पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन
तिब्बत – क्षेपक
तिब्बत - चीखते अक्षर (1), (2), (3), (4), (5)
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन
तिब्बत – क्षेपक
तिब्बत - चीखते अक्षर (1), (2), (3), (4), (5)
अब आगे ...
युद्ध के दौरान चीनियों के अत्याचार इतने वीभत्स थे कि कई वर्षों तक तिब्बती कम्युनिस्ट नेता और तिब्बती राजनीतिक सलाहकार समिति के महत्त्वपूर्ण उपाध्यक्ष पद पर रहे फुंत्सोक वांग्याल को भी उन अत्याचारों का विरोध करने और तिब्बती स्वतंत्रता आन्दोलन से सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिये बन्दी बना लिया गया। ल्हासा में पी एल ए के आर्टीलरी कमांडर रहे कर्नल चेंग हो-चिंग यह जताते हुये तिब्बती पक्ष से आ मिले कि उन्हें तिब्बतियों की की जा रही हत्याओं और उन सरल सीधे लोगों के साथ किये जा रहे छ्ल प्रपंच से घृणा हो गई थी।
10 मार्च 1959 को जब ल्हासा में विद्रोह उठ खड़ा हुआ तो युद्ध को जारी रहते लगभग छ: वर्ष बीत चुके थे और तिब्बत में वृहद संघर्ष आगे के चार वर्षों तक जारी रहा जो कि मुख्यत: दक्षिणी प्रांत ल्होका में केन्द्रित था और 1962 के चीन-भारत युद्ध काल में भी जारी रहा। (पीस्सेल के अनुसार इस बात के कुछ प्रमाण हैं कि खाम्ब योद्धाओं ने युद्ध के दौरान चीनियों के संचार तंत्र को ध्वस्त कर दिया था जिससे आभासी विजय की स्थिति में उनकी जल्दीबाजी भरी वापसी को समझा जा सकता है।) सत्तर के दशक के दौरान भी यत्र तत्र विद्रोहों की अच्छी खासी संख्या है।
आक्रमणकारियों की गृद्ध दृष्टि की निगरानी में परम्परा का निर्वहन। शांत और व्यवस्थित आतंक का एक उदाहरण |
यह कोई नहीं जानता कि ल्हासा विद्रोह के दौरान कितने तिब्बतियों की चीनियों ने हत्या कर दी। उनका दमन उस बर्बरता और असभ्यता के साथ किया गया जैसा कि नाज़ियों ने वारसा में किया था। मृत जनों की संख्या के 10000 तक होने के अनुमान हैं। सामान्यत: लोगों को यह पता नहीं है कि दमन के दो दिनों के पश्चात हजारो तिब्बती महिलाओं ने ल्हासा की वीथियों में जुलूस निकाले और चीनियों से तिब्बत से बाहर जाने की माँग की। उसके पश्चात सामूहिक गिरफ्तारियाँ हुईं और अपनी नेताओं के साथ बहुत सी तिब्बती महिलाओं को बन्दी गृह में डाल कर वर्षों तक यातनायें दी गईं। बाद में उन्हें सार्वजनिक रूप से मृत्युदंड दिया गया लेकिन मारी गई अधिकांश महिलायें पहचानी ही नहीं जा सकती थीं क्यों कि उन्हें बुरी तरह से पीट पीट कर विरूपित कर दिया गया था।
ल्हासा विद्रोह के बाद समूचे मध्य तिब्बत में घनघोर संघर्ष फैल गया। निरंतर बढ़ती हुई संख्या के साथ खाम्ब योद्धा दलाई लामा को बन्दी बनाने को उद्यत चीनी सेनाओं के साथ आमने सामने की लड़ाई में सन्नद्ध हो गये। उस समय इस सूचना के बाद कि चीनी उनका अपहरण कर उन्हें मार देना चाह रहे थे, दलाई लामा अपने मंत्रियों की सलाह मान भारत की सुरक्षित भूमि की ओर बढ़ रहे थे। युद्ध के इस मध्य काल में तिब्बती प्रतिरोध गोम्पो ताशी अन्द्रुग्त्सांग के नेतृत्त्व में अधिक सुव्यवस्थित और नियमित हो गया।
'आस्था के रक्षक तिब्बती स्वयंसेवी' का बैज चार नदियाँ छ: पहाड़ प्रतिरोध सेना चित्राभार : विकिपीडिया |
उन्हों ने ‘चार नदियाँ छ: पहाड़’ नाम के प्रतिरोध समूह की स्थापना की थी और बाद में युद्ध में घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुये। चीनियों की क्रूरता इतनी भयावह थी कि मध्य तिब्बत के निवासियों ने भी, जो कि स्वभाव से खाम्ब निवासियों की तुलना में बहुत ही कोमल थे, बड़ी संख्या में अपने को तिब्बती प्रतिरोधी दलों में सम्मिलित कर लिया।
