tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post2556535367211560658..comments2023-10-30T15:17:40.771+05:30Comments on एक आलसी का चिठ्ठा ...so writes a lazy man: रानी का डंडा - अंतगिरिजेश राव, Girijesh Raohttp://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comBlogger34125tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-43781623357140302662010-07-26T07:54:34.994+05:302010-07-26T07:54:34.994+05:30आज दोनों अंक पढ़े। बहुत बड़ी रेंज है। बहुत खूब! बधाई...आज दोनों अंक पढ़े। बहुत बड़ी रेंज है। बहुत खूब! बधाई!अनूप शुक्लhttps://www.blogger.com/profile/07001026538357885879noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-88768028817200999322010-07-21T06:37:27.086+05:302010-07-21T06:37:27.086+05:30@अगर टेलीकास्ट नहीं हुआ तो आप लोग यहीं के हो के रह...<b><br />@अगर टेलीकास्ट नहीं हुआ तो आप लोग यहीं के हो के रह जाएँगे।<br /><br />@अब बस अखबार में ही आस है। <br /><br />@दिल्ली खुदी पड़ी है। उसके गड्ढों में रोज करोड़ो डाले जा रहे हैं। गड्ढे हैं कि भर ही नहीं रहे। <br /><br />@जुलूस निकलते रहेंगे कभी बैनरों के साथ और कभी डंडे के साथ। बीमारी वैसी की वैसी रहेगी। ... भगवान रमपतिया जैसी मौत किसी को न दे।</b><br /><br />बेहद खूबसूरत!Smart Indianhttps://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-39022101309220043132010-07-19T22:28:57.699+05:302010-07-19T22:28:57.699+05:30दोनो भाग पढ़ा.
हास्य-व्यंग्य की भरमार के बीच आखिर ...दोनो भाग पढ़ा.<br />हास्य-व्यंग्य की भरमार के बीच आखिर तलवारें खिच ही गईं. ग्रामीण बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होने वाली गालियों का सटीक प्रयोग इसे सजीवता प्रदान करने में सहायक हुए हैं.<br />अली सा का विरोध और अमरेन्द्र जी का तर्क दरअसल एक सिक्के के दोनो पहलुओं को उजागर करते हैं. <br />मुझे तो रमपतिया का मरना कहीं से नहीं खलता. यह तो ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंकने जैसा ही है..या कहें भगत सिंह का संसद में गूँगे-बहरों को जगाने के लिए किया गया बम विस्फोट..! <br />..अभी भी बहुत गरीब और बहुत अनपढ़ है, हमारे देश की आम जनता. जो कुछ कर सकते हैं, वे हिज़ड़ों की तरह सुविधाओं की चादर ओढ़े सो रहे हैं. उनको जगाने के लिए जरूरी था रमपतिया का मरना.<br />..इसे पढ़कर देर से आने का मुझे भी अफसोस है.<br />..बधाई.देवेन्द्र पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/07466843806711544757noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-75093924292003613702010-07-18T07:03:32.093+05:302010-07-18T07:03:32.093+05:30वर्डप्रेस पर प्राप्त टिप्पणी:
Congratulations! Awe...वर्डप्रेस पर प्राप्त टिप्पणी:<br />Congratulations! Awestruck. Beautiful. Took me lots of time to read. Hindi mein haath tang nahin hai par monitor pe annkhe nahin tikti. Will rate it in Phanishwarnath Renu's "PanchLaat" (Petromax). ...प्रायश्चित स्वरूप गाय का गुह मूत पहले ग्रहण करना पड़ा। जाति बिरादरी से बाहर करने के बजाय इसी पाँड़े के बाप ने यह रास्ता निकाला था। Maila Anchal- Justification of pre marital pregnancy as to save the future progeny...