कालयात्री जी बहुत दिनों
से समय ‘में’ यात्रा कर रहे हैं। पुरातन काल के सन्दर्भों और ग्रंथों की खोज में
कुछ भी करने पर आमादा रहते हैं। यहाँ तक कि सड़क किनारे उड़ते हुये अखबारी टुकड़ों पर
भी उन्हें चील की तरह झपटते हुये देखा गया है। कल रात मेरे यहाँ आये तो बहुत
उत्साहित थे। उनके हाथ में एक लिफाफा था, इतनी आतुरता के साथ मुझे थमाने लगे जैसे
मैं नगर निगम का कोई उत्कोची बाबू होऊँ।
लिफाफा खोलने चला तो चिल्लाये – सँभाल कर, बहुत
मूल्यवान है।
बुरी तरह से गल चुके
भोजपत्र के कुछ टुकड़ों को जैसे तैसे निकाला तो पढ़ने की फरमाइश कर बैठे। एक गले
हुये ग्रंथ की पढ़ाई को ले मैं वैसे ही परेशान हूँ, मैंने प्रस्ताव ठुकरा दिया।
उन्हों ने बड़े मनोयोग से टुकड़ों को मेज पर जमाया और यह कहते हुये चले गये कि तुम्हें उलटने पलटने की भी अब आवश्यकता नहीं, बस पढ़ना है। हो सके तो पढ़ लेना या इस जाड़े
में पंखा चला कर उधिया देना। उन्हें मेरी कमजोरी पता है कि यह पढ़ेगा अवश्य!
तो पढ़िये टूटे फूटे कुछ भोजपत्र अंश। कहीं संवाद, कहीं कथा और कहीं विवरण; पता नहीं कितने स्रोतों से ये टुकड़े आये हैं! किसी समय में पुण्यभूमि के लाटदेश में होने वाले एक गणचुनाव से सम्बन्धित हैं। शैली पर आधुनिक युग के बिलाग स्कूल सफेदघर का प्रभाव है जो कि आश्चर्यजनक है...
तो पढ़िये टूटे फूटे कुछ भोजपत्र अंश। कहीं संवाद, कहीं कथा और कहीं विवरण; पता नहीं कितने स्रोतों से ये टुकड़े आये हैं! किसी समय में पुण्यभूमि के लाटदेश में होने वाले एक गणचुनाव से सम्बन्धित हैं। शैली पर आधुनिक युग के बिलाग स्कूल सफेदघर का प्रभाव है जो कि आश्चर्यजनक है...
(1)
"हे प्रधानभृत्य
मन्दमोह! शल्यक असत्यभाषण नहीं कर रहा। नियुक्ति के पूर्व राजमाता ने आप का
मेरुदंड निकलवा लिया था।"
"शल्यक प्रवाद प्रसार में प्रवीण है। वस्तुत: नियुक्ति के लिये मेरा चयन ही इसलिये किया गया था कि मेरी देह में मेरुदंड है ही नहीं! ऐसा सम्पूर्ण अमात्यपरिषद के लिये सत्य है। राजसंहिता का प्रथम नियम यही है कि शासकों को सुशासन और सुव्यवस्था को ध्यान में रखते हुये ऐसे जन का ही चयन महत्त्वपूर्ण पदों के लिये करना चाहिये।"
"शल्यक प्रवाद प्रसार में प्रवीण है। वस्तुत: नियुक्ति के लिये मेरा चयन ही इसलिये किया गया था कि मेरी देह में मेरुदंड है ही नहीं! ऐसा सम्पूर्ण अमात्यपरिषद के लिये सत्य है। राजसंहिता का प्रथम नियम यही है कि शासकों को सुशासन और सुव्यवस्था को ध्यान में रखते हुये ऐसे जन का ही चयन महत्त्वपूर्ण पदों के लिये करना चाहिये।"
[मन्दमोह को धनदोहन भी पढ़ा जा सकता है। असल में
एक मरी हुई मक्खी शब्द के ऊपर ही चिपकी हुई है, इसलिये अस्पष्टता है।]
(2)
अंत:पुर में इस राष्ट्र के हितैषी सक्रिय हैं अमात्य! राजकुमार की मूर्खता
भरी वक्तृतायें प्रमाण हैं।
(3)
इन्द्रप्रस्थ में धनदोहन नाम का एक
व्यक्ति संहिताबद्ध चौर्यकर्म में सबसे प्रवीण था किंतु इतना कायर था कि गण
