tag:blogger.com,1999:blog-31245287168643669282024-03-14T00:24:47.578+05:30एक आलसी का चिठ्ठा ...so writes a lazy manगिरिजेश राव, Girijesh Raohttp://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.comBlogger70013tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-79072481970609555812021-04-18T17:59:00.005+05:302021-04-18T21:34:57.578+05:30संवत्सर - आनन्द या राक्षस? <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-eZND4sEeuG0/YHwk_Ja5kKI/AAAAAAAAJAw/qxXlfD_NkLUmh_DlDe42gcqfU2P4kIFQACLcBGAsYHQ/s776/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25B0.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="259" data-original-width="776" height="214" src="https://1.bp.blogspot.com/-eZND4sEeuG0/YHwk_Ja5kKI/AAAAAAAAJAw/qxXlfD_NkLUmh_DlDe42gcqfU2P4kIFQACLcBGAsYHQ/w640-h214/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25B0.jpg" width="640" /></a></div><p></p><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">कभी ५ वर्ष का एक युग होता था, ६० महीनों का (वेदाङ्ग ज्यौतिष)। जब आप शताब्दियों की परास में कालचक्र का प्रेक्षण करना चाहते हैं तो बड़ी इकाई की भी आवश्यकता पड़ती है। जितनी बड़ी संख्या, त्रुटि की सम्भावना उतनी ही अल्प। </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">धरा के १२ माह १२ आदित्यों से जोड़ कर देखे जाते थे, सूर्य नमस्कार मन्त्रों का ध्यान करें। सूर्य के आभासी वार्षिक पथ को १२ आदित्यों में बाँट कर देखा जाता। यह पाया गया कि गुरु ग्रह लगभग एक वर्ष में एक आदित्य की दूरी पूरी करता है। अर्थात् १२ वर्षों में पूरा चक्र। अर्थात् यदि एक पृथ्वी वर्ष को महामास मानें तो महावर्ष हुआ १२ पृथ्वी वर्ष और ऐसे ५ महावर्षों का हुआ एक महायुग (कलि, द्वापर आदि को इसमें न लायें, यह भिन्न बीज वाला गणित है।) १२×५ = ६० वर्षों के संवत्सर चक्र का यही रहस्य है। सबको भिन्न भिन्न नाम दिये गये और एक चक्र पूरा होने पर पुन: उन्हीं नामों का दूसरा चक्र आरम्भ होता। लेखा जोखा व गणना हेतु बड़ी परास मिल गयी। </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">किन्तु प्रकृति व पूर्णाङ्क में बैर है। गुरु एक आदित्य से दूसरे के घर ~३६५.२५ दिनों में न जा कर ~३६१.०३ दिनों में ही पहुँच जाते हैं। आप जानते ही हैं कि चान्द्रवर्ष अर्थात चन्द्रकलाओं वाले २९.५ दिनों के १२ मासों का वर्ष मात्र ३५४ दिनों का होता है तथा लगभग प्रत्येक ८ वर्ष में ३ मलमास लगा कर उसे सौरवर्ष के निकट लाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक १९वें वर्ष सौर दिनांक व चान्द्रमास तिथि सम्पाती हो जाते हैं। </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">अर्थात् जो हमारा सौर-चान्द्र समन्वित वर्ष है, उसे लम्बी परास में सौर वर्ष माना जा सकता है। </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">अब देखिये कि किसी वर्ष प्रतिपदा को आपका वर्ष और बार्हस्पत्य संवत्सर एक साथ आरम्भ हुये, परन्तु बार्हस्पत्य संवत्सर का अन्त वर्षान्त से ४.२३ दिन पहले ही हो गया। अगले वर्ष यह अन्तर हो जायेगा २×४.२३ दिन, उसके अगले वर्ष ३×४.२३ दिन... इसी प्रकार यह अन्तर बढ़ता जायेगा और लगभग ८५ या ८६ वर्षों पश्चात ऐसा होगा कि पीछे घटता नया संवत्सर नये वर्ष का स्पर्श ही नहीं कर पायेगा। ऐसा होने पर उसका लोप माना जाता है क्योकि नववर्ष लगने पर उससे आगे वाले संवत्सर का क्रम आ जाता है। चक्र ऐसे ही चलता रहता है। </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">इस वर्ष आनन्द नामधारी का लोप हो गया और राक्षस का क्रम आ गया। </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">एक अपर बात। </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">६० संवत्सरों को २०-२० कर ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र की ३ 'बीसियों' में