रविवार, 8 मई 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (1)

पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात 
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन 
तिब्बत - क्षेपक 
अब आगे ...  



तिब्बत भूमि
तिब्बत क्षेत्र तीन प्रांतों आम्दो (Amdo), खाम (Kham) और सांग (U-Tsang) से मिल कर बनता है। यह तिब्बती भाषा बोलने वाले और अपनी पारम्परिक संस्कृति को जीने वाले लोगों का देश है। इसका क्षेत्रफल लगभग 25 लाख वर्ग किलोमीटर है जो भारत के क्षेत्रफल के दो तिहाई से भी अधिक है। समुद्र तल से इसकी औसत ऊँचाई 3650 मीटर है और यह चार पर्वतमालाओं हिमालय, काराकोरम, कुनलुन और अल्त्या-ताघ (Altya-tagh)  से घिरा हुआ है। पूर्व से पश्चिम की ओर इसकी लम्बाई 2500 किलोमीटर है। यह एशिया की कई महान नदियों जैसे यांग्त्सी, मीकोंग, ब्रह्मपुत्र और सालवीन का उद्गम क्षेत्र है। तिब्बत का बहुलांश निर्जन पर्वतीय और मैदानी जंगली क्षेत्र है जब कि अधिक उपजाऊ दक्षिणी क्षेत्र में खेती बाड़ी होती है जिसकी औसत ऊँचाई 4500 मीटर से घटती हुई 2700 मीटर तक आती है।
दूरवर्ती और अलहदा से क्षेत्र होने के कारण तिब्बत के पूर्वी और उत्तरी भागों में मुख्यत: चरवाहा और घुमंतू अर्थव्यवस्था विकसित हुई लेकिन नदी घाटियों और ऊष्णतर दक्षिणी क्षेत्रों में एक व्यवस्थित और व्यापक आधार वाली खेतिहर अर्थव्यवस्था का चलन हुआ।
तिब्बत को भारतीय परम्परा 'त्रिविष्टप' नाम से जानती है। कैलाश मानसरोवर और शंकर का स्थान होने के कारण यह पवित्र स्थल है
- आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामरिक हर दृष्टि से महत्त्वपूर्ण।  इन चित्रों में कैलाश पर्वत के ऊपर आकाशगंगा की दिव्य छटा
दर्शनीय है। प्रतीत होता है कि यायावर भागीरथ कैलाश तक पहुँचे होंगे और उन्हों ने यह दृश्य़ देख शंकर महादेव की जटाओं में नभ से
उतरती आकाशगंगा का मिथक देवसरि गंगा को मैदान में लाने के स्व-उद्यम को दैवी गरिमा देने के लिये गढ़ दिया होगा। 
चित्राभार और कॉपीराइट: www.availablelightimages.com   
तिब्बती जन
तिब्बती लोगों का मूल अज्ञात है लेकिन एच.ई. रिचर्डसन के अनुसार वैज्ञानिक तौर पर इन्हें चीनी नहीं कहा जा सकता और पिछ्ले दो हजार या उससे अधिक वर्षों से चीनी इन्हें अलग नृवंश का मानते आये हैं। सम्भवत: तिब्बती लोग ग़ैर-चीनी घुमंतू जनजाति चियांग (chiang) के वंशज हैं या पूर्ववर्ती यूराल-अल्ताइक (Ural-Altaic) जनजाति के। यह ध्यान देने योग्य है कि चीनी के विपरीत तिब्बती भाषा चित्रलिपिहीन भाषा है जो कि चीनी-थाई भाषा परिवार के बजाय तिब्बत-बर्मी भाषा परिवार से सम्बद्ध है।   