<br /><br />गोरकी असल में एक भूतपूर्व एथलीट थी जिसका खेल जगत में योगदान भारत की फुटबाल टीम से कम नहीं था। ... lovely...<br /><br />Though I don't get to read much contemporary literature in Hindi and vernacular but I guess Hindi bloggers should vote for best stories and then could together think of shooting short stories into short films. I am serious.<br /><br />Sad to see only two women commented.<br /><br />Thanks again for a wonderful weekend gift.<br /><br />Peace,<br /><br />Desi Girlgirlsguidetosurvivalhttp://girlsguidetosurvival.wordpress.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-25650855355469677642010-07-17T23:31:38.963+05:302010-07-17T23:31:38.963+05:30रानी का डंडा फिर चल गया । दिल्ली में वैट बढ़ गया । ...रानी का डंडा फिर चल गया । दिल्ली में वैट बढ़ गया । तेल की कीमतें बढ़ गयीं । <br /><br />गजब ढाये है रानी का डंडा । <br /><br />इसे कहते हैं सर्वश्रेष्ठ व्यंग । बहुत बहुत आभार ।K M Mishrahttp://kmmishra.tknoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-65243463195136544362010-07-16T20:54:49.927+05:302010-07-16T20:54:49.927+05:30@ अली सा,
रचवैयों को कोई रोक पाया है? आप लोग जारी...@ अली सा, <br />रचवैयों को कोई रोक पाया है? आप लोग जारी रहिए। मैंने सोचा कि अपनी बात कह दूँ। सबसे अच्छी रचना 'सेल्फ ड्रिवेन'होती है। आप को मज़बूर कर खुद को रचवा जाती है :)गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-75003567163722399712010-07-16T20:27:52.022+05:302010-07-16T20:27:52.022+05:30@गिरिजेश जी
अरे मैं तो आया था बात को और लंबा तानन...@गिरिजेश जी <br />अरे मैं तो आया था बात को और लंबा तानने के हिसाब से पर रचनाकार खुदै आ गये अब उनकी 'रचना' जो ना करै :)<br />गिरिजेश भाई बहस तभी हो पाई जब आपने मौक़ा दिया ! <br />@अमरेन्द्र भाई :)उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-66889201372280273122010-07-16T19:42:46.145+05:302010-07-16T19:42:46.145+05:30अली सा और अमरेन्द्र जी,
आप लोगों की समालोचक दृष्ट...अली सा और अमरेन्द्र जी, <br />आप लोगों की समालोचक दृष्टि ने मुझे प्रसन्नता दी है। संतोष हुआ है कि हिन्दी ब्लॉगरी में इतनी समृद्ध आलोचनाएँ और विमर्श हो सकते हैं। यकीन मानिए मुझे आस की किरण दिखाई दे रही है। ऐसे मित्र हों जिनके साथ रह कर अपने को निखारा जा सके - इससे अच्छा भाग्य क्या हो सकता है! आज हिमांशु पाण्डेय जी की कमी खल रही है। जाने उनका ब्रॉडबैण्ड खराब हुआ है कि वे त्याग चुके हैं .... हिन्दी ब्लॉगरी के लिए क्षति होगी यदि आशंका सच है। <br />@ मज़ाजीवी<br />ये ब्लॉग देखने चाहिए। <br />http://ojha-uwaach.blogspot.com/<br />http://kuchh-baatein.blogspot.com/<br />अभिषेक जी ब्लॉग जगत के रत्न हैं। जिस तरह से पहले भाग में 'मो सम कौन' ने मोछउखरनी में निहित इशारे को समझा वैसे ही अभिषेक जी ने गीत के चयन में अंतर्निहित इशारों को समझा है। इस रचना में बहुत कुछ बिखरा पड़ा है। मैं रौ में लिख गया, अब खुद महसूस कर रहा हूँ। कहानी की मॉडुलेरिटी पर भी नज़र गई है। यह अंशों 2,3,4,5,6 में से हर किसी पर समाप्त की जा सकती है और हर बार कुछ अलग से प्रभाव छोड़ेगी।गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-46846592657370328512010-07-16T19:21:19.051+05:302010-07-16T19:21:19.051+05:30उसने तय किया कि कल से गाँव में वह अखबार बाँटेगा और...<b> उसने तय किया कि कल से गाँव में वह अखबार बाँटेगा और पढ़ कर सुनाएगा भी। </b><br /><br />अली सा, <br />बस अंत में उपर का वाक्य जोड़ना था और आशा की किरण दिखाई देती। पर उससे क्या हासिल? कहानी ऐब्सर्डिटी को लेकर चलती है। बहुत कुछ अमरेन्द्र जी कह चुके हैं। दुहराना ठीक नहीं है। <br />सोद्देश्यता और संघर्ष की सम्भावनाएँ क्या एक कहानी के अंत से ही शेष हो सकती हैं? जो यथार्थ स्थापित सा हो चला है, उसे जस का तस रख देना ताकि लोग सिहरें , सम्वेदनाएँ जुम्बिश लें क्या पर्याप्त नहीं है? सबसे बड़ी बात यह कि मुझे अपने प्रति ईमानदार रहना था। <br />गाँव में बेटन के वाकई पहुँचने की जरा कल्पना करें! हमारे रहनुमाओं को यह कल्पना भी नहीं है तभी तो वे समझते हैं कि 70% जनसंख्या के लिए न खेल हैं और न उन्हें इस तथाकथित खेल भावना से कुछ लेना देना है। कहीं वे सही भी हैं - उन्हीं का किया धरा तो गाँवों में दिख रहा है। उनसे बेहतर कौन जानता है? ... ग़ुलाम मानसिकता तो देखिए - लखनऊ में एक पूँजीपति बेटन का अपहरण कर लेता है और सारा प्रशासन तमाशा देखता रह जाता है! रायबरेली में डंडे को छूने भर के लिए मार पीट हो जाती है!! सारनाथ में ध्यानस्थ बुद्ध के आगे डंडा रखा जाता है !!! - कितनी ऐब्सर्डिटियाँ चाहिए बच खुच गई आस को भी पलीता लगा उड़ा देने के लिए? ऐसी घटनाएँ हमें विराट ऐब्सर्डिटी का एहसास रह रह करा जाती हैं। ... मुक्तिबोध के आत्मसम्भवा से कुछ नहीं होने वाला ... सर्वजन जुलूस अब दिनदहाड़े निकलता है, रात की जरूरत नहीं। कलीमुद्दीपुर बार्डर पर अब बामनदास नहीं मरेंगे ... चिथड़े बाँधने के लिए चेथरिया पीर नहीं जाना, कहीं भी बाँधा जा सकता है और चमत्कार का बस इंतज़ार किया जा सकता है, बस इंतज़ार। ..गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-15684950363931075952010-07-16T17:33:37.362+05:302010-07-16T17:33:37.362+05:30@ आदरणीय अली जी ,
शायद हम कोई भी एक दूसरे पर गौर न...@ आदरणीय अली जी ,<br />शायद हम कोई भी एक दूसरे पर गौर नहीं कर पा रहे हैं ! :-) <br /><br />एक रचना में अँधेरे की बात की है मैंने , उस अँधेरे को दिखाने की इमानदारी ! रचना में यह अनुपात व्यवस्था देखना आवश्यक नहीं लगता ! मुक्तिबोध के 'अँधेरे में' रचना में क्या यह अनुपात व्यवस्था दिखेगी ! फिर ऐसी टाइप की रचना में अनुपात व्यवस्था का क्या तुक ? <br /><br />नायक आपने नहीं देखा ठीक ही किया , पर यहाँ पर कहाँ से / किस पात्र से / किस संवाद से / किस भूमि से आलोक /सकारात्मक/भारतीय सुखान्त/ आशावाद ... आदि आदि की योजना हो ? यह भी तो नहीं समझ में आ रहा है ! <br /><br />और ऐसे ही हम लोग लगे रहे तो मजाजीवी इन बतकहियों को 'गाय का गुह मूत' से प्रकारान्तरित करते रहेंगे ! : -)Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-22768910014562136402010-07-16T16:08:25.186+05:302010-07-16T16:08:25.186+05:30@ आदरणीय अमरेन्द्र जी
