शनिवार, 28 मई 2011

पराती

...यह भी जायेगा। 
किसी दिन तुम भी चले जाओगे और यह संसार चलता ही रहेगा। 

घिसी पिटी बात है-सड़ी हुई सी। जाने कितने समय से मनुष्यों की चेतना में मलबे सी दबी पड़ी है। अब तक तो इसे कम्पोस्ट हो कर उपयोगी की श्रेणी में आ जाना चाहिये था। लेकिन मुझे इससे दुर्गन्ध आती है। दुर्गन्ध सक्रियता का अनुभव कराती है। जताती है कि कुछ घटित हो रहा है लेकिन कब तक ऐसे ही चलता रहेगा?
  
यह सामान्य है। संसार केवल तुम्हारे लिये नहीं बना और न इसे बस तुम्हारे अनुसार होना है। तुम जिसे वांछनीय मानते हो, भवितव्य मानते हो, तार्किक परिणति कहते हो, हो सकता है वह और भी जनों के लिये सच हो लेकिन सब के लिये सच हो, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे समझो कि जो सबके लिये लागू हो वह सच नहीं होता। नहीं, ऐसे समझो। असल में उस तरह का सच नहीं होता जो सबके लिये सम हो। 

स्याद में न उलझाओ। मुझे लगता है कि मानव जीवन में 'विराम' जैसा कुछ होना ही नहीं चाहिये। उसी समय वह इस तरह सोचता है। हाड़ तोड़ शारीरिक श्रम करने के बाद गहरी नींद सोना, उठना और फिर काम में लग जाना ही अच्छा है। समय समय पर एकाध दिन का विराम समझ में आता है लेकिन विराम क्रमिक और नियमित हो जाय तो वृथा सोच उभरने लगती है। 

तुम फिर वही तर्क भूल कर रहे हो। सब तुम्हारी सोच की तरह नहीं हो सकता और न हो सकते हैं। जो है जिस तरह है वह तार्किक परिणति है। विराम है इसलिये श्रम है और इसलिये उठान की लगन है, उठान है। विराम न हो तो गति भी न हो।    

तर्क का नाम न लो। तर्क सबसे बड़ा धोखा है। तर्कशील होना और उसे झेलना सबसे बड़े छलावे हैं। ऐसा कोई भी तर्क नहीं जिसके ठीक उलट और उतना ही प्रबल कोई तर्क न हो। 

तर्क न सही, स्वभाव कह लो। स्वाभाविक परिणति। 

यह तो जो जिस तरह है, जैसा है, वैसे ही स्वीकारना हुआ। मेरा दाय क्या रहा? 

वही जो इस 'स्वभाव' के अनुसार तुम कर रहे हो या करते हो। 

मेरा नियंत्रण, मेरी इच्छायें, मेरी परिकल्पनायें ... इनका क्या? क्या मैं कुछ भी नहीं? 

तुम हो इसलिये संसार है। तुम तो सब कुछ हो। जिस दिन नहीं रहोगे, संसार भी नहीं रहेगा। 

पहले तुमने क्या कहा था? किसी दिन तुम भी चले जाओगे और यह संसार चलता ही रहेगा। अब उसके उलट बात क्यों?       

मैं तुम्हारी बात को ही पुख्ता कर रहा हूँ कि ऐसा कोई भी तर्क नहीं जिसके ठीक उलट और उतना ही प्रबल कोई तर्क न हो। 

घुमा फिरा कर वहीं के वहीं।

यह सहज है। संसार ऐसे ही प्रक्षेपित है। काल, दिनमान, स्थान, स्थावर, जंगम आदि सब इस आयाम में ऐसे ही हैं कि सब सम्मिलित हैं। स्वयं सोचो - क्या इसके अतिरिक्त कुछ हो सकता था? अतिरिक्त नहीं, इससे अलग कुछ हो सकता था क्या? 

तो तुम कहोगे कि विभिन्न समूहों में एक दूसरे को परास्त करने, अपना प्रभुत्त्व स्थापित करने और विपरीत का उन्मूलन करने की प्रवृत्ति भी सहज है, स्वाभाविक है। मैं कहूँगा कि असंगत है।

देखो, तुम्हारे शब्द सीमित हैं। सीमित अर्थ देते हैं। 'असंगत' को ही लो। तुम जो कहना चाह रहे हो वह उसको सम्प्रेषित नहीं करता बल्कि सामने वाले को उलझाता है। वह संगति क्या है या होनी चाहिये, इसमें उलझता है फिर 'अ' के लिये अपने निष्कर्ष का विलोम ढूँढ़ता है। अंतत: वह जो कुछ समझता है, वह वैसा नहीं होता जैसा तुम बताना चाह रहे थे। 

इस तरह से संवाद कभी नहीं हो सकता। 

हाँ, संवाद एक काल्पनिक अवधारणा है। आदर्श स्थिति जैसा कह सकते हो जिसके पास, बहुत पास तो पहुँचा जा सकता है लेकिन उसे पाया नहीं जा सकता। हर उठान के अंत में जो होने से, उठने से बचा रह जाता है; वह महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कथित सम्वाद का स्तर ऊँचा होता जाता है और पुन: पुन: वही प्रयास। वास्तव में तुम्हें लगता है कि तुम ऊँचे उठ रहे हो लेकिन ऊँचा और नीचा जैसा कुछ नहीं होता। जो होता है वह बस यही है कि उसे पाया नहीं जा सकता। 

तुम उलझा रहे हो। 

सही कहे। शब्दों और वाक्यों की सीमा है। मैं जो कहना चाह रहा हूँ, वह तुम्हें नहीं सम्प्रेषित कर पा रहा तो यह हमारी सीमायें नहीं, हमारी इन्द्रियों की सीमायें हैं। इनसे सम्वाद नहीं हो सकता। नहीं हो सकता तो हम दोनों अपने अपने सोच कवच में सिमटे रहेंगे। तुम्हें दुर्गन्ध आती रहेगी और मुझे कुछ भी अनुभव नहीं होता रहेगा। बात वहीं की वहीं। 

हद है! ऐसे ही रहें? 

यह बेचैनी तुम्हारी प्रकृति, परिवेश और तुम्हारी जीवन शैली से उपजी है। मैं यह भी कह सकता हूँ कि बेचैनी थी और है इसलिये तुम्हारी प्रकृति, परिवेश और जीवन शैली इस तरह हैं। तब भी तुम्हें समझा नहीं पाऊँगा। असल में हम जिस माध्यम का प्रयोग कर रहे हैं, वह इसके लिये बना ही नहीं। इसके लिये ध्वनि नहीं मौन माध्यम है। बाहर नहीं भीतर देखना है। स्वअस्तित्त्व में गोता लगाना है ताकि 'पर' से सम्वाद हो सके। सम्वाद शब्द भी त्रुटिपूर्ण है। इसमें ध्वनि की आहट है। सही तो सम्प्रेषण कहना होगा। कहना भी इसलिये कि अभी कोई और मार्ग नहीं। जब मौन होगे, गोते लगाओगे और द्रष्टा बनोगे तो कहने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी। कहना जो कि अभी अपर्याप्त है, तब निरर्थक हो जायेगा। अनुभूति। सम्प्रेषण। नहीं, वह भी नहीं। मौन, शून्य। 

तुम शून्य में मौन विचरते रहोगे और कोई तुम्हारा सिर काट कर ले जायेगा। 

हाँ, इस संसार में उसके लिये भी स्थान है। वह उसका गोता है। 

और तुम्हारी? कटते जाना? 

