शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

छीन लो पुस्तकें उनसे!

छीन लो पुस्तकें उनसे
उन्हें पढ़ने के पश्चात
वे करते हैं विचित्र बातें
समझदार से लगते हैं
छीन लो पुस्तकें उनसे!
उनमें कोई असंतोष नहीं
न आपा धापी,
चुपचाप तेजी से काम कर
बचाते हैं समय, पढ़ने को पुस्तकें
अर्थव्यवस्था ठहरी है उनसे
(सोचो वह समय जो काम में लगता!)  
उन कामचोरों को काम पर लगाओ
उनकी देह में पसीना उगाओ  
छीन लो पुस्तकें उनसे!
उनके भीतर होती है विचित्र सी शांति
वे सुनते हैं उतनी ही शांति से
आक्रोश की बातें
असंतोष की बातें
विद्रोह की बातें
और जब अपनी कहते हैं तो हिम बरसते हैं
क्रांतियाँ नहीं हो पा रहीं उनके कारण
क्यों कि उनके पास हैं समाधान
सौ में निन्याबे के घनीभूत मेधायें पन्नों में
और सौवें के बारे में वे बुलाते हैं - आओ! ढूँढ़ते हैं,
कहीं न कहीं होगा कुछ अनदेखा रह गया
न कुछ करते हैं और न करने देते हैं
वे हमें बहकाते हैं
संकटों में मुस्कुराते हैं
छीन लो पुस्तकें उनसे!
संतुष्ट हैं वे दरिद्र
उनके बच्चों को न दाग अच्छे लगते हैं
न नमक वाले पेस्ट से उनके दाँत चमकते हैं
उनकी टी वी में स्मार्ट नेट नहीं
उनके घर में एंटीना डिश नहीं
उनके पर्स में संतोषी सिक्के खनकते हैं
आँखों पर चढ़ाये चश्मे
वे सबसे बड़े हैं शत्रु अन्धता के
बहुत चुप से रहते हैं
जब देखो पढ़ते रहते हैं  
छीन लो पुस्तकें उनसे!

सोमवार, 26 नवंबर 2012

26/11/2008 के हुतात्माओं को श्रद्धांजलि

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  • इन चित्रों को कभी न भूलिये!
  • सतर्क रहिये।
  • आसपास किसी भी सन्दिग्ध गतिविधि की सूचना तुरंत पुलिस प्रशासन को दीजिये।
  • संगठित रहिये!
  • आतंकवाद की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती। 
मध्य पूर्व से जुड़ी एक बर्बर क्षयी प्रवृत्ति को स्थापित करने के लिये पूरे संसार में चल रहे राजनैतिक-मज़हबी आन्दोलन की व्यापकता को समझिये। आठवीं सदी में सिन्ध पर हुये आक्रमण के बाद से यह निरंतर जारी है। इसके नुमाइन्दे हर जगह हैं - गाँवों में, नगरों में, झुग्गियों में, सामाजिक अंतर्जाल स्थानों पर, ब्लॉग जगत आदि में सर्वत्र ये भेंड़िये स्थापित हैं। कुछ खुल कर सामने हैं तो कुछ बौद्धिकता और प्रगतिवाद का लबादा ओढ़े बकवास करने और अवैध धन का घी पीने में व्यस्त हैं!
खुलेआम गद्दारी की बातें करने वाले भी हैं तो प्रेम, शांति, सद्भाव, गंगा जमुनी तहजीब आदि की बातें कर मस्तिष्क प्रक्षालन करने वाले भी।
 बर्बरता के जो पाठ सभ्यता बहुत पहले भूल चुकी है उसे आज भी रटते हुये फैलाने में वे लगे हैं। उन्हें पहचानिये। इस मानवविरोधी आन्दोलन के प्रचार तंत्र को असफल कीजिये।
 दैनिक गुंडागर्दी का प्रतिरोध करें। व्रण नासूर होने से पहले ही ठीक हो, इसके लिये जागरूकता आवश्यक है।
जहाँ भी यह आन्दोलन सफल हुआ वहाँ जीवन की गुणवत्ता गर्त में गयी। वहाँ स्त्रियों, बच्चों और निर्बलों पर हो रहे बर्बर अत्याचार आज भी जारी हैं।
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नोट: मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना और इसी प्रकार की अन्य खोखली बातों और टिप्पणियों के लिये अपना समय यहाँ व्यर्थ मत कीजिये।
मैं यहाँ मजहब नहीं, अरबी हीनता को स्थापित करने के उद्देश्य से जारी उस राजनैतिक-मजहबी आन्दोलन की बात कर रहा हूँ जिसने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर असम तक हमें घाव दिये हैं और दिये जा रहा है।
इस आन्दोलन ने कश्मीरियों को अपने देश में शरणार्थी बनने को बाध्य किया। इस आन्दोलन ने बंगलादेश और पाकिस्तान में अन्य मतावलम्बियों का समूल नाश करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी, अब वे वहाँ लुप्तप्राय हैं। संसार में चल रहे हर बड़े संघर्ष में दूसरा पक्ष चाहे जो हो, एक पक्ष या तो यह बेहूदा आन्दोलन है या उससे बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है।

रविवार, 25 नवंबर 2012

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 22

पिछले भाग से आगे...

 

पलँगरी पर भउजी को लिटाने में देह धौंकनी हो गई। मन के बवंडर से बेचैन सी मतवा उखड़ी साँसों को थामने हेतु बाहर आँगन में आ खड़ी हो गईं। दृष्टि अनायास ही घर को सहलाती घूम गई। नथुने हल्के से रमते धूप गन्ध से भीनते चले गये - ई अँगना त रोज धुपियारी होत होई! (इस आँगन तो रोज धूप जलती होगी!)  

