पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन
तिब्बत – क्षेपक
तिब्बत - चीखते अक्षर (1)
अब आगे ...
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन
तिब्बत – क्षेपक
तिब्बत - चीखते अक्षर (1)
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सम्राट कांग ह्सी (K’ang Hsi), जो कि चीनी न होकर एक मध्य एशियाई था, द्वारा सन् 1720 में तिब्बती मामलों में किये गये हस्तक्षेप के आधार पर चीन द्वारा तिब्बत पर आगे के दावे किये गये हैं। तिब्बत पर तथाकथित दो सौ वर्षों का चीनी आधिपत्य इसी शासक की देन है। सैन्य विजयों और बलात कूटनीति के द्वारा इसी काल में चीनियों ने पूर्वी तिब्बत विशेषकर खाम और आम्दो पर मामूली नियंत्रण कर लिया। इन क्षेत्रों लगभग पूरी तरह से तिब्बती मूल निवासी ही रह रहे थे। इन क्षेत्रों के बड़े भागओं पर तिब्बतियों ने 1865 में पुन: अधिकार कर लिया। ये क्षेत्र 1911/12 में पुन: चीनी आधिपत्य के शिकार हुये लेकिन लम्बे और अति वीभत्स लड़ाई के बाद तिब्बतियों ने उन्हें फिर से कुछ ही वर्षों में वापस भगा दिया। इसके पहले सन् 1790 में चीनियों ने पुन: हस्तक्षेप किया था जब चीनी राजप्रतिनिधियों (अम्बान) ने तिब्बती राजधानी ल्हासा में अपना निवास बनाया। लेकिन उनकी शक्ति बहुत तेजी से समाप्त हो गई।
प्रख्यात तिब्बती विद्वान प्रोफेसर डेविड स्नेल्लग्रोव ने वैज्ञानिक बौद्ध संगठन को प्रेषित अपनी समीक्षा यह में लिखा:
पुराने अधिकार के तर्क के आधार पर तो ब्रिटिश सत्ता को कभी भारत एवं दक्षिणी आयरलैंड से नहीं जाना चाहिये था और फ्रांसीसियों को उत्तरी अफ्रीका को कभी नहीं छोड़ना चाहिये था।
प्रोफेसर ने तिब्बत-चीन और आयरलैंड-ब्रिटेन सम्बन्धों में कई असाधारण समानतायें भी दर्शाईं। तिब्बती मामलों के ऐतिहासिक तथ्य एक नैराश्यपूर्ण लेकिन परिचित सचाई को स्पष्ट करते हैं, वह है बड़ी सत्ता का छोटी सत्ता के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप।
तिब्बती मामलों में जिस एक और साम्राज्यवादी शक्ति ने हस्तक्षेप किये, वह थी – ब्रिटिश सत्ता। अट्ठारहवीं सदी के दूसरे अर्धांश में हिमालय से लगे क्षेत्रों में ब्रिटिश प्रभुत्त्व फैलने लगा। 1904 के यंगहसबैंड अभियान के अलावा 3200 किमी. लम्बी भारत-तिब्बत सीमा कमोबेश शांत रही। सीमा के दोनों ओर सेनाओं की तैनाती बहुत कम थी। ऐसा लगता है कि ब्रिटिश साम्राज्य के कई अफसरों ने तिब्बत पर चीनी दावे की किंकर्तव्यविमूढ़ अभिस्वीकृतियाँ दी हैं। हालाँकि 19 वीं सदी के अंत में चीन के साथ विभिन्न सामरिक और व्यापारिक समझौतों के दौरान उन्हें लग गया कि तिब्बती विरोध के कारण ऐसे समझौते लागू नहीं किये जा सकते। उन्हें इसका पता लग गया कि चीन चाहे जो कहे, उसका तिब्बत में प्रभाव बहुत ही सीमित था।