चुनावों में प्रत्याशी बनने का साहस तक नहीं कर सकता था। राजमाता को प्रधान
गणाध्यक्ष पद पर नियुक्ति के लिये इससे योग्य व्यक्ति मिल ही नहीं सकता था।
पुरुष गणिकाओं के लिये सुरक्षित स्थानों में से एक पर उन्हों ने धनदोहन को
नियुक्त किया ताकि गणाध्यक्ष बनने की प्रथम रीति पूर्ण हो सके।
अगले
दिवस ही उन्हों ने काष्टपुतलिका कर्मियों को अवकाश दे दिया क्यों कि जीवित मनुष्य
को काष्टपुतलिका की तरह नृत्यरत देखने को उन्हें अपने मातृदेश इष्टाली में भी नहीं
मिला था और धनदोहन इस कर्म में भी प्रवीण था।
नभ के समान रँगे वासक को मस्तक पर धारण कर जब गणाध्यक्ष मन्द मन्द नाचता तो
उसके श्मश्रु के श्वेत केश वायु के स्पर्श से ऐसे नृत्य करते मानो मेघों के मध्य
अप्सरायें नृत्य कर रही हों! आनन्दाश्रु भरे नेत्रों से राजमाता संकेत करतीं और शत
संख्या में किन्नर उसका साथ देने लगते। ऐसा दिव्य वातावरण होता कि सुदूर पाताल और
अन्धामरीक राष्ट्रों के सम्राट भी दूरदर्शन पर यह नृत्य देखना नहीं भूलते।
(4)
लाटदेश के गण चुनावों में जब राजमाता सहस्र जनों से उद्बोधित थीं तभी
पवनदेव कुपित हो उठे। चक्रवात के झँकोरे में उनके हाथ से वह भोजपत्र उड़ गया जिस पर
गुरु जनमर्दन ने उद्बोधन अंकित किया था। ज्ञात हो कि राजमाता न तो छान्दस
जानती थीं और न संस्कृत। सरस्वती लिपि का भी उन्हें ज्ञान नहीं था। उनके लिये
जनमर्दन कुटिल लिपि में मिश्र भाषा में उद्बोधन लिखते और कंठस्थ करा देते जिसे जन
अपनी समझ से समझ भी लेते।
पवनदेव जब शांत हुये तो राजमाता हतप्रभ हो चुकी थीं। सामने उत्कोचक्रीत
जनसमुद्र था और राजमाता की जिह्वा से सरस्वती लुप्त हो चली थीं। अपने कुलदेव रोमक
का स्मरण करते हुये उन्हों ने स्मृति के सहारे यह उद्बोधन देना प्रारम्भ किया:
हम इन्द्रप्रस्थ में हैं लेकिन लाटदेश के महाराष्ट्रियों को आंग्लभाषा नहीं आती जिससे निर्धनता और कुपोषण विदेशी निवेश से मँगाने पड़ रहे हैं। अल्पसंख्यक ही बहुसंख्यक हैं जिनका निवेश पर संसार में सबसे अधिक अधिकार है। इसी से दशा और दिशा दोनों ... आगे वह भूल गईं और थकान के कारण मूर्च्छित हो गईं।
हम इन्द्रप्रस्थ में हैं लेकिन लाटदेश के महाराष्ट्रियों को आंग्लभाषा नहीं आती जिससे निर्धनता और कुपोषण विदेशी निवेश से मँगाने पड़ रहे हैं। अल्पसंख्यक ही बहुसंख्यक हैं जिनका निवेश पर संसार में सबसे अधिक अधिकार है। इसी से दशा और दिशा दोनों ... आगे वह भूल गईं और थकान के कारण मूर्च्छित हो गईं।
... लाटदेश
में हुई हार के कारणों पर समीक्षा के लिये गठित समिति के प्रतिवेदन को गुरु ने आज
तक सभा में प्रस्तुत नहीं होने दिया है। राजवैद्य का दृढ़ मत है कि इससे राजमाता को
हृदयाघात होने की आशंका है। कुमार ने दाढ़ी बढ़ा ली है और
पगड़ी बाँधना सीखने लगे हैं।
(5)
"मैं
यह क्या सुन रही हूँ धनदोहन? पश्चिमी सीमा पर अश्वों की भारी
कमी हो गई है और तीर कमान तक नहीं हैं!"