 

काठ के खम्भे पर बना सुग्गा जूठी थाली को निहार रहा था जिसके बगल में अगियारी अभी भी सुलग रही थी। पहिले गरास से पहिले लछमी ने अन्न को अगिनदेव को अर्पित किया था - सब जीवों की छुधा शांत करने की प्रार्थना! तुलसी बिरवे की पत्तियों पर चन्दन के निशान थे जिन पर खुला आसमान नील नील बरस रहा था। मतवा ने जाना कि देवी गीत के कुछ बोल अभी भी वहीं ठिठके हुये थे।

नीचे पैकरमा (परिक्रमा) पर चूने की सफेदी थी जिस पर सरसो और चावल बिखरे पड़े थे – खाउ रे चिरइया भर भर पेट!  पूरे घर की जमीन कठभट्ठा माटी से लिपाई सब ओर बराबर थी - एकसार और सिलवट को घेरे आगे तक पियरी माटी की लिपाई। कूँची पीसी गई सुभ हरदी की छिटकन उस घेरे में बिला गई थी। एक गाँठ अभी भी लोढ़े पर पड़ी बता रही थी कि सुभ यहाँ रहने को है!

 

अतिबला_खरैटीकाँच भीत (कच्ची दीवार) पर चहुँओर घेर उज्जर(उजला, सफेद) , उज्जर घेर। घेर के भीतर सुग्गा, फूल पतई, दीया, सीता राम, सीताराम, खरइट(अतिबला, एक वनस्पति) के छपिया, पुरइन दल फूल लेकिन नाग नागिन नपत्ता(लापता), कइसन सुभ रे (यह कैसा शुभ)? दीठ किनारे अटक गई। पास जा कर देखीं तो पता लगा कभी गोबर से बने नाग नागिन झड़ चुके थे और भीत का वह हिस्सा भउजी ने ऐसे ही छोड दिया था। नीचे हाथ के ताजे छापे थे – पीयर, उज्जर, लाल नपत्ता। मतवा को पुरानी गोधन पूजा याद आई, साँसों ने राहत सी पाई और टीसता दुख उँसास के साथ निकल पड़ा – कवन सोहागिन अइसन घर रखले होई रे सोगही! मँगधोवनी रे, तोर छहाँरी छोड़ सोहाग कइसे भागि गइल? सुघर घर घरनी, चलनी भागि! (किस सुहागन ने अपना घर ऐसे रखा होगा रे शोकमयी! माँगधोई रे, तुम्हारी छाया छोड़ सौभाग्य कैसे पलायन कर गया? सुघड़ घर और गृहिणी लेकिन चलनी जैसा भाग्य)  

 

मटिहा कराही में धूप राख हो चुकी थी। करसी(एक तरह का उपला) के टुकड़े मन को तोड़ चले और चेतना ने करवट ली। संयोग ही था कि दुपहर में सोहित और नौकर इसरभर दोनों खेतों को निकल गये थे। मतवा सतर्क हो छिपते छिपते आई थीं कि राह में भी कोई आते न देख ले! पति का संकेत याद आया तो मन मन भर भारी हो गया। अगर सचमुच ऐसा है तो किसी को पता नहीं चलना चाहिये। देह गनगनाने लगी, पेशानी रिस उठी – वह तो अनर्थ के केन्द्र में खड़ी थीं! लछमिनिया की सुघरता से जो मुग्ध भाव उमड़ पड़ा था उस पर अब भय भारी था। जैसे भी हो जल्दी से हाल चाल ले यहाँ से जाना होगा, जाने कब सोहित या इसरभर धमक पड़े!  अइले से समियो नाइँ रोकलें, ऊनहूँ के बुद्धी...(आने से स्वामी ने भी नहीं रोका, उनकी बुद्धि भी ...)

 

पीठ पर स्पर्श से मतवा ऐसे चिहुकीं जैसे किसी ने अचानक ठंढा पानी डाल दिया हो! मुड़तीं तब तक हाथों में आँचल जोड़े भउजी जमीन पर प्रणाम मुद्रा में आ चुकी थी। होश आ गइल! (होश आ गया!) मतवा ने राहत की साँस लेते बस इतना कहा – उठावs और आगे का आशीर्वाद नयनों से निकल भउजी के हाथ टपका – टप्प! दोनों चुपचाप भीतर चली गईं। मतवा पलँगरी पर और भउजी नीचे पीढ़े पर।

“हम अभागी के दुआरे राउर गोड़ परल, हम तरि गइनी ए मतवा!” (मुझ अभागी के घर आप के पाँव पड़े, मैं तर गई मतवा!)  

मतवा की आँखों में आश्वस्ति का वह भाव था जो बस सहज मानुष विश्वास को निथार लेता है। भउजी कहती चली गई। बियाह, सँवाग का प्रेम, वैधव्य, गाँव और नैहर की उपेक्षा, प्रताड़ना, अपना दुर्भाग्य, देवर की नालायकी और कुल खानदान पर नाश का घिरता अन्धेरा – का पुरनियन के केहू नामलेवा नाहीं बची? हमार जिनगी बिरथा जाई? (क्या पुरखों का कोई नामलेवा नहीं बचेगा? मेरी ज़िन्दगी व्यर्थ ही चुक जायेगी?)  

“जौने घरे अइसन पतोहि, वो घरे नास, नाहीं रे!” (जिस घर में ऐसी बहू हो, उस घर में नाश, नहीं रे!)

