बुधवार, 21 सितंबर 2011

हौं प्रसिद्ध पातकी...

यह लेख तेजस्वी भारतीय और ताजे घटनाक्रम पर केन्द्रित है। इसके बहाने हिन्दी ब्लॉगजगत के उस भाग की पड़ताल है जिसमें सक्रिय जनों की संख्या चन्द सैकड़ा है लेकिन दम्भ और अज्ञान कोटिपूरक श्रेणी के। भारतीय जी से कभी मिला नहीं लेकिन हिन्दी ब्लॉग जगत से यदि किसी ऐसे व्यक्ति को चुनने को कहा जाय जो बाहर भीतर से पूर्णत: ईमानदार हो तो मैं उन्हें चुनूँगा। कारण उन्हें स्पष्ट होंगे जो उन्हें थोड़ा भी जानते होंगे।

वह एक ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी के लिये बुरा नहीं सोच सकते। उसूलों के इतने पक्के कि अपशब्द बोल नहीं सकते, लिख नहीं सकते और पढ़ भी नहीं सकते। मेरी कहानियों का पोडकास्ट करने की सदाशयता उन्हों ने कई बार दिखाई लेकिन हर बार यदि कोई शब्द उन्हें अनुचित लगा तो उसे छोड़ा या उससे बेहतर विकल्प का प्रयोग किया।

मन से रुग्ण ध्यानाकर्षण की प्रेमी एक स्त्री द्वारा जिस पोस्ट को लेकर इतना हंगामा बरपा गया उसका पुनर्पाठ करने की आवश्यकता है। पुनर्पाठ इसलिये कि यह सिद्ध हो सके कि हिन्दी ब्लॉगरी में कितना छिछ्लापन है। उस पोस्ट में मेरी पोस्ट का भी लिंक है और स्पष्ट लिखा गया है कि: 

जो पाठक "सैंस ओफ़ ह्यूमर" को साँप की जाति का प्राणी समझते हों, वे "अपोस्ट से कुपोस्ट तक" के इस सफ़र को न पढें तो उनकी अगली "प्रतिक्रियात्मक" पोस्ट के पाठकों का बहुमूल्य समय नष्ट होने से बच जायेगा।
(चाहता तो मैं भी नंगे हो कर नाच सकता था, यह बात और है कि तमाशाइयों की संख्या बहुत कम होती। वैसे भी 'सेंस ऑफ ह्यूमर' को मैं श्वान श्रेणी में नहीं रखता। क्या कहा? साँप लिखना था? जी,  मैं उतना सभ्य नहीं हूँ)।

 यहाँ इसलिये दुहराया कि नकली और छली आर्तनाद करती ब्लॉग जमात और विशेषकर उन स्त्रियों की आँखों से पट्टर हटे जो सिर्फ इसलिये गलत का पक्ष ले रहे हैं कि वह स्त्री है। सम्भवत: उनके लिये प्रगतिशीलता की पहचान यही है कि स्त्री कैसी भी हो, कुछ भी करे, उसे हमेशा सही कहा जाना चाहिये; भले उस विवाहिता के कारण किसी कुँवारे युवक को चरम मानसिक यातना झेलनी पड़ी हो, किसी वृद्ध को अपमानित होना पड़ा हो, किसी को दूसरे के कहे पर लेबल कर दिया गया हो ... भारतीय जी से यह सब छिपा रहा होगा, असम्भव है। किसी से भी छिपा नहीं रहा।

हर वह ईमानदार व्यक्ति घुटन का अनुभव करेगा जो यह देखेगा कि रोगी प्रवृत्ति के पुरुषों और सखियारो टाइप की स्त्रियों के अलावा ऐसे लोग भी कुसंगीत पर नृत्य करते और अनदेखी करते पाये जाते हैं जिन्हें स्वस्थ और परिपक्व व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। व्यंग्य के माध्यम से भारतीय जी ने छिछली प्रवृत्ति पर दृष्टि डालने का संकेत किया जिसमें केवल एक स्त्री नहीं, कइयों के लेखन के अंश थे। भाषिक रूप से वे कहीं भी अश्लील या कटु या कुख्यानी नहीं रहे। बाकियों ने तो व्यंग्य को पढ़ा, समझा और सराहा लेकिन आत्ममुग्धता के चरम तक विवेकहीन स्त्री को लगा कि उसे ही लक्षित कर लिखा गया है। स्वाभाविक भी था क्यों कि संख्याबल तो है ही! जमावड़ा बटोरने वाले हास्य संकेतों को या तो समझते ही नहीं या इतने धूर्त होते हैं कि उनमें भी अवसर देख कर नौटंकी फैलाने की सोच लेते हैं। वही हुआ।

यह साफ कर दूँ कि इस विषय पर मेरी भारतीय जी से चर्चा नहीं हुई है और न उन्हों ने मुझे लिखने को कहा है। वे स्वयं समर्थ हैं और बाद में रोना पड़े ऐसा काम करेंगे नहीं लिहाजा उन्हें किसी के कन्धों की आवश्यकता भी नहीं है। मैं स्वयं यह अन्धेर बहुत दिनों से देख रहा हूँ।

जिस दिन एक बहुत ही प्रसिद्ध दोहे का नये अर्थ संकेत के साथ प्रयोग कर वहाँ से हटा था तब से बहुत कुछ घटित हो चुका है। मैं वहाँ अपने से नहीं जाता लेकिन बार बार हंगामा इतना बड़ा हो जाता है कि कोई न कोई बता ही देता है। इतने सुलझे हुये व्यक्ति के साथ हुआ तो रहा नहीं गया। वहाँ टिप्पणियों में भारतीय जी के लिये अपशब्दों की भरमार है। जाने क्या क्या कहा गया है और स्वनामधन्य महान स्त्री पुरुष ब्लॉगरों ने उन नकली छलिये टेसुओं को पोंछने में अपने हाथ छील (यह शब्द इस प्रकरण की एकमात्र उपलब्धि है) डाले हैं जो हकीकत में सिवाय ‘चलित्तर’ के कुछ नहीं हैं। किसी ने यह परवाह नहीं की कि उस साधु पुरुष पर क्या गुजर रही होगी!

