूँछे रखना तक पिछडेपन की निशानी मानने लगे हैं आजकल के टीनएजर्स.muktihttps://www.blogger.com/profile/17129445463729732724noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-31514048379759319412011-09-14T08:56:58.398+05:302011-09-14T08:56:58.398+05:30"पूरे संसार में दो-तिहाई स्त्रियों के लिए यौन..."पूरे संसार में दो-तिहाई स्त्रियों के लिए यौन-संबंधों में आनंद जैसी कोई चीज़ नहीं होती"<br /> यह तो भयावह आकड़ा है ,मैं केवल चंद नारीवादियों के बारे में ऐसी सोच रखता था और उनकी प्रवंचना पर सहानुभूति रखता था -सहानुभूति के आगे भी कुछ करने की सदा इच्छा रही है -मगर सीमाएं हैं ...आप जानते हैं /वे जानती हैं ! <br />यहाँ औरतों को वैकल्पिकता पर नजर रखनी चाहिए ..और पुरुषों को और जिम्मेदार ..हम आप जैसे ....Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-39307277522745092092011-09-14T08:50:03.107+05:302011-09-14T08:50:03.107+05:30"विशेषकर विपरीत लिंग के किसी ऐसे व्यक्ति से ज..."विशेषकर विपरीत लिंग के किसी ऐसे व्यक्ति से जो अस्पष्ट, विरोधाभासी और स्फुरदीप्त संकेत देता हो।" <br /> यही तो आफत है और यही रोना है -<br />भारत में वर्णित स्थितियां अभी उस परिमाण में नहीं हैं -पर शुरुआत हो चुकी है !Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-44554672538882796932011-09-14T08:09:58.905+05:302011-09-14T08:09:58.905+05:30घुघूती जी,
जो आप ने कहा वह प्रकटत: तथ्य है लेकिन ...घुघूती जी, <br />जो आप ने कहा वह प्रकटत: तथ्य है लेकिन है लेशमात्र। इस तर्क की परिणति वहीं होती है जहाँ दोनों एक दूजे के प्रतिद्वन्द्वी कहे जाते हैं। आज स्त्रियाँ यदि आगे हैं तो उसका कारण पुरुषों का सहयोग और सहारा भी है। आप के ही तर्क से कहें तो पहले स्त्रियाँ पुरुषों को स्वयं को दबा कर भी सहयोग सहारा देती थीं तो आज दोनों एक दूसरे के लिये लगे हुये हैं।<br /> फिलिप ज़िम्बार्डो के व्याख्यान में लड़कियों के आगे रहने का वर्णन प्रस्तावना और ह्यूमर के स्पर्श के रूप में हुआ है। मुख्य बात यह है कि पुरुष अपनी कतिपय वृत्तियों के कारण ऐसे व्यसन में पड़ रहे हैं जो एक पूरी पीढ़ी के संतुलन को बाधित करने में सक्षम है/हो रहा है। पुरुष का अविकसित रह जाना या पतित होना जितना उसके लिये घातक है उतना ही स्त्री के लिये भी। यह बात उल्टी भी लागू होती है... <br />जैसा कि मैंने कहा बहुत वृहद और गहन विषय है, कितने ही आयाम हैं। फिर कभी... <br />... आप ने अपने विचार व्यक्त किये, धन्यवाद। आभार।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-83729084182475140902011-09-13T15:22:51.349+05:302011-09-13T15:22:51.349+05:30शायद सदा से पुरुष वही थे जो आज हैं। अन्तर केवल उनक...