“तुम किस्से गढ़ते हो, मेरी कहानी भी कहो न! उसे तो गढ़ना भी नहीं पड़ेगा।“
“यह तुम्हारी सीमा है कि तुम स्वयं नहीं कह पाओगे। उसके आगे तुम्हारा जोर नहीं। मैं तुम्हारी कहानी कहूँगा। तुम्हें मेरा कृतज्ञ होना चाहिये कि मैं तुम्हारी बात मान रहा हूँ।“
“मुझे तुमसे बोलना ही नहीं था।“
“गढ़ना आसान होता है और सच असम्भव।“
“सच तो सीधा सा होता है, बस कह दिया।“ “यहीं समस्या है। कहने वाले सीधे नहीं होते। वे तो कहते हैं कि सच जैसा कुछ होता ही नहीं। जानते हो समस्या क्या है? ....सीधे सादे लोग कहानियाँ नहीं कहते। कहने वाले हमेशा कुटिल और छलिया किस्म के लोग होते हैं। अंतस के स्याह को चाँदी के वर्क में लपेटते हैं और किसी सादी सी बात पर चिपका देते हैं। उसके पहले सादेपन को सोनापन दे चुके होते हैं।“
“अच्छा!” “हाँ, देखो न! आसमान लाल होता है। चिड़ियाँ चहकती हैं। सूरज उगता है। उजाला होता है। - अब ये कितनी सादी सी बात है, रोजमर्रा की। इस पर किसी सीधे सादे इन्सान ने कुछ कहा क्या? नहीं, लेकिन एक पंक्ति की इस बात पर पूरे संसार में एक लाख गीत कवितायें और साढ़े छप्पन हजार कहानियाँ और इतने ही मन्तर, संतर, टोटके वगैरह हैं। कुटिल प्राणियों ने जाने क्या क्या जाने कितने जतन से लिख मारा!”
“तुम इतने निश्चित कैसे हो? मेरा मतलब संख्याओं से हैं।“ “चूँकि मैं किस्से गढ़ता हूँ इसलिये निश्चित हूँ। तुम्हें भरोसा न हो तो गिन लो – ठीक उतनी ही गीत कवितायें वगैरह मिलेंगी।“
“तो मेरी कहानी नहीं कहोगे?” “ऐसा मैंने कब कहा? मैं तो बस तुम्हारी गढ़न वाली बात पर तुम्हें समझा रहा था।“
“तो मेरी कहानी बिना गढ़न के लिखना।“ “देखो! तुम्हें अपनी कहानी स्वयं नहीं पता। ऐसे समझो कि सुबह जब कलेवा कर काम पर निकलते हो तो क्या बात उतनी ही भर होती है? ... नहीं होती। अब जो तुमसे देखना बच गया है, वह मुझे कैसे दिखेगा? ... तो मैं गढ़ूँगा। बिना गढ़े कहानी नहीं कही जा सकती।“
“यह तो आसमान, चिड़ियाँ, सूरज और उजाले पर भी लागू होता है? फिर तुमने उन्हें सादी सी बात क्यों कहा?” “इसलिये कि तुम्हें समझाना था कि हम कैसे कहते हैं।“
“यह तो छल है।“ “एकदम। मैं यही तो कह रहा हूँ कि कहने वाले हमेशा कुटिल और छलिया किस्म के लोग होते हैं।“
“मुझे अपनी कहानी नहीं कहवानी।“ “यह तुम्हारी सीमा है कि तुम स्वयं नहीं कह पाओगे। उसके आगे तुम्हारा जोर नहीं। मैं तुम्हारी कहानी कहूँगा। तुम्हें मेरा कृतज्ञ होना चाहिये कि मैं तुम्हारी बात मान रहा हूँ।“
“मुझे तुमसे बोलना ही नहीं था।“
“वही तो! संसार में सब चुप हो जायँ तो कहानी कैसे कही जा सके? ... लेकिन वैसा होता कहाँ है? ...बोलना चुप रहने से अच्छा लगता है और कहना सुनने से। बस इसी में तो हम गढ़ने वालों की चाँदी है।”
सादी कहानियाँ भी गढ़े जाने के बाद विशेष हो जाती हैं, गढ़ा जाना आवश्यक हो जाता है।
जवाब देंहटाएंएक खोखलेपन को उजागर करते संवाद!! परमात्मा आपको परम आलस्य प्रदान करे!!
जवाब देंहटाएं“यह तुम्हारी सीमा है कि तुम स्वयं नहीं कह पाओगे। उसके आगे तुम्हारा जोर नहीं। मैं तुम्हारी कहानी कहूँगा। तुम्हें मेरा कृतज्ञ होना चाहिये कि मैं तुम्हारी बात मान रहा हूँ।“
जवाब देंहटाएंहरी अनंत हरी कथा अनंता
हा हा हा..एकदम सीधी सादी सच्ची बात।
जवाब देंहटाएंसंवाद शैली में आप मारूक हो जाते हैं हो , और प्रवाह तिस पर , उफ़्फ़ कतल का सामान हो जाता है । गज्जबे गज्जब रहा
जवाब देंहटाएंमुझे गढ़ना नहीं आता, फिर भी लोग शातिर कह देते है।
जवाब देंहटाएंपेंचो-खम भरी बातें.
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंछल पूर्वक गढ़ना अश्वत्थामा को हतने जैसा लोककल्याणकारी भी हो सकता है... यूँ ही छ्लते रहिए।
जवाब देंहटाएंthithurti sardi mein kambal se chhan chaan kar aati baatein
जवाब देंहटाएंवैसे कभी कभी वक़्त के साथ किरदारों के चरित्रों में भी परिवर्तन आ जाता है.......तुम्हे पढना हमेशा अच्छा लगता है
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंये गढ़न सदैव रहे! ऐसी ही।