बुधवार, 6 मार्च 2013

हनुमान की वापसी

मोबाइल स्क्रीन पर चमकते नाम को देख कर मैं चौंक गया हूँ – इतने दिनों के बाद? अभिवादन के पश्चात सामने वाले ने मिलने की इच्छा जतायी है। स्मृतियों के बवंडर में घिरा मैं बस कह पाया हूँ कि पहले सूचना दे देना, कहीं मैं...उधर से वही अक्खड़ स्वर है - अरे साहब! बस एक मिनट। मैं पहुँच गया।

आजकल ऑफिस का वातावरण ऐसा है कि सबके कान रेडियो रिसीवर हो गये हैं और आगंतुक के शॉर्ट, मीडियम वेव में तो अब एफ. एम. भी जुड़ गया होगा! बालकनी से बाहर चमकती धूप में नहाया बबूल दिखा है, उससे मिलने को वही छाँव ठीक रहेगी। मैं बाहर आ गया हूँ – उसका एक मिनट जाने कितना लम्बा हो!...  

... छात्र जीवन से ही मुझे अभिशप्त आत्मायें मिलती रहीं और उनसे मित्रता भी होती रही। लेकिन वह मेरे चाकरी में आने के बाद दस साल पहले पहली बार मिला था - मरियल सा, मुझसे आयु में चार पाँच बरस छोटा लड़का, ठिगना कद, बिना शर्टिंग के पैंट पहने भव्य होटल के बैकग्राउंड में चिप्पी सा दिख रहा था। गर्मियाँ थीं और साँझ की उमस का आभास लेने मेरे बाहर आने पर वह सामने आया था। उसने नमस्ते किया और सीधे बोल पड़ा - मुझे काम चाहिये! मैं चौंका तो उसने अपने बारे में सब कुछ बताया। संक्षेप में कहें तो छोटे मोटे, हजार के काम सबलेट पर कराता था और आर्ट ‘साइज’ से इंटर थर्ड डिविजन पास था। घरेलू वायरिंग में प्रशिक्षण ले रखा था। क़स्बे में छोटी सी दुकान थी।   

नेपाल सीमा पर एक बहुत ही समस्याग्रस्त स्थान पर काम के सिलसिले में मैं वहाँ गया था। मुझे आँखें बहुत लगती हैं और उस लड़के की आँखों में आग थी। मैंने कहा - मेरे वश में नहीं तुम्हें काम देना, छोटा आदमी हूँ। उसने ग़जब छूट लेते कहा - मुझे बनाइये मत, आप के बारे में पता है। अगर आप चाहें तो दिल्ली तक कोई नहीं काटने वाला!

भीतर भीतर मैं कुछ सहम सा गया, सारी अफसरी भूल भभक पड़ा - फलाँ स्थान पर काम करोगे? एक पार्टी और होगी। मेरे साथ चल नहीं पाओगे। उसने कहा - आप कहिये तो...
 बजट मिलते मिलते और काम शुरू होते शीतलहर शुरू हो गयी। एक रात जब इंस्पेक्शन परिपथ पूरा करते दो बजे मैं उसके साइट पर पहुँचा तो सड़क की दूसरी ओर विशाल अलाव के किनारे उसकी छाया किसी प्रेत की तरह दिखी – साहब, इस समय? यहाँ? मैंने कहा – तुम भी तो जमे हुये हो!

“लेबर जम रहे हैं साहब! गाहे बगाहे हाथ पत्थर उठाने से इनकार कर देते हैं, यहाँ आ हाथ सेंकते हैं और फिर काम करते हैं। मैं घर में कैसे सोया रह सकता हूँ?” सैम्पल के पत्थर उसने अपने हाथों बोरी में भरे थे। 

उसने स्पेसिफिकेशन के हिसाब से समय पर काम पूरा कर दिखाया। पहले काम का फाइनल बिल बना कोई पाँच लाख। उसने कहा - आप नहीं जानते कि आप ने क्या किया है! ये लाख आगे पाँच वर्षों में करोड़ बनेंगे। मुस्कुराते हुये मैंने उसकी ओर प्रोजेक्ट फेयरवेल हाथ बढ़ाया – घपले न करने लग जाना! उसने हाथ जोड़ लिये – आप से हाथ नहीं मिला सकता। मैं तो बस कउड़ा वाला घपला जानता हूँ, चलता हूँ।   