बाँटा गया है। प्लवङ्ग से ही रुद्र की बीसी चल रही है (विक्रम २०७१, 2014-15 CE) से। रुद्र की बीसी को सामान्यतया ज्योतिषी विनाशी ही बताते हैं किन्तु संहार से निर्माण भी जुड़ा है। केन्द्र में दशक पश्चात हुये सत्ता परिवर्तन को देखें। विष्णु की बीसी में तो वेटिकनी मौनी राज था। उससे तो अच्छा ही है। </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">दक्षिण भारत ने लगभग १२०० वर्ष पूर्व आर्यसिद्धान्त को अपनाया और बार्हस्पत्य संवत्सर चक्र से लोप प्रक्रिया का त्याग कर दिया। परिणामत: उनके संवत्सर नाम की संगति उत्तर के सूर्यसिद्धान्तीय पद्धति से नहीं बैठती।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><br /></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><i>यह भी है कि यदि वह आरम्भ बिन्दु जब बार्हस्पत्य</i> <i>संवत्सर एवं सौर-चांद्र वर्ष सम्पाती माने गये किसी पद्धति में भिन्न हुआ तो उसमें लोप हुआ संवत्सर आनन्द से भिन्न होगा। </i></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><br /></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>पुनश्च:</b></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><br /></div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">१९ वर्षीय सम्पात की बात की न! १९×५ = ९५ वर्षों का एक अन्य युग वैदिक याज्ञिक परम्परा में प्रयुक्त होता था। श्येनवेदी अर्थात पंख पसारे गरुळ की आकृति वाली महावेदी जोकि संवत्सर चक्र की रेखागणितीय प्रारूप होती, उसमें ९५ की संख्या भी मह्त्वपूर्ण थी। अपने आप में बहुत रोचक है जिसका सैद्धान्तिक ज्यौतिष से कोई सम्बन्ध नहीं।</div>गिरिजेश राव, Girijesh Raohttp://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-8535130682698434752021-04-10T19:00:00.001+05:302021-04-10T19:00:00.224+05:30... नहीं रहीं अम्मा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-QSXJE4WVYU0/YHGMJQXB0aI/AAAAAAAAJAc/IBz-O7BxTLUmBXd8hKMN3uUXs-CbDEbGwCLcBGAsYHQ/s1200/mothers-hand.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="776" data-original-width="1200" height="414" src="https://1.bp.blogspot.com/-QSXJE4WVYU0/YHGMJQXB0aI/AAAAAAAAJAc/IBz-O7BxTLUmBXd8hKMN3uUXs-CbDEbGwCLcBGAsYHQ/w640-h414/mothers-hand.jpg" width="640" /></a></div><p style="text-align: left;">हिमच्छाया सी थी। प्रकाश के लट्टू ठिठुरते सैनिकों से टिमटिमा रहे थे - सावधान! दक्षिणी आकाश में ऐरावत की शुण्ड फुफकारते फणि सी दिख रही थी। और माँ बैठी थी नीचे, झर झर झरती शेफालिका के नीचे अनगढ़ शिव का शृङ्गार करती, हनुमान जी को टीकती, गँवई मंत्र पढ़ती जिसके अधिकार उसके पास सदातन थे और जिनके निकट आते ही मंत्रद्रष्टाओं की दीठें धुँधला जाती थीं - जय हनुमान जी, जय राम जी, किस्ना जी, जय दुर्गा मैया की, काली माई की जय ... जाने कितने देव देवी उसे सुन रहे थे। ये वे मंत्र थे जो समस्त गर्भगृहों के ध्वस्त होने पर भी माताओं ने अपने उदरों में छिपा लिये थे, जिन्हें बारम्बार जन्म देती हर स्त्री जननी थी, संतति को अमरत्व की मधुरिम धार पिलाती, मुस्कुराती।<br />पूजा समाप्त हुई और आसन पर बैठे हुये ही मैंने उनकी एक बाँह अपने हाथ ले ली - झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ! त्वचा और अस्थियों के बीच जैसे केवल धमनियाँ ही बची थीं। <br />काहे अम्मा, ई का? <br />उनके मुख पर मानों रश्मियाँ हास बन कर खिल उठीं। मैं समझ गया कि अम्मा केवल इतने से उस पुरुषदुर्लभ सुख में है कि बेटे को इतना तो दिखा! वैसे ही उसने उत्तर दिया - तोहार माई बूढ़ भइली बेटा, सबदिन ओइसहीं रहिहें? ठीऽक बानीं हम! ... मैं ठीक तो हूँ और जाने को उठ गई! <br />मैंने रोकना चाहा तो उसने झिटका, रहऽ हो! बिहाने के बेरा कार करीं कि बइठि के बतकूचन करीं?