“जनि धीरज धराव ए मतवा!” (धैर्य मत बँधाइये मतवा!) यम माँग पोंछ ले गये, देवर लखेरा।

“...हम का करतीं ए मतवा? बबुना न बियाह करें, न कवनो के अइसहीं राखें। आपन मोहिनी देखवलीं कि दीया त जरे! फसिल हो गइले पर खेत्ते के काच कीच केकरा के मन परेला? अकेल बबुना के हाथे खेत नाहीं रुकिहें ...हम से पाप भइल ए मतवा! दियना जरा के हम बुता जाइब, हमार मुगती कइसे होई ए मतवा, बाबा से पूछबि!” “(मैं क्या करती मतवा? देवर न विवाह करे और न किसी को ऐसे ही रख ले। अपनी मोहिनी दिखाई कि दीप तो जले! फसल हो जाने पर खेत की कीच काच किसको याद रहती है? अकेले देवर के हाथ खेती नहीं रुकने वाली ...मुझसे पाप हुआ है मतवा! दीप जला कर मैं बुझ जाऊँगी, मेरी मुक्ति कैसे होगी मतवा, बाबा से पूछियेगा!)

भउजी डहँको पहँको(फूट फूट)रोने लगी। नीचे उतर कर मतवा ने उसे गोद में ले लिया। जैसे वर्षों बाद माँ की छाँव मिली हो, भउजी बच्चे सी सिमट कर गोल हो गई। पियरी को निहारती मतवा के मन में सुवास उठी – गेना फूल (गेंदे का फूल)

 

उन्हों ने समझाना और सांत्वना देना शुरू किया – सोहित आ इसरभर कवने ओर गइल बाँड़े (सोहित और इसरभर किस ओर गये हैं)? मतवा को यह जान राहत हुई कि साँझ तक वापस नहीं आने वाले।

“जौन भइल तौन भइल। खुश रहल कर। भगवान सब ठीक करिहें। रहता निकली न! कवनो बाति होखे त हमके जरूर जनइहे। खबरदार जो मुअले के बाति सोचलू! (जो हुआ सो हुआ। प्रसन्न रहा करो। भगवान सब ठीक करेंगे। रास्ता निकलेगा न! कोई बात हो तो मुझे अवश्य खबर करना। खबरदार जो मरने की बात सोची!

“कइसे जनाइब ए मतवा? के हमार निस्तार करी? (मैं कैसे खबर करूँगी मतवा? मेरा निस्तारण कौन करेगा?)

मतवा ने गाढ़ी पियरी को एक बार पुन: देखा और उत्तर दिया – ई लुग्गा अब जनि पहिर। सहेज के राखि ल। कब्बो हमार ताक लागे त बइठका के छान्ही एके पसार दीह, हम चलि आइब। ... अब हम जाइबि (यह धोती अब मत पहना करो। सँभाल कर रख लो। कभी मेरी आवश्यकता हो तो बैठक की फूस वाली छत पर इसे फैला देना, मैं आ जाऊँगी। ... अब मैं चलूँ)

 

लछ्मी उठी और आँचल की खुँटिया खोल मुट्ठी भर ली। घरदुआरी से मतवा को विदा करती भउजी ने सिर को भूमि पर नवाया और उनके पाँवों पर सिक्के रख दिये। मतवा ने उठाया। चाँदी का रुपया और चवन्नी, कुल बीस आना।

“ई का ए पतोहा (यह क्या बहू)?”

“घरे आइल देवता खाली हाथ नाहिं बिदा कइल जाला। ... राखि लेईं, कामे आई। बस बीस डग बाकी बा अब (घर आये देवता को खाली हाथ विदा नहीं किया जाता।... रख लीजिये, काम आयेंगे। अब तो बस बीस पग चलने को बाकी हैं)।“ और भउजी मुड़ गई।

 

लौटती मतवा को किसी ने नहीं देखा। रस्ते के पिछुउड़ एक लँगड़ा उचका भर था। तेज कानों ने गोड़हरा पछेले(एक तरह के पाँव के आभूषण)के स्वर पहचान लिये थे – खदेरन इहाँ के मतवा, एँहर? का करे? (खदेरन के घर की मतवा, इधर? क्या करने?)

तकिये के नीचे से उसने बही निकाला। खोल कर पुराना पड़ गया ललछौंहा कपड़ा फेंका और नये कपड़े पर लाल टीका लगा उसमें बही को लपेटने लगा। कपड़े का रंग पीला था - शुभ गाढ़ा पीला।

...पियरी को उतार गगरी में रख पलँगरी के नीचे छिपाने के बाद भउजी की नज़र सोहित के अँगरखे पर पड़ी। सुई में धागा पिरो मुस्कुराती उसने खुद से कहा – मतवा! और सिलने लगी।

बाहर ललछौंह कपड़े को खींचते फाड़ते कुकुरों की रार थी लेकिन कुकुरझौंझ से बेखबर भउजी गीत तुरुप रही थी:        

साँझ सेनुरवा नयन भरमावेला, अँखिया अँसुवन लोर रे

हमरे बोलवले सजना न आवें, भुइयाँ भइल बिना छोर रे!