उसके बाद वह सभी समस्याग्रस्त स्थानों के लिये मेरा विश्वस्त साथी हो गया। चाहे बावन टोलों का वह गाँव हो जहाँ काम के दौरान ही दो लाशें गिरीं या बिहार सीमा का वह स्थान जहाँ उत्तर प्रदेश के बजाय पहले बिहार पहुँच कर वापस आना आसान था। मैं पहली बार यू पी की ओर से गया तो सुबह से साँझ हो गयी। नदी किनारे पाट पर तिमंजले भवन के बराबर बालू की भराई थी जो पहले एक बार बह चुकी थी। कुछ दूरी पर यू पी ने अपनी ओर का आधा पुल बनवा दिया था लेकिन बिहार में उड़नखटोले वाले को ज़मीन से कुछ नहीं लेना देना था, सो पुल अधूरा था। दिन में ही चार बजे के बाद लूट पाट शुरू हो जाती। बिसखोपड़ा और नेवले की लड़ाई को देखते हुये मेरे मन में कर्मनाशा बढ़िया चली – कहाँ फँस गये! तीन साल पुराना बजट, प्रेशर, बिहारी ठीकेदार पूरा कर पायेगा?

 आशंका सच साबित हुई। स्थिति इतनी खराब हो गई कि ऊपर की बनी बनाई जमीन पर ट्रैक्टर चलवा कर मैंने सब कुछ फेंकवा दिया और ठीकेदार भाग खड़ा हुआ। लोगों ने कहा – बिहार में होते तो तुम्हारी कहीं लाश पड़ी मिलती, बच गये!

साँझ थी और मैं बस सिर पर हाथ रखे नहीं बैठा था, मन:स्थिति उसी लायक थी। उसे खबर मिल गयी थी। वह आया। खड़े खड़े ही बोल पड़ा – जब हनुमान है तो राम को सोचने की क्या ज़रूरत?  मैंने भयानक बारिश में छोड़े गये काम को उस कउड़े के प्रेत को सौंप दिया। जाने कितनी बार मैंने उसके लाये सामानों को रिजेक्ट किया और एक बार तो भारतीय मानक ब्यूरो को शत प्रतिशत लागू करने की ज़िद ने तीन महीनों की देरी की, पेनाल्टी पूरी लगी लेकिन उसने काम पूरा किया।

जुबान का कड़वा था और फ्रैंक भी। लोग कहते थे - इस स्ट्रीट स्मार्ट डॉग को तुम कैसे झेलते हो? मैं कहता -  झेलना पड़ता है जब पता हो कि इसके किसी साइट पर कोई गड़बड़ी नहीं मिलनी और आवश्यकता पड़ने पर दो दिन लगातार बिना रुके बिना सोये काम करवा सकता है!

वह अभिशप्त था। कुछ लोगों को कभी श्रेय नहीं मिलता।


वहाँ से मेरे ट्रांसफर के बाद भी उसकी खबर मिलती रही। अक्खड़ता के कारण उसके भुगतान रुक जाते।  सबसे बड़ा दोष यह कि वह मेरा नाम ले सरेआम कहता रहता कि आदमी हो तो वैसा!

लोग उसे यूज करते रहे और वह सब समझते हुये भी डटा रहा, काम करता रहा। दो साल बाद दिल्ली में मिला तो पाँच सौ किलोमीटर बाइक चला कर पहुँचा था। सारी दास्ताँ उसकी जुबानी सुन मैंने कहा – अपने को बदलो। हुलिया ठीक करो - ढंग के कपड़े, नफासत; कम बोलो, नहीं कहना सीखो और एक गाड़ी रखो मय ड्राइवर।

कुछ देर चुप रहने के बाद उसने कहा - इजाजत हो तो एक और बात जोड़ दूँ? मुझे मौन पा उसने पूछा - आदमी देख कर काम किया करूँ? 

उस एक प्रश्न में गहरी पीड़ा छिपी हुई थी। वे आँखें नम सी लगीं जिनमें मैं केवल आग देखने का आदी था। वह जारी रहा - आप को गुरु मानता हूँ... कॉलेज लाइफ में भी साथियों से स्वयं के लिये गुरु'जी' सुन सुन मैं चिढ़ता रहता था, उसके मुँह से सुन मैंने रोका तो भी वह जारी रहा - बेईमानी नहीं करूँगा लेकिन अनपढ़ लोगों की धौंस भी क्यों सहनी जब उनके कारण चूना लगता हो? बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा या परवाह किये उसने कहा - आप के सामने कह दिया, हल्का हो गया। किसी से भी अच्छा काम करूँगा लेकिन उस तरह से नहीं जैसे आप के साथ करता था। पाँच से पचास लाख तक पहुँच चुका हूँ लेकिन करोड़ ... 
मैंने जड़ा - तुम्हारी जैसी मर्जी लेकिन दूसरी राहें भी पकड़ो, तुम्हारे लक्षण ठीक नहीं। वह ठठा कर हँसा था - आप बहुत अच्छे आदमी हैं और भोले भी; चुप हुआ और जब अगला वाक्य निकला तो उसकी आँखों में वही संझाती आग दिखी - सब आप के जैसे नहीं हैं और रिक्वेस्ट है कि अगर आप इस मुगालते में हैं तो बाहर आइये। नमस्ते के बाद बाइक स्टार्ट कर चलने के पहले उसने कहा - अगले साल करोड़, कहने नहीं आऊँगा। आप तो जान ही जायेंगे...

