(1 ) पोस्ट छपने के बाद से लेकर पहली टिप्पणी आने तक ही लेखक को यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वह पोस्ट में परिवर्तन कर सके। उसके बाद नहीं। आदर्श स्थिति तो यह हो कि छपने के बाद से ही यह सुविधा बन्द कर देनी चाहिए, आखिर ऐसे भी पाठक हैं जो पढ़ते तो हैं लेकिन टिप्पणी नहीं करते। लेकिन चूँकि वे दुबारा से पढ़ सकते हैं और वापस बिना टिप्पणी किए जा भी सकते हैं इसलिए उनके सापेक्ष कोई नियम बनाना ठीक नहीं है।
टिप्पणी के मामले में बात अलग हो जाती है। आप ने कुछ पढ़ा, टिप्पणी किया और बाद में लेखक ने पोस्ट ही बदल दी ! ऐसी स्थिति से निपटने के लिए टिप्पणीकार को यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वह अपनी पुरानी टिप्पणी में भी परिवर्तन कर सके। न न ! टिप्पणी मिटाना हल नहीं है। मिटाने के बाद भी सब कुछ उपलब्ध रहता है - कहीं न कहीं।
यह भी किया जा सकता है कि पोस्ट में किए गए परिवर्तन फुटनोट में स्वचालित रूप से नीचे समय के साथ अंकित होते रहें।
(2) आम जीवन में यूँ ही स्थापित हो जाने वाली टिप्पणी जब ब्लॉग जगत में आती है तो उसे अपने को स्थापित करने के लिए अधिकतम तीन स्तरों से गुजरना होता है।
एक - जब पाठक टिप्पणी कर देता है तो वह केवल उसकी रहती है।
दो - जब ब्लॉग स्वामी उसे देख समझ लेता है तो वह दो जनों की हो जाती है।
तीन - जब ब्लॉग स्वामी उसे प्रकाशित कर देता है तो वह सारे ब्लॉग जगत की हो जाती है।
मेरे जैसे कुछ आलसी टिप्पणी को इतनी दुरूह प्रक्रिया से नहीं गुजारते। मॉडरेशन नहीं लगाते। परिणामत: टिप्पणी बस पहले स्तर से ही गुजर कर सारे ब्लॉग जगत की हो जाती है। केवल ऐसी दशा में ही ब्लॉग स्वामी को यह अधिकार होना चाहिए कि वह टिप्पणी को मिटा सके।
मॉडरेशन वालों को यह सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। वे तो पहले ही देख सुन, सोच समझ कर प्रकाशित कर चुके हैं।
यह सारी बकवास इसलिए कर रहा हूँ कि रविवार है। मन नहीं लग रहा और जो लिखना है वह इतनी दक्षता की माँग कर रहा है कि कँपकँपी छूट रही है। ब्लॉग जगत के महारथी, अतिरथी, सारथी, रथविरती, व्रती, पैदल ... वगैरह सबने टिप्पणियों पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा है। मुझे लगा कि मेरा यह संस्कार तो अभी तक हुआ ही नहीं ! इसलिए सम्पूर्ण ब्लॉगर बनने की दिशा में एक और पग बढ़ाते हुए यह लेख लिख रहा हूँ।
उपर जो लिखा है वह इसलिए लिख पाया कि परोक्ष रूप से मुफ्त प्लेटफॉर्म उपलब्ध है। अगर इस काम के लिए पैसे अंटी से निकलते प्रत्यक्ष दिखते तो शायद न लिखता, संयम रखता। मुफ्त के प्लेटफॉर्म पर मुफ्त की सलाह देना अपराध नहीं एक कर्तव्य है - उसे मानने वाले की अंटी से हजारो नोट निकल जाँय तो भी।
अर्थ यानि की धन बहुत महत्वपूर्ण है। 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' में यह सिद्ध किया जा चुका है कि प्रेम के प्रस्फुटन और उसको प्रवाहशील बनाने में भी धन का योगदान होता है। आखिर इतना धन न हो कि भैंस रखी जा सके तो दूध लेने कोई क्यों आएगी ? जब नहीं आएगी तो प्रेम पूर्व ताकाझाँकी नैन मटक्का कैसे होंगे? न होंगे तो प्रेम कैसे होगा ? ... सारांश यह है कि प्रेम के लिए धन परमावश्यक है।
पैकेट के दूध बेचने वाला गेट पर पुकार रहा है। आधुनिक युग ने प्रेम की तमाम सम्भावनाओं की हत्या कर दी है। पैकेट के दूध ने जाने कितनी प्रेम कथाओं को घटित होने से पहले ही समाप्त कर दिया होगा ! बड़ी त्रासदी है।
आप ने इसे पढ़ा यही बहुत है। टिप्पणी दे सकें तो और भी बड़ी बात होगी। दूध लेते समय दो लीटर उठौना महत्त्वपूर्ण नहीं होता, बाद में दूधवाला जो घलुआ देता है वह परम महत्त्वपूर्ण होता है भले 50 मिलीलीटर ही हो !
अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंबाँच कर आनन्द आया
और हमारे जैसे चौबीस घंटे ब्लोग से चिपके प्रेत किसी को भी ये मौका नहीं देते कि पहली टिप्पणी से पहले ही पोस्ट में हेर फ़ेर कर जाए ..संडे की सुबह आल्स ..ठीक है स्वाभाविक भी ..आप लंठ होते हैं तो भी हमें उत्ते ही भाते हैं .जित्ते आलसी होते हुए ...कुल मिलाके सार ये कि आप हमें भाते हैं ....पोस्ट पढ डाली है और कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि रत्ती भर भी आलस्य टपका हो ..
जवाब देंहटाएंअजय कुमार झा
सुबह-सुबह आलस आ रहा है, टिप्पणी करने का मन नहीं कर रहा।
जवाब देंहटाएंतो ये रहा संडे यानि कि 'रविवारीय' सूरज का आठवाँ घोडा :)
जवाब देंहटाएंमस्त लिखा गुरू.....एकदम लग रहा है कि तन्नी गुरू केवल एक तौलिया लपेटे हुए पप्पू की दुकान पर जमघट लगाये हैं और कह रहे हैं...बह*** जिसको गरज होगी अपने पास आयेगा न तो **** से जायगा :)
( साभार - काशी की अस्सी)
मजा आ गया रविवारीय सूरज का। मस्त लिखा है।
hamra to padhne ka hi man nahi kar raha hai ..
जवाब देंहटाएंhaan nahi to ..!!:)
टिप्पणी पर आपने कुछ सवाल उठाये हैं. एक सोच हमारी भी. कई सारे ब्लॉग पढता हूँ, कुछ लिखता भी हूँ. टिप्पणियां भी पढता हूँ. ज्यादातर ब्लॉग के टिप्पणी में देखता हूँ कि लोग बस 'सुन्दर', 'अच्छा' या 'nice' कह कर निकल लेते हैं. ब्लॉग के विषय पर, उसमे उठाये गए मुद्दे पर अपनी भावनाएं लोग कम ही लिखते हैं. क्या ये नहीं होना चाहिए कि लेखनी की तारीफ़ से ज्यादा उस लेखनी पर चर्चा हो टिप्पणियों के माध्यम से.
जवाब देंहटाएंखैर, रविवार की सुबह की तो बात ही कुछ और है. आज आँखों ने खुलने से ही इनकार कर दिया. 7 बजे से अभी तक ढेरों प्रयत्न कर चूका था. अब जब पिताजी की झाड पड़ी है तभी उठ सका हूँ. :)
अंशुमान, http://draashu.blogspot.com
चलो आपका भी संस्कार हो गया...
जवाब देंहटाएंबधाई...
चलिए संस्कारित हुए आप भी ....हरि ॐ !
जवाब देंहटाएंभैंस के साए /छाये में भी प्रेम प्रस्फुटित हो रहे हैं -ज्ञान वृद्धि हुयी .
कुछ लोग तो सीधे भैंस से ही सख्यपन निबाहते पाए गए हैं
और धन की महिमा से भला क्या इनकार? बाकी टिप्पणी पर पोस्ट तो ठीकई है
कहीं किसी ने मूल पोस्ट ही बदल दी है क्या ?
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंभैंस रखने वाले अगर प्रेम में पड़ते हैं ...तो भैंसे ही बिक जाती हैं ...प्रेम तो खैर हवा होता ही है ....इसलिए भैंस रखने वालों को प्रेम से बचना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंऔर इसके लिए धन की कहाँ आवश्यकता है ...किसी भैंस वाले के दुहिये बन जाने के कौन से पैसे लगते हैं ...:):)
आलस तो बहुत आ रहा था मगर टिप्पणी कर ही दिए ...टिप्पणी पर दो पोस्ट हम भी लिख चुके हैं और ऐसी प्रविष्टियों के बाद ही पाठक और टिप्पणियां बढ़ी हैं इसलिए ये भी एक फ़र्ज़ हो गया है ...!!
तनिक गंभीरता से कहें तो प्रेम धन से नहीं होता ...अभी अभी आपकी कविता में पढ़ कर आये हैं ...!!