भू-उपयोग
1949 में चीनी आक्रमण के पहले तक तिब्बत में खेती और अन्न उत्पादन की विधियाँ संतुलन और सहज बुद्धि पर आधारित थीं। पाश्चात्य सोच आधारित प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध शोषण नहीं था और हाल के वर्षों तक तिब्बत में अकाल अज्ञात था। पहाड़ी क्षेत्रों में वनस्पतियाँ अत्यल्प हैं लेकिन तिब्बत के दक्षिण स्थित नदी घाटियों में तिब्बतियों के मुख्य भोजन जौ के अलावा मटर, बीन्स और फाफरा की अधिकायत में उपज होती है जहाँ भूमि के बड़े भाग उसकी उपज क्षमता बढ़ाने के लिये परती छोड़ दिये जाते थे।
तिब्बती समाज मूलत: घुमंतू था लेकिन शनै: शनै: एक ऐसी व्यवस्था में परिवर्तित होता गया जिसमें सकल भूमि तो राज्य की थी लेकिन टुकड़ों में इसका स्वामित्त्व सरकार, मठों और संभ्रांत वर्ग के पास बँटा था। किरायेदार किसान उन पर खेती करते थे जिनमें बहुतेरों की निष्ठा भूस्वामी से बँधी होती थी लेकिन उनकी भूस्वामी-करदाता सम्बन्ध की अनगिनत परिपाटियाँ कहीं से भी ‘भू-दासत्त्व’ या ‘दासत्त्व’ की अवधारणाओं से नहीं जुड़ती थीं।  अन्य बहुत सी जीवन शैलियाँ प्रचलित थीं जैसे – घुमंतू होना, व्यापार करना, अर्ध-घुमंतू होना, शिल्पकारी। खाम और अम्दो (पूर्वी तिब्बत) प्रांतों में जहाँ कुछ बड़े भू-एस्टेट पाये जाते थे और जहाँ कृषक स्वामित्त्व वाले बड़े खेत भी थे, व्यक्तिगत भूस्वामित्त्व वाले जन अधिक थे जो सीधे सरकार को कर देते थे।
कुछ का कहना है कि भूदासत्त्व और दासता जैसे शब्द चीनियों द्वारा तिब्बत पर 1949 से शुरू किये गये उनके सशस्त्र आक्रमणों और आधिपत्य को न्यायसंगत ठहराने के लिये गढ़े गये। चीनियों द्वारा भूदास बताई गई तिब्बती महिला डी चूडॉन, अपने स्वयं के लेखन से चीनियों के दावे को सन्दिग्ध बनाती हैं।  उनके लेखन से एक कमोबेश आत्मनिर्भर और आसान जीवनशैली का चित्र उभरता है। उन्हों ने लिखा है कि हमें अपने जीवनयापन में किसी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता था और हमारे इलाके में एक भी भिखारी नहीं था।              
बहुतेरों द्वारा तिब्बत पर चीनी शासन के प्रति सहानुभूति रखने वाला बताये गये सम्वाददाता क्रिस मुलिन द्वारा भी चूडॉन का लेखन पूर्णत: विश्वसनीय बताया गया है। तिब्बत गये विभिन्न यात्रियों जैसे मे, डेविड नील, जॉर्ज एन पेटरसन और हेनरिक हर्रेर ने भी चूडॉन के प्रेक्षण का सामान्यत: समर्थन किया है।

तिब्बत-चीन सम्बन्ध:
तिब्बत और चीन का सम्बन्ध दो हजार से भी अधिक वर्षों से है। लोगों को सामान्यत: यह पता नहीं है कि सातवीं सदी के तिब्बती सम्राट सोंग-त्सेन गाम्पो के शासनकाल में तिब्बतियों ने एक बहुत बड़ा साम्राज्य विकसित कर लिया था। यह साम्राज्य उत्तर में चीनी तुर्किस्तान तक एवं पश्चिम में मध्य एशिया तक और स्वयं चीन में भी फैला हुआ था। 763 ई. में तिब्बतियों ने तत्कालीन चीनी राजधानी सियान पर अधिकार कर लिया लेकिन दसवीं शताब्दी तक तिब्बती साम्राज्य ढह गया। फलत: तिब्बत की राजनैतिक सीमाओं के बाहर भी बहुत से तिब्बती बचे रह गये। अगले लगभग तीन सौ वर्षों तक चीन के साथ तिब्बत का सम्बन्ध अत्यल्प ही रहा।
चीनियों का यह दावा कि तिब्बत हमेशा से चीन का भाग रहा है, उस काल से उपजता है जब तिब्बत और चीन दोनों मंगोल साम्राज्य के अंग थे। बारहवीं शताब्दी में मंगोलों ने अपना प्रभाव बढ़ाना प्रारम्भ किया और अविजित रहते हुये भी तिब्बत ने 1207 में समर्पण कर दिया जब कि 1280 के आसपास चीन मंगोलों द्वारा रौंद दिया गया। मंगोल शासनकाल एकमात्र समय था जब चीन और तिब्बत दोनों एक ही राजनीतिक सत्ता के अधीन थे। तिब्बतियों ने स्वयं को 1358 में मंगोल आधिपत्य से मुक्त कर लिया। जब एक आंतरिक संघर्ष में चांगचुब ग्याल्तसेन ने साक्य मंत्री वांग्त्सन वांग्त्सेन से सत्ता छीन ली तो उसने मंगोलों से सारे सम्बन्ध समाप्त कर दिये और एक नये वंश फाग्मो द्रूपा की नींव डाली।
इस घटना के दस वर्ष बाद 1368 में चीनी मंगोलों को भगा पाये और उन्हों ने देसी ‘मिंग वंश’ की स्थापना की। ऐसा प्रतीत होता है कि तिब्बत पर अपना अधिकार जताते चीनियों ने उसी विस्तारवादी और साम्राज्यवादी मंगोल शासन से सीख ली जिसे उन्हों ने अंतत: उखाड़ फेंका था। कभी कभी यह कहा जाता है कि चीनियों के तर्क से तो भारत को भी बर्मा पर अपना दावा जताना चाहिये क्यों कि भारत और बर्मा दोनों कभी ब्रिटिश सत्ता के अधीन थे!
इतिहास के विरूपण की प्रवृत्ति परवर्ती मिंग और चंग वंश के समकालीन चीनी इतिहासकारों के लेखन में पाई जाती है जिन्हों ने तिब्बत को चीन का एक ‘अधीनस्थ सामन्त राज्य’ बताया है। ऐसे दावे इन तथ्यों के प्रकाश में परखे जाने चाहिये कि चीनियों ने समय समय पर हॉलैंड, पुर्तगाल, रूस, पोप तंत्र और ब्रिटेन पर भी उन्हें सहयोगी राज्य बताते हुये दावे जताये हैं।
-  चीन द्वारा ‘ऐतिहासिक विरूपण’ की समकालीन बातें
-  तिब्बत के भौगोलिक भाग और उनका चीनी विरूपण  
-  तिब्बत पर चीनियों द्वारा 1949 में सशस्त्र आक्रमण)
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तिब्बत का संगीत सुनिये - दृश्यावली के साथ