आपने संभवतः गौर नहीं किया ...@ आदरणीय अमरेन्द्र जी<br /> <br />आपने संभवतः गौर नहीं किया , जो मैंने लिखा !<br /><br />"अगर आप को लगता है कि दुनिया के किसी भी समाज या गांव में आलोक और अन्धकार के दरम्यान ०:१०० का अनुपात हो सकता है तो निश्चय ही मैं गलत हूं ?"<br /><br />मैं उसे नायक बतौर नहीं ! देखता मेरा मंतव्य केवल ऊपर की "पंक्तियों" में देखा जाये !उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-37710472015815130282010-07-16T07:05:44.804+05:302010-07-16T07:05:44.804+05:30@ अभिषेक ओझा
मैं न बदला तू न बदली दिल्ली सारी दे...@ अभिषेक ओझा <br /><br />मैं न बदला तू न बदली दिल्ली सारी देख बदल गई<br />...<br />...<br />रंग बिरंगा पानी पी के सीधी साधी कुड़ी बिगड़ गई।<br /><br />पब्लिक इशारे नहीं समझ पाती वीरू ! बड़ी ट्रेजेडी है।<br /><br />निसाखातिर रहें आप का धन सुरक्षित है ;)गिरिजेश राव, Girijesh Raohttps://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-46360256112111104592010-07-16T06:38:02.723+05:302010-07-16T06:38:02.723+05:30'चोरबजारी दो नयनों की' बहुत पसंद है न आपको...'चोरबजारी दो नयनों की' बहुत पसंद है न आपको? मैं समझ रहा हूँ क्या सोच-सोच के लिखा गया है :)<br /><br />'अरे नाचsss!!' हे हे... चाँपे रहिये चार नंबर गियर में.<br /><br />गाय का गुह मूत :) <br /><br />सबके धन की बात के बाद तो मामला सीरिया हो गया... थोडा और घुमाना था ना डंडा.Abhishek Ojhahttps://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-22015274003040676022010-07-15T20:27:17.641+05:302010-07-15T20:27:17.641+05:30भाग [ २ / २ ] ... ...
आदरणीय अली जी ,
अब आते है...भाग [ २ / २ ] ... ... <br /><br />आदरणीय अली जी ,<br />अब आते हैं पात्र रमपतिया पर ..<br />कथानक में मौजूद सभी पात्रों में सर्वाधिक समझदार सा - बोलता सा वही है , 'मीडिया' का प्रभाव भी तो है , इससे मोहभंग भी तो हो ..<br />प्रश्न है कि वह ऐसा क्यों बोलता है और एड्स से क्यों मरता है ?<br />उसे पता हो गया है कि अब वह ज्यादा जीने को नहीं रहेगा , समझौतों से भरी उसकी जिन्दगी शीघ्र ही ख़त्म होने को है , इसलिए वह जो समझ पा रहा है वह सत्य 'बक' रहा है , अन्य किसी पात्र में यह साहस नहीं हो सकता , इसे ऐसे ही रखा जा सकता था !<br />सवाल है मरना एड्स बीमारी से क्यों ?<br />गांवों में पहुँच रहे इस 'राजरोग' से ज्यादा प्रासंगिक क्या होता , ग्रामीनेओं में सरकार के जागरूकता अभियान की असलियत भी खोलता हुआ , अन्डास !! .. मैं गाँव से हूँ जानता हूँ कि शहर से फैलती हुई यह मौत-बेल कैसे गाँव जा रही है , उदाहरण आखों में तैर रहे हैं ! ऐसा व्यक्ति 'रानी के डंडा' पर जो निगाह रखेगा वह ज्यादा अहम् है , आर्य ! <br /><br />@ भारतीय मनीषा का आशावाद वर्तमान परिस्थिति में फुस्स हो चका है . इसके लिए सुधारवाद/आशावाद से यथार्थवाद की ओर बढ़े प्रेमचंद के साहित्य को देखें ! सुनें गबन का देवीदीन खटिक क्या कहता है , सुनें गोदान के दातादीन की पुरोहिती को लेकर की गयी भविष्यवाणी , समझें कफ़न के घीसू और माधव की नादानी (?) ... देखें मुक्तिबोध के अँधेरे में का जुलूस .. ६० के दशक के बाद के मोहभंग को भारतीय मनीषा से अलग करना कितना न्याय होगा ? .. आशावाद के डंडे को १९ वी सदी के पहले हांकते रहें तो बेहतर पर बाद के 'डंडों' पर आशावाद की चमक नहीं है ...... 'रानी के डंडे' में भी नहीं ! <br /><br />[ ... ... समाप्त ]Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-24135324914072073722010-07-15T20:26:25.562+05:302010-07-15T20:26:25.562+05:30भाग [ १ / २ ] ... ...
