शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

शेफाली

 

पहली किरणों के सम्मोहन से उबर किशोर ने झोला गले में लटकाया और द्वार की साँकल पर पाँव रख ऊपर चढ़ गया। काठ के तीरों से वस्त्र बचाते भीतर कूद पड़ा, भद्द!

 एक किशोरी की चीख सुन वह चकित रह गया। बाहर उजाले में हरसिंगार से बरसते मदगन्ध तले पहुँचा और वह मुड़ी।

अपार सौन्दर्य! वैसा तो कभी देखा ही न था। दोनों को समझ में नहीं आया कि नवरातन के पहले दिन हेतु चोरी छिपे फूल लोढ़ने कोई अन्य भी वहाँ आ कैसे आ सकता है? किशोर ने पूछा, फूल लेने आई हो?

पाटल दल खुले और दाड़िम दन्तावली मुस्कुरा उठी, नयनों के भँवरे उड़ चले,"हाँ, मैं उधर से, पड़ाव के पार से आई हूँ... माँ ने बताया था।" 

"किन्तु वहाँ तो बँगले पर ऐसे ही बहुत फूल हैं। यहाँ क्यों?" 

"जवाकुसुम नहीं हैं।"

"जवाकुसुम?"

"हाँ, नहीं जानते? वो रहे।"

"वे तो अड़हुल हैं।"

"अड़हुल? .... छि! कैसा नाम!"

दाड़िम दन्तावली पुन: खिल खिल चमक उठी। किशोर को नाम की नहीं पड़ी थी और पड़ी भी थी। नये पाये नाम में उसे बिहाने बिहाने सन्ध्या सुन्दरी दिख रही थी - साँझ की लाली में उड़ते धवल क्षौम। वह कुछ और सोचता कि सुनाई पड़ा, वे फूल तोड़ दोगे?

कँटीले तारों के पार अँड़हुल, नहीं, जवाकुसुम खिले थे - लाल लाल।

काठ के तीरों से बचा कर आया था किन्तु कालायस के काँटे तो जैसे थे ही नहीं। कैसे उस पार गया, ज्ञात नहीं, लौटा तो नयनभ्रमर प्रतीक्षा में थे। दुपट्टा पसर गया - इसमें, इसमें रख दो।

किशोर ने रखा और बचते हुये हरसिंगार के पुहुप चुनने लगा। वैसा ऊँचा, घना वृक्ष उसने कभी न देखा था, धरती पर देवी के भूषण बिछे थे, रजतपुष्प हिरण्य बिन्दु।

"हे, हे... भुँइया के फूल नहीं चढ़ते!" किशोर ने बिना देखे ही जवाकुसुम फूलते सुना।

"अम्मा कहती हैं कि हरसिंगार में दोष नहीं लगता।"

"अरे, जब पेंड़ से ले सकते हो तो भुँइया के क्यों चुनना?"

"गिरेंगे तो भुँइया ही न?"

"बुद्धू, देखो इधर।" 

किशोरी ने दुपट्टे का एक भाग भूमि पर बिछा दिया - अब हिलाओ पेंड़। देखूँ तो कितने बलवान हो!... 

.... किशोर वृक्ष हिला रहा है। झर झर झरते पुष्प किसी के आँचल में गिर रहे हैं। मुग्ध हँसी है, अनार फूले हैं, दुग्ध अभिषेक हो रहा है! 

"बस, बस, बस... मैं भी फूल भरी हो गई।"

किशोर को लगता है कि उसके केशों से कुछ फूल चुन लेने चाहिये किन्तु साहस नहीं होता।....

किशोरी ने पत्तों के दोने बनाये। उनमें हरसिंगार और जवाकुसुम भरे, किशोर के झोले में रखा - चलें अब?

किशोर अवाक सा या सपनों में या जाने कहाँ था। हाँ... कुछ और न कहा, जैसे आया, वैसे ही लौट गया।

दूसरे दिन से ले कर अष्टमी तक अनुमति नहीं मिली। अम्मा बोलती, साँप रहते होंगे उधर। वह मन ही मन कहता कि पहले दिन भी तो रहे होंगे, तब क्यों?

अन्तिम दिन पुन:। वहीं, वही दुहराव।

"अरे तुम बीच में आये ही नहीं?"

"नहीं, पहले और अन्तिम दिन ही विशेष होता है हमारे यहाँ तो।"

"हुस्स... नवो दिन होना चाहिये। इधर का लोग बोका है।"

"मैं नहीं था तो जवाकुसुम कैसे?"

किशोरी ने मुँह बना लिया - ट्राई की थी, यह देखो! उसकी बाँह पर गहरी खँरोचें थीं।

"माँ ने देखा तो माली को बोल दिया लाने को। मैं तो केवल शेफा... जानते हो, हरसिंगार को शेफाली बोलते हैं, शेफालिका। मेरा नाम भी शेफाली है... मैं तो बिना भुँइया गिरे फूल लेने आती थी, उतना नहीं हो पाता था जितना पहले दिन... तुम हर दिन आते तो कितना अच्छा होता।" 

जवाकुसुम चुन गये, दुपट्टे पर शेफालियाँ बरस गईं। दोने बनते व भरते देखता रहा किन्तु किशोर आगे कुछ पूछ नहीं पाया।

चलने के समय दाड़िम दन्तावली खिली, सोम को कलकत्ता चली जाऊँगी। जिसे माँ कहती हूँ न, वो मेरी मासी है। चलें अब?

"हाँ"

कुछ पग ही चला होगा कि सुनने को मिला... तुम बोका हो। खिल खिल खिल.... हरसिंगार की मादक गन्ध थी या हँसी की, किशोर कब घर पहुँचा, पता ही नहीं चला।

तब से आज तक हर लता, हर वनस्पति में वह शेफाली देखता है और उसे केवल एक रहस्य न जान पाने का दु:ख रहता है - वह भीतर आती कैसे थी? क्या वह भी द्वार के ऊपर से कूद कर?... नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। 