इसमें मेरी, तुम्हारी, उसकी जैसा कुछ नहीं। यह बस ऐसा है। स्वीकार से चेतना और चेतना से सिद्धि। सिद्धि अलगाव की नहीं, लगाव की। स्तर अलग अलग दिखते भर हैं, होते नहीं। दिखना भी संसार का सच है और कटना काटना भी। तुम अस्वीकार करो, स्वीकार करो, मौन रहो, कुछ भी करो। सबके लिये स्थान है। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या चुनते हो? विश्वास करो कि जो भी चुनोगे वह सच होगा लेकिन उसका ठीक उलट भी सच होगा। ऐसे में संसार में कुछ भी झूठ नहीं है। लेकिन जैसा कि तुमने ही कहा ...यह भी जायेगा।  

हाँ, किसी दिन तुम भी चले जाओगे और यह संसार चलता ही रहेगा।   

नहीं, तुम हो इसलिये संसार है। तुम तो सब कुछ हो। जिस दिन नहीं रहोगे, संसार भी नहीं रहेगा। 

हाँ, नहीं दोनों के लिये स्थान है।   

गुरुवार, 26 मई 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (4)

पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात image
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन
तिब्बत – क्षेपक
तिब्बत - चीखते अक्षर (1)
तिब्बत - चीखते अक्षर (2)
तिब्बत - चीखते अक्षर (3)
अब आगे ...


तिब्बती संस्कृति का नियोजित विनाश:
असल में चीनियों की भौतिकवादी विचारधारा के कारण तिब्बती संस्कृति का विनाश अवश्यम्भावी था। वे लोग धर्मसम्बन्धित किसी तरह की अभिव्यक्ति या प्रदर्शन को सह नहीं सकते थे। यह असहिष्णुता इस तथ्य के कारण और प्रबल हो जाती थी कि धर्म तिब्बती राष्ट्रीय पहचान से अलग नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा उनकी सोच चीन की उस वास्तविक दुखद स्थिति से प्रभावित थी जिसके अंतर्गत पीड़ित किसान वहाँ लगातार क्रूर भूस्वामियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे, जबकि तिब्बत के इतिहास में कभी भी किसानों के विद्रोह का कोई उल्लेख नहीं मिलता जिसका कुछ कारण जीवन पर बौद्ध धर्म का सम्पूर्ण प्रभाव था और यह तथ्य भी कि वृहत्तर मठों को छोड़ दें तो चीन जैसी निर्धनता और समृद्धि के अतिशय विभेद तिब्बत में नहीं थे। तिब्बत की जनसंख्या भी चीन की तुलना में बहुत कम थी और जनसंख्या घनत्त्व और अन्न उत्पादन में संतुलन की अवस्था को काफी हद तक प्राप्त कर लिया गया था।
इसके बावजूद चीनी लगभग प्रारम्भ से ही बैठकें करने लगे जिनमें वे तिब्बत की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को प्रयासपूर्वक कमजोर करने लगे। बहुत शीघ्र ही यह सब भयानक ‘थामजिंगों’ या ‘संघर्ष सत्रों’ में परिवर्धित हो गया जिनमें धार्मिक व्यक्तियों और स्थानीय नेताओं को पीटा जाता था, यातनायें दी जाती थीं और बाद में प्राय: उनके स्वजनों द्वारा ही उनकी हत्या करा दी जाती थी। उन्हें यह धमकी दी जाती थी कि यदि उन लोगों ने सहयोग नहीं किया तो उनकी भी वही दुर्गति होगी। बच्चों को जबरन उनके माँ बाप को गलियों में घसीटे जाते, पीटे जाते, पत्थर मारे जाते और अंतत: मार दिये जाते हुये देखने पर बाध्य किया जाता था। उनके माँ बाप के अपराध यही थे कि या तो उन लोगों ने पुरानी सरकारों के तहत काम किया था या वे युगों पुराने भूस्वामियों के वंशज थे।
चीनियों ने जान बूझ कर और नियोजित तरीके से तिब्बती मठों और मन्दिरों को डायनामाइट से उड़ाना प्रारम्भ कर दिया।
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उन्हें ध्वस्त करने के पहले विशेष रूप से बनाये गये चीनी दल बहुमूल्य धार्मिक वस्तुओं को छाँट कर बाहर निकाल लेते थे जिनमें से कई को अत्यावश्यक विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिये विदेशी बाजारों (विशेषकर हांगकांग और नेपाल) में बेच दिया गया। पुरानी धार्मिक कलाकृतियों, अमूल्य तिब्बती थंका (चित्र), कला संग्रह और मूर्तियों को या तो चीनियों द्वारा या उनके द्वारा आतंकित किये जाने के बाद उनकी बात मानते तिब्बतियों द्वारा टुकड़ा टुकड़ा कर नष्ट कर दिया गया। पवित्र मणि पत्थरों से टॉयलेट बनाये गये और जानबूझ कर पुराने मठ प्रांतरों में पशुवध केन्द्र खोले गये।


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पत्थरों पर बौद्ध लोग षडवर्णी महायानी मंत्र 'ओं मणि पद्मे हुम' उकेर देते हैं। वही मणि पत्थर कहलाता है। इस मन्त्र को अवलोकितेश्वर और उनकी अर्धांश मणिपद्म से सम्बन्धित माना जाता है।
बौद्ध धर्म में इसका वही स्थान है जो हिन्दुओं में ॐ या गायत्री मंत्र का। यह मंत्र तांत्रिक वामाचारी संकेत भी लिये हुये है। 
तिब्बती लिपि में कलात्मक रूप से पद्म(कमल) की पंखुड़ियों पर चित्रित मणि मंत्र। तिब्बती लिपि भारत की देन है। 
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_WenWu_2006_02_ILL_1        मणि पत्थरों पर उकेरे गये मंत्र स्पष्ट दिख रहे हैं। 
तिब्बत के सबसे पवित्र मन्दिर मठ जोखांग, ल्हासा को सूअरबाड़े के रूप में इस्तेमाल किया गया और पवित्र धर्मग्रंथों को खाद के साथ खेतों में जोत दिया गया।

तिब्बतियों के लिये यह सब एक आत्यंतिक सांस्कृतिक तबाही ही थी (है) जो उनकी समृद्ध और प्राचीन संस्कृति को लगातार और जानबूझ कर विनष्ट करने के लिये लाई गई थी। लॉवेल्ल थॉमस ने इस कृत्य को ... हमारे समय में एक देश, उसकी संस्कृति और उसके लोगों की सोद्देश्य और पैशाचिक हत्या का अभूतपूर्व आयोजन ... बताया है। ध्यान देने योग्य है कि इस तबाही का बहुलांश 1966-76 की सांस्कृतिक क्रान्ति के पहले घटित हुआ। चीनी सामान्य तौर पर यह जताते हैं कि तिब्बती संस्कृति का विनाश सांस्कृतिक क्रांति के समय पथभ्रष्ट ‘चार के गैंग’ के शासन काल में हुआ। किंतु ऐसा हरगिज नहीं लगता।
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उदाहरण के लिये देखें तो सांस्कृतिक क्रांति के प्रारम्भ के छ: वर्ष पहले ही 1959 के आते आते खाम(पूर्वी तिब्बत) के रुंगपत्सा क्षेत्र के 6 में से 5 बौद्ध मठ धराशायी किये जा चुके थे। बीस वर्षीय़ युद्ध के दौरान हुई लड़ाइयों में बमबारी के प्रत्यक्ष परिणाम स्वरूप कुछ मठ विनष्ट हुये लेकिन अधिकांश को सोच समझ कर सोद्देश्यपूर्ण तरीके से 1959-61 के दौरान लूटा गया और डायनामाइट से उड़ा दिया गया। ऐसे बहुत से तिब्बतियों ने जो इस समय तिब्बत में उपस्थित थे, इस बात की पुष्टि की है। न्यायविदों के अंतरराष्ट्रीय आयोग ने 1959 और 1960 में जारी अपने परिपत्रों में यह निष्कर्ष दिया कि तिब्बती जातीय नरसंहार झेल रहे थे।
(अगले अंक में - बीस वर्षीय युद्ध)

शनिवार, 21 मई 2011

तिब्बत : चीखते अक्षर (3)

yatana
पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात 
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन 
तिब्बत – क्षेपक 
तिब्बत - चीखते अक्षर (1)

तिब्बत - चीखते अक्षर (2)
अब आगे ... 