"यह यथार्थ है देवि! गुप्तचरों ने सूचना दी है कि लाटदेश के गण चुनावों में हम पराजित होंगे और उस स्थिति में इन्द्रप्रस्थ के प्रधान गणचुनाव अपरिहार्य हो जायेंगे। ऐसी असहज और विपरीत परिस्थिति में सैन्य पर ध्यान न दे हमें अपने कूटकोष पर ध्यान देना चाहिये। हमने श्वेतज्वरलावण्य देश में स्थित अपने चरों को सूचना भेज दी है। उन्हों ने बचे खुचे धन को भी वहाँ ग्रहण करने की व्यवस्था कर दी है।"
"यह यथार्थ है देवि! गुप्तचरों ने सूचना दी है कि लाटदेश के गण चुनावों में हम पराजित होंगे और उस स्थिति में इन्द्रप्रस्थ के प्रधान गणचुनाव अपरिहार्य हो जायेंगे। ऐसी असहज और विपरीत परिस्थिति में सैन्य पर ध्यान न दे हमें अपने कूटकोष पर ध्यान देना चाहिये। हमने श्वेतज्वरलावण्य देश में स्थित अपने चरों को सूचना भेज दी है। उन्हों ने बचे खुचे धन को भी वहाँ ग्रहण करने की व्यवस्था कर दी है।"
"तथास्तु।
लेकिन सीमा पर कुछ अप्रिय घटित हुआ तो हमारी प्रतिष्ठा का क्या होगा?"
"सैन्यकर्मियों
की निष्ठा पर आस्था रखें माता! वे निहथ्थे लड़ कर भी सीमा को सुरक्षित रखेंगे। आप
के श्वसुर के श्वसुर के युग में वे अपना शौर्य प्रदर्शित कर चुके हैं जब कि
राजाधिराज को देश के स्थान पर अपने गिरते केशों और आभरण के रक्तपुष्प की अधिक चिंता थी। आयुधशालायें उपानह उत्पादन में लगी हुई थीं। आप पूछ रही हैं, यही क्या कम है! ...आक्रमण की स्थिति में अन्धामरीक देश के सम्राट हमारी प्रतिष्ठा
स्थापित रखेंगे। श्वेतज्वरलावण्य का कूटकोष किस दिन काम में आयेगा?"
"मैं
संतुष्ट हुई। वास्तव में तुम योग्य प्रतिनिधि हो जो निधि के प्रति इतने समर्पित
हो। एवमस्तु!"
(6)
अन्धामरीक देश की महासभा ने प्रति व्यक्ति एक पण की दर से शतविंशपंच कोटि
कार्षापणों के उत्कोच को ध्वनिमत से अनुमोदित कर दिया ताकि पुण्यभूमि में वहाँ के
पणि व्यापार कर सकें।
(7)
[लिपि
और भाषा की दृष्टि से अधोलिखित भाग सबसे उल्लेखनीय है। जहाँ भाषा अपेक्षाकृत नयी प्राकृत है वहीं घटना ऊपर लिखे भागों से पुरानी। ऐसी कठिनाइयों के कारण ही काल निर्धारण कठिन हो जाता है।]
राजमहल में एक
परम्परा है कि डिनर टेबल पर प्राकृत में ही बात होती है. इस परम्परा के जनक राजवंश
के संस्थापक माननीय जमा हरला थे. ऐसा उन्हों ने अपनी ऋसीक ज़ुबान को 'परक्रीत'
बनाने के लिया किया था. वर्तमान महारानी मोनियो की बानी कमज़ोर है
और प्रचण्ड आँधी में भी लिखे हुए भाषण पढने के लिए वह कुख्यात हैं. उनकी कही हुई
बात का प्राकृत में शुद्धिकरण कर रसोइए ने बताया है. डिनर टेबल पर महारानी और कुमार की बातचीत कुछ
इस प्रकार हुई:
- माँ, इस बार भी तुमने प्रधान गणाध्यक्ष पद के लिए धनदोहन सिन का नाम आगे कर
दिया. मुझे अच्छा नहीं लगा.