रविवार, 23 अगस्त 2020

ऋषिपंचमी


जुगनू जी कृषि का आविष्कारक स्त्रियों को मानते हैं। बात ठीक भी है। बृहद स्तर पर अपनाना पुरुषों का किया धरा है परन्तु बीज रूप में यह काम वन में फल सञ्चय करती किसी स्त्री ने ही उत्सुकता वश किया होगा। कोई बीज ला कर घर या गुहा के पास तोप दी होगी, अंकुर फूटे होंगे तो उसे वैसा ही लगा होगा जैसा गर्भ में पहली बार रज-वीर्य के निषेचन पश्चात कुछ नया होता है। उसने धरा से उगते बीज को एक माँ की स्नेहदृष्टि से सींचा होगा, लता हुई हो या द्रुम, उसे बढ़ते देख स्त्री को वही सुख मिला होगा जो अपने शिशु को बढ़ते देख होता है। किसी कोमल भावुक क्षण में उसने साथी को यह काम बड़े स्तर पर करने को मना लिया होगा।
 पुरुष तो पुरुष, प्रिया की बात पर मन ठाँव पा जाये तो पहाड़ तोड़ दे, उसके वक्ष की रोमावलियाँ प्रजापति की रेखायें हो जायें।
हमारी पूरी सभ्यता व संस्कृति उस मौलिक क्रांति की देन हैं जिसे हम कृषि कहते हैं। देवसंस्कृति वह कृषि संस्कृति है जिसकी दूसरी सीमा पर वे असुर हैं जो अब भी आखेटजीवी हैं, जो छीन कर, बलात हरण कर पेट पालने में लगे हैं।
कृषि पेट पर मानव के विजय का यज्ञ है, जिससे ऊपर उठ कर मस्तिष्क नित नव नवाचार में लगा और प्रजा देव होती चली गयी।
हम देवसभ्यता हैं, हमने ही सकल संसार को देवत्व दिया, उदरम्भरि अनात्म से जाने कितने ऊपर उठ शाकम्भरी हुई प्रज्ञा ने सृष्टि के ऋत रहस्यों का उद्घाटन किया।
ऋषि शब्द जिस मूल से है, उसका एक अर्थ काटना भी है। स्थूल अर्थ में ऋषि वह है जो सोम कहे गये धात्विक अयस्कों से परशु बना कर जंगल काटे, फाल बना कर मुक्त हुई धरा का उदर काट उसमें उसी के बीज बो दे। सूक्ष्म अर्थ में ऋषि वह है जो केवल पेट से जुड़े तामस को काट आपको चेतना के वास्तविक रूप दिखाये। ऋषि द्रष्टा है। वह पञ्चमहाभूतों से बनी देह से ऊपर मन, प्राण और आत्मविद्या तक ले जाता है।
ऋषिपञ्चमी कृषिपञ्चमी है, ऋषि और पसरती प्रजावती स्त्री के प्रति कृतज्ञता और उनकी क्षमताओं को मनाने का पर्व। सोम की भाँति ही मासिक कलायें लेती स्त्री के सम्मान का पर्व। यह ऐसे ही नहीं है कि माँ का भाई हुआ चन्द्र'मा' चन्दा'मा''मा' है। वनस्पतियाँ ऐसे ही सोम नहीं हो गईं। जो मूर्तिमान भारत महादेव है, वह अर्द्धनारीश्वर सोमेश्वर हो ऐसे ही नहीं चन्द्र को मस्तक पर धारण कर चन्द्रशेखर हो गया। 

शनिवार, 15 अगस्त 2020

बुधवार, 12 अगस्त 2020

Birth Time of Shri Krishna श्रीकृष्ण का जन्म समय

Birth Time of Shri Krishna
आज से ५२४७ वर्ष पूर्व, अमान्त श्रावण या पूर्णिमान्त भाद्रपद मास, कृष्ण अष्टमी, तदनुसार जूलियन दिनाङ्क १९/२० जुलाई की रात।
श्रीकृष्ण का जन्म नक्षत्र रोहिणी था तथा समय को ले कर तीन बातें मिलती हैं -
- अर्धरात्रि
- अभिजित मुहूर्त
- विजय मुहूर्त
उक्त दिवस दिन में ०३:३४:२३ अपराह्न को अष्टमी आरम्भ हो गई। रात में ११:४८:१६+ पर लग्न भी रोहिणी हो गया।
अथर्वण ज्योतिष की मुहूर्त नामावली में विजय नाम का मुहूर्त मिलता है। मुहूर्त अहोरात्र अर्थात दिन रात मिला कर हुये घण्टों का तीसवाँ भाग होता है, आज का लगभग ४८ मिनट। इन मुहूर्तों को ब्राह्मण ग्रंथों में तीस नाम दिये गये हैं जबकि कुछ में केवल पंद्रह नाम मिलते हैं, रात दिन हेतु एक ही। मुहूर्त की गणना सूर्योदय से करते हैं, स्पष्ट है कि विभिन्न तिथियों में मुहूर्त नामों के समय में किञ्चित अंतर रहेगा ही रहेगा।
उस दिन अर्धरात्रि का मुहूर्त अभिजित ११:४०:५९ पर समाप्त हो गया। यदि अभिजित मुहूर्त को ही मानें तो कृष्ण का जन्म लग्न कृत्तिका तथा नक्षत्र रोहिणी।
यदि आज की दृष्टि से ठीक बारह बजे अर्धरात्रि मानें (जोकि तत्कालीन चलन अनुसार ठीक नहीं प्रतीत होता) तो उनका जन्म लग्न भी रोहिणी था।
अब आते हैं विजय मुहूर्त पर। यह रोचक है। अभिजित के पश्चात तीन मुहूर्त हैं - रौहिण, बल और विजय। रौहिण नाम रोचक है। सम्भव है कि उस दिन अभिजित बीत जाने पर रौहिण मुहूर्त में जन्म हुआ हो। रोहिणी नाम से साम्यता के कारण कालांतर में कुछ भ्रम हुआ हो।
रौहिण समाप्त हुआ रात के १२:२८:५९ पर। विजय मुहूर्त का आरम्भ रात के ०१:१६:५९+ से हुआ और ०२:०४:५९ पर समाप्त हो गया। किंतु तब चंद्र के रोहिणी में रहते हुये भी लग्न आर्द्रा हो गया जोकि ठीक नहीं है। अत: विजय मुहूर्त नहीं माना जा सकता।
अब आते हैं रौहिण की सम्भावना पर। रौहिण आरम्भ से सवा आठ मिनट पश्चात ही लग्न भी रोहिणी हो गया था। रात के १२:२५:३७+ तक लग्न भी रोहिणी है।
इस विश्लेषण, अर्द्धरात्रि, रोहिणी, अभिजित एवं ऐसे भी रोहिणी शब्द से कृष्ण के जुड़ाव को देखते हुये कुल मिला कर कृष्ण का जन्म पश्चिमी सौर सन्‌ की दृष्टि से १९/२० जुलाई को आज से ५२४७ वर्ष पूर्व रात में ११:४८:१६+ से १२:२५:३७+ के बीच हुआ।
इससे भी अधिक सूक्ष्म गणना हेतु विविध ग्रहों की स्थितियाँ भी देखनीं होंगी। उनके बारे में विद्वत्वर्ग एकमत नहीं है।
...
[राशियों का मूल ऋग्वेद में ही है जहाँ देवताओं के नामों के साथ उन्हें द्वादश आदित्यों से जोड़ कर जाना जाता था। ऋतु आधारित कृषि कार्य में सूर्य की मोटी स्थिति हेतु तीस अंश के इन विभाजनों से काम चल जाता था किंतु सूक्ष्म गणना, याज्ञिक सत्र, अन्य कर्मकाण्ड आदि हेतु नक्षत्र आधारित गणना ही प्रचलित थी जिसका स्थूल विवरण वेदाङ्ग ज्योतिष में मिलता है।
किंतु
यह भी सच है कि वर्तमान में प्रचलित राशि आधारित फलित ज्योतिष हमारे यहाँ पश्चिम से ही आई। देवता सम्बंधित सौर मास व आकाशीय विभाजन वाला ज्ञान बेबिलोन तक व्यापारी वर्ग एवं उद्योगी राजन्यों द्वारा पहुँचा जहाँ से मिस्र, रोम, ग्रीस आदि होते हुये वह स्वतंत्र रूप से विकसित हो कर शताब्दियों पश्चात हमारे यहाँ पहुँचा जिसे आगे की शताब्दियों में स्वतंत्र रूप से परिमार्जित करते हुये हमने अपना सैद्धान्‍तिक ज्योतिष बना लिया।
इसे बताने का उद्देश्य यह है कि ऊपर की सूक्ष्म गणना को तीस अंश के मोटे विभाजन वाले राशि-ज्ञान से नहीं तौला जाना चाहिये कि लग्न तो वृष था तो और आगे पीछे हो सकता है आदि आदि।]