(जारी)

शनिवार, 24 नवंबर 2012

स्त्री पाठ और बन्द द्वार

साँझ से पहले का समय था। उनकी वाणी से सहज सुबोध ज्ञान की निर्झरिणी बरस रही थी। जनता मुग्ध भाव से अश्वत्थ छाँव में बैठी सुन रही थी। अचानक क्रन्दन करती एक विधवा आई और उसने अपने मृत पुत्र को वहीं लिटा दिया – यह मेरा एकमात्र सहारा है। इसे पुनर्जीवित करें आर्य!
उन्हों ने अविचलित स्वर में पूर्ववत शांति के साथ कृपा बरसाई – था कहिये आर्ये! अब वह नहीं है। मृत्यु शाश्वत सत्य है। उससे कोई नहीं बचा। मृत्यु एकल दिशा में चलती है। आप का मृत पुत्र पुन: जी नहीं सकता। 

विधवा के करुण विलाप से अश्वत्थ वृक्ष की पत्तियाँ और डोलने लगीं। जन के नेत्रों में मौन आग्रह देख उन्हों ने विधवा से कहा – माता! जाओ जिस घर में कभी मृत्यु न हुई हो उस घर से मुठ्ठी भर सरसो ले कर आओ, मैं तुम्हारे पुत्र को जिला दूँगा। पास में बैठा उनका शिष्य चौंका किंतु मौन रहा।
मन में आस बँधी, विधवा ने मृत पुत्र को वहीं छोड़ा और गाँव की ओर दौड़ पड़ी। वह पूर्ववत ज्ञान बरसाने लगे किंतु शिष्य अब अन्यमनस्क हो चला था।
विधवा भटकती रही। कोई घर ऐसा नहीं मिला जिसमें कभी मृत्यु न हुई हो लेकिन माँ तो माँ, बिना सरसो कैसे लौट सकती थी!
रात बीती, उदय की लाली सिमटी तो उसने कपाटविहीन द्वार से एक कुटीर में झाँक कर अपनी माँग रखी। गृही मुस्कुराया और यह कहते हुये उसने अपनी पोटली में एक ओर बँधी सरसो विधवा के हाथ में खाली कर दी कि माँ, नये घर में मृत्यु का क्या काम? उसमें तो कपाट भी नहीं होते जो खटखटा सकें। ले जाओ, तुम्हारा कल्याण हो।
सरसो लिये भागती पड़ती विधवा पुन: वहीं पहुँची। पुत्र की मृत देह वैसी ही पड़ी थी। पास ही अग्नि के अवशेष से स्पष्ट था कि किसी ने रात भर रखवाली की थी।

हर्ष से चीखती वह उनके पैरों पर गिर पड़ी - मैं सरसो ले आई प्रभु! ले आई!! ...अब आप अपना वचन पूरा करें। 
उन्हों ने दूर डूबते सूर्य की ओर दृष्टि उठाई और बहुत ही शांत स्मित के साथ कहा – मृत्यु अपरिवर्तनीय है। माता! जाओ, अब मृत देह का अंतिम संस्कार करो, और उठ खड़े हुये – जाइये सब जन अब, सूर्यास्त हो चला है। जनसमूह उठ खड़ा हुआ। 

विधवा विक्षिप्त सी हो गई, दारुण रूदन – तो कल आप ने असत्य आश्वासन क्यों दिया, असत्य भाषण क्यों किया?

क्षण भर मौन के पश्चात उन्हों ने कहा – हर प्रश्न का उत्तर नहीं होता। कभी कभी मौन उचित होता है। 
उसी समय चीवर उनके हाथ में थमाते हुये शिष्य ने विदा माँगी – भंते! मुझे विदा दें। आप धर्म च्युत हो गये हैं।
पहली बार उनके मुख से स्मित लुप्त हुई–ऐसा क्यों कह रहे हो वत्स?
शिष्य ने उत्तर दिया - असत्य ही नहीं, आप से हिंसा भी हुई है। किसी को आस बँधा कर तोड़ना और दुख देना हिंसा है। छल है यह! आप से तो विनय का भी उल्लंघन हुआ है।
वे आश्चर्य में पड़ गये – किंतु वत्स, ऐसा कैसे हो सकता है? ...ऐसा घर कैसे हो सकता है जिस में ...
शिष्य ने बीच में ही उनकी बात काट कर कहा – बुद्धि की सीमा होती है चाहे वह बोधि प्राप्त जन की ही क्यों न हो!
उसने विधवा से कहा  – चलो! तुम्हारे पुत्र का अंतिम संस्कार करें। इसे जिला नहीं सकता किंतु तुम्हें दूसरा पुत्र दे सकता हूँ। क्या मैं स्वीकार हूँ?
अस्त होते सूर्य की अंतिम किरण साक्षी हुई, हाथ ने हाथ को थाम लिया।  
उन दोनों ने बहुत ढूँढ़ा, उस स्थान पर न तो वह कपाटविहीन कुटीर मिला और न सरसो की भिक्षा देने वाला गृही। वे दोनों वहीं एक कुटीर बना कर रहने लगे। कहते हैं कि उसमें द्वार तो थे लेकिन कपाट नहीं और किसी के आने जाने पर कोई रोक टोक नहीं थी।
आगे के उद्बोधनों में महात्मा यह कहना कभी नहीं भूले – स्त्री के लिये स्वर्ग के द्वार बन्द हैं! 