युद्ध का अंतिम दौर 1965-74 में घटित हुआ जब जन्मभूमि से 1600 किलोमीटर दूर उत्तरी नेपाल के मुस्तांग क्षेत्र में स्थित अपने अवस्थानों से मुख्यत: खाम्ब योद्धाओं ने चीनियों पर आक्रमण कर दिया। यदि तिब्बतियों को भारत या कहीं और से शस्त्र सहायता मिली होती तो विद्रोह निस्सन्देह और भी अधिक वर्षों तक जारी रहता और चीनियों के लिये और भी कष्टकारी होता। चीनी तिब्बत के ऊपर सम्पूर्ण सैन्य नियंत्रण छ्ठे दशक के मध्य में ही पा सके। उदाहरण के लिये 1958 के अवसान काल में खाम्ब योद्धाओं ने त्सांग पो (ऊपरी ब्रह्मपुत्र) घाटी में स्थित चीनी सैन्य ठिकाने त्सेथांग पर आक्रमण कर बहुशस्त्रास्त्र सज्जित चीनी गैरिसन को मटियामेट कर दिया जिसमें तीन से पाँच हजार तक की संख्या में चीनी सैनिक थे। उस समय पूर्वी तिब्बत का एक बड़ा भूभाग और वे क्षेत्र जिनसे होकर दलाई लामा 1959 में अपने भारत निर्वासन की यात्रा किये; खाम्ब योद्धाओं के नियंत्रण में थे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू के मथ्थे तिब्बत के विनाश का बड़ा दोष है। चीनियों को नाराज़ न करने की उनकी आकुलता के चलते समाचारों पर एक सुनियोजित सेंसर लगाया गया जिसके कारण चीनी अत्याचारों की सूचनायें बाहरी संसार तक पहुँच नहीं पाईं। वे पाकिस्तान की ओर से इतने अधिक आशंकित थे कि उन्हों ने लगातार चीनी खतरे को कमतर आँका और एक सभ्यता के सम्पूर्ण विनाश में मौन सहमति जैसा साथ दिया। विनाश को रोकने के लिये बहुत कुछ किया जा सकता था और गोला, बारूद, शस्त्रास्त्र की अत्यल्प आपूर्ति भी तिब्बती स्वतंत्रता सेनानियों के लिये अनमोल सहायता होती।
व्यवहारत: खाम्ब योद्धाओं को एकमात्र सहायता युद्ध के अंतिम वर्षों में सी आइ ए से नेपाल में मिली जब कि उनका उपयोग सी आइ ए ने चीनियों को सताने के लिये मुहरों की तरह किया। राजनैतिक रूप से कपटहीन खाम्ब योद्धा अपनी मातृभूमि को बरबाद होते और अपने परिवारों का सफाया होते देख व्याकुल हो चाहे जहाँ से सहायता मिले, लेने के लिये मज़बूर थे। वह सहायता भी कुछ खास नहीं थी और सातवें दशक में चीन के साथ सम्बन्ध सुधरते ही अमेरिका ने उसे भी शीघ्रतापूर्वक समाप्त कर दिया।
विद्रोही युद्ध अंतत: 1974 में समाप्त हो गया जब नेपाली सेना ने चीनी बलों के साथ मिल कर खाम्ब योद्धाओं पर हमला बोल दिया। बहुत से खाम्ब योद्धा या तो मारे गये या नेपाली जेलों में लुप्त हो गये जब कि बीस वर्षों से भी अधिक चली लड़ाई में बचे खुचे योद्धा दक्षिण की तरफ भारत में आ गये। तिब्बती संग्राम का अंत ऐसे हुआ।
(अगले भाग में सांस्कृतिक क्रांति)
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‘चार नदियाँ छ: पहाड़’ नाम तिब्बत के खाम या खाम्ब प्रांत की चार नदियों मेकांग, यांग्त्सी, यालोंग जियांग और सालवीन और छ: पर्वतमालाओं को व्यक्त करता है। इस प्रतिरोधी सैन्य के संस्थापक रहे गोम्पो ताशी अन्द्रुग्त्सांग एक तिब्बती व्यापारी थे। उनके पौत्र ने ‘Four Rivers Six Ranges’ नाम से उनकी आत्मकथात्मक जीवनी को प्रकाशित किया है जो कि सुलभ है।
युद्ध में घायल होने के बाद सितम्बर 1964 में भारतभू पर अपनी मृत्यु के पहले इस महान योद्धा ने अपने जीवन के ये अंतिम शब्द कहे जो कि आने वाली पीढ़ियों के लिये संघर्ष को जारी रखने के लिये सर्वदा प्रेरक रहेंगे:
“तिब्बत की दु:खभरी गाथा समूची मानवजाति के लिये एक चेतावनी और एक पाठ हो और हर जगह लोगों को अत्याचारों और मानवाधिकारों के दमन के विरुद्ध संघर्षरत रहने को उद्यत रखे।“
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सी आइ ए के तिब्बत अभियान के बारे में यहाँ पढ़ा जा सकता है:
1959 में ल्हासा के दमन के दौरान चीनियों के हाथ जितनी भी धर्म पुस्तकें और कलाकृतियाँ लगीं, उन्हें जला दिया गया। पांडुलिपियों की संख्या इतनी अधिक थी कि महीनों तक आग जलती रही। भागते हुये शरणार्थी जिन पांडुलिपियों को निकाल लाये थे उन्हें प्रकाशित करने का प्रकल्प चल रहा है। अधिक जानकारी और सहयोग के लिये आप यहाँ पहुँचें: http://www.adoptabook.us/home
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पुस्तकों को नष्ट कर संस्कृतियों को नष्ट करने की परम्परा रही है, तक्षशिला भी उसी राह गया।
जवाब देंहटाएं@पुस्तकों को नष्ट कर संस्कृतियों को नष्ट करने की परम्परा रही है
जवाब देंहटाएंप्रवीण पाण्डेय जी ने सही कहा ....