राशियों के विकास पर विस्तार से जानने हेतु ये लेख अवश्य पढ़ें। जो लोग सब कुछ सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा द्वारा सूर्य को उपदिष्ट मानते हैं तथा सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ को अपौरुषेय अकाट्य मानते हैं, उन्हें यह सब पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। बेबिलॉन एवं भारतीय ज्योतिष 1, 2, 3, 4 

रविवार, 9 अगस्त 2020

Sumitra सुमित्रा मेघमयी

 

Sumitra सुमित्रा मेघमयी
वर्षा से सम्मोहित भारत ने संवत्सर को वर्ष कहा, वर्षा के देवता इंद्र को देवराज बनाया। काव्य में मेघ हों या बरसते पर्जन्य हों, भारतीय मनीषा ने मानवीय भावों को उनसे उन्मेषित कर दिया! 
राम के प्रति जितना विश्वास माता सुमित्रा में दिखता है, किसी अन्य में नहीं। कवि ने उन्हें 'वाक्योपचारे कुशला' कहा है जैसे बात कर के ही दु:ख के मेघ हर लेने वाली counsellor हों -
आश्वासयन्ती विविधैश्च वाक्यैर्वाक्योपचारे कुशलाऽनवद्या
रामस्य तां मातरमेवमुक्त्वा देवी सुमित्रा विरराम रामा

राम वनगमन के समय सुमित्रा अपनी सपत्नी कौसल्या को समझाते हुये मेघ से जुड़ी उपमायें देती हैं। उनकी बातों में सूर्य हैं, चंद्र हैं, नयनों के जल हैं, शीत है, घाम है, समस्त प्रकृति उपस्थित सी है -
किम् ते विलपितेन एवम् कृपणम् रुदितेन वा
रामः धर्मे स्थितः श्रेष्ठो न स शोच्यः कदाचन ...

व्यक्तम् रामस्य विज्ञाय शौचम् माहात्म्यम् उत्तमम्
न गात्रम् अंशुभिः सूर्यः संतापयितुम् अर्हति
शिवः सर्वेषु कालेषु काननेभ्यो विनिस्सृतः
राघवम् युक्त शीतोष्णस्सेविष्यति सुखोऽनिलः
शयानम् अनघम् रात्रौ पिता इव अभिपरिष्वजन्
रश्मिभिः संस्पृशन् शीतैः चन्द्रमा ह्लादयिष्यति
सूर्यस्यापि भवेत्सूर्योह्यग्नेरग्निः प्रभोः प्रभोः
श्रियश्च श्रीर्भवेदग्र्या कीर्ति
: कीर्त्याः क्षमाक्षमा
शिरसा चरणावेतौ वन्दमानमनिन्दिते
पुनर्द्रक्ष्यसि कल्याणि पुत्रं चन्द्रमिवोदितम्
त्वया शेषो जनश्चैव समाश्वास्यो यदाऽनघे
किमिदानीमिदं देवि करोषि हृदि विक्लबम्

किंतु मेघ सब पर भारी हैं -
मेघ जल से भर जाते हैं तो नीचे झुक जाते हैं। लौटा पुत्र चरणों में झुका होगा। वर्तमान के दारुण प्रसङ्ग से कौसल्या का ध्यान हटा कर सुमित्रा भविष्य के सुखद प्रसङ्ग की ओर ले जाती हैं -
अभिवादयमानं तं दृष्ट्वा ससुहृदं सुतम्
मुदाऽश्रु मोक्ष्यसे क्षिप्रं मेघलेखेव वार्षिकी

जब सुहृदों के साथ लौटे अपने पुत्र राम को आप अभिवादन में झुका पायेंगी तो वर्षा ऋतु के समय भरे मेघों के समान आप के आनंद अश्रु बरसेंगे।
मंत्रपूत जल से सिञ्चन करना प्रोक्षण कहा जाता है। सुमित्रा माता के उन आँसुओं को ऐसे जल की शुचिता प्रदान करते हुये कहती हैं -
अभिवाद्य नमस्यन्तं शूरं ससुहृदं सुतम्
मुदाऽस्रैः प्रोक्ष्यसि पुनर्मेघराजिरिवाचलम्

जब आप का शूर पुत्र सुहृदों के साथ लौट कर नमन अभिवादन में झुका होगा तब पुन: आप के आँसू उसका वैसे ही प्रोक्षण करेंगे जैसे मेघ पर्वत पर बरसते उसे भिगोते हैं।
राम साँवले हैं, विशाल पर्वत के समान ही समस्त परिस्थितियों में अचल रहते हैं, विचलित नहीं होते। माता के अश्रुमेघों के नीचे नत राम का विशाल घनश्याम भूधर व्यक्तित्व उन्हें अद्भुत गरिमा प्रदान करता है। दु:ख का काल है, सब ओर आशंकाओं की घटायें हैं किंतु वाक्योपचार कुशला देवी सुमित्रा उस समय को भी भावी सुख से जोड़ देती हैं। प्रकृत मन प्रकृति के मेघ वर्षण को देख आनंदित होता ही है, धरा सम्पूरित जो हो जाती है।
निशम्य तल्लक्ष्मणमातृवाक्यं रामस्य मातुर्नरदेवपत्न्या:
सद्यश्शरीरे विननाश शोकः शरद्गतो मेघ इवाल्पतोयः

लक्ष्मण की माता के वचन सुन कर राम की माता रानी कौशल्या के शरीर का दु:ख सद्य: नष्ट हो गया मानो अल्प जल वाला शरद ऋतु का मेघ हो। शरीर शब्द जिस धातु से बनता है, उसका अर्थ क्षरित होना होता है - शृ। दु:ख के क्षरण को दर्शाने हेतु कवि ने शरीर शब्द का प्रयोग किया है।
कौशल्या के मन को वर्षा ऋतु के पर्जन्य घन मेघों से ले कर शरद ऋतु के अल्पतोयी मेघों तक विरमा कर सुमित्रा ने रामवनगमन के दु:ख का शमन कर दिया। नाम ही है सुमित्रा, सु+मित्रा

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

Shrirama Crown Price Coronation श्रीराम यौवराज्याभिषेक तिथि का निर्धारण राजा दशरथ ने किया