-अच्छा, मैं भी तो जानूँ मेरा लाल किस को प्रधान बनाना चाहता है? (महारानी ने राजबल्लरी नामक जगह से चुनाव जीता है. चुनाव लड़ना और जीतना प्रधान को ऑपरेट करने के लिए अत्यावश्यक है. रियाया के साथ कुछ दिन रहने से महारानी ने जो नए शब्द सीखे हैं उनमें 'मेरा लाल' पहला है.)
-अच्छा, मैं भी तो जानूँ मेरा लाल किस को प्रधान बनाना चाहता है? (महारानी ने राजबल्लरी नामक जगह से चुनाव जीता है. चुनाव लड़ना और जीतना प्रधान को ऑपरेट करने के लिए अत्यावश्यक है. रियाया के साथ कुछ दिन रहने से महारानी ने जो नए शब्द सीखे हैं उनमें 'मेरा लाल' पहला है.)
- माँ, तुम्हीं इसे सँभालो ना. आखिर महारानी के होते हुए प्रधान की जरूरत ही क्या
है? अब देखो न, दादी और परदादा ने भी
तो राजकाज और प्रधानी दोनों खुद सँभाली थी कि नहीं? प्रात:स्मरणीय
पिता जी ने भी ऐसा ही किया था.
- बेटा, वे महान लोग थे. मेरा मतलब यह है कि रियाया उन्हें महान समझती थी और
रहेगी. तुम्हारे पिताजी के उपर तो ज़बरदस्ती महानता लाद दी गई थी. जब कि वे बेचारे
आखिरी समय तक उससे इनकार करते रहे.
- तो उस से क्या?
तुम भी तो महान हो! पिछली बार जब तुमने रियाया के बार बार कहने और
यहाँ तक कि विद्रोह की सीमा तक उतर आने पर भी प्रधानी नहीं स्वीकारी तो मैं भी
तुम्हारी महानता का कायल हो गया था. एक बार ऐसा करना जरूरी था. लेकिन इस बार भी
वैसा ही क्यों? मुझे तो हैरानी इस बात पर है कि इस बार
रियाया तुम्हारे इस निर्णय पर हंगामा भी नहीं कर रही!
- बेटा, तुम अभी कच्चे हो. जिसे तुम रियाया समझ बैठे थे वे हमारे चमचे थे. वक्त
बदल गया है बेटा. अब यह जरूरी है कि रियाया और राज खानदान के बीच प्रधान कोई और
रहे. जमाना तो उसी दिन खराब हो गया था जब राजवंश के लोगों को भी गली गली वोट की
भीख माँगना लाज़मी हो गया था. दिखावे के लिए ही सही कभी कभी रियाया को इस भ्रम में
भी रखना पडता है कि राजघराने को राज काज से कुछ लेना देना नहीं. आखिर तुम्हें भी
इस बार कितनी गलियों की धूल और कितनी झोपड़ियों की भूख फ़ाँकनी पड़ी. फूल सा चेहरा
मउला गया है रे...
________________
[यदि किसी को समकालीन युग और घटनाओं से समानता लगे तो यह मात्र संयोग है। इनमें आधुनिक सन्दर्भ ढूँढ़ना अनावश्यक खींचतान होगी। हाँ, उस व्यक्ति को अपने को कालयात्री की कोटि का अवश्य मान लेना चाहिये।]
________________
[यदि किसी को समकालीन युग और घटनाओं से समानता लगे तो यह मात्र संयोग है। इनमें आधुनिक सन्दर्भ ढूँढ़ना अनावश्यक खींचतान होगी। हाँ, उस व्यक्ति को अपने को कालयात्री की कोटि का अवश्य मान लेना चाहिये।]
वक़्त वक़्त की बात, भक्त भक्त की बात ...