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

सुदास चचा और शीरत खाँ

आजकल अपन कालयात्रा में हैं तो किसिम किसिम के महापुरुषों से भी भेंट होती रहती है। कुछ दिनों पहले सुदास चचा से भेंट हो गई। राजमार्ग से लगी हुई एक गली के नुक्कड़ पर जमीन पर खाल बिछाये जूते सिल रहे थे। सामने ही कठौती पड़ी थी।
घूमते घूमते मेरे जूते का एक तला घिस गया था तो रिपेयर कराने उनके यहाँ रुक गया। लंठों की जुबान का हाल तो आप लोग जनबे करते हैं, माहिर चौंधानवी कह गये हैं:
चुप रहने पर तूफान उठा लेती है दुनिया
अब इस पे क़यामत है कि हम चुप नहीं रहते।
सो चुप्पी तोड़ हम उनसे यूँ ही हाल चाल पूछ बैठे – चचा की हाल? पहले तो कुछ बोले नहीं, सिर झुकाये जूते का तलवा सिलते रहे। दूसरी बार पूछा तो जूता किनारे रख बोले – जब मेरे हाथ में जूता हो तो सवाल नहीं करना चाहिये। पहली बार आये हो इसलिये जूता रख कर बात कर रहा हूँ वरना वही हाल करता जो हवलदार अल्ल लपलपी शीरत खाँ का किया।
इतने भक्त आदमी के मुँह से ऐसी भभक सुन मैं सहम गया। डरते डरते पूछ पड़ा – चचा क्या हुआ? सुदास चचा ने कठौती किनारे कर जमीन पर बैठने को कहा। मैं जींस पहिने था जो जुम्मन मियाँ के सिलने के बाद से धुली ही नहीं गयी थी इसलिये ज्यों की त्यों धर दीनी सोचते हुये मैंने रास्ते की धूल पर ही अपनी तशरीफ रख दी। चचा मेरी सादगी पर बड़े प्रसन्न हुये और कह सुनाया। संतों की वाणी, अपने बूते की नहीं सो सारांश बताते हैं।
 असल में राजमार्ग किनारे बड्डी सड्डी ऊँची सूची दुकाने हैं। किसिम किसिम की सजावट, किसिम किसिम के माल। इटली के जूते, स्विट्जरलैण की जूतियाँ, अमरीका की टोपी, सऊदी अरब का दिल्लो दिमाग गायब वगैरा वगैरा सब बिकते हैं। हवलदार शीरत खाँ का सबके यहाँ रोजीना बँधा हुआ है, न मिले तो दुकानदारों की रोजी ‘ना’ करवा दें सो वसूली करने रोज पहुँच जाते हैं।
 मुहाने से गली दिखती है और कोने पर सुदास चचा की बिन छत बिन छूत सदाबहार दुकान भी। चचा का काम ही ऐसा कि मूड़ गाड़ो तो सातो जहाँ जूते में और आकाशगंगा कठौती में। ऐसे में चचा को शीरत खाँ दिखते ही नहीं थे। न सलामी, न कोर्निश और न रोजीना की चवन्नी! शीरत खाँ जब तब आयें और कठौती पर डंडा मार कहें – सुबहान अल्ला! क्या जूते बनाते हो! मैडम देख लें तो हम जैसों को दो चार ऐसे ही लगा दें। सुदास चचा चुप ही रहें। शीरत खाँ की मनबढ़ई चचा की चुप्पी से और बढ़ती गयी। एक दिन शीरत खाँ ने कहा – मियाँ, तुम्हारे जूते का नमूना उधर प्रदर्शनी में टँगा है, चल के देख आओ।
 चचा रोज रोज की चख चख से हैराँ थे ही, पीछा छुड़ाने की गर्ज से पहुँच गये। पहले तो वहाँ घुसते ही सहमे। इतनी सजावट, इतनी बू और इतना शोर कि आँख, नाक और कान तीनों फटने लगे! चचा के लिये खड़े रहना दूभर हो गया। 
 शीरत खाँ ने बीच में टंगे चचा के चमरौधे सैम्पल की ओर इशारा किया। चचा को काटो तो खून नहीं, सैम्पल चोरी का था। जज्ब कर चुप ही रहे लेकिन शीरत खाँ तो उतारू थे, सो पूछ पड़े – कहो मियाँ कैसी रही? चचा को अपने सिले चमरौधे जूतों के ठीक ऊपर टँगे अरबी जूते दिख गये।  उनका पारा चढ़ गया - चमड़ा कमाने का सहूर नहीं जिसे देखो वही जूते के बिजनेस में इंटरनेशनल बना जा रहा है, कितना गन्हा रहा है!
 चचा ने आव न देखा ताव एक हाथ में चोरी वाला चमरौधा लिया और दूजे में गन्धाता अरबी और पिल पड़े शीरत खाँ पर। शीरत खाँ भागते हुये चचा के दुकान तक आये तो कठौती भी मिल गयी, चचा भिगो भिगो लगे लगाने ...
 आगे की कथायें फिर कभी क्यों कि सुदास चचा से मैंने जो गुरुमंत्र लिया है उसमें चुपचाप रहना और मूड़ गाड़े अपना काम करना सीधे परमेश्वर से मिलन का मार्ग बताया गया है। यह तो बस सैम्पल के लिये ...ही, ही, ही...लंठई, नंगई। 
आप लोग भी मौन हो, आँखें बन्द कर यह भजन सुनिये:
 
__________
गुरु चचा परमीशन देंगे तो आगे की कड़ियों में और काल कथायें, जैसे:
-      आज़ादी की लड़ाई और कुछ काहिल कुटिल क्षद्म लठैत
-      अंग्रेजों के जमाने का जेलर, तीन तिलंगे, साजिश-ए-सुरंग और गर्मागर्म लोहा
...
... 

बुधवार, 21 नवंबर 2012

तुम आशा विश्वास हमारे


नास्तिक हो तो मन्दिर क्यों आये मनु?” 
“ऑक्सीजन के साथ संघनित आशायें पीने, वही आशायें जिनके कारण कभी मूल कणों ने जीवन को जन्म दिया।“ 
“जीवन अजन्मा है मनु! आरती के आगे हाथ क्यों जोड़ते हो?” 
“प्रकाश और आँच को हथेलियों में विश्राम देता हूँ, सँजोता हूँ।“

“सिर क्यों नवाते हो?” 
“और कोई अवसर है क्या जब तुम्हारे आगे झुक पाऊँ? तुम्हें तो पता है कि कैसा संसार हमने रच रखा है उर्मी!“  
“तिलक क्यों लगवाते हो?” 
“उस समय तुम्हारे और मेरे स्पर्श के बीच वह आर्द्रता होती है जिसके कारण कभी धरती ठंडी हुई।“