चीनियों ने यह भी दावा किया कि चीन पर आक्रमण हेतु विदेशी शक्तियाँ तिब्बत को शस्त्रास्त्र सज्जित कर रही थीं। वस्तुत: तिब्बत में पश्चिमी जगत के बहुत कम नागरिक थे और तिब्बतियों को प्रधानमंत्री नेहरू वाली नवगठित  स्वतंत्र (भारत) सरकार द्वारा अत्यल्प शस्त्रास्त्र मुहैया कराये गये थे। नेहरू तब तक शांत और प्राय: असुरक्षित रही उत्तरी सीमा को लेकर पहले से ही सशंकित थे। इसके अलावा, तिब्बती सेना छोटी और साधन विपन्न थी जिसका सुप्रशिक्षित और साधन सम्पन्न चीनी सेना के सेनानायकों से कोई मेल नहीं था। पुरानी ब्रिटिश सरकार की ही तरह भारत सरकार तिब्बत के ऊपर चीन की कुछ सामान्य सी दावेदारियों को मान्यता देने को तैयार थी लेकिन उसने यह स्पष्ट कर दिया था कि तिब्बत की स्वायत्तता एक सत्य है। चीनियों ने निरंतर बढ़ते तनाव को कम करने के लिये भारत द्वारा दिये गये सारे सुझावों को तत्परतापूर्वक नकार दिया और उनकी विजयी सेना आगे बढ़ती रही।
  
7 अक्टूबर 1950 को तब तक बहुत बढ़ चुकी चीनी सेना ने तिब्बती बलों के विरुद्ध द्राइ-चू (यांग्ट्सी नदी) के पार दुतरफा मोर्चा खोल दिया। बारह दिनों के भयानक युद्ध के पश्चात 19 अक्टूबर 1950 को तिब्बती बल पूर्वी तिब्बत के राज्य मुख्यालय चाम्दो को छोड़ने को बाध्य कर दिये गये। 23 मई 1951 को 17 सूत्री समझौता सम्पन्न हुआ।
तिब्बती प्रतिनिधियों से यह कहा गया कि या तो उस पर हस्ताक्षर करें या आक्रमण का सामना करने के लिये तैयार रहें। सामान्यत: किसी भी तिब्बती प्रतिनिधिमंडल द्वारा कोई राजनीतिक समझौता बिना दलाई लामा की आधिकारिक मुहर के बिना नहीं किया जा सकता था लेकिन चीनियों ने मुहर लगे फर्जी कागजात प्रस्तुत कर दिये जिन्हें पीकिंग में गढ़ा गया था। समझौते के लिये उनका ही उपयोग किया गया।

और बातों के अलावा 17 सूत्री समझौते में इन बातों को मानने और सम्मान देने की प्रतिज्ञा की गई थी – धार्मिक विश्वास और तिब्बतियों के रीति रिवाज, उनकी उस समय जारी राजनीतिक व्यवस्था, बौद्ध मठ, मौखिक और लिखित तिब्बती भाषा और तिब्बती राष्ट्रीयता के विकास के लिये स्कूली शिक्षा तंत्र। आगे के वर्षों में चीन द्वारा इन सारी प्रतिज्ञाओं और वादों को भुला दिया गया, तोड़ दिया गया।

निश्चित रूप से यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि एक समय जब समस्त भूमंडल का एक बड़ा भाग औपनिवेशिक सत्ता की दासता में था, तिब्बत उन पहले देशों में था जिन्हों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित की और एक मृत साम्राज्यवादी शक्ति के प्रसारवादी छ्ल छ्द्म का प्रतिकार किया। यह दुखद भी है कि उस समय जब कि बहुतेरे देश अपने को विदेशी दासता से मुक्त कर रहे थे, तिब्बत को बलपूर्वक कथित रूप से ‘एक बड़ी मातृभूमि’ कहे जाने वाले चीनी राज्य के द्वारा निगला जा रहा था। चीनी एक ओर तो संसार के विभिन्न भागों में जारी मुक्ति संघर्षों की प्रशंसा करते रहे तो दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जनमतसंग्रह द्वारा अपनी नियति का निर्णय स्वयं करने की तिब्बत के भीतर और बाहर दोनों ओर से उठी तिब्बती माँगों को नकारते रहे।

तिब्बती बौद्ध संस्कृति
          
सातवीं सदी में तिब्बत में सर्व महत्त्वपूर्ण बौद्ध धर्म की स्थापना का श्रेय राजा सोंग-त्सेन गाम्पो को जाता है। तिब्बत में बौद्ध धर्म भारत की स्वात घाटी से पहुँचा और उन लोगों ने उसी समय अपनी भाषा के लिये लिपि को भी भारत से प्राप्त किया। प्राय: चीनी इस तथ्य को बताते हुये कि राजा गाम्पो की चीनी रानी अपने साथ बुद्ध की एक प्रतिमा लेकर आई थी जिसे आज भी तिब्बत में पूजा जाता है, यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि तिब्बत में बौद्ध धर्म चीन से पहुँचा। वे सामान्यत: यह नहीं बताते कि चीनी राजकुमारी को चीन पर तिब्बती विजयों के दौरान एक भेंट के रूप में दिया गया था (सोंग-त्सेन गाम्पो की चार और रानियाँ थीं जिनमें एक नेपाली थी और तीन तिब्बती)। इसके अलावा, सन् 792 के वृहद शास्त्रार्थ में भारतीय बौद्ध विद्वानों ने यह स्थापित करते हुये कि तिब्बत का बौद्ध धर्म मूलत: भारतीय था, चीनी विद्वानों को हरा दिया था।

 तिब्बत के देसी धर्म बोन के अनुयायियों द्वारा कई बार विनाश के बाद दसवीं सदी के दौरान 1042 में भारत से तिब्बत पहुँचे महान आचार्य अतिशा के नेतृत्त्व में वहाँ बौद्ध धर्म की दूसरी लहर पहुँची। (हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान और इस्लामी आक्रमणों के कारण बौद्ध धर्म अपनी मूल धरती से बहुत तेजी से विलुप्त हो रहा था) अपनी अलग पहचान को कायम रखते हुये तिब्बती बौद्ध धर्म ने बोन धर्म के कुछ प्रतीकों और ध्यान पद्धतियों को अपने में समाहित कर लिया जिनमें से कुछ आत्मनिरीक्षण पद्धतियाँ तो हजारो वर्ष पुरानी थीं। बोन धर्म की क्रूर बलि प्रथायें समाप्त हो गईं।  शनै: शनै: बौद्ध धर्म समस्त तिब्बतियों के जीवन में यूँ भीन गया कि आज उसके प्रभाव को अपेक्षाकृत सेकुलर संस्कृतियाँ समझने में कठिनाई का अनुभव करती हैं। तिब्बती तंत्रमार्गी बौद्ध धर्म ने असाधारण शक्ति और गहनता वाली एक धार्मिक कला का विकास किया जिसके कुछ तत्त्व इस तरह अभिकल्पित थे कि उन्हें आधार मान कर ध्यानस्थ होने पर चेतना की निश्चित अवस्थाओं की सर्जना की जा सकती थी। काष्ठ-कार्विंग और धातुकर्म में महान दक्षता प्राप्त कर ली गई जिसका अधिकांश धार्मिक विधि विधानों से सम्बन्धित था।
          
