शुक्रवार, 25 मई 2012

बबुनवा आ चिरई, खूँटा, बढ़ई के कथ्था

बबुनवा परेशान है। वह फिर से बचपन जाना चाहता है। यूँ तो इस उमर में ऐसा हर कामकाजी को होता है लेकिन बहुधन्धी बबुनवा कुछ अधिक ही परेशान है सो कुछ अधिक ही मीथी मीथी (मीठी मीठी) चाहता है, परसाद की गोद में बैठ कर। डॉलर चढ़ रहा है और बुसट (बुश शर्ट)  का कालर उतर रहा है। कल बबुनवा ने निफ्टी बेंचा तो चढ़ गई, वापस खरीदने में नाना की ना नुकुर याद आ गयी बबुनवा को न बच्चा न, ओके(उसको) न छू, भगवान रिसिया जइहें (क्रोधित हो जायेंगे)। बबुनवा की तमाम जिम्मेदारियों में एक और जुड़ गया है देश। जो अब तक भगवान भरोसे था उसकी भी फिकर होने लगी है। बबुनवा काफी परेशान है।
बबुनी पास आई है सुनिये जी! बात की वात से ही बबुनवा समझ गया है कि बाबू से बतिया कर आ रही होगी। जब भी फोन आता है, आँगन में चली जाती है! जाने दोनों क्या क्या बतियाते हैं। उसे डाह होती है। बबुनवा की जान बबुनी उस खानदानी परम्परा में दूसरी कड़ी है जिसमें नार (स्त्री) की चलती है। चौदह साल की थी बबुनवा की माई तो बाबू ब्याह कर लाये थे। नाना ने अपने भाई जी को तिरबचा (तीन वचन या चुनौतियाँ) दिया था कि भाई जी, बरस भितरे मोछि सोझ क के आइब रउरे लगे (साल भर के भीतर ही मूँछ सीधी कर आप के पास आऊँगा)। बबुनवा की माई ने मूँछ टेंढ़ी  करने का कोई काम तो नहीं किया था लेकिन तब भी धिया (पुत्री) तो धिया ही होती है।
बबुनवा के बाबा ने जब उस धिया को देखा तो एक्कुड़ दुक्कुड़ खेल रही थी। पंजी (धोती) ठेहुना (घुटने) तक उठाये धिया कु कु कु द द  द द दप्प से कूद गई, लटकल गोड़ गिरल (लटकता पैर गिरा) धम्म से... बाबा मन में कहे कि बस्स! ईहे चाहीं (यही चाहिये) और पहुँच गये दन्न से!
नाना कहे कि सछाते भगवान जी धिया के हाथ माँगे आ गइलें (साक्षात भगवान जी पुत्री का हाथ माँगने आ गये)!                    
मनकूद कथ्था (कथा) बीच में ही रोक बबुनवा बबुनी को देखता है। मासपरायण कउथा बिसराम (कौन सा विश्राम)? देश की सब बेटियाँ भगवान भरोसे। बबुनवा की चिंता में एक और चिंता जब कि उसकी कोई बेटी ही नहीं है।
बोल बबुनी!
बाबू कह रहे थे कि परसा मामा ने नुनदारे के खेत की मेंड़ उलट दी है।
परसा माई का चचेरा भाई है जिसे हरदम यह जलन रहती है कि काका ने खेत धिया के नामे क्यों कर दिये! अब इसमें न तो खेत का दोष, न माई का और न मेड़ का लेकिन अगर कोई दोष न हो तो रोष कैसे हो? सोचने वाली बात है।
बबुनवा को परसाद याद आये हैं मेड़, डाँड़ आ धिया के गोड़ भगवान के रखले रहेलें बबुना (मेड़, किनारे और पुत्री के पैर भगवान के कारण नियंत्रण में रहते हैं) ! माई के गोड़ आ कि पैर गिरे धम्म से, ये खेत हमारा है। धमक से आज भी कलेजा दलक जाता है परसा मामा का, इतनी दूर से बबुनवा क्या करे?  
प्रकट में बबुनवा कहता है उलट लेने दो मामा को। उन्हीं का हक़ मार तो नाना ने माई को लिख दिया था! बबुनी का पारा छ्त छेद बाहर टहलने को आतुर हो गया है ए जी, फिर से यह बकवास मत करना। सासू जी का हक था वह।
तो जा अब हक को सीधा कर, बबुनवा फिर से कथ्था बाँचने लगा है और दमकती बबुनी टी वी।
तो नाना जो कहे उसका हिन्दी में यह अर्थ होता है कि बेटी के बाप को तो दुल्हा ढूँढ़ते ढूँढ़ते घुटने की बीमारी पकड़ लेती है ठेहूनीया, ह पर के मंतरा, न पर के मंतरा आ य पर के मंतरा एक्को छोट नाहिं (एक भी लघु नहीं)। इहाँ त खुदे दुलहवा के बाप आ गइल बा (यहाँ तो स्वयं दुल्हे का पिता चल कर आ गया है)! चट्ट से हाँ कर दिये, बरस भितरे (साल भीतर) भाई जी को सीधी मूँछ जो दिखानी थी! लेकिन बाबा कहे कि नाहीं, पहिले लइका देख सुन लीं, तब हँ करीं (नहीं, पहले लड़का देख सुन लीजिये तब हाँ कीजिये)। तो नाना ने लड़के को देखा  भी और सुना भी। ऐसे  – वह फुसफुसाये बेटा, क बिगहा खेत बा (तुम्हारी कितने बीघे खेती है?) और बाबू ने उत्तर दिया चालिस। नाना खुश हो गये लड़का बहरा नहीं है। देहिं धजा, रूप सब सुन्नर (देहयष्टि और रूप सब सुन्दर)
बिसराम के हुरका हुर्र हुर्र , पिपिहरी पे, पें लमहर तान (लम्बी तान)    
बबुनी ने फिर कथा में विघ्न डाला है ए जी, इस प्रचार को तो देखो! कैसे बाप जगह जगह मउर ले बेटी से राय पूछ रहा है! दोनों में कितना समझदार प्यार है। ऐसा बाप भगवान सबको दें! समझदार प्यार और फिर से भगवान बबुनवा भिनभिना रहा है। बाप भी माँगने का आइटम होता है!
आइटम से बबुनवा फिर से कथ्था में घुस गया है - टमटम। माई टमटम पर विदा हुई थी और बाबा बारात ले कलकत्ता गये थे। मुँहदेखाई में माई को घर की चाभी मिली और बहेरवा पट्टी का आखिरी घर त्रियाराज में आ गया जिसमें सब लोग खुशी खुशी सुख से रहते थे।
बबुनवा के सुख को जाने क्या हो गया है जब कि वह बबुनी की छत्रछाया में है।
॥इति प्रथमोध्याय:॥