“प्रसाद क्यों ग्रहण करते हो?”
“प्रसन्नता और स्वाद का ऐसा अनूठा संगम और कहाँ मिलता है उर्मी!”
“तुम नास्तिक नहीं, वज्र आस्तिक हो बुद्धू!” 
“जो भी हूँ तब तक हूँ जब तक तुम हो।“
“और मेरे बाद?”
“मैं नहीं रहूँगा।“
You are hopeless!” 
यहाँ बड़ी आस से आता हूँ।“
That is why I said – you are hopeless.”
“जो है सो है।“ 

शनिवार, 17 नवंबर 2012

कातिक कान्ह गोधन देवउठान

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मृगशिरा विक्रम से लगभग ३०४५ वर्ष पूर्व भारत युद्ध के समय कृष्ण ने स्वयं को महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत कह कर अपनी 'विभूति' की महिमा मोहग्रस्त अर्जुन से व्यक्त की। यह घटना महाभारत में लिपिबद्ध की गई। वास्तव में कृष्ण स्वयं से 1400 वर्ष पहले देवयान और पितृयान में विभाजित और ऋक्संहिता में वर्णित उस संवत्सर का सन्दर्भ ले रहे थे जब महाविषुव (आज का 23 मार्च) के दिन प्राची में सूर्य का उदय मृगशिरा नक्षत्र में होता था एवं वसन्त ऋतु से प्रारम्भ नये वर्ष का पहला महीना मार्गशीर्ष होता था।
पृथ्वी की अयन गति के कारण (आवृत्ति लगभग 26000 वर्ष) कृष्ण के समय महाविषुव का दिन पीछे खिसक कर रोहिणी नक्षत्र के पास पहुँच चुका था। (दिन के समय नक्षत्र नहीं दिखते, इस कारण उस समय के खगोलीय निर्धारण दिन और रात के दिशा बिन्दुओं के बहुत ही सतर्क और सटीक प्रेक्षण की माँग करते थे किन्‍तु आज के युग में हम दिन में नक्षत्रों को सूर्य के साथ सॉफ्टवेयर की सहायता से देख सकते हैं। नीचे दिया गया चित्र उस कालखण्ड के एक महाविषुव की स्थिति दर्शाता है।)
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महाविषुव की खिसकन पर्याप्त हो चुकी थी और ऋतुचक्र आधारित सत्रों के पुनर्नियोजन की आवश्यकता बढ़ गई थी। वह संक्रमण समय हर क्षेत्र में संघर्षों का काल था। एक ओर कुरुओं, पांचालों और नागों में वर्चस्व का बहुकोणीय संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर त्रयी नाम से प्रसिद्ध वैदिक वाङ्‍मय के पुनर्सम्पादन/संकलन का आर्ष संघर्ष।  वर्ष भर चलने वाले यज्ञ सत्रों के पुरोहित काल के पहरुवे भी होते थे पर वे कहीं और व्यस्त थे। एक वर्ग ऋषि कृष्ण द्वैपायन  व्यास (यह योद्धा कृष्ण से भिन्न हैं और बाद में वेदव्यास कहलाये) के नेतृत्त्व में अथर्व आंगिरस की वनस्पति औषधि अभिचार  परम्परा को अलग अथर्ववेद में संकलित करने के पक्ष में था तो दूसरा वर्ग कुरुवंश के परम्परा प्रेमी पुरोहितों का था जो स्थिति को यथावत रखने के पक्ष में था। वर्षों तक चले संघर्षों का अन्त व्यास की विजय से हुआ, चार संहितायें संकलित हुईं  और अथर्वण शाखा को यथोचित सम्मान मिला।
किन्‍तु कुरु, पांचाल, नागादि के संघर्ष की परिणति अतिदारुण महाविनाश में हुई जिसकी स्मृति को हम क्षयी कलियुग के प्रारम्भ से जोड़े आज भी सिहरते हैं - महाभारत! सब कुछ छिन्न भिन्न हो गया। जिस धर्म संतुलन के लिये धर्मक्षेत्र योद्धाओं के कुरुक्षेत्र में परिवर्तित हुआ, वह सध नहीं पाया। महाभारत के अंतिम पर्व में व्यास परम्परा सँभालने के प्रयास करती पाई जाती है लेकिन हताशा छलक उठती है: mahaऐसे में काल के पहरुवों ने नवव्यवस्थित संहिताओं के संरक्षण और पोषण की ओर ध्यान दिया, कालसंशोधन पीछे रह गया एवंं यह स्थिति विक्रम से प्राय: १८५० वर्षों पहले तक रही जब महाविषुव रोहिणी के पास से खिसक कृत्तिका नक्षत्र तक पहुँच गया और कृत्तिका युग का प्रारम्भ हुआ। यह वही समय है जब सरस्वती के बचे खुचे स्यमंतपंचक कुंड भी सूख गये, वह लुप्त हो गयी। श्रुति परम्परा का प्रमुख काम पुराने को सहेज कर रखना हो गया। 
