शनिवार, 28 दिसंबर 2013

योनि वास्तुशिल्प

फुटबाल और लॉन टेनिस मेरे प्रिय खेल हैं (खेलता तो एक भी नहीं!)। इन्हें ले कर उत्सुकता बनी रहती है। वास्तुशिल्प का विद्यार्थी होने के कारण क़तर में होने वाले 2022 के प्रस्तावित फुटबाल स्टेडियम को ले कर भी उत्सुकता रही सो आज सर्च किया तो यह सामग्री हाथ लगी।

कहूँ तो वास्तुशिल्प के क्षेत्र में 2013 नैराश्यपूर्ण रहा। कोणार्क शृंखला में मैने स्त्री और पुरुष वास्तुशिल्प अवधारणाओं की बात बताई है। पश्चिमी वास्तु में अंग विशेष को ले कर संकल्पना की जाती है जब कि पारम्परिक भारतीय वास्तु में समग्र देह को लेकर जिसके कारण एक पूर्णता और समन्वय की स्थिति बनती है। क़तर देश में वर्ल्ड कप स्टेडियम का प्रस्तावित स्त्री वास्तुशिल्प चर्चा में है। इसका विरोध भी हो रहा है। इसे योनि वास्तु का एक उदाहरण बताया जा रहा है। इसकी डिजाइनर हैं - ज़हा हदीद।

इस स्टेडियम का वास्तु स्त्रीवादी रुझान लिये है जिसके मूल में यह है कि लिंग का आकार अब तक वास्तुशिल्प पर छाया रहा है, योनि आकार को भी स्थान मिलना चाहिये। एक मध्यपूर्वी देश में इसे आकार लेते देखना रोचक होगा।

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चित्राभार:http://www.dezeen.com

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

अय्याsss ऊssss अकबक! और जगराता

प्रात:काल का समय ऐसा होता है कि आप मौन, शांति और सुकून चाहते हैं। यदि कोई उससे पहले की ब्रह्मबेला में जगने वाला मनुष्य है तो परम शांति की अपेक्षा रखता है।  दुर्भाग्य से भारत ही नहीं संसार के अनेक देशों से यह शांति छीन ली गयी है। समय होता नहीं कि दायें बायें ऊपर नीचे हर ओर से लाउडस्पीकरों की ध्वनियाँ कानों से बलात्कार करने लगती हैं – अय्या sss ऊ ssss अकबक!

पहले कोई एक कढ़ाता है और तदुपरांत
एकाध मिनट के अंतर से एक के बाद एक वही ध्वनि चारो ओर मानो गन्ने के खेत में सियार देखा देखी हुँआ हुँआ कर रहे हों! जब लाउडस्पीकर नहीं थे तब क्या लोग आराधन को नहीं उठते थे? किसी को सर्वोपरि सर्वश्रेष्ठ एकमएक मानते हो तो दूसरों को भी उसे ही श्रेष्ठ मनवाने को क्यों आमादा हो भाई? अपने काम से काम रखो न!

तनातनी परम्परा में रतजगे या जगराते के उल्लेख तक नहीं मिलते। निशापूजन की परम्परा भी गुह्य ही बताई गई जिसे बहुत ही संयम और सावधानी के साथ किया जाना चाहिये लेकिन चिढ़ और नैराश्य को कैसे निकालना चाहिये, नहीं बताया गया। अब तनातनी तो हर काम विस्तृत विशाल ढंग से करने के आदी ठहरे - बिना दो चार अरब शंख वर्ष और एकाध लाख योजन के इनके काल आयाम पूरे ही नहीं होते, तो प्रतिक्रिया भी वैसी ही होनी चाहिये कि नहीं!
इसलिये हुँआ हुँआ से तंग किसी तनातनी नासपीटे ने जगराते की योजना मय लाउडस्पीकराँ बनायी होगी - तुम मेरा प्रात:काल खराब करते हो! लो झेलो अब रात भर माई के गुणगान को। देखता हूँ कौन माई का लाल रोकता है?

जिस प्रकार से सरस्वती का प्रसार सप्तसैन्धव पँचनद होता हुआ गंगा यमुना के प्रयागी संगम तक हुआ उसी प्रकार यह योजना भी पंजाब से चल कर गोबरपट्टी तक पहुँची होगी। खरमास में विवाही वाद निनाद बन्द हैं तो यह फोकटी परम्परा चालू आहे। बजरंग बली से साँई तक, फिल्मी धुनों की मलिकाइन से ले कर भोजपुरिया माई तक ये बेसुरे चंचलचंट गलाबाज गले के साथ साथ रात भर स्पीकर फाड़ते आम जन की नींद का सत्यानाश किये रहते हैं, कमबख्तों को न ठंड लगती है और न उनका गला खराब होता है! सुर ताल तो खैर मनविनाशन होते ही हैं!

यदि आप ध्यान दें तो अय्या sss ऊ ssss अकबक! हो या रतजगा, इनका आराधना से कुछ नहीं लेना देना। ये बस वर्चस्व के अस्त्र हैं। मध्यपूर्वी सर्वोच्चता का अघोषित किंतु बहुत ही स्पष्ट एजेंडा लिये समूचे संसार को रौंदता मत हो या पड़ोस के नये मान्नीय कोई सिंघ, यादो, पाँड़े, साँड़े; ऐसे आयोजनों से इन्हें बस यही तसल्ली मिलती है - हम हैं तो हैं, हमें कौन रोक सकता है, हमारी बड़ी प्रतिष्ठा है, देखो कैसे सबका जीना हराम किये रखते हैं!

इस प्रतिष्ठा के अंत में जो 'ठ' है, उसका भाईचारा ठसक से जुड़ता है और इसका एक ही उपचार है - शोर करने वाले का टेंटुआ दबा देना - बहुत चिल्ला रहे थे न अब चिल्ला कर दिखाओ लेकिन कोई भी सभ्य अमनपसन्द नियम क़ानून को मानने वाला, उनसे डरने वाला व्यक्ति लाख चाहने, मन्नते माँगने या शाप देने के बावजूद ऐसा कर नहीं सकता। हम भी उसी श्रेणी के हैं, यहाँ लिख कर भँड़ास निकाल ले रहे हैं। कल को पुन: झेलना ही है - अय्या sss ऊ ssss अकबक! ....माई तू है शोराँ वाली, घनचक्कर वाली साँई तू :(
... लाहौर बिना कुवैत!!
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 नोट:
इस आलेख का संसार के किसी भी भूतपूर्व, वर्तमान या भावी अत मत सत आय दाय गाय सम्प्रदाय लगाय बझाय से रत्ती भर का भी सम्बन्ध नहीं है। यह प्योर फ्रस्ट्रेशन का उद्घोषण भषण भर है, दिल पर न लें; सीरियसली तो कत्तई नहीं क्यों कि इसमें कुछ भी सीरियस नहीं है, हो ही नहीं सकता। यह तो सतरंगी जीवन पद्धति का एक क्षुद्र आयाम भर है।