धीरे धीरे बौद्ध मठों और मन्दिरों के निर्माण बढ़ते गये और वे हर गाँव कस्बे में रहवासी भिक्षुओं के साथ पाये जाने लगे। साधारण तिब्बती घरों में भी उनकी स्वयं की वेदियाँ और बुद्ध प्रतिमायें होती थीं। पन्दहवीं शताब्दी में मठ नगर की तरह प्रतीत होते वृहदाकार मठ जैसे शिगात्से के पास ताशिलुन्पो, द्रेपुंग, सेरा, गादेन आदि ल्हासा में बनवाये गये। तिब्बती बौद्ध धर्म चार मुख्य परम्पराओं में विभक्त हो गया, हर एक के अपने अनूठे जटिल ‘कुल’ थे जो पीढ़ियों के बीच लिखित और मौखिक दोनों शिक्षाओं की प्रवाह निरंतरता को सुनिश्चित रखते थे। हर परम्परा के अपने मठ थे जिनका मुखिया एक अवतारी लामा होता था जो वर्षों के कठिन मानसिक प्रशिक्षण और अध्ययन के पश्चात बोधि प्राप्त कर चुका होता था। सोलहवीं शताब्दी में तिब्बती सरकार के आधिभौतिक और आध्यात्मिक दोनों पहलू राज्य और धर्म दोनों की अभिन्नता को रूपायित करती दलाई लामा नामक संस्था में अधिस्थापित हो गये।  वर्तमान दलाई लामा, तेन्ज़िन ग्यात्सो, इस परम्परा के चौदहवें लामा हैं। शताब्दियों के दौरान तिब्बती राष्ट्रीय पहचान उनकी धार्मिक पहचान से अभिन्न हो गई और ऊपर से लेकर नीचे तक तिब्बती समाज का हर भाग बौद्ध लोककथाओं और शिक्षाओं से संतृप्त होता गया। बौद्ध धर्म उनके जीवन, उनके पर्व और छुट्टियों, उनके काम और उनकी पारिवारिक गतिविधियों आदि सबको संचालित करता था। सन् 1950 में बड़े छोटे मिला कर लगभग 8000 बौद्ध मठ और मन्दिर पूरे तिब्बत में फैले थे जिनमें 600,000 भिक्षु रहते थे।
(अगले अंक में तिब्बती संस्कृति का नियोजित विनाश)
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अब सुनिये तिब्बती बौद्ध संस्कृति पर भारतीय प्रभाव का एक उदाहरण:

मी ऊइ (Imee Ooi) द्वारा बौद्ध प्रज्ञा पारमिता हृदय सूत्र का संस्कृत उच्चार 

(उल्लेखनीय है कि चीनी प्रचार तंत्र इतना प्रबल है कि स्वयं इमी ऊइ एक अलबम Jewel of Tibet पर काम कर रही हैं जिसकी थीम तांग वंश की चीनी राजकुमारी द्वारा तिब्बती राजा से विवाह कर के कथित रूप से बौद्ध धर्म को तिब्बत लाने पर आधारित है। यह दर्शाता है कि ऊपर से निर्दोष दिखने वाले सांस्कृतिक प्रयासों में कितनी कूटनीति छिपी हुई है और किस तरह से असत्य को प्रतिष्ठित किया जाता है।)
    



गाये गये हृदय सूत्र का मूल नीचे दे रहा हूँ। उत्सुकता हुई तो ढूँढ़ कर इसे यहाँ लगाया।  संगीत में व्यवस्थित करने के लिये अनावश्यक सम्वाद सम्बोधन कारक छोड़ दिये गये हैं। तिब्बती संगीत की ताल पर संस्कृत सुनना रोचक है।


सम्पूर्ण पाठ यहाँ देखा जा सकता है - http://www.dmes.org/pdfs/Sanskrit04-HeartSutra-deva-trans.pdf

गुरुवार, 19 मई 2011

तुम्हें नमन है आदित्य!

बन्द गवाक्षों में सागौन से घिरे क्षीण स्फटिक पल्ले हैं। उनसे झाँकता आसमान कुछ कम नीला है।नीचे धरा की लहलहाती चूनर। कोप प्रदर्शन के पहले की शांति? नहीं। दधि अच्छी नहीं बनी तो क्रोध में निकाल निकाल फेंक दिया।  आसमान में यत्र तत्र श्वेत बादलों के टुकड़े हैं और नीचे शांति। खगरव आज बहुत कम है। 
समीर कैसा है? घावों के दाह को कोई फूँक फूँक शमित कर रहा है। रह रह झोंके। छींकें, छींकें... भीतर बन्द रहने को अभिशप्त फिर भी घाव पर रह रह फूँक। बुदबुदाते नाना, आदिम मंत्र पढ़ते, चेहरे पर फूँक मारते नाना। देवमन्दिर में प्रकाश नहीं है। आज आराधना नहीं। आने दो छींक को। 
नभ को तज कर गायत्री उद्धत विश्व के मित्र के पास कैसे आई होगी? बस चौबीस पगों में अनंत की दूरी पार कर ली!
विश्वामित्र! कितना अधैर्य, कितनी प्रतीक्षा, कितनी करुणा रही होगी तुम्हारी पुकार में!! उस दिन खगरव अवश्य शून्य रहा होगा। धरा उस दिन भी रूठी रही होगी।  ऋचा गायन छोड़ दधि बिलोने में लग गई होगी।
बिजली चली गई। यहाँ कम ही जाती है। आँधी आयेगी क्या? उपासना स्थल चुप हो गये हैं। उनसे पराती की टेर कराने वाले ठीकेदार तो अभी सोये होंगे या कहीं निपट रहे होंगे। हाइवे पर टें, टाँ, पों, पा वैसे ही है और कबाड़ी की पुकार भी। लेकिन उन्हें अनुभव करने को प्रयास करना पड़ता है। शांति इतनी प्रबल भी हो सकती है। ध्वनियाँ होकर भी नहीं हैं।
 ऐसे में प्रार्थना गाने को मन करता है।
 क्या गाऊँ? 
खेळ चाललासे माझ्या पूर्वसंचिताचा, 
पराधीन आहे जगतीं पुत्र मानवाचा? 
या 
अमृतस्य पुत्रा:..
सब दूसरों के स्वर हैं। मुझे तो अपने स्वरों में गाना है।
बिजली आ गई है। छत पर समीर से भेंट कर लूँ। दधि टुकड़े नील श्वेत में लुप्त से होने लगे हैं। 
आ पहुँचे आदित्य! आज मंगल गायन करती ऊषा नहीं आई, क्यों? अरुण तो अब भी साथ है।  


तुम आये हो और चीं, चीं, टीं, टीं, टू, पुं पुन,ट्यों,ट्यों, पीं, पीं सुनाई देने लगी हैं। इनसे गीत सीख लूँ? गीत सीखना पड़ता है? तुम ऐसा नहीं कह सकते। मुझे ऐसी आस नहीं। 
मेरी ओर देखो आदित्य!
 बाबा घहर रहे हैं - घह घह घह घहा घह घह घहा।
 आँधी नहीं आ रही। 
दधि के टुकड़ों से  समीर तृप्त हो डकारे ले रहा है। उसका स्वर ऐसा ही होता है। 
यह मेरे बाबा की घहरन नहीं है?
मेरी ओर देखो आदित्य! गाने को मन है। 
मेरी ओर देखो आदित्य! बताओ न क्या गाऊँ? 
मेरी ओर देखो आदित्य! बताओ न स्वर कैसे फूटते हैं? 
मेरी ओर देखो आदित्य! बताओ न गायत्री किसी पर कैसे मुग्ध होती है? 
नहीं बोलोगे? तुम्हें बन्दी बना लूँ? 