आगे की शताब्दियों में एक बड़ी प्रगति यह हुई कि सत्रों का प्रारम्भ शीत अयनांत (आज का 22 दिसम्बर) से होने लगा और पुराने विषुव आधारित सत्रों से नये सत्रों के समायोजन प्रयासों के कारण तमाम जटिलतायें उत्पन्न हुईं। देवयान और पितृयान की अवधारणा लुप्त हो गई, सूर्य के अयनांत सापेक्ष उत्तरायण और दक्षिणायन अंतराल अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गये। संवत्सर का प्रारम्भ करने वाला अग्रहायण यानि मृगशिरा नक्षत्र अब स्वनामधारी महीने मार्गशीर्ष का पर्याय हो गया। चन्द्रगति आधारित मास तंत्र में यह एकमात्र महीना है जिसके दो नाम 'लोक प्रचलित' हैं - अगहन और मार्गशीर्ष।
आगे अश्विनी आदि से होते हुये महाविषुव आज उत्तरभाद्रपद नक्षत्र में आ पहुँचा है परन्‍तु प्राचीन स्मृति आधारित पर्व पूर्ववत चल रहे हैं।
कार्तिक अमावस्या के दीप पर्व से एक दिन पहले पितृयान के प्रधान देवता यम की स्मृति में एक दीप आज भी जलाया जाता है। आगे आने वाली कार्तिक की देवोत्थान एकादशी में पितृयान के समाप्त होने और पुराने देवयानी छ: महीनों की स्मृति समायी हुयी है। शीत अयनान्त उस मार्गशीर्ष महीने में ही पड़ता है जिसे अवतारी कृष्ण ने विशेष मान दिया था।
कृष्ण अवतारी क्यों कहलाये? उनका इतना मान क्यों है? इसके कारण आज की गोवर्धनपूजा की लोक परम्परा में सुरक्षित हैं। 
देवयान का प्रधान देवता इन्द्र है। उन छ: महीनों में जो सत्र होते थे वे इन्द्रादि देवों को समर्पित थे।  'रोहिणी युग' के कृष्ण ने जब हजारो वर्षों से चली आ रही इन्द्रयज्ञ  के स्थान पर गिरियज्ञ गोवर्धन पूजा का विकल्प दिया तो वह उस युग की एक क्रांति थी। संघर्षों की बात हम कर ही चुके हैं। पशु और मनुष्य दोनों के लिये कल्याणकारी अथर्वण आंगिरस औषधि परम्परा हेय दृष्टि से देखी जाने लगी थी।
ऐसे में कुरुवंश की जटिल राजनीति से दूर एवं द्वैपायन की वैदिक पुनर्संकलन की चिंताओं से अनभिज्ञ किशोर कृष्ण ने दूर देहात में एक व्यावहारिक एवं जन से जुड़ा विकल्प दिया। उसकी उपासना पद्धति में वैदिक सत्रों का सार तो था लेकिन सरल कर्मकांड सामान्य गोचारण से सीधे जुड़ते थे, पुरोहित और धनिक प्रतिष्ठित यजमानों की आवश्यकता नहीं थी।  मूलत: 'गोकुल' की घुमन्‍तू जीवन  शैली से जुड़ी यह पद्धति आगे किसानों से जुड़ गई। 
उसके व्यक्तित्त्व में वह चमत्कारी आकर्षण था जिसने व्यास से बहुत पहले ही परिवर्तन के बीज बो दिये।
 गीता में यही कृष्ण बिना जाने बूझे वैदिक कर्मकांडों में रत लोगों को 'वेदवादरता:' कह कर हेय दर्शाते हैं। छान्दोग्य उपनिषद में अनासक्ति का ज्ञान मिलता है: 
स यद्शिशिषति यत्पिपासति यन्न रमते ता अस्य दीक्षा:॥(3.17,1)
वहीं छ्ठे मंत्र में घोर आंगिरस ऋषि द्वारा देवकी पुत्र कृष्ण को यह ज्ञान देने की बात कही गयी है जिससे वह अन्य दर्शनों की पिपासा से मुक्त हो जाते हैं:
तद्धैतद्घोर आंगिरस: कृष्णाय देवकीपुत्रा...यहाँ दो बातें ध्यान देने योग्य हैं - घोर का आंगिरस होना जो कि अथर्वण परम्परा है और कृष्ण का पिता के स्थान पर माँ के नाम से पहचाना जाना। स्थापित कर्मकांडी व्यवस्था से भेद स्पष्ट हैं। संभवत: मात्र 8800 श्लोकों वाली जयगाथा में कृष्ण द्वारा वैदिक कर्मकांडों के प्रति विरक्ति और अनासक्ति के प्रति स्वीकार भाव देख परवर्ती विद्वानों ने उसे विस्तृत कर एक पूर्ण शास्त्र के रूप में व्यवस्थित कर दिया।