अद्य चन्द्रोऽभ्युपगतः पुष्यात्पूर्वं पुनर्वसू
श्वः पुष्ययोगं नियतं वक्ष्यन्ते दैवचिन्तकाः
ततः पुष्येऽभिषिञ्चस्व मनस्त्वरयतीव माम्
श्वस्त्वाऽहमभिषेक्ष्यामि यौवराज्ये परन्तप
महातेजस्वी, समस्त भूतों में स्वयम्भू के समान, कौशल्या के सुत वैसे जैसे अदिति के वज्रपाणि इन्द्र, रूपोपन्न, वीर्यवान, अनसूयक, भूमावनुपम, प्रशान्तात्मा, मृदुभाषी, दूसरों की कठोर बातों का भी प्रत्युत्तर न देने वाले अर्थात प्रतिक्रियावादी नहीं, कृतज्ञ, अपकारास्मर, शील-ज्ञान-वय-वृद्धों से विमर्शी, बुद्धिमान, प्रियम्वद, अविस्मित, नानृतकथ, विद्वान, वृद्धप्रतिपूजक, प्रजानुरञ्जक, जितक्रोध, सानुक्रोश, ब्राह्मणप्रतिपूजक, दीनानुकम्पी, धर्मज्ञ, प्रग्रहवान, शुचि, कीर्तिमानी, कुलोचितमति, क्षात्रधर्ममानी, नाश्रेयरत, विरुद्धकथाऽरुचि, वाचस्पतिसम उत्तरोत्तरयुक्ति वक्ता, अरोग, तरुण, वाग्मी, वपुष्मान, देशकालविद, पुरुषसारज्ञ, लोकसाधु एक, प्रजा के प्राणप्रिय, सम्यक विद्या युक्त स्नातक, साङ्गवेदविद, धनुर्विद्या में पिता से भी श्रेष्ठ, धर्मार्थदर्शीद्विजशिक्षित, स्मृतिमान, धर्मकामार्थतत्त्वज्ञ, प्रतिभानवान, लौकिक समयाचार कृतकल्पविशारद, निभृत, संवृताकार, गुप्तमन्त्र, सहायवान, अमोघहर्षक्रोध, त्यागसंयमकालविद...

... यौवराज्याभिषेक की भूमिका में आदर्श राजा के गुणों को गिनाते व उनके राम में होने को बताते हुये महामुनि वाल्मीकि अयोध्याकाण्ड के पहले सर्ग में ही मर्यादा पुरुषोत्तम के भावी रामराज्य की झाँकी दिखा देते हैं जो दशरथ के सुराज से भी बढ़ चढ़ कर होगी। नगर-वन-नगर के राम अयन के अन्तिम युद्धकाण्ड के अन्त में सम्राट के राज्याभिषेक में विस्तार से लिखने को कुछ बचा ही नहीं, राम का जीवनवृत्त एक ऐसा वृत्त है जिसका आदि अन्त ही नहीं ...

दृढभक्तिः स्थिरप्रज्ञो नासद्ग्राही न दुर्वचाः
निस्तन्द्रिरप्रमत्तश्च स्वदोषपरदोषवित्
शास्त्रज्ञश्च कृतज्ञश्च पुरुषान्तरकोविदः
यः प्रग्रहानुग्रहयोर्यथान्यायं विचक्षणः
सत्संग्रहप्रग्रहणे स्थानविन्निग्रहस्य च
आयकर्मण्युपायज्ञः संदृष्टव्ययकर्मवित्
श्रैष्ठ्यं शास्त्रसमूहेषु प्राप्तो व्यामिश्रकेषु च
अर्थधर्मौ च संगृह्य सुखतन्त्रो न चालसः
वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थविभागवित्
आरोहे विनये चैव युक्तो वारणवाजिनाम्
धनुर्वेदविदां श्रेष्ठो लोकेऽतिरथसम्मतः
अभियाता प्रहर्ता च सेनानयविशारदः
अप्रधृष्यश्च संग्रामे क्रुद्धैरपि सुरासुरैः
अनसूयो जितक्रोधो न दृप्तो न च मत्सरी
न चावमन्ता भूतानां न च कालवशानुगः
एवं श्रेष्ठगुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः
सम्मतस्त्रिषु लोकेषु वसुधायाः क्षमागुणैः
बुद्ध्या बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्येणापि शचीपतेः
तथा सर्वप्रजाकान्तैः प्रीतिसञ्जननैः पितुः
गुणैर्विरुरुचे रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः

°°°
लोकपाल इन्द्र के समान ऐसे राम को अपना नाथ बनाने हेतु मेदिनी ही मानो कामना कर उठी!
इत्येतैर्विविधैस्तैस्तैरन्यपार्थिवदुर्लभैः
शिष्टैरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणैः
तं समीक्ष्य महाराजो युक्तं समुदितैः शुभैः
निश्चित्य सचिवैः सार्धं युवराजममन्यत

ऐसी स्थिति हो जाने पर कि राम योग्यता में उनसे बहुत आगे हो चुके हैं, राजा ने 'समीक्षा' कर, सचिवों के साथ विमर्श कर राम को युवराज बनाने का निर्णय लिया।
आत्मनश्च प्रजानां च श्रेयसे च प्रियेण च
प्राप्तकालेन धर्मात्मा भक्त्या त्वरितवान् नृपः

प्राप्तकालेन, उचित अवसर आ चुका था। उस पद हेतु राम न्यूनतम वय की सीमा भी पूरी कर चुके थे। राम का जन्मदिन आ पहुँचा था, राजा ने बिना विलम्ब के त्वरित ही चन्द्रमा के समान मुख वाले रामचन्द्र का अभिषेक करने का निर्णय लिया, जो वैसे ही शोभते हैं जैसे चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र के साथ -
तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम्
यौवराज्ये नियोक्तास्मि प्रीतः पुरुषपुंगवम्

साथ ही सभा में उपस्थित विविध राजाओं की सम्मति माँगी कि परस्पर विरोधी मतों के घर्षण पश्चात ही ऐसा महत्वपूर्ण काम किया जाना चाहिये -
यद्यप्येषा मम प्रीतिर्हितमन्यद्विचिन्त्यताम्
अन्या मद्यस्थचिन्ता हि विमर्दाभ्यधिकोदया

राजतन्त्र का लोकतन्त्र था, समस्त प्रजा के प्रतिनिधि उपस्थित थे। सबने एक स्वर से अनुमोदन किया किन्तु दशरथ ने तब भी पूछा कि ऐसा क्या है मेरे कहे में जो सभी मान गये?
श्रुत्वैव वचनं यन्मे राघवं पतिमिच्छथ
राजानः संशयोऽयं मे तदिदं ब्रूत तत्त्वतः

प्रतिनिधियों व राजाओं ने वही गुण दुहराये जो ऊपर लिखे जा चुके हैं।
सुभ्रूरायतताम्राक्षः साक्षाद् विष्णुरिव स्वयम्
रामो लोकाभिरामोऽयं शौर्यवीर्यपराक्रमैः
तब दशरथ ने वसिष्ठ, वामदेव व अन्य ब्राह्मणों से कहा -
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम्