लेकिन यह भी अच्छा रहा..
जवाब देंहटाएं२ लीटर भर सारे प्रश्नों के बाद आखिर में नीली स्याहि वाला ५० मिलि घलुआ आनन्द दे गया. परम आनन्द :)
जवाब देंहटाएंटीप्पणी प्रकाशन की बात पे बिलकुल असहमत! आदमी की ही तरह पोस्ट को भी हमेशा बदल जाने का अधिकार होना चाहिये.. ये क्या बात हुई कि एक बार कलमा पढ़ लिया तो पलटने का रस्तवा ही बन्द हो गया?
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया,निर्मल आनंद।अलाली का मज़ा तो हम भी लेते हैं और इस इलाके के सर्व्श्रेष्ठ अलाल भी कहलाते है मगर आपकी अलाली का कोई जवाब नही है।
जवाब देंहटाएंटाइमपास से शुरू होकर यह पोस्ट सूरज का सातवाँ घोड़ा का ज़िक्र आते तक अपनी पूरी ऊंचाए पर पहुंच गई इसके आगे का ज़िक्र ज़रूरी नहीं । पाठको से अनुरोध है पहले" सूरज का सातवाँ घोड़ा " पढें।
जवाब देंहटाएंआखिर ऐसे भी पाठक हैं जो पढ़ते तो हैं लेकिन टिप्पणी नहीं करते।
जवाब देंहटाएंकितनी अजीब सी बात है आपके प्रोफाइल में क्लिक किया तो नहीं खुला.
तो आपको ये ही बात कहने के लिए अपूर्व से आप का लिंक माँगा...
आखिर ऐसे भी पाठक हैं जो पढ़ते तो हैं लेकिन टिप्पणी नहीं करते।
कल सुबह से परेशान हूँ. चलो अब तसल्ली है. बात वही है पर दोबारा कहूँगा (क्यूंकि कहने के लिए ज़्यादा मेहनत की ज़रूरत नहीं पड़ी कॉपी पेस्ट से काम चल गया...एक आलसी का ब्लॉग, एक आलसी का कमेन्ट. जोड़ी राम मिलते हैं आपको पता है ना ? )
आखिर ऐसे भी पाठक हैं जो पढ़ते तो हैं लेकिन टिप्पणी नहीं करते।
aaj somvaar hai...aalsiyon me to hamara bhi bada naam hai..lekin lagta hai hame bhi apna aalas tyaagkar tippaniyon par kuchh likhna hee padega ...
जवाब देंहटाएंवैसे हम भी आपको पढते हैं मगर कभी टिपियाते नहीं हैं.. :)
जवाब देंहटाएंफिलहाल तो अभय तिवारी जी के संग खड़े हैं..
वैसे जहां तक मुझे याद आता है, मैंने भी कभी टिपियाये कि ना टिपियाये वाले विषय पर नहीं लिखा है.. सोचता हूँ कि मैं भी यह बचा हुआ काम कर ही डालू.. :)
कोई भी रचना सतत परिमार्जन के लिये खुली होनी चाहिये। हां अगर रचना इण्टरेक्टिव हो, जैसे ब्लॉग पोस्ट तो उसमें अपडेट का समय या चिन्ह (जैसे शब्द बदलना शब्द के स्ट्राइकथ्रू से इंगित हो) से पता चलना चाहिये।
जवाब देंहटाएंअच्छे ब्लॉगर को अपनी पुरानी पोस्टें री-विजिट कर परिमार्जित करते रहना चाहिये। कई लिंक उनमें काम नहीं करते और कुछ सामग्री अप्रासंगिक हो जाती है।
यह विषय चर्चा के लिये सतत खुला है!
पोस्ट अपडेटिंग का तरीका ब्लॉगर के चरित्र का दर्पण होता है।
जवाब देंहटाएंपोस्ट में सुधार की गुन्जाइश तो रहनी चाहिये, क्योंकि आमतौर पर वर्तनी की अशुद्धियां हो ही जातीं हैं. हमारे पास भी टिप्पणी मॉडरेशन का कोई प्रावधान नही है.
जवाब देंहटाएंपैकेट का दूध, प्रेम भी ले गया और घलुआ भी ! क्या ज़माना आ गया है भई.
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी ,
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत .वर्तनी संबंधी त्रुटियों को छोड़ बदलाव नहीं हो आलेख में.मैंने मोडेरेसन लगाया .कुछ बक्वासियों और कुटिलों से बचने के लिए.उनका जाहिर होना अगर मुक्त अभिव्यक्ति को कलंकित करे तो.वर्ना आलेख लेखक भी उस कलंक का दोषी हो जाता है .