कालांतर में राम और कृष्ण का आश्रय ले इन्द्र के छोटे भाई विष्णु की अवतारी परम्परा स्थापित हुई जो वैदिक कर्मकांडों से परे जन से जुड़ी थी।
द्वैपायन कृष्ण हों या देवकीपुत्र कृष्ण, दोनों स्त्री के पक्ष में खड़े दिखते हैं। द्रौपदी आदि के जटिल प्रकरण हों या परिवार में ममत्त्वपूर्ण दुहिता का सुश्रुषा पक्ष, अथर्वण समर्थक द्वैपायन व्यास सर्वदा स्त्री हित का साथ देते दिखते हैं। अपहृत कुमारियों, द्रौपदी आदि से जुड़ी कन्हैया कृष्ण की गाथायें तो जगविख्यात हैं ही!       
उस समय पुरोहितों के शास्त्रीय सत्रों से प्रेरणा ले आने वाले अगहन के महीने में उपजने वाले नये धान 'अगहनी' की अच्छी उपज की मंगल कामना और कृषिभूमि पर सँवागों को पुन: प्रवृत्त करने हेतु घरनियों के सूप कातिक के महीने में बज उठते- उठो!
दीपपर्व की भोर में गृहिणियाँ ईश को बुलाने और दरिद्रता को भगाने की बुदबुदाहटों से उषा का स्वागत करतीं थीं। यह नये वर्ष में वैदिक सत्रों के प्रारम्भ होने से पहले की तैयारियों जैसा था।  
अगला दिन प्रतिपदा का था। पशु कृषकों के जीवन आधार थे। वर्ष में उनके विश्राम के लिये वह दिन सुरक्षित कर दिया गया। प्रतिपदा से बना – परुआ, जिस दिन आज भी पशुओं को मनुष्यवत सेवा और आदर सत्कार दिया जाता है।  
पितृयान के देव यम को बिदाई देनी थी, देवताओं को जगाना था। कृष्ण की प्रेरणा(?) से पशुओं के गोमय(गोबर) से ही यम यमी और संतति की भू प्रतिमायें बनीं। गोमय घेरे में गोबर से ही बनाये गये घरनी के सारे गृहसाथी - अन्न कूटने का ढेंका, पीसने का जाँता, कूटने वाली ऊखल आदि। खेती के उपकरण - हल, जुआ, बरही, बैलगाड़ी। खेतों के जीव भी स्थान पाये - साँप, बिच्छू। गृहस्वामी की खड़ाऊँ भी बनी और दुआर का भृत्य भी... अन्न उपजाऊ किसान का पूरा अस्तित्त्व गोवर्द्धन घेरे में समा गया।
यम के सिर में अन्न संग्रहित किये गये और उसके ऊपर मृत्युप्रदर्श कालिख चित्रित घड़ा रख दिया गया। घरनियों ने मूसल से जब मृत्युप्राप्त विगतवर्षरूप यम के सिर को कूटा तो वह घटना दो प्रतीकों की सर्जक हुई - नवजीवन देने वाले देवों के आह्वान की और भूख को मारने वाले अन्न के सम्मान की। गोवर्द्धन पर्व अन्नकूट तो हुआ ही, देवोत्थान दिवस भी हो गया!
गोवर्द्धन पर्वत वस्तुत: गृहस्थी से जुड़े विशाल विविधपक्षी कारकों का समुच्चयी रूपक है। उसे अंगुली पर धारण करने वाले कृष्ण का तात्पर्य उनके द्वारा उस ओर इंगिति से है। उसे धारण करने में सहयोग देने के लिये जो लाठी आदि के टेक हैं वे घरनियों के मूसलों के प्रतीक हैं।
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कुपित इन्द्र द्वारा सात दिनों तक की जाने वाली प्रलयसमान वर्षा लोकगाथा है - इतना बड़ा देवता, इतना बड़ा अपमान! और कुछ करे नहीं, हो ही नहीं सकता!! यह लोक का वही स्वरंजक रूप है जो राधा का सृजन कर उसे कृष्ण से जोड़ देता है और अपने पूर्वग्रहों से मुक्त न हो पाने के कारण सीता निष्कासन और उनके भूमि में समा जाने की कथा गढ़ उसे राम से। लोक में अवतारी जन को ऐसे मूल्य चुकाने पड़ते हैं।  
आज भी गोवर्द्धन पूजा पर्व कुछ क्षेत्रीय परिवर्तनों के साथ मनाया जाता है। हमारी ओर इस दिन के यम प्रतीक गोधन बाबा की देह से जो गोबर मिलता है उसे सुखा कर चिपरी या उपले बना लेते हैं। वैष्णव परम्परा की देवोत्त्थान एकादशी के दिन एक बार फिर से कृषि कर्म का दैवीकरण होता है। इस बार घेरा चावल के अइपन से बनता है जिसके भीतर वही सब चित्रित होते हैं जो गोधन के घेरे में होते हैं। केन्द्र में मिट्टी से बनी चन्द्रपीठ होती है जिस पर उन्हीं उपलों को जलाया जाता है।
उस आग में अन्न नहीं कन्द मूल जैसे सुथनी, शकरकन्द आदि भुने जाते हैं। जलकन्द सिंघाड़ा और नई ईंख के साथ उनका रात में पारण किया जाता है और वर्षा के चातुर्मास में सोये विष्णु जाग जाते हैं - प्रबोधिनी एकादशी। इस शेषशायी विष्णु का बिम्ब वैदिक गाथाओं जैसा ही विराट है।
सूर्यस्वरूप और काल से परे विष्णु अंतरिक्ष सागर में पूर्वी क्षितिज से पश्चिमी क्षितिज तक महासर्प राशि पर लेटे  हुये हैं। उनकी नाभि से प्रजापति यानि वही पुराना मृगशिरा निकलता दिख रहा है और पैरों से स्रोतस्विनी। तमाम ग्रह नक्षत्र जगते देव की वन्दना में लीन हैं।
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आइये आज की गोवर्द्धन पूजा के कुछ चित्र देखते हैं (स्रोत: http://deoria.blogspot.in और 'दैनिक जागरण'):
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और अंत में गोधन पूजा के गीत से एक अंश:
उठहु हे देव उठहु, सुतल भइलें छौ मास
तोहरे बिना ए देव, बारी न बियहल जा, बियहल ससुरा न जाय
कारी जे पहिरे कारी कमरिया, निरसइल पिपरा के पात
झम झम झमकी मानर बाजी, मंगल यहि छौ मास।
इस देवउठान के साथ ही देवयानी छ: महीने प्रारम्भ हो जाते हैं जब विवाहादि मंगल कर्म सम्पन्न किये जाते हैं। यमप्रतीक गोधन को कूटने के एक गीत का अंश निम्नवत है:
ऐरो के कूटीलें, भैरो के कूटीलें, कूटीलें जम के दुआर
कूटीलें  भइया के दुसमन, सातो पहर दिन रात। 
... भइया दूज से प्रारम्भ हो अगहन पूर्णिमा तक चलने वाला भाई बहन का पर्व पिड़िया अगले अंक में।
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अगले अंक में: पिड़िया में यम-यमी, प्रेम, नरबलि और अथर्ववेद की वनस्पति स्त्री परम्परा