गायन के स्वर भीतर बन्द हैं, किसी दिन गा भी लूँगा। कितने ही कल्प बचे हैं! 
अभी तो बस तुम्हें नमन है आदित्य! मेरे संगीत को स्फुटन दो।
तुमसे प्रार्थना है -   
छल, छ्द्म, अत्याचार, घात, प्रतिघात, नैराश्य, क्लैव्य, दैन्य, आलस्य शमित रहें। 
आज दिन शुभ हो। तुम्हें नमन है आदित्य!           

सोमवार, 16 मई 2011

टोटका

पूनम के एक दिन पहले रात की बात।
चन्द्र किरणों को पकड़ आँगन की ग्रिल जाली से स्वयं को खंड खंड करता वह उतरा है। डाइनिंग टेबल के पास खड़ा बस मुझे घूरे जा रहा है। 
इस अन्धेरे में सिर्फ स्क्रीन की रोशनी में लिखने को आतुर मेरी अंगुलियों को उसकी दृष्टि भेदती है। मुझे खीझ होती है, वैसी ही खीझ जो कल्पित प्रेमिका के कुंतल केश रचते समय पत्नी की बाल झड़ने की शिकायतों से होती है - अरे बाबा! यही समय मिला है? केश इतने दिन कायम रहे यही क्या कम है? तुम्हारी रसोई के भोजन से नहीं, माँ के दुलार से नहीं; इन्हें रोज खिंचते रहने के कारण मजबूती मिली। अब उन कसाइयों को इन्हें खींचने में मज़ा नहीं आता। उन्हें नई उम्र के होनहार वीरवान मिल गये हैं जिनके केशों से पसीना नहीं लाल पानी टपकता है। खींचना छोड़ दिया तो इनकी मजबूती भी जाती रही। अब तो गिरने ही हैं।
 नहीं, बाप का नाम न लेना, वह तो पैदाइशी खल्वाट था। 
मुझे अपनी खीझ पर हँसी आती है। इस अन्धेरे में अंगुलियों से उसकी दृष्टि की राह का पता कैसे चला? हर राह उजली नहीं होती और आँगन में उतरती हर धूप में ब्राउनियन नन्हें धूल लल्ले लुकाछिपी नहीं खेलते। 
परदे की झलझल के पीछे वह खड़ा मेरे ऊपर मुस्कुरा रहा है क्या? चाँदनी रात में धूप की बातें करता है! 
सुनो! आज तुम्हारे ऑफिस में फिर एक हत्या हुई - स्वामीनाथन ने उस पेपर पर दस्तखत कर दिये। अब उसके दिल से टपकते लहू से सैकड़ो रक्तबीज पैदा होंगे जो तुम जैसे बिलबिलाते नपुंसकों का डिनर करेंगे। 
सुनो! आज फिर बलात्कार हुआ। बगल के ऑफिस में वह श्यामजी है न? उसकी बॉस, अरे वही तुम्हारी लंच टाइमपास वाली, ने उसके करिअर पर रेड लगा दिया। अब तीन साल तक कोई आस नहीं। नौकरी भी नहीं छोड़ सकता। क्या जाता उसकी बीवी का जो बॉस की बात मान लेता? उसका भी कुछ नहीं बिगड़ता। अच्छी भली तो है उसकी बॉस - महँगे परफ्यूम, गोरा नूरेचश्म चेहरा और स्लिम भी।...उसकी बकबक से अधिक जहरीली उसकी मुस्कान है। दाँत अन्धेरे में चमकते हैं।  
मैं उसे गाँ_ गाली कहते झपटा हूँ। असल में मैं ऐसी गाली दे ही नहीं पाता जिसमें स्त्री की मर्यादा,चाहे वह कितनी ही कल्पित दूर के रिश्ते वाली ही क्यों न हो, लांछित होती हो। 
पक्के मर्दवादी हो तुम! बलात्कार के मायने ही बदल दिये! 
संस्कृत पढ़ो बच्चे! संस्कृत।
देखो, आजकल मैं बहुत कष्ट में हूँ।
क्यों बवासीर टभक रही है क्या? सरदार वाला जोक सुनाऊँ क्या? 
चोप्प! जाने कितने डेसिबल का शोर हुआ है! 
भक्क! ट्यूब लाइट भक्क से जल गई है। 
सो क्यों नहीं जाते? इतनी रात गये ऐसे चिल्ला रहे हो! ऐसा तो शराबी भी नहीं करते। 
मैं फुसफुसाया हूँ - धीरे बोलो। लॉन के बोगेनबिलिया के पीछे सिमटी पँड़ुकी जाग जायेगी। तुम्हारा पानी रखने का सारा पुण्य़ सुर्रss से चन्दा की ओर चला जायेगा।
पत्नी ने उसे देख लिया है। उसकी आँखें फट गई हैं। झाँकती सफेदी नीली पुतलियों को घेरे में ले चुकी है। किसी हॉरर फिल्म की चुड़ैल सी है यह औरत! नीली आँखें नींद का सुकून नहीं देतीं। हमेशा उजाले की खोज में रहती हैं। लो हो गईं न सफेद अब। अब तो जाओ मेरी अम्मा! 
उसके होठों से लहू टपक रहा है। होठ दाँतों से घायल कर ली है या किसी का ...लेकिन इसके केनाइन दाँत तो हैं ही नहीं! जाओ, सो जाओ मेरी अम्मा! उजाले में अभी बहुत देर है। 
उसने मेरी पत्नी का आँचल खींचा है। 
हरामखोर! क्या कर रहा है बे? 
मैं तुमसे अलग नहीं, तुम ही हूँ। 
खटाक! 
पत्नी ने बेडरूम में घुस कर दरवाजा बन्द कर लिया है। उसकी हाँफ से लैपी की स्क्रीन तक काँप रही है।    
मेरी ओर देखो! 
रुको, लाइट तो बन्द कर दूँ।
खट्ट! धुप्प! अन्धेरा। धुप्प नहीं, चाँदनीबाज अन्धेरा।
जैसा कि मैंने कहा, मैं तुम ही हूँ। 
मुझे सीजोफ्रेनिया का मरीज समझा है क्या? 
नहीं स्प्लिट पर्सनॉलिटी - उसकी बरौनियाँ नीली सी झलक दे रही व्यंग्य टीप रही हैं। 
ये लिखना, पढ़ना छोड़ दो। 
क्यों? 
मुझे डर है कि तुम्हारी एक दिन फिर से हत्या हो जायेगी। अधूरा कहा - बलात्कार के बाद से हत्या हो जायेगी। 
फिर से? 
हाँ, फिर से। तुमने लिखना कब शुरू किया था? अपनी हत्या के अगले ही दिन न? क्या लिखा था तूने पहली बार? हवाओं पर रेंगती आवाजों की दास्तान। तब जब कि तुम्हारी ही आवाज दफन कर दी गई थी। 
तुम्हारे दिल को तन्दूर में तब तक रोस्ट किया गया था जब तक कि उसकी धड़कनों के सारे निशान उनके नथुनों में खुशबू बन कर नहीं समा गये। 
कायर हो तुम! अपने को उस फाइल के क्लिपों में उलझा कर सील नहीं किये होते तो यूँ बकवासें टाइप करने की जरूरत न होती। 
कहना क्या चाहते हो तुम? हत्या के बाद मैं कर भी क्या सकता था? 
वही जो अब कर रहे हो। 