वसिष्ठ मुनि ने अगले दिन अभिषेक हेतु सारी व्यवस्थायें करने का आदेश दे दिया।
पिता ने पुत्र को बुला कर कहा, पुष्ययोग में तुम्हारा अभिषेक होगा -

तस्मात्त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि।
कहा कि यद्यपि तुम गुणवान हो, तथापि -
भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेन्द्रियः
कामक्रोधसमुत्थानि त्यजेथा व्यसनानि च
विनयी रहो, जितेन्द्रिय हो, काम, क्रोध व व्यसनों का त्याग कर के!
...
समय का निर्णय दशरथ का था, वसिष्ठ मुनि ने कार्यक्रम निर्धारित किया। दशरथ की चेतावनी मानो भावी हेतु ही उनके अवचेतन से निस्सृत हुई थी।
पौराणिक व लौकिक लन्तरानियों से इतर मूल को पढ़ें, ध्यान से। व्यर्थ के वितण्डा से मुक्ति मिलेगी। रामायण हो या महाभारत, राजन्यों के ज्योतिष ज्ञान के विशद विवरण बिखरे पड़े हैं। तब मुहूर्त देख कर काम नहीं किये जाते थे, काम करने का निर्णय ले कर उपलब्ध में से शुभ का चयन कर लिया जाता था। दोनों में अन्तर है।
जिस दिन निर्णय लिया गया, चैत्र माह में चन्द्र पुनर्वसु नक्षत्र पर थे, राम की जन्मतिथि। पुनर्वसु की अधिष्ठात्री मघवा माता अदिति हैं। उपेन्द्र विष्णु से अधिक राम की गढ़न महेन्द्र की है।
पुनर्वसु का अगला नक्षत्र पुष्य था, बृहस्पति का।

शुक्रवार, 26 जून 2020

नारदपुराण में भगवान जगन्नाथ

नारदपुराण में भगवान जगन्नाथ , यह पुराण पुरी में पाञ्चरात्र उपासना का भी उल्लेख करता है।
naradpuran-puri-jagannath

यदत्र प्रतिमा राजन् राजपूज्या सनातनी
यथा तां प्राप्नुया भूप तदुपायं ब्रवीमि ते
गतायामद्य शर्वर्यां निर्मले भास्करोदये
सागरस्य जलस्यान्ते नानाद्रुमविभूषिते
जलं तथैव वेलायां दृश्यते यत्र वै महत्
लवणस्योदधे राजंस्तरङ्गैः समभिप्लुतम्
कूलालम्बी महावृक्षः स्थितः स्थलजलेषु च
वेलाभिर्हन्यमानश्च न चासौ कम्पते ध्रुवः
हस्तेन पर्शुमादाय ऊर्मेरन्तस्ततो व्रज
एकाकी विहरन् राजन्यं त्वं पश्यसि पादपम्
इदं चिह्नं समालोक्य च्छेदय त्वमशङ्कितः
शात्यमानं तु तं वृक्षं प्रांशुमद्भुतदर्शनम्
दृष्ट्वा तेनैव सञ्चिन्त्य तदा भूपाल दर्शनम्
कुरु तत्प्रतिमां दिव्यां जहि चिन्तां विमोहिनीम्
...
अयं तव सहायार्थमागतः शिल्पिनां वरः
विश्वकर्मसमः साक्षान्निपुणः सर्वकर्मसु
मयोद्दिष्टां तु प्रतिमां करोत्येष तटं त्यज
श्रुत्वैवं वचनं तस्य तदा राजा द्विजन्मनः
सागरस्य तटं त्यक्त्वा गत्वा तस्य समीपतः
तस्थौ स नृपतिश्रेष्ठो वृक्षच्छायां सुशीतलाम्
ततस्तस्मै स विश्वात्मा तदाकारां तदाकृतिम्
शिल्पिमुख्याय विधिजे कुरुष्वेत्यभ्यभाषत
कृष्णरूपं परं शान्तं पद्मपत्रायतेक्षणम्
श्रीवत्सकौस्तुभधरं शङ्खचक्रगदाधरम्
गौरं गोक्षीरवर्णाभं द्वितीयं स्वस्तिकाङ्कितम्
लाङ्गलास्त्रधरं देवमनन्ताख्यं महाबलम्
देवदानवगन्धर्वयक्षविद्याधरोरगैः
न विज्ञातो हि तस्यान्तस्तेनानन्त इति स्मृतः
भगिनीं वासुदेवस्य रुक्मवर्णां सुशोभनाम्
तृतीयां वै सुभद्रांं च सर्वलक्षणलक्षिताम्
श्रुत्वैतद्वचनं तस्य विश्वकर्मा सुकर्मकृत्
तत्क्षणात्कारयामास प्रतिमाः शुभलक्षणाः
कुण्डलाभ्यां विचित्राभ्यां कर्णाभ्यां सुविराजिताः
चक्रलाङ्गलविन्यासहताभ्यां भानुसम्मताः
प्रथमं शुक्लवर्णानां शारदेन्दुसमप्रभम्
सुरक्ताक्षं महाकायं फटाविकटमस्तकम्
नीलाम्बरधरं चोग्रं बलमद्भुतकुण्डलम्
महाहलधरं दिव्यं महामुसलधारिणम्
द्वितीयं पुण्डरीकाक्षं नीलजीमूतसन्निभम्
अतसीपुष्पसङ्काशं पद्मपत्रायतेक्षणम्
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्पीतवाससमच्युतम्
चक्रकम्बुकरं दिव्यं सर्वपापहरं हरिम्
तृतीयां स्वर्णवर्णाभां पद्मपत्रायतेक्षणाम्
विचित्रवस्त्रसञ्छन्नां हारकेयूरभूषिताम्
विचित्राभरणोपेतां रत्नमालावलम्बिताम्
पीनोन्नतकुचां रम्यां विश्वकर्मा विनिर्ममे
स तु राजाद्भुतं दृष्ट्वा क्षणेनैकेन निर्मिताः
दिव्यवस्त्रयुगाच्छन्ना नानारत्नैरलङ्कृताः

सर्वलक्षणसम्पन्नाः प्रतिमाः सुमनोहराः

गुरुवार, 11 जून 2020

restoration of broken lingam Agni puran दुष्टलिङ्ग जीर्णोद्धार



काशी के पण्डों के एक वर्ग ने बहुत बवाला मचाया हुआ है कि शिवलिङ्ग एक बार स्थापित हो गया तो हटाया नहीं जा सकता।
वास्तविकता क्या है?

इस प्रश्न से पूर्व उनसे यह पूछा जाना चाहिये कि सोमनाथ हो या विश्वनाथ, जो लिङ्ग भङ्ग कर दिये गये, उनके स्थान तक हड़प लिये गये, उनके लिये शास्त्र मर्यादा क्या है?