बेशक़ चीनियों ने तिब्बत पर दशकों तक अमानवीय ज़ुल्म किये हैं। अब सोचना यह है कि लाल दानव का मुक़ाबला कैसे किया जाये। तिब्बत की गरिमा को कैसे बहाल किया जा सकता है? भारत का भविष्य भी काफी हद तक तिब्बत की स्वतंत्रता से जुडा हुआ है। तिब्बत जो केवाल हमारी सबसे बडी सीमा ही साझा नहीं करता बल्कि हमारी प्रमुख सदानीराओं का स्रोत भी है। तिब्बत जो हमारे परमादरणीय कैलाश, मानसरोवर जैसे तीर्थों का घर ही नहीं बल्कि बुद्ध धर्म के आज के सर्वप्रमुख दलाई लामा का स्थान भी है। वह त्रिविष्टप देश कैसे स्वतंत्रता पाये?
जवाब देंहटाएंयह वृत्तांत भारत के लिए भी आँखे खोलने वाला है ...आज मानसरोवर के लिए हम चीन की दया पर हैं -क्या आगे ....?
जवाब देंहटाएंदहशतनाक संभावनाएं मुंह बाए खडी हैं !
शब्द जो आने वाली पीढ़ियों के लिये सर्वदा प्रेरक रहेंगे:
जवाब देंहटाएं“तिब्बत की दु:खभरी गाथा समूची मानवजाति के लिये एक चेतावनी और एक पाठ हो और हर जगह लोगों को अत्याचारों और मानवाधिकारों के दमन के विरुद्ध संघर्षरत रहने को उद्यत रखे।“
यूनान-ओ- मिस्र-ओ- रोमा, सब मिट गए हैं जहाँ से ।
जवाब देंहटाएंअब बौद्धा-तिब्बत-ओ अफ्रीका, अंडमान-ओ etc. हैं निशाँ पर हमारे |
सदियों से रहा है आपसी संस्कृतियों का
प्रभाव-ओ डर खूने-ए-जीन में हमारे
कुछ बात है कि दूसरे को मिटाने की बर्बर बीमारी
जाती नहीं हमारी |
प्राचीन दुर्लभ पुस्तकालयों को खतम करने की बजाय मैं उस इंसान की हत्या तक करने के पक्ष में हूँ जो उस पुस्तकालय को जलाने की इच्छा रखता है | मेरा मानना है अगर आप को कुछ पसंद न हो तो आपसे प्रार्थना है कि अपनी दुष्टता को इतना तो कंट्रोल करें कि आप उस ज्ञान-विचारधारा को कंटेण्ड कर दीजिए, सीमित कर दीजिए पर आगामी पीढ़ियों के लिए कम-स-कम जिन्दा तो रख दीजिए | किसी विचार को अपनाने न अपनाने का निर्णय दूसरे पढ़ने वालों पर छोड़ दीजिए |
जवाब देंहटाएंजो आदमी प्राचीन या नवीन किसी भी प्रकार की पुस्तक और उस एक तक पहुंचने के लिए किसी खोजे जा चुके ख़ास तरीके या मजहब या आस्था को नष्ट करता है मुझे उससे घोरतम घृणा है |
किसी भी खिल चुके दुर्लभ फूल को सहेजना हमारा धर्म होना चाहिए न की उसको कुचल देना और पीढ़ियों की स्मृति तक से निकाल बहार फेंकना | अगर वो फूल आपको पसंद नहीं तो अपने घर में न उगायें, समाज में न उगाए पर जंगल की कुछ भूमि तो उसके लिए छोड़ दें |
समूल-जड़ नाश करना भयभीत और कायरों के लक्षण हैं | ऐसा करने वालों को फिर तो मैं कहूँगा तुम लोगों को गुम हुए इतिहास को खोजने की इच्छा भी नहीं रखनी चाहिए | बल्कि इतिहास जानने की ही इच्छा नहीं होनी चाहिए |
योगेन्द्र सिंह जी की लगभग सभी बातों से सहमत।
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