शायद सदा से पुरुष वही थे जो आज हैं। अन्तर केवल उनके परिवेश का था। स्त्रियाँ स्पर्धा में भाग ही नहीं लेती थौं अतः पुरुष पिछड़ते भी नहीं थे व सर्वशक्तिमान, अति बुद्धिमान होने, व अकेले बुद्धिमान होने के भ्रम में रहते थे। यह भ्रम व अन्य बहुत सारे भ्रम के जाल बुनने में स्त्री भी शायद सहायता करती थी। क्योंकि वह स्वयं जीवन की किसी भी स्पर्धा में भाग नहीं ले पाती थी अतः अपने पिता, पति, पुत्र के माध्यम से ही विजयी हो सकती थी़। चाहे बुद्धि, कौशल, पत्नी ने लगाया हो, विजयी पुरुष ही गिना जाता था। उस विजय से कभी अतिरिक्त धन तो कभी अतिरिक्त मान सम्मान मिलता था व उसकी प्रतिबिंबित, रिफलेक्टेड महिमा में स्त्री भी स्वयं को महिमा मंडित अनुभव करती होगी। <br />पुरुष की हर स्पर्धा की तैयारी स्त्री करती रही है़। कभी खिला पिलाकर, कभी युद्ध के लिए सजाकर, कभी उकसाकर तो कभी उसकी असली नकली महानता के बारे में उसे विश्वास दिलाकर।<br />समस्या अब इसलिए आन खड़ी हुई है क्योंकि स्त्री स्वयं स्पर्धा में भाग लेने लगी है अतः एक तो इसी कारण पुरुष पिछड़ने लगा है क्योंकि उसकी नई प्रतिद्वन्दी आ गई है, दूसरा जितनी उर्जा स्त्री पहले उसे सजाने, संवारने, खिलाने पिलाने, उसके नखरे उठाने, उसके अहम् को सहलाने दुलारने में लगाती थी वह अब नहीं लगा रही, क्योंकि इसमें से काफी उर्जा अब उसे स्वयं के लिए चाहिए होती है। <br />पहले के पुरुष के पीछे दरअसल दो मनुष्यों की उर्जा, प्रयास, दुआएँ काम कर रही होती थी, उसपर यह अनुभूति कि वह किसी मन्दबुद्धि, निर्बल, असहाय (स्त्री) को दिशा निर्देश दे रहा है, रक्षा कर रहा है, किसी का भाग्य विधाता है, साधारण से साधारण पुरुष को भी टार्जन या चाणक्य होने के भ्रम में डाल सकता है। हम स्वयं को जो समझने लगते हैं हम वैसा ही व्यवहार भी करने लगते हैं।<br />घुघूती बासूतीghughutibasutihttps://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-66617461933073800382011-09-13T14:11:21.746+05:302011-09-13T14:11:21.746+05:30इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.ghughutibasutihttps://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-15007914646860012722011-09-13T07:08:47.262+05:302011-09-13T07:08:47.262+05:30मुक्ति जी, फिलिप ज़िम्बार्डो का लेक्चर देखने लायक ...मुक्ति जी, फिलिप ज़िम्बार्डो का लेक्चर देखने लायक है। उसमें कोई ऐसी वैसी बात नहीं है। <br />सिंडी गैलोप थोड़ी बोल्ड हैं लेकिन एक अकादमिक व्यक्ति के लिये दर्शनीय हैं। उन्हों ने पते की बातें कहीं हैं हालाँकि उनकी बातें यहाँ विषयान्तर ही हैं।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-3795317576708514172011-09-13T07:06:00.210+05:302011-09-13T07:06:00.210+05:30मुक्ति जी, सम्भवत: आप होमो कहना चाह रही थीं और हेट...मुक्ति जी, सम्भवत: आप होमो कहना चाह रही थीं और हेट्रो कह गईं। होमोसेक्सुअलिटी एक अलग विषय है। यहाँ पुरुष की उस सहज नैसर्गिक प्रवृत्ति को कुन्द किये जाने पर बात की गई है जो कि साथी के रूप में स्त्री का अधिकार है और आधी आबादी के रूप में पुरुष का कर्तव्य भी। कोई आश्चर्य नहीं कि स्त्री पौरुषहीन पुरुष में आकर्षण न पाये। यहाँ पौरुष से तात्पर्य बल और बलात नहीं, उस केयरिंग है जो स्त्री में विद्यमान 'माँ' अपने साथी से चाहती है।