...करोड़ तक पहुँचने के बाद वह 'बड़ा आदमी' हो गया। उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के सरकारी विभागों में काम करने लगा। उसके बाद मिला तो यह बताने को कि उसने न लौटने की शपथ ले ली थी! हम दोनों मुस्कुराये और उसने कृतज्ञता जतायी कि खादी सिल्क की नेतागीरी वाली पोशाक, इनोवा गाड़ी मेरे कहने के कारण हुये थे और .... उसने बहुत कम बात की थी, जाने के पहले हाथ मिलाने को बढ़ाया था, हाथ जोड़े नहीं थे! और मुझे उतना ही संतोष हुआ था जितना किसी पिता को अपने पुत्र को निज पैरों खड़े देख होता है।...   

 
...उसके नमस्ते से बबूल के नीचे जम गयी तन्द्रा टूटी है। वह आयकर विभाग से मुकदमे के सिलसिले में राजधानी आया है - जींस और टी शर्ट पहने, बढ़ी हुई दाढ़ी, इनोवा के बजाय माँगी हुई मारुति कार लेकिन खुश है - साहब! अँवाट बवाँट घूस की माँग मैंने कभी पूरी नहीं की इसलिये कभी सेल्स टैक्स वाले तो कभी इनकम टैक्स वाले दौड़ाते रहते हैं। आप की दया से मकान बन गया है। नेतागीरी भी चमक गयी है, बीस घरों की रोटी का जुगाड़ मेरे यहाँ है... लेकिन मार्केट में काम नहीं है, अब आप के पास फिर से शुरू से काम करने की माँग ले कर आया हूँ। उम्र के साथ मैं थोड़ा सुधर गया हूँ और आप भी अब ... संसार है साहब! ऐसे ही चलता रहेगा। इस जमाने में सड़क छाप फटीचर को लाखों के काम दे कौन अपनी इज़्ज़त दाँव पर लगाता है? 

मैंने उसकी बात की फाँस को समझ लिया है लेकिन प्रकट में पूछा है - अब अरब के सपने तो नहीं? वह मुस्कुराया है - आप ने कहा था कम बोलो। उस दिन से तो मैं सपने भी कम देखने लगा था। करोड़ तो आप का आशीर्वाद था। अरब सरब अपने बस का नहीं!

जाने के पहले उसने हाथ नहीं मिलाया है, हाथ जोड़े हैं। ड्राइवर ने कार आगे बढ़ा दी है। मुझे उड़ती धूल में कर्मनाशा की रेती भी दिखी है... मंगल के दिन हनुमान! सब मंगल हो।

आने वाले दिनों को देखता ऑफिस में दाखिल हुआ हूँ - अभिशप्त लोग ठगा ही जाते हैं, लौट भी आते हैं!

10 टिप्‍पणियां:

  1. सुधरने और सिधारने में कितना बारीक अंतर है

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  2. इस जमाने में सड़क छाप फटीचर को 5 लाख का काम दे कौन अपनी इज़्ज़त दाँव पर लगाता है?
    मैंने उसकी बात की फाँस को समझ लिया है लेकिन प्रकट में पूछा है - अब अरब के सपने तो नहीं? वह मुस्कुराया है - आप ने कहा था कम बोलो। उस दिन से तो मैं सपने भी कम देखने लगा था। करोड़ तो आप का आशीर्वाद था। अरब सरब अपने बस का नहीं!

    jai baba banaras...

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  3. करोड़ों का उठाव और अरबों का गोता, मन की न जिये तो अरबों गये मानो। कम में ही संतुष्ट रहे, पर प्रसन्न रहे जीवन। हमारी ओर से शुभकामनाये दीजियेगा..

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  4. अरब-सरब के सपने नहीं देखता? वाकई अक्खड़ है :)

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