जी रहे हो-अक्षरों की दुनिया में। ये जो रोज रोज लिख कर जाने किनके लिये भेज देते हो, उससे क्या हासिल? पहले की तरह जियो न। हत्या तो इसलिये हुई कि तुमने मान ली। आज इनकार कर दो तो फिर जी उठोगे। 
तुम मुझे उलझा रहे हो। जीने का अर्थ है - मृत्यु के लिये तैयार होना। 
वही तो कह रहा हूँ। मर कर भी तुम पर क़त्ल हो जाने का खतरा है। ईमान छोड़ देने पर भी बलात्कार का खतरा है। तो वापस पहले जैसे ही क्यों नहीं हो जाते? 
तुम क्या सचमुच में मैं ही हूँ? 
हाँ।
तो क्या करना चाहिये? 
कल पूनम है। जागो। कमरे में नहीं, छत पर। चाँदनी के नीचे। नीचे विट्रीफाइड सफेदी में पीलाई होगी। अन्धेरे आकाश से नीलाई झाँकेगी जिसे देखने को आँखें फाड़नी पड़ेंगी। आसमान कभी फटता तो नहीं लेकिन उसके पीछे नूर दिखेगा - चुड़ैल नहीं। अपने को उसके हवाले कर देना। ऐसे भी तुम्हारे पास बचा ही क्या है? उसके जैसी थेथर बेहया है जो तुम्हारा साथ निभाये जा रही है। 
कुछ समझ में नहीं आया...केश तो तब भी झरते रहेंगे। 
जब अपना न चलता हो तो कभी दूसरों का भी चला लेना चाहिये। तुम जैसे टोटके से ही ठीक होते हैं। टोटका है यह - तुम्हें सौ टका टकाटक करने के लिये। उसके बाद मुझे इस तरह खुद को ग्रिल से काट कर और बीमार किरणों की मवादी मदद ले तुमसे मिलने नहीं आना पड़ेगा। 
क्यों? 
"तुम जी उठे रहोगे।" 
टोटके से? 
नहीं...जान कर क्या कर लोगे?      

शुक्रवार, 13 मई 2011

तिब्बत : चीखते अक्षर (2)

yatanaपूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन
तिब्बत – क्षेपक
तिब्बत - चीखते अक्षर (1)
अब आगे ...


सम्राट कांग ह्सी (K’ang Hsi), जो कि चीनी न होकर एक मध्य एशियाई था, द्वारा सन् 1720 में तिब्बती मामलों में किये गये हस्तक्षेप के आधार पर चीन द्वारा तिब्बत पर आगे के दावे किये गये हैं। तिब्बत पर तथाकथित दो सौ वर्षों का चीनी आधिपत्य इसी शासक की देन है। सैन्य विजयों और बलात कूटनीति के द्वारा इसी काल में चीनियों ने पूर्वी तिब्बत विशेषकर खाम और आम्दो पर मामूली नियंत्रण कर लिया। इन क्षेत्रों लगभग पूरी तरह से तिब्बती मूल निवासी ही रह रहे थे। इन क्षेत्रों के बड़े भागओं पर तिब्बतियों ने 1865 में पुन: अधिकार कर लिया। ये क्षेत्र 1911/12 में पुन: चीनी आधिपत्य के शिकार हुये लेकिन लम्बे और अति वीभत्स लड़ाई के बाद तिब्बतियों ने उन्हें फिर से कुछ ही वर्षों में वापस भगा दिया। इसके पहले सन् 1790 में चीनियों ने पुन: हस्तक्षेप किया था जब चीनी राजप्रतिनिधियों (अम्बान) ने तिब्बती राजधानी ल्हासा में अपना निवास बनाया। लेकिन उनकी शक्ति बहुत तेजी से समाप्त हो गई।
प्रख्यात तिब्बती विद्वान प्रोफेसर डेविड स्नेल्लग्रोव ने वैज्ञानिक बौद्ध संगठन को प्रेषित अपनी समीक्षा यह में लिखा:
पुराने अधिकार के तर्क के आधार पर तो ब्रिटिश सत्ता को कभी भारत एवं दक्षिणी आयरलैंड से नहीं जाना चाहिये था और फ्रांसीसियों को उत्तरी अफ्रीका को कभी नहीं छोड़ना चाहिये था।
प्रोफेसर ने तिब्बत-चीन और आयरलैंड-ब्रिटेन सम्बन्धों में कई असाधारण समानतायें भी दर्शाईं। तिब्बती मामलों के ऐतिहासिक तथ्य एक नैराश्यपूर्ण लेकिन परिचित सचाई को स्पष्ट करते हैं, वह है बड़ी सत्ता का छोटी सत्ता के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप।
तिब्बती मामलों में जिस एक और साम्राज्यवादी शक्ति ने हस्तक्षेप किये, वह थी – ब्रिटिश सत्ता। अट्ठारहवीं सदी के दूसरे अर्धांश में हिमालय से लगे क्षेत्रों में ब्रिटिश प्रभुत्त्व फैलने लगा। 1904 के यंगहसबैंड अभियान के अलावा 3200 किमी. लम्बी भारत-तिब्बत सीमा कमोबेश शांत रही। सीमा के दोनों ओर सेनाओं की तैनाती बहुत कम थी। ऐसा लगता है कि ब्रिटिश साम्राज्य के कई अफसरों ने तिब्बत पर चीनी दावे की किंकर्तव्यविमूढ़ अभिस्वीकृतियाँ दी हैं। हालाँकि 19 वीं सदी के अंत में चीन के साथ विभिन्न सामरिक और व्यापारिक समझौतों के दौरान उन्हें लग गया कि तिब्बती विरोध के कारण ऐसे समझौते लागू नहीं किये जा सकते। उन्हें इसका पता लग गया कि चीन चाहे जो कहे, उसका तिब्बत में प्रभाव बहुत ही सीमित था।
map
चीनी जब 'तिब्बत' कहते हैं तो उनके मायने कथित 'तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र' से होते हैं। चीनियों द्वारा यह तिब्बत पुराने 1950 के तिब्बत की तुलना में बहुत छोटा कर दिया गया है। पुराना तिब्बती प्रांत खाम कमोबेश चीनी प्रांतों जेचुआ ( Szechaun) और युनान (Yunan) में मिला दिया गया है। चीनी तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र में तिब्बतियों की जनसंख्या मात्र बीस लाख बताते हैं जब कि इस क्षेत्र के बाहर भी पूर्वी तिब्बत प्रांतों खाम और आम्दो में तिब्बतियों की भारी संख्या रहती है।   
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में चीन और तिब्बत के सम्बन्ध खराब होते गये। आशिंक रूप से ऐसा सम्भावित रूसी प्रभाव को रोकने के मद्देनजर 1904 में ल्हासा भेजे गये ब्रिटिश साम्राज्यवादी अभियान के कारण हुआ। ब्रिटिश अभियान ने वह असन्तुलनकारी प्रभाव छोड़ा जिसका एक मुख्य परिणाम तिब्बत और चीन के बीच बढ़ी शत्रुता के रूप में आया। चीनियों द्वारा 1909 में अधिकृत किये गये पूर्वी तिब्बती क्षेत्रों खाम और आम्दो में जब जनसामान्य विद्रोह उठ खड़ा हुआ तो 1910 के फरवरी में चीनी जनरल चाओ ह्र-फंग की सेनाओं ने ल्हासा में प्रवेश किया और विद्रोह का बर्बर दमन किया। चीनी जनरल स्वयं चाम्दो में ही रहा। उसकी सेना में चीनी और मंचू सैनिकों के बीच गहरे तनाव थे जो 1911 में मंचू वंश के पतन के पश्चात खुले आपसी संघर्ष में परिणत हो गये। कोई सैन्य सहायता न होने पर भी तिब्बतियों ने चीनियों को उखाड़ फेंका और चीनी जनरल द्वारा अधिकृत अधिकांश क्षेत्र वापस ले लिये।
भारत में अपने संक्षिप्त निर्वासन के पश्चात जब तेरहवें दलाई लामा ल्हासा लौटे तो उन्हों ने और तिब्बती राष्ट्रीय असेम्बली ने चीन से तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। घुसपैठी चीनी सेनाओं को पूर्वी तिब्बतियों ने 1919 और 1930 में मार भगाया।
3 जुलाई 1914 के शिमला समझौते में तिब्बती स्वतंत्रता की पुष्टि हुई जिसे चीनियों ने तुरंत नकार दिया क्यों कि वे लोग पूर्वी तिब्बत के सद्य: विजित बहुलांश को छोड़ना नहीं चाहते थे। दोनों बचे हुये पक्षों, तिब्बत और ब्रिटिश भारत, ने तिब्बत में चीनियों के अधिकार और विशेषाधिकारी दावों को निरस्त कर दिया। अगले 38 वर्षों तक तिब्बत चीन से पूरी तरह से स्वतंत्र रहा।