<br />रोडीज वगैरह प्रोग्राम अन्तत: उसी 'सृजन' से जुड़ते हैं जो पोर्नो के लिये उत्तरदायी है। <br />आप और रंजना जी का धन्यवाद जो अपने विचार रखे। 'स्थूल' - रंजना जी द्वारा प्रयुक्त यह एक शब्द बहुत गहरे अर्थ रखता है।<br /> ऐसे विषयों पर 'हिन्दी पुरुष' भी कुछ कहने से बचते हैं। इसके लिये दीपक बाबा, स्मार्ट इंडियन, कौशलेन्द्र, प्रवीण पाण्डेय और रोहित विष्ट को भी धन्यवाद देना चाहूँगा कि अपने विचार यहाँ रखे। यह एक बहुआयामी, विशाल और जटिल विषय है। आप लोगों की प्रतिक्रियाओं से मुझे सीखने को मिला है।<br />बस एक निवेदन है कि अपने परिचितों को लड़कों में वीडियो गेम, पोर्नो और नेट के प्रति बढ़ते व्यसनी झुकावों की ओर से सचेत करते रहें। आज अमेरिका जिस स्तर पर इन्हें झेल रहा है, उससे हमलोग बहुत दूर नहीं हैं।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-65909786036469206962011-09-12T22:59:32.973+05:302011-09-12T22:59:32.973+05:30मैं तो इसे 'identity crisis' मानता हूँ।पर...मैं तो इसे 'identity crisis' मानता हूँ।परिवार के स्नेह,सरंक्षण,विश्वास से वंचित युवाओं द्वारा अपने वजूद की भटकन भरी तलाश।अवसान दोनों तरफ है।रोहित बिष्टhttps://www.blogger.com/profile/00332425652423964602noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-10300255245418255032011-09-12T15:30:10.999+05:302011-09-12T15:30:10.999+05:30कुछ नया, कुछ और रोमांचक पाने की चाह व्यक्ति को भौत...कुछ नया, कुछ और रोमांचक पाने की चाह व्यक्ति को भौतिकता और स्थूलता की और तेजी से खींचे जा रही है...<br />पर, अति सर्वत्र वर्जयेत...अकाट्य, सिद्ध है यह....<br />चक्र है... ऊब होगी इससे भी और सुख की चाह में फिर से निकलेंगे नए संधान में...रंजनाhttps://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-83510572493310627142011-09-12T11:52:29.374+05:302011-09-12T11:52:29.374+05:30नारीवादियों के विषय में आपका यह कथन 'रेडिकल ना...नारीवादियों के विषय में आपका यह कथन 'रेडिकल नारीवादियों' के लिए है. असल में नारीवाद की एक धारा यह मानती है कि स्त्री-पुरुष के अंतरंग संबंधों में भी पितृसत्तात्मक उच्चावचता है. मतलब उन संबंधों को ऐसे परिभाषित किया जाता है जैसे कि पुरुष भोगी हो और स्त्री भोग्या. ऐसा कुछ मामलों में होता भी है.सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं पूरे संसार में दो-तिहाई स्त्रियों के लिए यौन-संबंधों में आनंद जैसी कोई चीज़ नहीं होती क्योंकि पुरुष केवल अपनी स्वार्थ-सिद्धि करके 'निवृत्त' हो लेता है और स्त्रियों के आनंद के विषय में नहीं सोचता.(मैं ऐसा सिर्फ़ अध्ययन के आधार पर नहीं कह रही, बल्कि मैंने एक ग्रुप के साथ काम किया है और सैकड़ों औरतों से बातचीत की है)<br />जहाँ तक अन्य स्त्रीवादियों की बात है, तो वे मानते हैं कि जिस प्रकार सभी स्त्रियाँ एक जैसी नहीं होतीं, उसी प्रकार सभी पुरुष एक जैसे नहीं होते. परस्पर अंतरंग सम्बन्धों में एक दूसरे का सम्मान बनाए रखकर समानता संभव है. इसके लिए लड़के और लड़कियों को वयस्क होते ही, मुख्यतः विवाह से पूर्व यौन-संबंधों की सम्पूर्ण शिक्षा दी जानी चाहिए. लड़कियों को भी ऐसे मामलों में बोलने के लिए प्रेरित करना चाहिए.