@ आदरणीय अली जी ,
शिल्प की ...भाग [ १ / २ ] ... ... <br />@ आदरणीय अली जी ,<br />शिल्प की मृत्यु करके प्रभावहीन आशावादिता बचाने का क्या मतलब ? .. इन परिस्थितियों में खामखाँ को किसी को नायक बना कर समाजोन्मुखी रचना का ताना-बाना बुनना खुशफहमी को जिला सकता है पर संवेदना को झिंझोड़ नहीं सकता .. <br />@ फिर तो रचना से शत प्रतिशत अन्धकार / नैराश्य के सिवा क्या हासिल हुआ ?<br />--- यह अगर समाज को हासिल नहीं हुआ तो रचना ही हासिल क्यों करे ! विदर्भ के किसानों की हत्याएं किस आशावादिता को बखानें , आर्य ! <br /><br />एब्सर्दिती को दिखाना था , ऐसा शिल्प प्रस्फुटित हुआ .. गौर करने लायक है की यहाँ किसी पात्र को नायक मानना गलती है , पूरा गाँव ही नायक है , जितना जीवित है उतना ही मर रहा है , जीने के आशावाद से बड़ा है मरण का यथार्थ ! .. बदलाव की पीडाभारी प्रतीक्षा !.. राजनीतिक प्रतिरोध के नाम पर भैया जैसे पात्र ही होते हैं गाँव में , जिनकी 'पोलीटिकल विल' की हकीकत वही है जिसे राव साहब ने दिखाया है .. गुडगाँव -दिल्ली की प्रेमविवाह करके पहुँची छोरी अपनी क्रांतिकारी चेतना को फुस्स कर बैठी है , संभव हो उसने कभी मेट्रोपोलिटन में स्त्रीवाद को लेकर आवाज उठायी हो , पर आज वही है उसका यथार्थ गाँव में ! .. और पात्र भी तो उसी यथार्थ को रख रहे हैं , जिसमें आशा की किरण छलावा है , इसलिए उनकी बातों में लहजे से लेकर 'कंटेंट' तक में एब्सर्दिती के लक्षण हैं ! <br /><br />[ जारी ....... ]Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-49857542242282480052010-07-15T19:24:34.061+05:302010-07-15T19:24:34.061+05:30sahiye me....rampatiya jaiso ka to ihe hashar hona...sahiye me....rampatiya jaiso ka to ihe hashar hona tha aur hota rahegaa....<br /><br /><br />ek baat aur ....ee hamara man na hai ki jinke oopar ee vyangva likhe hain unme itna akal naam ki cheej to hai nahi ki samajh sakein.....<br /><br />kuchh aisa kariye ki ii moti buddhi walo k andar bhi kuchh prakash faile.....matlab inme kuchh halchal ho!गंगेश रावhttps://www.blogger.com/profile/10791109109633152718noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-31492295372105425122010-07-15T18:25:26.715+05:302010-07-15T18:25:26.715+05:30भारतीय मनीषा आशावादी रही है ..पश्चिमी कहानियां जहा...भारतीय मनीषा आशावादी रही है ..पश्चिमी कहानियां जहाँ प्रायः दुखांत होती हैं भारतीय कहानियों में एक किरण झिलमिलाती रहती है ...भस्मासुर से अंततः महादेव बचा लिए जाते हैं मगर फ्रैकेंन्स्तींन में नायक की दर्दनाक मृत्यु हो जाती है ...मुझे लगता है रचना की सोद्येश्ता होनी चाहिए ....कोई किरण दिखनी चाहिए और इसलिए कुछ सायास भी रचा जाना चाहिए ,<br />वैसे यह घनघोर विवादित विषय है ...Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-40871123259116994442010-07-15T17:34:58.340+05:302010-07-15T17:34:58.340+05:30आपकी इस रचना ने सम्मोहित कर डाला. आभार.आपकी इस रचना ने सम्मोहित कर डाला. आभार.P.N. Subramanianhttps://www.blogger.com/profile/01420464521174227821noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-54692311032630384772010-07-15T15:55:11.595+05:302010-07-15T15:55:11.595+05:30गाँव के अधकचरे विकास? को अपनी आँखों से देखा है इन ...