विश्वेश्वर के मूल स्थान पर तो आज रजिया की मस्जिद है। ज्ञानवापी विश्वनाथ की तो कहानी ही कारुणिक है!

वास्तविकता यह है कि जीर्णोद्धार का प्रावधान है तथा दुष्टलिङ्ग जैसी सञ्ज्ञा भी है। या तो वे पण्डे सूक्ष्म विधान समझ नहीं पा रहे या स्वार्थवश वितण्डा में लगे हैं।

अग्निपुराण में बहुत विस्तार से जीर्णोद्धार का विधान है किंतु शब्दावली ऐसी है जो ऐसा करने को बहुत ही असामान्य स्थिति में अनुमति देती है। सारा बखेड़ा चालन शब्द को ले कर है जिसका अभिधा अर्थ ले कर कि लिङ्ग को उसके स्थान से नहीं हटाया जा सकता, वितण्डा चल रहा है। चालन शब्द प्रस्तर प्रतिमा हेतु नहीं, मूल स्थान हेतु है अर्थात मूल स्थान वही रहेगा, वहाँ स्थापित लिङ्ग यदि दुष्टलिङ्ग अर्थात दोषयुक्त हो गया हो तो उसे चलायमान कर नया स्थापित किया जा सकता है।

शास्त्रकार लिङ्ग को पाषाण प्रतिमा न मान कर शम्भु की बात कर रहा है जबकि ये पण्डित लिङ्गप्रतिमा को ही सबकुछ माने बैठे हैं।

स्थानभङ्ग, वज्रपात, झुकाव व केंद्रस्थ स्थापना आदि दोषों की स्थिति (दुष्ट को दोष से समझें) में पुन: वही लिङ्ग स्थापित किया जा सकता है यदि क्षत या व्रणचिह्न न हों - निर्ब्रणञ्च। आगे बताता है कि विधिसम्मत ढङ्ग से पुन:स्थापित लिङ्ग अपने स्थान से नहीं हटाया जाना चाहिये -

ततोऽन्यत्रापि संस्थाप्य विधिदृष्टेन कर्म्मणा । सुस्थितं दुस्थितं वापि शिवलिङ्गं न चालयेत् ॥

इस श्लोक की दूसरी अर्द्धाली मात्र को ले कर पण्डे गाल बजा रहे हैं - अधूरी बात। ऐसे कर्म काशी में बहुत पहले से होते रहे हैं, कोई नई बात नहीं। अगला श्लोक देखें -

शतेन स्थापनं कुर्य्यात् सहस्रेण तु चालनं । पूजादिभिश्च संयुक्तं जीर्णाद्यमपि सुस्थितं ॥

यदि स्थापना हेतु सौ (पूजार्पण आदि) करना है तो चालन हेतु हजार का। इस प्रकार की पूजा से संयुक्त होने पर जीर्ण हुआ लिङ्ग भी सुस्थापित हो जाता है। जीर्ण का अर्थ जिसकी स्थिति बिगड़ गयी हो परंतु जिसमें दोष न आये हों।

व्रण, टूट, भङ्ग आदि दोष होने पर क्या करें?

विधाय द्वारपूजादि स्थण्डिले मन्त्रपूजनं
मन्त्रान् सन्तर्प्य सम्पूज्य वास्तुदेवांस्तु पूर्ववत्
दिग्बलिं च वहिर्दत्वा समाचम्य स्वयं गुरुः
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु 
शम्भुं विज्ञापयेत्ततः

दुष्टलिङ्गमिदं शम्भोः शान्तिरुद्धारणस्य चेत्
रुचिस्तवादिविधिना अधितिष्ठस्व मां शिव
एवं विज्ञाप्य देवेशं शान्तिहोमं समाचरेत्

लम्बी प्रक्रिया है। संक्षेप में जानें कि विधि सम्मत मंत्रपूजा कर, तर्पण कर, वास्तुदेव को संतुष्ट कर, दिग्बलि दे, ब्राह्मण भोजन आदि करा कर स्वयं शम्भु को विज्ञापित करे -

हे शम्भु! यह लिङ्ग दोषयुक्त हो गया है, इसका उद्धार करना है (उद्धार शब्द की व्युत्पत्ति निरुक्त व पाणिनि अनुसार काशी के पण्डों को पढ़नी चाहिये)। हे शिव! यदि आप को रुचे तो इन विधियों के द्वारा आप मुझमें अधितिष्ठ हों! (यजमान स्वयं के भीतर शिव को स्थित रहने को कह रहा है।)
इसके पश्चात उसे शांतिहोम करना चाहिये।

इससे आगे अनेक विधि विधान वर्णित हैं तथा -

सत्त्वः कोपीह यः कोपिलिङ्गमाश्रित्य तिष्ठति
लिङ्गन्त्यक्त्वा शिवाज्ञाभिर्यत्रेष्टं तत्र गच्छतु
विद्याविद्येश्वरैर्युक्तः स भवोत्र भविष्यति

जो भी सत्त्व इस लिङ्ग मेंंआश्रय लिये हुये हैं, शिव की आज्ञा से इस लिङ्ग का त्याग कर जहाँ जाना चाहें, जायें। विद्या व विद्येश्वर से युक्त भव अर्थात शिव यहाँ बने रहेंगे।

आगे सत्त्व शक्तियों को हटाने की विधियाँ हैं - 

दत्वार्घं च विलोमेन तत्त्वतत्त्वाधिपांस्तथा
अष्टमूर्त्तीश्वरान् लिङ्ग पिण्डिकासंस्थितान् गुरुः
विसृज्य स्वर्णपाशेन वृषस्कन्धस्थया तथा  
रज्वा बध्वा तया नीत्वा शिवमन्तं गृणन् जनैः
तज्जले निक्षिपेन् मन्त्री पुष्ठ्यर्थं जुहुयाच्छतं 
तृप्तये दिक्पतीनाञ्च वास्तुशुद्धौ शतं शतं

इसके पश्चात महापाशुपत मंत्र द्वारा भवन को रक्षित कर गुरु नये लिङ्ग की वहाँ विधिवत स्थापना करता है -

रक्षां विधाय तद्धाम्नि महापाशुपता ततः
लिङ्गमन्यत्ततस्तत्र विधिवत् स्थापयेद् गुरुः

वितण्डावादी निम्न श्लोक का आधार ले कर शिवलिङ्गों को हटाये जाने का विरोध उचित बता सकते हैं -

असुरैर्मुनिभिर्गोत्रस्तन्त्रविद्भिः प्रतिष्ठितं
जीर्णं वाप्यथवा भग्नं विधिनापि नचालयेत्

असुरों, मुनियों वा उनके गोत्र वालों, तन्त्रविदों के द्वारा प्रतिष्ठित शिवलिङ्गों को; चाहे जीर्ण हों, चाहे भग्न हों; विधि अनुसार भी चलायमान न करे।

क्या अर्थ है इसका?

मात्र अभिधात्मक? कौन करे, जिन लोगों पर अर्थ स्पष्ट करने का दायित्त्व है, वे तो स्वार्थी वितण्डा में लगे हैं!