13 टिप्‍पणियां:

  1. मैक्लायडगंज में बसे तिब्बतियों की आँखों में झाकिये, शताब्दियों का इतिहास व्याकुल सा दीख जाता है।

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  2. तिब्बत को वाक़ी विश्व बर्मा की ही तरह भूल चुका है....

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  3. उल्लेखनीय है कि
    * जम्मू और कश्मीर के महाराजा की एक उपाधि "तिब्बत के सम्राट" भी थी।
    * उत्तरांचल, हिमाचल आदि के राजा, सामंत आदि भी बीच-बीच में तिब्बत पर चढाई करते रहे हैं। तिब्बतियों द्वारा सोने की गोली से मारे गये जनरल जोरावर सिंह की शौर्य गाथा का ज़िक्र "तावो" (शायद राहुल सांकृत्यायन कृत) में भी हुआ है।
    * एक समय में तिब्बत पर भूटान का भी आधिपत्य रहा है।

    ज़मीन के नैतिक-अनैतिक कब्ज़ेदारों की बात छोड दी जाये तो तिब्बत के बौद्धों व मुसलमानों के हृदय पर हमेशा बौद्ध संतों का ही राज्य रहा है। कम्युनिस्टों ने उनके शरीरों को भले ही पद-दलित किया हो, उनका मन कभी नहीं जीत सके।

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  4. आप का काम अनूठा और प्रशंसनीय है |
    चीन, तिब्बत और अन्य पूर्वोत्तर भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्र ऐसे विषय हैं जिन पर बहुत कम लिखा और पढ़ा गया है | फिलवक्त भारतीयों को पूर्वोत्तर भारत पर अधिक से अधिक लिखना और पढ़ना अत्यावश्यक है | भारतीय सुरक्षा और अलगाववाद के लिहाज़ से ये बहुत मत्वपूर्ण है | मुश्किल ये है कि हमारे देश में इन क्षेत्रों की संस्कृति और भाषा ज्ञान के जानकार न के बराबर हैं |

    Chennai Centre for China Studies organization इस बाबत कुछ प्रयास जरूर कर रहा हैं | इनके वेब पोर्टल इस बाबत कई बातें जानने को मिलती हैं | हालाँकि मुख्यत: इसका फोकस सुरक्षा मुद्दों पर है |

    http://www.c3sindia.org/


    आपके लेख और प्रयास के लिए एक बार फिर ताकतवर शुभकामनाये देता हूँ जिनके सिग्नल हवाई क्षेत्र में वीक नहीं होंगे और आपके प्रभामंडल तक जरूर पहुंचेंगे ऐसी उम्मीद है |

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  5. गीत को आपके ब्लॉग पर जगह देने के लिए धन्यवाद |

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  6. वाह जी आप ने तो तिब्बत के बारे खुब अच्छी जानकारी दी, धन्य्वाद

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  7. एक संग्रहणीय जानकारी से परिपूर्ण लेख माला ......

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  8. आपको धन्यवाद,इस पोस्ट में कई काम की जानकारी है.

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  9. बहुत सारी बातें पहली बार पता चल रही है. लगभग सारी बातें ही. लिखे जाइए.

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  10. अपनी विशद यात्राओं के दौरान मैंने मैक्लॉयड गँज,धर्मशाला में ठहर कर इनको और इनकी जीवनशैली देखी है ..... मनोहर, मानवीय मेघा की सँभावनाओं एवँ जिजीविषा से भरपूर.... दुबारा जाने की इच्छा है, उनका सम्पूर्ण रहन बड़ा रहस्यमय लगता है । आपकी आलेख ऋँखला मेरी ज़रूरत पूरी करती हुई सी लगती है । अनुराग शर्मा द्वारा दी जानकारियाँ भी मेरे लिये नयीं हैं । पृष्ठाँकित करने योग्य सँग्रहनीय आलेख प्रस्तुत करने के लिये बधाई स्वीकार करें ।

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  11. टिप्पणी बक्से में अपनी अनावश्यक हाज़िरी न लगाते हुये भी अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी ।

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  12. बड़ा पुनीत कार्य कर रहे हैं आप....

    साधुवाद...

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