गाँव के अधकचरे विकास? को अपनी आँखों से देखा है इन पांच सालो में अत्यधिक तेजी से मशीनों का उपयोग करने को मिला है \बांध के रूपमे अपनी जमीन के मुआवजे को बेरहमी से खर्च करते पाया है |<br />कितु आपकी इस कहानी ने जैसे सारेविकास को उसके साथ उपजे दर्दो को बेहद ईमानदारी और स्पष्टता के साथ अंकित कर दिया है रानी के डंडे द्वारा \शोभना चौरेhttps://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-67186154242495331742010-07-15T15:27:37.125+05:302010-07-15T15:27:37.125+05:30@ आदरणीय अमरेन्द्र जी
प्रश्न ये कि रचना समाजोन्म...@ आदरणीय अमरेन्द्र जी <br /><br />प्रश्न ये कि रचना समाजोन्मुखी हो या समाज रचना शिल्प का मुखापेक्षी ? शायद साहित्यकार इसे बेहतर समझें पर मेरे मन में जो बात आई वो मैंने कही ! <br /><br />मेरा ख्याल है कि गिरिजेश जी किसी सन्देश के इर्द गिर्द कथानक को बुन रहे थे परन्तु उनके कथा परिदृश्य में , छाये गहन अन्धकार के दरम्यान आशा की छोटी सी किरण , विरोध का कदम ताल किये बिना शेष हुई ! क्या ये ठीक है कि एक कतरा विरोध भी जीवित ना रहा ? और मृत्यु भी ऐसी जो संघर्ष की नहीं अपितु व्याधि की ? <br /> <br />चलिये माना कि ये तय करना रचनाकार का काम है कि पात्र का अस्तित्व और भूमिका कहां तक विस्तार पायें ! फिर तो रचना से शत प्रतिशत अन्धकार / नैराश्य के सिवा क्या हासिल हुआ ? <br /><br />सामाजिक जीवन और प्रतिकूलतम परिस्थितियों में भी प्रतिपक्ष के सम्पूर्ण सफाये का ये आंकड़ा यथार्थ तो हरगिज भी नहीं है ! <br /><br />अगर आप को लगता है कि दुनिया के किसी भी समाज या गांव में आलोक और अन्धकार के दरम्यान ०:१०० का अनुपात हो सकता है तो <br />निश्चय ही मैं गलत हूं ?<br /><br />वर्ना रचना शिल्प की मृत्यु बेहतर होती :)उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-50085978019196608022010-07-15T15:19:33.073+05:302010-07-15T15:19:33.073+05:30रानी के डंडे का जवाब नहीं।
लेकिन अंत पढ कर मन खिन...रानी के डंडे का जवाब नहीं। <br />लेकिन अंत पढ कर मन खिन्न सा हो गया।<br />--------<br /><a href="http://ts.samwaad.com/" rel="nofollow">पॉल बाबा की जादुई शक्ति के राज़।</a><br /><a href="http://za.samwaad.com/" rel="nofollow">सावधान, आपकी प्रोफाइल आपके कमेंट्स खा रही है।</a>Dr. Zakir Ali Rajnishhttps://www.blogger.com/profile/03629318327237916782noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-65038969571337912762010-07-15T13:35:55.850+05:302010-07-15T13:35:55.850+05:30रानी का बेटन और उस पर चला यह कथानक....मजेदार तो है...रानी का बेटन और उस पर चला यह कथानक....मजेदार तो है ही....कई अमूर्त बातों की ओर भी ले गया जो कि प्रत्यक्ष तौर पर नहीं नजर आतीं। <br /><br /> <b>@ रजुआ मन ही मन भैया जी को गरियाए जा रहा था – कौन ज़रूरत रहे चिक्कन सड़क बनववले के ? सड़क खराब होती तो हचका जोर होता और सहारा देने के बहाने जाने कितनी बार गोरकी को अँकवार में ले चुका होता! ड्राइवर ने गेयर बदला और एक्सीलेटर चाँपा। पुराने आयशर के इंजन ने रेस लगाई – फट, फट , फट , फट .......... फट, फट,फट...... । डांस के प्रोग्राम के बारे में सोचता पाँड़े चिल्लाया,”बहानचो, अजुए सब कलाकारी देखइबे? </b><br /><br /> मजेदार रहा......