बहुत सीधा सा समाधान है। असुर, मुनि, गोत्र वालोंं व तंत्रविदों को हटा दें तो बचते कौन हैं? सभी सनातनी तो किसी न किसी गोत्र के ही हैं न? जिनका ज्ञात नहीं, उनके लिये कश्यप हैं। तब तो मात्र देवताओं, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि के द्वारा स्थापित लिङ्ग ही भग्न होने पर हटाये जा सकेंगे! नहीं!! दलहित नवबौद्ध, इसाई व मुसलमान तो शिवलिङ्ग की स्थापना करेंगे नहीं!!!

मुनिभिर्गोत्र का अर्थ कुछ जातिवादी ब्राह्मण जाति से लगाते हैं अर्थात असुर स्थापित लिङ्ग तो रहेंगे, किंतु ब्राह्मणेतर मनुष्यों के द्वारा स्थापित दुष्टलिङ्ग हटाये जा सकते हैं। यह तो अनर्गल बात हो गई!

इसका अर्थ सरल है कि विशिष्ट जन द्वारा विशिष्ट विधानों सहित विशिष्ट स्थानों पर स्थापित शिवलिङ्ग किसी भी स्थिति में हटाये नहीं जाने चाहिये। यह अतिरिक्त सावधानी है, अति महत्त्वपूर्ण स्थलों की मर्यादा को सुरक्षित रखने हेतु जिससे कि लोग उपर्युक्त विधि विधानों का आश्रय ले मनमानी न करने लगें।

दुर्भाग्य से सोमनाथ हो या विश्वेश्वर विश्वनाथ; इसी श्रेणी के लिङ्ग थे। म्लेच्छों ने मूलस्थान तो ह‌ड़पे ही, मूल शिवलिङ्ग भी तोड़ दिये। पण्डों के अनुसार तो तब कुछ कर ही नहीं सकते थे! है न? (आपद्धर्म केवल आपदा हेतु नहीं, अभूतपूर्व स्थितियों हेतु भी प्रयुक्त होता है, उन्हें कौन समझाये?)

क्या उससे सोमनाथ या विश्वेश्वर की आराधना भी समाप्त हो गई? नहीं। सनातन ने प्रवाह को रुकने नहीं दिया। हम लड़ते रहे, पुन: पुन: निर्माण कर अपनी आस्था सँजोते रहे। इन पण्डों की चली रहती तो तीर्थ व दिव्यस्थल कब के लुप्त हो गये रहते! काशी परिक्रमा के जाने कितने हो ही गये न!

निजी स्वार्थ वश जिन्हें सँजोना था उन्हें लुप्त व विकृत कर पण्डे उनके लिये वितण्डा में लगे हैं जिनका कोई विशेष महत्त्व नहीं। यहाँ भी स्वार्थ है।

प्रश्न यह भी है कि किसके पास इतना समय है जो इनके वितण्डा प्रसार की काट समय लगा कर करता रहेगा? क्या मिलना उससे? इस कारण भी इनकी लन्तरानियाँ चलती रहती हैं।

॥हर हर महादेव॥

बुधवार, 27 मई 2020

murder of lomaharshan जुरासिक पार्क, क्षेपक पुराण परम्परा, जातिवाद, अर्थशास्त्र व सूत लोमहर्षण


जुरासिक पार्क फिल्म में लुप्त डाइनासॉरों को पुनर्जीवित करने के उद्योग में खण्डित गुणसूत्र ही मिल पाते हैं। जो अंश नहीं मिलते, उनके स्थान पर मेढक के सूत्र जोड़ कर लड़ी पूरी की जाती है और डाइनासॉर पुन: रचे जाते हैं। पुराण परम्परा के साथ भी यही हुआ। शताब्दियों के अंतर पर स्थित विविध सत्त्रों में लुप्तप्राय परम्परा को कथा कहानियों से जोड़ पुन: पुन: जीवित किया गया। कालान्तर में आई जातिवादी प्रवृत्ति ने इसमें अपने दुराग्रह भी जोड़ दिये। सूत लो(रो)महर्षण का अंत प्रकरण भी वही है।
अब उपलब्ध 'हरिवंश पुराण' व्यास परम्परा का ग्रंथ है किंतु द्वैपायन व्यास द्वारा रचा हुआ नहीं है। जनमेजय के आग्रह पर वैशम्पायन ने वृष्णिवंशियों का पुराण सुनाया। इतिहास पहले से उपलब्ध था, उसे पौराणिक रूप वैशम्पायन द्वारा दिया गया। सूत शब्द के विविध अर्थ हैं - जन्मा, प्राप्त किया हुआ, जन्म दिया हुआ, उत्पन्न, विमुञ्चित, नियोजित। इतिहास का गायन परम्परा से ही घुमन्तू चारण वर्ग किया करता था। चारण शब्द भी बहुअर्थी है। एक अर्थ है जो चारो वेदों में प्रवीण हो, एक चरैवेति चरैवेति से जुड़ा हुआ है। वह दीक्षित शिक्षित वर्ग जो परम्परा द्वारा ही इतिहास गायन हेतु नियुक्त किया गया था, सूत कहलाता था। शस्त्र व शास्त्र परम्परा से ही रथ आदि का जो शिल्पी वर्ग विमुञ्चित हुआ, नियुक्त हुआ वह सूत सारथी कहलाया। सूत शब्द एक प्रकार के प्रतिलोमज हेतु भी प्रयुक्त होता था - क्षत्रिय पिता व ब्राह्मण माता की संतान। कौटल्य तक इस वर्ग की पौराणिक सूत से भिन्नता ज्ञात थी किंतु जातिवादी आग्रहों के कारण भेद को तनु करने का प्रयास आरम्भ हो गया था। अर्थशास्त्र में कौटल्य को बताना पड़ा - पौराणिकस्त्वान्यो सूतो। सूत लोमहर्षण सबसे प्रसिद्ध थे क्योंकि उनकी कथा गायन की शैली इतनी प्रभावी थी कि श्रोताओं के रोंये खड़े हो जाते थे। मूल लुप्त हुआ किंतु सूतों ने अपना काम जारी रखा। परिणाम यह हुआ कि बहुत लम्बे अंतराल के पश्चात जब पुराणों व इतिहास को पुन: संयोजित करने की आवश्यकता पड़ी तो विद्वत्‌ परिषद को उन्हीं सूतों के चरणों में बैठना पड़ा। ऐसा अनेक बार हुआ जिसके स्पष्ट अंत:प्रमाण पुराणों में ही मिलते हैं। धीरे धीरे सूतों के स्थान पर छंद सुव्यवस्थित व संस्कृत कथ्य प्रभावी होता चला गया। कालक्रम में सूत चारण लुप्त हुये। पौराणिकों द्वारा मेढक के सूत्रों की भाँति जोड़े गये जातिवादी सूत्र मुख्य कथ्य हो गये। भागवती व आधुनिक चूना कली सम्प्रदाय द्वारा औचित्य स्थापन के चक्र में उलझे गल्प गढ़े गये।अर्थशास्त्र तो जाने कब से लुप्त था, उसके स्थान पर कामंदकीय सार पढ़ाया जाता था। जब मूल ही बिला गया था तो सूत सूत में भेद जैसी सूक्ष्म बात की स्मृति कैसे रहती? एक वर्ग को यह सदैव खटकता था कि नीच सूतों से कैसे शिक्षा ली जा सकती है! सूत परम्परा तो भुला ही दी गयी थी, भागवती भक्ति उत्साहवश पुराण में जोड़ कर सूतों के मुख से कहलाया गया कि भगवच्चरित्र की महिमा है कि हम नीच उत्पन्न भी ऋषि मुनियों को कथा सुनाने के अधिकारी बन गये! अरे बंधु! वे नीच थे ही कब? सिद्ध होता है कि यह अंश तब जोड़ा गया जब कौटलीय अर्थशास्त्र ही नहीं, उसकी स्मृति तक विलुप्त हो चुकी थी अर्थात बहुत ही नया है। इसी क्रम में मदोन्मत्त बलराम द्वारा लोमहर्षण का वध दर्शाया गया। आजकल चूना कली करते हुये चाहे जो लिखा या बताया जाय, वास्तविकता यह है कि लोमहर्षण का वध कथा सुनाते समय इस कारण हुआ बताया गया कि नीच जाति के हो कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को कथा सुनाने का दुस्साहस कैसे किया! वैष्णव भक्तों को यह खटकता रहा है तो उस पर चूना कली लगाया जाता है कि ऋषियों का अनादर देख कि व्यासपीठ पर ऊँचे बैठ नीच उन्हें कथा सुनाता है! ऐसा सोच बलराम ने उन्हें मारा। बलराम को व्यासपीठ की महिमा ज्ञात ही नहीं थी! अरे भई, जिन्हें अवतार बताते नहीं थकते, वे इतने अज्ञानी थे! वास्तविकता यह है कि व्यासपीठ की अवधारणा बहुत परवर्ती है, बलराम के समय इसके होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता! इतिहास, नाराशंसी व पुराण कथायें वैदिक यज्ञों तथा सत्रों में मुख्य कर्मकाण्डों से विराम के समय सुनने सुनाने का प्रचलन था। उनके लुप्त होने के उपरांत जो निर्वात हुआ, उसे व्यासपीठ की रचना द्वारा भरा गया और ऐसा होने के बीच में शताब्दियों का सङ्क्रमण काल रहा। यही सच है। शुकदेव, भागवत कथा, व्यासपीठ आदि विशिष्ट पौराणिक शैली की परवर्ती स्थापनायें हैं जिनके नेपथ्य में जातिवादी कलुष भी अपने खेल खेलता रहा। 'हरि अनन्त हरिकथा अनंता' गाते हुये जो सर्वसमावेशी उत्साह में सब कुछ स्वीकार करने के पक्ष में हैं, यह लेख उनके लिये नहीं है। कृष्ण और शुक्ल का अंतर स्पष्ट करना बहुत आवश्यक है। कभी कभी 'धूसर' रंग विष के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, त्याज्य।