‘चलित्तर’ के प्रयोग से जिसे मुझे ‘स्त्री विरोधी पुरुष’ समझना हो समझा करे। बहुत गहरे प्रेक्षण और सदियों के बाद लोक में कुछ स्थापित होता है, एक दो दिन में नहीं।

तमाम पिताओं, माताओं, सखियों, मित्रों, भाई आदि आदि लोगों से अपील है कि उस स्त्री को समझायें:

(1)   लिखती पढ़ती रहो लेकिन सार्वजनिक करती हो तो आलोचना के लिये भी तैयार रहो। सीख लो। मनुष्य के पास हमेशा सुसीख लेने की गुंजाइश रहती है और कुसीख को त्यागने की भी। सुलोचना बनो। 
(2)   हास्य व्यंग्य की रचनाओं का भी पारायण किया करो। समझ विकसित होगी और भीतर बाहर की कु-रचनाओं से मुक्ति भी मिलेगी। 
(3)   विवाहिता हो, अपने परिवार पर केन्द्रित हो।
(4)   न तो तुम इतनी महान हो कि सब कुछ छोड़ कर लोग तुम्हारे विरुद्ध षडयंत्र रचते रहें और न इतनी गिरी हुई कि जो चाहे लतिया कर चलता बने। (इसका उलट भी उसे बतायें)।  
(5)   स्त्री-स्त्री और आँसू-आँसू खेलना छोड़ो। युग बहुत आगे निकल गया है। लोग समझते हैं और जिस दिन स्त्री इस अस्त्र का प्रयोग करना प्रारम्भ कर देती है, वे आदिम और सहज रूप से सोचने लग जाते हैं।
(6)   भाग्यशाली हो कि हिन्दी ब्लॉगरी में हो, अंग्रेजी ब्लॉगरी में या तो कोई फटकता ही नहीं और अगर आ भी जाता तो ऐसी नौटंकी देख जो सुना कर वहीं जमा रहता (जाता नहीं) उसे झेलना तुम्हारे लिये सम्भव नहीं होता।
(7)   किसी मनोचिकित्सक से सलाह लेने में कोई बुराई नहीं है।

टिप्पणियों का विकल्प बन्द है क्यों कि मुझे उनमें दिलचस्पी नहीं है, जिसे प्रतिक्रिया देनी हो मेल से भेज दे। अपनी जान बहुत सभ्य भाषा में लिखा है। आभासी कॉलर चढ़ाते और बाँह मरोड़ते भाई लोगों से विनम्र अनुरोध है कि अपनी ऊर्जा का उपयोग अपशब्दों या धमकियों के लिये न कर किसी सार्थक काम के लिये करें। ब्लॉग जगत में ऐसी बहुत सी छिपी प्रतिभायें हैं जिन्हें पहचान और प्रोत्साहन की आवश्यकता है, वहाँ अपना सार्थक योगदान करें (उनमें स्त्रियाँ और युवतियाँ भी हैं)। अभी जिसे चमकाने में लगे हैं उस लोहे में तो जंग ही जंग है।

हाँ, मुझे गाली वगैरह वाली मेल भेज सकते हैं। मुझे किसी चीज से परहेज नहीं है, मैं एक अलग प्रकार का भारतीय हूँ। वैसे भी इस समय जो कहानी लिख रहा हूँ उसमें गालियों की क्वालिटी से संतुष्ट नहीं हूँ, कुछ नया मिलेगा तो रचना का भला होगा। स्वयं द्वारा आविष्कृत गालियों के सरल और गूढ़ार्थ भी भेज देंगे तो समझने में सहूलियत होगी।

भारतीय जी! मैंने तो दूसरों के ब्लॉगों पर टिप्पणी करना छोड़ दिया है, इसलिये मेरी ‘सद्भावना’ निर्बल और अनादरणीय है फिर भी अपील है कि या तो हर पोस्ट पर टिप्पणी का विकल्प बन्द कीजिये या वहाँ भी खुला रखिये।
      
नोट: ‘स्त्रीवाद’ का अध्ययन मैंने अपनी बुढ़ौती के लिये रख छोड़ा है इसलिये इस लेख में शास्त्रीय गड़बड़ियाँ पाई जा सकती हैं। यहाँ स्त्रीलिंग सम्बन्धित कतिपय शब्दों का अर्थ किसी जीवित या मृत या आगामी स्त्री से नहीं है। अन्य जंतु का नाम भी किसी प्रकार के मनुष्य के लिये नहीं लिया गया है।  (... बताना पड़ता है यार!)

मैं किसी के लिये इसलिये सम्मान नहीं रखता कि वह स्त्री है, इसलिये रखता हूँ कि वह अच्छा व्यक्ति है, अच्छा नागरिक है।  घटनाक्रम पर दृष्टि बनी रहेगी। मैं अपनी कहानियों के लिये विषय परिवेश से ही लेता हूँ। अगली रचना सम्भवत: यह कहानी हो:

'झील फिर से सूख गई'
जैसा कि होता है, कहानियाँ व्यक्ति पर केन्द्रित न होकर प्रवृत्ति पर होती हैं। (... बताना पड़ता है यार!)