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में चीन और तिब्बत के सम्बन्ध खराब होते गये। आशिंक रूप से ऐसा सम्भावित रूसी प्रभाव को रोकने के मद्देनजर 1904 में ल्हासा भेजे गये ब्रिटिश साम्राज्यवादी अभियान के कारण हुआ। ब्रिटिश अभियान ने वह असन्तुलनकारी प्रभाव छोड़ा जिसका एक मुख्य परिणाम तिब्बत और चीन के बीच बढ़ी शत्रुता के रूप में आया। चीनियों द्वारा 1909 में अधिकृत किये गये पूर्वी तिब्बती क्षेत्रों खाम और आम्दो में जब जनसामान्य विद्रोह उठ खड़ा हुआ तो 1910 के फरवरी में चीनी जनरल चाओ ह्र-फंग की सेनाओं ने ल्हासा में प्रवेश किया और विद्रोह का बर्बर दमन किया। चीनी जनरल स्वयं चाम्दो में ही रहा। उसकी सेना में चीनी और मंचू सैनिकों के बीच गहरे तनाव थे जो 1911 में मंचू वंश के पतन के पश्चात खुले आपसी संघर्ष में परिणत हो गये। कोई सैन्य सहायता न होने पर भी तिब्बतियों ने चीनियों को उखाड़ फेंका और चीनी जनरल द्वारा अधिकृत अधिकांश क्षेत्र वापस ले लिये।
भारत में अपने संक्षिप्त निर्वासन के पश्चात जब तेरहवें दलाई लामा ल्हासा लौटे तो उन्हों ने और तिब्बती राष्ट्रीय असेम्बली ने चीन से तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। घुसपैठी चीनी सेनाओं को पूर्वी तिब्बतियों ने 1919 और 1930 में मार भगाया।
3 जुलाई 1914 के शिमला समझौते में तिब्बती स्वतंत्रता की पुष्टि हुई जिसे चीनियों ने तुरंत नकार दिया क्यों कि वे लोग पूर्वी तिब्बत के सद्य: विजित बहुलांश को छोड़ना नहीं चाहते थे। दोनों बचे हुये पक्षों, तिब्बत और ब्रिटिश भारत, ने तिब्बत में चीनियों के अधिकार और विशेषाधिकारी दावों को निरस्त कर दिया। अगले 38 वर्षों तक तिब्बत चीन से पूरी तरह से स्वतंत्र रहा।
तिब्बत पर चीनी हमला - 1949:
7 अक्टूबर 1950 को नवस्थापित पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की सेनाओं ने तिब्बत पर दुतरफा आक्रमण कर दिया। कम्युनिस्टों के चीन में सत्ता में आने से पहले ही इसकी सशस्त्र सेनाओं ने पूर्वी तिब्बत के बड़े भूभाग में घुसपैठ कर लिया था। खाम और आम्दो के समस्त सीमा क्षेत्र में चीनी सेनाओं के साथ भारी लड़ाई जारी थी और भूभाग का ज्ञान न होने के कारण चीनी सेनायें विराट तबाही झेल रही थीं। उन्हें तिब्बती प्रतिरोध दलों ने जहाँ के तहाँ रोक रखा था।
लेकिन जब कम्युनिस्ट सत्ता में आये तो उन्हों ने लड़ाई में सैन्य बलों, शस्त्रास्त्र और साजो सामान की भारी बढ़ोत्तरी की। तिब्बत की तथाकथित ‘मुक्ति’ – जैसा कि वे साम्राज्यवादी कहते आये थे – उनकी प्राथमिकता सूची में उच्च स्थान पर थी। चीनी कम्युनिस्टों ने घोषित किया कि तिब्बत चीन का अविभाज्य भाग था और ‘प्रतिक्रियावादी दलाई गुट’ और विदेशी ‘साम्राज्यवादी’ शक्तियों के चंगुल से उसे ‘मुक्त’ किया जायेगा। (अगला भाग)
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जो इतिहास से नहीं सीखते वे इतिहास बन जाने को अभिशप्त होते हैं। क्या आप को अरुणांचल प्रदेश में गाहे बगाहे होती चीनी घुसपैठों की तिब्बत में चीन की प्रारम्भिक हरकतों से साम्यता नहीं दिखती? चीनी एजेंडा क्या है – इसकी भनक लगी कि नहीं? कम्युनिस्टों ने अपने से अलग तंत्रों और व्यक्तियों को श्रेणीबद्ध करने के लिये अनेक शब्द गढ़े हैं जिनमें ‘प्रतिक्रियावादी’ भी एक है। उल्लेखनीय है कि भारतीय लोकतंत्र को माओवादी ‘प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी तंत्र’ भी कहते हैं। दलाई लामा के शासन को वे क्या कहते थे? ‘प्रतिक्रियावादी दलाई गुट’। दिमाग में घंटियाँ बजी कि नहीं?