जवाब देंहटाएंकल गूगल प्लस पर इसके अंश देखे तो नहीं जानती थी कि यह सफ़ेद घर पर है । कमेन्ट करना चाहती थी कि यह तो आलसी जी की स्टाइल नहीं लग रही - एकदम सफ़ेद घर "इश्तायल" है , लेकिन कमेन्ट पोस्ट हुआ नहीं (message : "you are not permitted to comment on this post" - i think only people you have included in your circles can comment on your posts on google + ).....
जवाब देंहटाएंआज यह पोस्ट पढ़ कर समझ आ रहा है कि क्यों यह पंचम जी की स्टाइल लग रही थी - क्योंकि उनकी ही है :)
वे मेरे फेवरेट व्यंग्यकार हैं - दरअसल ब्लॉग जगत में उनके अलावा किसी व्यंग्यकार को पढ़ती नहीं हूँ । मोसम जी ने 2 और बताये हैं - परन्तु उन्हें पढ़ा नहीं अब तक ।
शिल्पा जी,
हटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद!
लेकिन मुझे लगता है कि मैं सामान्य किस्म का ही लेखन करता हूं मौज लेते हुए। कभी कभी रूचिकर बन जाता है तो कभी बस ऐंवे ही टाइप, बोले तो सामान्य टाइप :)
वैसे मुझसे यदि पूछा जाय तो व्ंयग्य के मामले में मेरी पसंद अनूप शुक्ल जी और आलोक पुराणिक जी हैं।
हाँ जी - आप तो """"सामान्य किस्म का ही लेखन करता हूं मौज लेते हुए"""" ही करते होंगे ।
हटाएंलेकिन आपका लेखन अक्सर सिस्टम / समाज / स्थितियों पर होता है , व्यक्ति विशेष / दूसरे ब्लोगर्स पर नहीं । और सच में "मौज के मूड" में होता है - "चोट पहुंचाने के मूड" में नहीं । इसलिए मज़ा आता है पढने में ।
आपने जो दो लेखक सुझाए हैं - इन्हें बहुत कम ही पढ़ा है - 3-4 पोस्ट्स शायद । और वे सभी अच्छी लगी हैं ।
आपको पढ़ती हूँ, हाँ टिपण्णी अक्सर नहीं करती - पर पढ़ती अधिकतर पोस्ट्स हूँ ।
आप सब सच में ग्रेट हैं - आप चन्द्रहार के रत्न गण भी , और यह आयोजन करने वाले आलसी जी भी । अब मोसम जी पर आने वाले लेख का इंतजार है । और अभिषेक जी पर भी ।
शिल्पा बहन,
हटाएंआपका एक कमेंट देखा था जिसमें आपने व्यंग्य के प्रति अपनी अरुचि प्रदर्शित की थी। निश्चित ही आपका कमेंट व्यक्ति विशेष\ब्लॉगर विशेष का मजाक उड़ाने के संबंध में था और मैंने उसे व्यंग्य विधा के प्रति आपकी अरुचि मान लिया था। इसी सन्दर्भ में आपको अपनी पसंद के दो ब्लॉग सुझाये थे,संयोगवश मेरी रिकमेंडेशन दोनों वर्ग के लिये फ़िट है। अवसर का लाभ उठाकर फ़िर से बता देता हूं, समय मिलते ही पढ़ियेगा।
1. http://shiv-gyan.blogspot.in/
2. http://jhoothasach.blogspot.in/
मुझे लगता है ऐसी शेयरिंग से हम सब का फ़ायदा है, गिरिजेश जी के इस प्रयास का भी यही उद्देश्य रहा होगा। कोई भी लिस्ट संपूर्ण नहीं हो सकती।
आपका स्नेह मेरे लिये अमूल्य है, धन्यवाद कहकर उसे न्यून नहीं करूंगा।
सफ़ेद घर की बात अलग से टिप्पणी में:)
संजय @ मोसम जी - आपकी इस टिप्पणी , इस स्नेह और इन लिनक्स को दोबारा देने का आभार ।