तिब्बत पर चीनी हमला - 1949:
7 अक्टूबर 1950 को नवस्थापित पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की सेनाओं ने तिब्बत पर दुतरफा आक्रमण कर दिया। कम्युनिस्टों के चीन में सत्ता में आने से पहले ही इसकी सशस्त्र सेनाओं ने पूर्वी तिब्बत के बड़े भूभाग में घुसपैठ कर लिया था। खाम और आम्दो के समस्त सीमा क्षेत्र में चीनी सेनाओं के साथ भारी लड़ाई जारी थी और भूभाग का ज्ञान न होने के कारण चीनी सेनायें विराट तबाही झेल रही थीं। उन्हें तिब्बती प्रतिरोध दलों ने जहाँ के तहाँ रोक रखा था।
लेकिन जब कम्युनिस्ट सत्ता में आये तो उन्हों ने लड़ाई में सैन्य बलों, शस्त्रास्त्र और साजो सामान की भारी बढ़ोत्तरी की। तिब्बत की तथाकथित ‘मुक्ति’ – जैसा कि वे साम्राज्यवादी कहते आये थे – उनकी प्राथमिकता सूची में उच्च स्थान पर थी। चीनी कम्युनिस्टों ने घोषित किया कि तिब्बत चीन का अविभाज्य भाग था और ‘प्रतिक्रियावादी दलाई गुट’ और विदेशी ‘साम्राज्यवादी’ शक्तियों के चंगुल से उसे ‘मुक्त’ किया जायेगा। (अगला भाग)
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जो इतिहास से नहीं सीखते वे इतिहास बन जाने को अभिशप्त होते हैं। क्या आप को अरुणांचल प्रदेश में गाहे बगाहे होती चीनी घुसपैठों की तिब्बत में चीन की प्रारम्भिक हरकतों से साम्यता नहीं दिखती? चीनी एजेंडा क्या है – इसकी भनक लगी कि नहीं? कम्युनिस्टों ने अपने से अलग तंत्रों और व्यक्तियों को श्रेणीबद्ध करने के लिये अनेक शब्द गढ़े हैं जिनमें ‘प्रतिक्रियावादी’ भी एक है। उल्लेखनीय है कि भारतीय लोकतंत्र को माओवादी ‘प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी तंत्र’ भी कहते हैं। दलाई लामा के शासन को वे क्या कहते थे? ‘प्रतिक्रियावादी दलाई गुट’। दिमाग में घंटियाँ बजी कि नहीं?
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तिब्बती बौद्ध दर्शन की एक सोच

बोधि के त्रि रत्न
कू ( KU) – शरीर
संग (SUNG) – वाणी
थग (THUG) – मन
शरीर दैदीप्यमान प्रकाश है।
वाणी प्रार्थना है।
मन सब प्राणियों के लिये प्रेम से परिपूर्ण है।
हे बुद्ध! मैं अपने पूरे जीवनकाल में तुमसे साक्षात होती रहूँ।

मनसा, वाचा, कर्मणा शुचिता के भारतीय चिंतन को यह सोच विराट आयाम देती है। बर्बर दमन और सम्पूर्ण विनाश से इस सभ्यता को बचाना ही होगा।

अब इस सोच की सांगीतिक प्रस्तुति। हो सकता है आप को स्वर न जमें फिर भी परिवेश, लोक और दर्शन का ऐसा समन्वय बहुत कम दिखता है। देखिये, सुनिये और गुनिये: http://youtu.be/DPCkbfXtyQQ

गुरुवार, 12 मई 2011

बेल का रस

अभी अभी दो गिलास बेल का रस गटके हैं। 
चम्मच से ककोर ककोर गूदा खाये हैं (देखिये कितना साफ कर दिये हैं खपड़ोई को!)।

 बहुत दिनों बाद आज श्रीमती जी को हृदय से धन्यवाद दिये हैं(संडे को पार्टी पक्की - बेल के नाम!)...
बहुत दिनों बाद ईश्वर को याद कर धन्यवाद दिये हैं कि यूरोप जा बसने का प्लान ठंड से डरा कर कैंसिल करा दिया ... वहाँ बेल कहाँ मिलते? गर्मी में भारत कहाँ आ पाते? ;) ...
तृप्त हो गया आज तो! 
तृप्त होकर आदमी आँय बाँय भी बकता है। NRI साथी बुरा न मानें प्लीज!

रविवार, 8 मई 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (1)

पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात 
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन 
तिब्बत - क्षेपक 
अब आगे ...  



तिब्बत भूमि
तिब्बत क्षेत्र तीन प्रांतों आम्दो (Amdo), खाम (Kham) और सांग (U-Tsang) से मिल कर बनता है। यह तिब्बती भाषा बोलने वाले और अपनी पारम्परिक संस्कृति को जीने वाले लोगों का देश है। इसका क्षेत्रफल लगभग 25 लाख वर्ग किलोमीटर है जो भारत के क्षेत्रफल के दो तिहाई से भी अधिक है। समुद्र तल से इसकी औसत ऊँचाई 3650 मीटर है और यह चार पर्वतमालाओं हिमालय, काराकोरम, कुनलुन और अल्त्या-ताघ (Altya-tagh)  से घिरा हुआ है। पूर्व से पश्चिम की ओर इसकी लम्बाई 2500 किलोमीटर है। यह एशिया की कई महान नदियों जैसे यांग्त्सी, मीकोंग, ब्रह्मपुत्र और सालवीन का उद्गम क्षेत्र है। तिब्बत का बहुलांश निर्जन पर्वतीय और मैदानी जंगली क्षेत्र है जब कि अधिक उपजाऊ दक्षिणी क्षेत्र में खेती बाड़ी होती है जिसकी औसत ऊँचाई 4500 मीटर से घटती हुई 2700 मीटर तक आती है।
दूरवर्ती और अलहदा से क्षेत्र होने के कारण तिब्बत के पूर्वी और उत्तरी भागों में मुख्यत: चरवाहा और घुमंतू अर्थव्यवस्था विकसित हुई लेकिन नदी घाटियों और ऊष्णतर दक्षिणी क्षेत्रों में एक व्यवस्थित और व्यापक आधार वाली खेतिहर अर्थव्यवस्था का चलन हुआ।
तिब्बत को भारतीय परम्परा 'त्रिविष्टप' नाम से जानती है। कैलाश मानसरोवर और शंकर का स्थान होने के कारण यह पवित्र स्थल है
- आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामरिक हर दृष्टि से महत्त्वपूर्ण।  इन चित्रों में कैलाश पर्वत के ऊपर आकाशगंगा की दिव्य छटा
दर्शनीय है। प्रतीत होता है कि यायावर भागीरथ कैलाश तक पहुँचे होंगे और उन्हों ने यह दृश्य़ देख शंकर महादेव की जटाओं में नभ से
उतरती आकाशगंगा का मिथक देवसरि गंगा को मैदान में लाने के स्व-उद्यम को दैवी गरिमा देने के लिये गढ़ दिया होगा। 
चित्राभार और कॉपीराइट: www.availablelightimages.com   
तिब्बती जन
तिब्बती लोगों का मूल अज्ञात है लेकिन एच.ई. रिचर्डसन के अनुसार वैज्ञानिक तौर पर इन्हें चीनी नहीं कहा जा सकता और पिछ्ले दो हजार या उससे अधिक वर्षों से चीनी इन्हें अलग नृवंश का मानते आये हैं। सम्भवत: तिब्बती लोग ग़ैर-चीनी घुमंतू जनजाति चियांग (chiang) के वंशज हैं या पूर्ववर्ती यूराल-अल्ताइक (Ural-Altaic) जनजाति के। यह ध्यान देने योग्य है कि चीनी के विपरीत तिब्बती भाषा चित्रलिपिहीन भाषा है जो कि चीनी-थाई भाषा परिवार के बजाय तिब्बत-बर्मी भाषा परिवार से सम्बद्ध है।   