<br />मैंने आपका लेख पढ़ा, पर वीडियो नहीं देखे और अंग्रेजी वाला हिस्सा नहीं पढ़ा. लड़कों के हेट्रोसेक्सुअल होते जाने को मैं एक फैशन मात्र मानती हूँ और आप ज़रा टीवी चैनल बिंदास की 'दादागिरी' और एम टीवी 'रोडीज़' देखिये. मुझे लगता है कि इन कार्यक्रमों में लड़के-लड़कियाँ आपको जिस तरह से गाली-गलौज करते दिखेंगे, आपकी धारणा हो सकता है थोड़ा बदले.muktihttps://www.blogger.com/profile/17129445463729732724noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-18647804322437730002011-09-12T09:06:46.558+05:302011-09-12T09:06:46.558+05:30रोचकता के नये अध्याय सामने आ रहे हैं, सामान्य जीवन...रोचकता के नये अध्याय सामने आ रहे हैं, सामान्य जीवन शैली से पके लोग असामान्यता की ओर भाग रहे हैं,संतुष्टि तो बाहर है ही नहीं। अपने भीतर के सुख दुख का स्रोत लोग औरों में ढूढ़ते हैं।प्रवीण पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/10471375466909386690noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-28995770356680214592011-09-11T22:32:32.377+05:302011-09-11T22:32:32.377+05:30@ प्रकृति के पास अपने करैक्टिव मैज़र्स हैं,
हाँ यह...@ प्रकृति के पास अपने करैक्टिव मैज़र्स हैं,<br />हाँ यह बात तो है. पर प्रकृति के करेक्टिव मेजर्स पर, सब कुछ जानकर भी भरोसा कहाँ हो पाता है ? दरअसल हमारी चिंताएं और प्रयास भी (स्वाभाविक होने से ) उसी प्राकृतिक करेक्टिव मेजर्स के ही भाग हैं. प्रकृति से परे तो कुछ भी नहीं है न ! अन्यथा फिर हमारे पूरी तरह भाग्यवादी होने से अकर्मण्यता का डर बना रहेगा.बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-56458355577856185542011-09-11T17:58:15.697+05:302011-09-11T17:58:15.697+05:30क्या हम एक बडे बदलाव के साक्षी हैं या आंख के सामने...क्या हम एक बडे बदलाव के साक्षी हैं या आंख के सामने का परिवर्तन आंख से छुपे से बडा लगता ही है? मुझे लगता है कि प्रकृति के पास अपने करैक्टिव मैज़र्स हैं, समस्याओं के हल भी हैं, भले ही हमें वे हल भी एक बड़ी समस्या दिखें।Smart Indianhttps://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-78918694941263353652011-09-11T14:29:15.099+05:302011-09-11T14:29:15.099+05:30पतली कमर, बारीक और मधुर आवाज़, जींस से झांकती हुई ...पतली कमर, बारीक और मधुर आवाज़, जींस से झांकती हुई चड्डी, कान छिद्दे हुए, आँख की पुतली के उपर भी रिंग....... आज के १८-२० साल के मेट्रो युवा... खुदा खैर करे... ऐसे 'मर्दों' की जरूरत भी क्या रह गयी.....<br /><br />सत्य कह रही हैं नारीवादी भी...:)दीपक बाबाhttps://www.blogger.com/profile/14225710037311600528noreply@blogger.com