<br />अम्मा मानों अदिक्षित उदासी सम्प्रदाय की थी - बहुत सी बातों पर उदासीन, अनासक्त। स्वावलम्बी, स्वाभिमानी अम्मा मृत्यु का कभी नाम तक न ली किंतु प्रतिनिश सोने से पूर्व उसकी प्रार्थना यही रहती कि हे भगवान! केहू के असरइत न बनइह! हे इसवर! चलते फिरते उठा लीह!! ... सभी प्रार्थनायें सुनी जातीं तो संसार कितना सुंदर होता! ...<br />... हरे राम हरे राम राम राम हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ... मंद स्वर में यह महामंत्र चल रहा है। मुझे लगता है कि अम्मा ने जब जाना कि दूसरों का आश्रय लेने का समय आ गया तो अपने भगवान को सायास बुला लिया। <br />... इतने दिनों के पश्चात भी मेरे आँसू सूखे ही हैं। <br />अम्मा जाने से पूर्व शेफालिका का वृक्ष कटवा गई थीं - उसमें धोंधड़ बन गया था जिसमें साँपों का बसेरा होने की सम्भावना थी। साँप माने विष, विष माने मृत्यु। अम्मा जाने के पूर्व हम सबको सुरक्षित कर के गई। उसके लिये मंत्रों की सिद्धि इतनी ही थी, झरते फूल तो निठल्ले जन के लिये होते हैं! <br />मेरी आँखों के समक्ष आज भी वही श्यामपट यथावत है जिससे लड़ने के लिये, जिसके पार देख पाने के लिये मैंने बलात अपनी पूर्वचर्या को अपनाया, बलात हास्य, बलात समस्त कार्यव्यापार कि उस परिभाषाहीन विषाद का कारण जानूँ जिसे कह भी नहीं पा रहा, मुझे मुक्ति मिले किंतु मैं तो उदासी सम्प्रदाय का नहीं न! <br />दक्षिण की दिशा यम की है। आकाश में आज भी फणिधर फुफकारता है, रहेगा और मैं आज भी मानों उन झुर्रियों को देखता विश्वास ही नहीं कर पा रहा कि... कितना काम बचा है और कुछ नहीं हो रहा! <br /><span style="color: #800180;"><br />न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः <br />आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास <br />तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् <br />तुच्छ्येनाम्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् <br /> को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः <br />अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव <br /> इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न <br />यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद </span> <br /></p>गिरिजेश राव, Girijesh Raohttp://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-3124528716864366928.post-71687109381110560892021-04-05T18:40:00.003+05:302021-04-05T19:25:51.348+05:30Saraca asoca अशोक, सीता-अशोक के पहले पुष्प <p><span data-offset-key="jvc8-0-0"><span data-text="true"></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-7dRG5_KZ5ss/YGsL3lhjOgI/AAAAAAAAI_k/aSoNKXDmT08VGRiNeDvty1d4MLiz0ay9ACLcBGAsYHQ/s1152/IMG-20210405-WA0012.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1152" data-original-width="532" src="https://1.bp.blogspot.com/-7dRG5_KZ5ss/YGsL3lhjOgI/AAAAAAAAI_k/aSoNKXDmT08VGRiNeDvty1d4MLiz0ay9ACLcBGAsYHQ/s16000/IMG-20210405-WA0012.jpg" /></a></div><br /><span data-offset-key="jvc8-0-0"><span data-text="true"> <span data-offset-key="jvc8-0-0"><span data-text="true">... स्मृतिशेष के लगाये अशोक के पहले पु</span></span>ष्प खिले। अवसादी वसंत। स्वयं को कोई कितना सँभाले? </span></span><p></p><p><span data-offset-key="jvc8-0-0"><span data-text="true"></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-buPgys61qig/YGsMEGZbX6I/AAAAAAAAI_o/iOJ-_t3GAXkAgsPEq8rSiU5JP0NPQHIEgCLcBGAsYHQ/s1152/IMG-20210405-WA0012.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1152" data-original-width="532" src="https://1.bp.blogspot.com/-buPgys61qig/YGsMEGZbX6I/AAAAAAAAI_o/iOJ-_t3GAXkAgsPEq8rSiU5JP0NPQHIEgCLcBGAsYHQ/s16000/IMG-20210405-WA0012.jpg" /></a></div> <p></p>गिरिजेश राव, Girijesh Raohttp://www.blogger.com/profile/16654262548719423445noreply@blogger.com1