हटाएंवही मैंने ऊपर लिखा था की आपने मुझे दो लिंक दिए थे । पढ़े भी थे - और अच्छे भी लगे थे । लेकिन सेव नहीं किये थे - और भूल गयी थी । असल में मैं बहुत कम ब्लॉग पढ़ती हूँ, और टिप्पणी तो और भी कम करती हूँ । डर लगता है इस ब्लॉग जगत से और यहाँ के established power centers के निशाने पर आने से :) । इसी कारण मुझे भी बहुत कम ही लोग पढ़ते हैं - और मैं इसमें काफी खुश हूँ ।
:-)
हटाएंये तो घनघोर "प्राच्य बमचक" है :)
जवाब देंहटाएंकल फेसबुक पर कुछ अंश पढ़ा था टुकड़ों में। अब दिख रहा है कि ये तो पूरी पोस्टवै है :)
यही हमारा संयोग भी है, यही वियोग भी है।
जवाब देंहटाएंये काल यात्रा कालजयी होने वाली है... यात्रा सतत अनवरत रहे. हम भी साथ हैं... ;)
जवाब देंहटाएंसादर
ललित
'सफ़ेद घर '...मेरी भी पसदं के ब्लोग्स में से है जिसे मैं नियमित पढ़ती हूँ ..अलग सा, निराला ....उनकी लेखन शैली बेहद रोचक लगती है जो कि शुरू से अंत तक पाठक को बाँधे रखने की क्षमता है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा चयन .बधाई .
यह यात्रा चलती रहे ,सतीश पंचम जी को शुभकामनाएँ.
अपना ब्लॉग बनाने से पहले जब मुझे इंटरनेट की ए.बी.सी. भी नहीं पता थी, तब से ’सफ़ेद घर’ पर अपनी नजर गड़ी है:) अब तो खैर सतीश जी से कई बार बात\चैट हो चुकी लेकिन जब ये अंदाजा भी नहीं था कि कभी परिचय भी होगा, तब भी मैं इन्हें एक ऐसे मनमौजी इंसान के रूप में देखता था जो मुंबई की सड़कों\लोकल\बस में घूमते हुये भी अपने साथ अपने गांव-जवार को लिये फ़िरते हैं। दिखने में और लिखने में बेपरवाह दिखते हैं महाशय लेकिन नजर ऐसी कि घटनाओं को एक अलग ही कोण से देखती और दिखाती, जो उनके दूसरे ब्लॉग ’thoughts of a lens' से और भी उजागर हुई। लेटेस्ट पोस्ट http://lensthinker.blogspot.in/2012/12/blog-post.html में तस्वीर और उसके साथ लिखी साढे तीन लाईन किसी आलेख से कम नहीं।
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी से एक बार बात हो रही थी(उस जमाने में जब आलसी जी कमेंट करते थे:)) तो उन्होंने कहा था कि ’सफ़ेद घर’ और ’मो सम कौन’ ब्लॉग पर टिप्पणी करने में उन्हें एकदम घर जैसा महसूस होता है, जहाँ आप बेझिझक अपनी राय दे सकते हैं। मैं ’सफ़ेद घर’ और ’आलसी का चिट्ठा’ के बारे में यही बात अपने लिये कहता हूँ।
सफ़ेद घर पर कुछ पोस्ट को वो खुद ’मनहिलोर पोस्टें’ कहते हैं, मैं इस ब्लॉग को ही मनहिलोर ब्लॉग कहता हूँ।
beshak....is mandir(blog) pe oon blog-vishay ko laya ja raha hai jo...... 'achhi chijen chalan se bahar' hoti ja rahi hai...... jis blog aur post ki
जवाब देंहटाएंcharcha yahan ho rahi hai.........nisandeh: apne vidha....hasya vyang me aaval hai......'panchampur ke safaed ghar se jo bol, jis shaili me prasfutit
hoti hai..........use hum 'mati ke lal' kahte hain........
yse 'mouj' le lene ki ada 'fursatiyaji' ke kamal ke hote hain......bare birji ke bataye 'jhootasach' jo naam se hi padhne ki lalak paida karta hai, ko bhi dekhna pariga.......
pranam.
राज्जा,
हटाएंपसंद न आये तो वड्डे वीरजी का नाम बदल देना:)