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तिब्बती बौद्ध दर्शन की एक सोच
बोधि के त्रि रत्न
कू ( KU) – शरीर
संग (SUNG) – वाणी
थग (THUG) – मन
शरीर दैदीप्यमान प्रकाश है।
वाणी प्रार्थना है।
मन सब प्राणियों के लिये प्रेम से परिपूर्ण है।
हे बुद्ध! मैं अपने पूरे जीवनकाल में तुमसे साक्षात होती रहूँ।
मनसा, वाचा, कर्मणा शुचिता के भारतीय चिंतन को यह सोच विराट आयाम देती है। बर्बर दमन और सम्पूर्ण विनाश से इस सभ्यता को बचाना ही होगा।
अब इस सोच की सांगीतिक प्रस्तुति। हो सकता है आप को स्वर न जमें फिर भी परिवेश, लोक और दर्शन का ऐसा समन्वय बहुत कम दिखता है। देखिये, सुनिये और गुनिये: http://youtu.be/DPCkbfXtyQQ
बजी बहुत जोर से घंटी बजी | बढ़िया माल निकाल कर लाये |
जवाब देंहटाएंये सीरीज भी कमाल की है, काफी मेहनत कर रहे हैं लगता है इस पर |
बहुत ही सुन्दर गीत, पशु-पक्षी प्रकृति ही सबसे शानदार वाद्य यंत्र है ये गाना यही बता रहा है | कितना सुकून देता है ये संगीत |
और नक्शा तो "अखंड भारत" का यहाँ भी कईओं ने तैयार कर रखा है बस पावर में आने का इन्तेज़ार कर रहे हैं | ;-)
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जवाब देंहटाएंPS: गाने वाली भी गाँव की गोरी लग रही है, मुझे तो लगता है जैसे पहली नज़र में ही इससे प्यार हो गया है | फिर आवाज़ तो मीठी लगनी लाज़मी है ही |
जवाब देंहटाएंशक्तिशाली जो कहे वही सिद्धान्त बन जाता है, जब सिद्धान्त को शक्ति मिले तब भला होगा।
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार एवं खोजपूर्ण लेख । असली माल आज कल ब्लॉग्स पर ही मिलता है समाचार पत्रो में केवल मंहगी कारो के विज्ञापन छपते है ।
जवाब देंहटाएंकाफ़ी जानकारी मिली इस शोधपूर्ण आलेख से।
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार एवं खोजपूर्ण लेख|धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंचीन ने शायद ठेका लिया हुआ है - सब तरफ से अपना घर भरने में लगे हैं !! वैसे - हम लोग जहाँ रहते हैं - यहाँ से खनन कर कर के खूब आयरन ओर चीन जा रहा है - लोग कहते हैं कि कुछ सालों के बाद यहाँ की पूरी पहाड़ियां चीन पहुँच कर इमारतों या कारों में बदल जाएँगी - और शायद वे कारें भारत ही में बेचीं जायें!! वैसे - भारत एक ब्रिटिश "कोलोनी" था - अर्थात वाह जगह जहाँ से सस्ता "कच्चा माल" (raw material) खरीदा जाये और फिर महंगा "तैयार माल" (finished goods) बेचे जायें ... तो क्या हम फिर से एक कोलोनी बनते जा रहे है? - sell iron ore - and buy finished steel from china? इस mining पर एक लेख मैंने अपने हिंदी ब्लॉग पर पोस्ट किया है - आज ही ...
जवाब देंहटाएंजापान की बात तो समझ में आती है पर चीन को भी लोह अयस्क देना भारत की किस विवशता का परिणाम है ..पता नहीं .
जवाब देंहटाएंअरुणांचल प्रदेश खतरे में है .....निस्संदेह उसका अस्तित्व असुरक्षित है....और हमारी सरकार कहती है कि खतरे की कोई बात नहीं है. बृहत्तर भारत का स्वप्न तो दूर ....अभी जितना हाथ में है वह भी बचा रह सकेगा ...कुछ निश्चित नहीं. भारत की बिकाऊ सरकार और उसके सांसदों को वोट देने वाले मतदाता ..... नहीं-नहीं मैं भर्त्सना नहीं करूंगा उनकी .....वन्दना के पात्र हैं ये सब. जिस दिन अरुणांचल भी तिब्बत हो जाएगा उस दिन ........हाथ मलने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचेगा हमारे पास ........और उसके कारण होंगे यही वन्दनीय पात्र.
राजा जब भ्रष्ट हो जाय तो प्रजा और राज्य की सीमाएं .....सभी कुछ असुरक्षित हो जाते हैं. ड्रेगन के आतंक से बचने का कोई उपाय खोजना होगा भारतीय जनता को ...सरकार तो अपने अस्तित्व की रक्षा में ही चिंतित है...उससे क्या आशा की जाय ? गिरिजेश जी ने उस ज्वलंत विषय को उठाया है जिसके लिए सरकार को चिंतित होना और आवश्यक कदम उठाना चाहिए था.