भू-उपयोग
1949 में चीनी आक्रमण के पहले तक तिब्बत में खेती और अन्न उत्पादन की विधियाँ संतुलन और सहज बुद्धि पर आधारित थीं। पाश्चात्य सोच आधारित प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध शोषण नहीं था और हाल के वर्षों तक तिब्बत में अकाल अज्ञात था। पहाड़ी क्षेत्रों में वनस्पतियाँ अत्यल्प हैं लेकिन तिब्बत के दक्षिण स्थित नदी घाटियों में तिब्बतियों के मुख्य भोजन जौ के अलावा मटर, बीन्स और फाफरा की अधिकायत में उपज होती है जहाँ भूमि के बड़े भाग उसकी उपज क्षमता बढ़ाने के लिये परती छोड़ दिये जाते थे।
तिब्बती समाज मूलत: घुमंतू था लेकिन शनै: शनै: एक ऐसी व्यवस्था में परिवर्तित होता गया जिसमें सकल भूमि तो राज्य की थी लेकिन टुकड़ों में इसका स्वामित्त्व सरकार, मठों और संभ्रांत वर्ग के पास बँटा था। किरायेदार किसान उन पर खेती करते थे जिनमें बहुतेरों की निष्ठा भूस्वामी से बँधी होती थी लेकिन उनकी भूस्वामी-करदाता सम्बन्ध की अनगिनत परिपाटियाँ कहीं से भी ‘भू-दासत्त्व’ या ‘दासत्त्व’ की अवधारणाओं से नहीं जुड़ती थीं।  अन्य बहुत सी जीवन शैलियाँ प्रचलित थीं जैसे – घुमंतू होना, व्यापार करना, अर्ध-घुमंतू होना, शिल्पकारी। खाम और अम्दो (पूर्वी तिब्बत) प्रांतों में जहाँ कुछ बड़े भू-एस्टेट पाये जाते थे और जहाँ कृषक स्वामित्त्व वाले बड़े खेत भी थे, व्यक्तिगत भूस्वामित्त्व वाले जन अधिक थे जो सीधे सरकार को कर देते थे।
कुछ का कहना है कि भूदासत्त्व और दासता जैसे शब्द चीनियों द्वारा तिब्बत पर 1949 से शुरू किये गये उनके सशस्त्र आक्रमणों और आधिपत्य को न्यायसंगत ठहराने के लिये गढ़े गये। चीनियों द्वारा भूदास बताई गई तिब्बती महिला डी चूडॉन, अपने स्वयं के लेखन से चीनियों के दावे को सन्दिग्ध बनाती हैं।  उनके लेखन से एक कमोबेश आत्मनिर्भर और आसान जीवनशैली का चित्र उभरता है। उन्हों ने लिखा है कि हमें अपने जीवनयापन में किसी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता था और हमारे इलाके में एक भी भिखारी नहीं था।              
बहुतेरों द्वारा तिब्बत पर चीनी शासन के प्रति सहानुभूति रखने वाला बताये गये सम्वाददाता क्रिस मुलिन द्वारा भी चूडॉन का लेखन पूर्णत: विश्वसनीय बताया गया है। तिब्बत गये विभिन्न यात्रियों जैसे मे, डेविड नील, जॉर्ज एन पेटरसन और हेनरिक हर्रेर ने भी चूडॉन के प्रेक्षण का सामान्यत: समर्थन किया है।

तिब्बत-चीन सम्बन्ध:
तिब्बत और चीन का सम्बन्ध दो हजार से भी अधिक वर्षों से है। लोगों को सामान्यत: यह पता नहीं है कि सातवीं सदी के तिब्बती सम्राट सोंग-त्सेन गाम्पो के शासनकाल में तिब्बतियों ने एक बहुत बड़ा साम्राज्य विकसित कर लिया था। यह साम्राज्य उत्तर में चीनी तुर्किस्तान तक एवं पश्चिम में मध्य एशिया तक और स्वयं चीन में भी फैला हुआ था। 763 ई. में तिब्बतियों ने तत्कालीन चीनी राजधानी सियान पर अधिकार कर लिया लेकिन दसवीं शताब्दी तक तिब्बती साम्राज्य ढह गया। फलत: तिब्बत की राजनैतिक सीमाओं के बाहर भी बहुत से तिब्बती बचे रह गये। अगले लगभग तीन सौ वर्षों तक चीन के साथ तिब्बत का सम्बन्ध अत्यल्प ही रहा।
चीनियों का यह दावा कि तिब्बत हमेशा से चीन का भाग रहा है, उस काल से उपजता है जब तिब्बत और चीन दोनों मंगोल साम्राज्य के अंग थे। बारहवीं शताब्दी में मंगोलों ने अपना प्रभाव बढ़ाना प्रारम्भ किया और अविजित रहते हुये भी तिब्बत ने 1207 में समर्पण कर दिया जब कि 1280 के आसपास चीन मंगोलों द्वारा रौंद दिया गया। मंगोल शासनकाल एकमात्र समय था जब चीन और तिब्बत दोनों एक ही राजनीतिक सत्ता के अधीन थे। तिब्बतियों ने स्वयं को 1358 में मंगोल आधिपत्य से मुक्त कर लिया। जब एक आंतरिक संघर्ष में चांगचुब ग्याल्तसेन ने साक्य मंत्री वांग्त्सन वांग्त्सेन से सत्ता छीन ली तो उसने मंगोलों से सारे सम्बन्ध समाप्त कर दिये और एक नये वंश फाग्मो द्रूपा की नींव डाली।
इस घटना के दस वर्ष बाद 1368 में चीनी मंगोलों को भगा पाये और उन्हों ने देसी ‘मिंग वंश’ की स्थापना की। ऐसा प्रतीत होता है कि तिब्बत पर अपना अधिकार जताते चीनियों ने उसी विस्तारवादी और साम्राज्यवादी मंगोल शासन से सीख ली जिसे उन्हों ने अंतत: उखाड़ फेंका था। कभी कभी यह कहा जाता है कि चीनियों के तर्क से तो भारत को भी बर्मा पर अपना दावा जताना चाहिये क्यों कि भारत और बर्मा दोनों कभी ब्रिटिश सत्ता के अधीन थे!
इतिहास के विरूपण की प्रवृत्ति परवर्ती मिंग और चंग वंश के समकालीन चीनी इतिहासकारों के लेखन में पाई जाती है जिन्हों ने तिब्बत को चीन का एक ‘अधीनस्थ सामन्त राज्य’ बताया है। ऐसे दावे इन तथ्यों के प्रकाश में परखे जाने चाहिये कि चीनियों ने समय समय पर हॉलैंड, पुर्तगाल, रूस, पोप तंत्र और ब्रिटेन पर भी उन्हें सहयोगी राज्य बताते हुये दावे जताये हैं।
-  चीन द्वारा ‘ऐतिहासिक विरूपण’ की समकालीन बातें
-  तिब्बत के भौगोलिक भाग और उनका चीनी विरूपण  
-  तिब्बत पर चीनियों द्वारा 1949 में सशस्त्र आक्रमण)
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तिब्बत का संगीत सुनिये - दृश्यावली के साथ