रविवार, 17 मई 2020

कथावाचक को दक्षिणा एवं अर्पण


भविष्यपुराण लिखे जाने तक कथावाचकों द्वारा व्यासपीठ से रामायण एवं महाभारत को भी सुनाने का प्रचलन था -
भगवन्केन विधिना श्रोतव्यं भारतं नरैः चरितं रामभद्रस्य पुराणानि विशेषतः
अर्थात महाभारत को लेकर प्रचलित रूढ़ि कि 'घर में रखना ही नहीं चाहिये' इस पुराण से परवर्ती है। यह भी कह सकते हैं कि कथावाचकों में उतनी योग्यता ही नहीं रही कि महाभारत को सुना सकें।
कथा का माह पूर्ण होने पर द्क्षिणा का विधान है। माष कहते हैं उड़द को जोकि भार-मापन की एक इकाई थी तथा आठ रत्ती या चौसठ धान के दानों के समान होती थी। स्पष्टत: यह साधारण ड़द  हो कर राजमाष या राजमा रहा होगा। वर्तमान में इसका तुल्य भार लगभग एक ग्राम होता है।
मासि पूर्णे द्विज श्रेष्ठे दातव्यं स्वर्णमाषकम् ब्राह्मणेन महाबाहो द्वे देये क्षत्रियस्य तु वाचकाय द्विजश्रेष्ठ वैश्येनापि त्रयं तथा शूद्रेणैव चत्वारो दातव्याः स्वर्णमाषकाः
ब्राह्मण एक माष, क्षत्रिय दो माष, वैश्य तीन माष एवं शूद्र चार माष भार सोने की दक्षिणा दे। यहाँ दलहितवादी शूद्रों के शोषण की बात उठा सकते हैं किंतु मेरा ध्यान उत्पादन धनसम्पदा पर जाता है। शूद्र कुशीलव, शिल्पी आदि थे जिनके अपने गण होते थे। ये धनी होते थे। वैश्यों को कृषि एवं सार्थवाह व्यापारादि से पर्याप्त आय थी। सामान्य धारणा के विपरीत राजकर्म से इतर क्षत्रिय या तो सैनिक होता था या रक्षक, वेतनभोगी। राजसत्ता से इतर ब्राह्मण वह भी नहीं, मुख्यत: शिक्षा दीक्षा में लगा। अत: यह विधान विविध वर्णों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रख कर बनाया गया हो सकता है। अर्थशास्त्र भी सम्पत्ति विभाजन के विधान के समय इसी आर्थिक स्थिति का आभास देता है - ब्राह्मण की बकरी, क्षत्रिय का अश्व, वैश्य की गौ एवं शूद्र की भेड़। आज हम जिन्हें शूद्र मान बैठे हैंवे वस्तुत: अन्त्यज या पञ्चम हैं, वर्णव्यवस्था से बाहर के श्वपच आदि।
व्यास को सर्वोत्तम ब्राह्मण बताया गया है तथा पूजन के पश्चात श्रोताओं द्वारा उसे अर्पण के विधानों में ये पङ्क्तियाँ चकित करती हैं -
अन्नं चापि तथा पक्वं मांसं कुरुनंदन ।दातव्यं प्रथमं तस्मै श्रावकैर्नृपसत्तम
पक्वं मांसम्का अर्थ हिंदी अनुवादक ने 'पका हुआ मांस' किया है किन्तु मांस पर अपने एक पूर्ववर्ती लेख में मैं बता चुका हूँ कि इसका अर्थ फलों का गूदा भी पुरातन वैदिक परम्परा से ही चला रहा है। अत: इसका अर्थ पका हुआ फल भी किया जा सकता है।
भविष्यपुराण को राजस श्रेणी में रखा जाता है। यह भी सम्भव है कि सूतों से ब्राह्मणों तक के सङ्क्रमण काल में राजस प्रभाव रह गया हो। तब पका हुआ मांस अर्थ भी सम्भव है।