<br /><br /> शानदार पोस्ट है यार....एकदम झक्कास।सतीश पंचमhttps://www.blogger.com/profile/03801837503329198421noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-90291399205359526702010-07-15T10:38:16.793+05:302010-07-15T10:38:16.793+05:30राव साहब ,
मूर्त तौर पर बेटन का डंडा गांवों में नह...राव साहब ,<br />मूर्त तौर पर बेटन का डंडा गांवों में नहीं जा रहा है , पर सबसे ज्यादा असर गांवों तक ही जा रहा है | ठीक जैसे किसी भी डंडे का सबसे ज्यादा असर गांवों तक रहा है | इसका प्रमाण है आजादी के ६० साल बाद भी गांवों का उसी दशा में बने रहना | भौतिक बदलाव ठहरा है और चिंतन भी ठहरा है | आप एक रचनाकार के तौर पर सफल रहे हैं कि इस डंडे की अमूर्त-पहुंचन को देख सके हैं , महसूस कर सके हैं | कथा के सूत्र में एब्सर्दिती को रख सके हैं | गांवों के पात्रों की नजर से आपने देखा है इसलिए चित्रण बहुत जीवंत बन सका है | इन गाँव के पात्रों की कुल क्षमता कितनी है , आपने इसका यथार्थ उल्लेख किया है | ये कितना बोल सकते हैं , कितना हंस सकते हैं , कितना मूर्ख बन सकते हैं , कितना जी सकते हैं , कितना मर सकते हैं ..आदि आदि | सफल कथाजाल कहूंगा |<br /><br />@ आदरणीय अली जी ,<br />जागरूक पात्र रमपतिया का मर जाना जरूरी है , नहीं तो रचना मर जाती | क्या यथार्थ में रमपतिया नहीं मरता ! रचनाकार ने इस पात्र को मार कर सर्वाधिक न्याय किया है | एक रचना की दृष्टि से इससे अच्छी मृत्यु क्या होती रमपतिया की | वह मर के ज्यादा जी रहा है संवेदन प्रक्रिया में ! एक दृष्टि यह भी है लेखन/लेखक की , रूसी कथाकार चेखव का मानना है कि रचनाकार को जैसा है वैसा रख देना चाहिए , समाधान को ( हल देने की ) रखने की योजना उसका काम नहीं | राव साहब ने तो उसी यथार्थ को रखा है | देखा जा सकता है कि रेणु 'मैला आँचल' में बामनदास को कैसे मारते हैं , इससे ज्यादा अमर मौत क्या होगी उनके उस प्रिय पात्र की ! ऐसे समय पर मुझे फिराक साहब का एक शेर अक्सर याद आता है ---<br />'' यूँ तो जिन्दगी जिन्दगी से हार गयी <br />लेकिन मौत मौत से बाजी मार गयी | ''Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-11675128528385321372010-07-15T10:07:29.190+05:302010-07-15T10:07:29.190+05:30गाँव और शहर में अब इतना फर्क कहाँ रहा ...
वही आपका...गाँव और शहर में अब इतना फर्क कहाँ रहा ...<br />वही आपका निरंकुश निर्मम सत्य साहित्य की शक्ल में आ खड़ा हुआ ...<br /><br />स्तब्ध ...!वाणी गीतhttps://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-60223159950749106182010-07-15T09:26:02.044+05:302010-07-15T09:26:02.044+05:30अंत वाले नंबर ६ पेराग्राफ के छक्के , जो वर्तमान प...अंत वाले नंबर ६ पेराग्राफ के छक्के , जो वर्तमान परिस्थितियों पर एक बेहतरीन कटाक्ष है , के साथ ख़त्म हुई एक बहुत ही उम्दा कथा. बहुत बढ़िया.VICHAAR SHOONYAhttps://www.blogger.com/profile/07303733710792302123noreply@blogger.com