दूसरे अध्याय का अथ भी परसाद से। जब माई बियह के आई तो घर में सास तो थी नहीं. कोई लौंड़ी दाई भी नहीं थी। भीतर भी परसाद और बाहर भी परसाद। ऊँची जात बालकनाथ! इतनी जायदाद और सुजाति का भृत्य तक नहीं! पट्टीदार कहें चमार घर में हलाहल कइले रहेला, एकरे देंही में हरदी लागि गइल जजाति से (चमार घर में घुस हरकतें करता रहता है, इसकी देह हल्दी तो जायदाद के कारण लग गई)!
परसाद मैनेजर थे। हर खेत का हिसाब रखते। इतना कि पाँच साल पहले धूसी खेत के किस कोने अरहर की फसल मार गई थी, वह भी उन्हें याद रहता और यह भी कि धुरदहनी (घसियारिन का नाम) को गेल्हा (गन्ने के पौधे का ऊपरी भाग)  काटते कौन से घोहे (खेत में फसल बोने के लिये हल से बनाई गई पंक्ति) में पकड़े थे!
वे दूध भी दूहते।
 पुरोहित नाक सिकोड़ते। परसाद आदर से झुक कर, दूरी बनाये रखते हुये कि छाया न पड़े, जोर से जो बताते उसका अर्थ होता बाबा, दूध में छूत छात नहीं होती और बाल्टी कभी अँगना दुवार से भीतर जाती नहीं। नदिया में दूध उड़ेला जाता है और गोंइठी पर चढ़ जाता है। सब शुद्ध। खाइये, मलकिन जैसी दही पूरे जवार में कोई मेहरारू नहीं जमाती। सजाव दही (उपले की धीमी आँच पर लाल होने तक गाढ़ा किये सोंधे दूध की मलाई सहित दही) दीवार पर मार दीजिये तो वहीं के वहीं चिपक जाय!
पुरोहित भुनभुनाते हुये कहते हँ, अब चमारे बेद पढ़इहें (हाँ, अब चमार ही वेद पढ़ायेंगे)। उनका अँवटे दूध  (सोंधे दूध) जैसा गोरा दपदपाता चेहरा लाल हो जाता लेकिन दही देख के ही आत्मा जुड़ा जाती। चनरकलिया तत्सम चन्द्रकला धान का चिउड़ा इसी घर मिलता है। पानी डालते ही महर महर (सुगन्धित) हो उठता है और वह भोजन मंत्र पढ़ने लगते नमो नरायण परमो पवित्तरम।
मुस्कुराते परसाद वहाँ से हट जाते ब्राह्मण भोजन, नजर पड़ जाय तो पाप शाप, घोर अशुद्ध!      
बबुनवा के बड़े होने पर बाबू घोर अशुद्ध के अशुद्ध प्रयोग पर टीका टिप्पणी कर उसे दोष के गुण बताने लगे।
तो आज जब कि शेयर मार्केट गिर रहा है, डॉलर गिर रहा है, चीन दाँव खेल पटक रहा है, पाकिस्तान फिर से मीठी मीठी जप रहा है, तमाम बेटियाँ बिगड़ रही हैं और तमाम बेटे चरस पी रहे हैं, भूटान खुशी के इंडेक्स के गिरने से परेशान है और अमेरिका को पता ही नहीं चल रहा है कि करे तो क्या करे; बाबू ने अपनी बबुनिया के पास फोन कर मेंड़ उलटने की बात ऐसे जोड़ी है कि सब दुख एक ओर और मेड़ माड़ दूसरे पलड़े, बहुत भारी! बबुनिया का वजन भी जो जुड़ गया है।
बबुनवा क्या करे?
परसाद होते तो गाते
बाबू खेलें चिरई, सुगना बा टार
सरकि जाये भगई, बाबू उघार।
(बाबू चिड़िया से खेलता है जब कि तोता टाल पर बैठा होता है। बाबू की धोती सरक जाती है, वह नंगा हो जाता है।)
बाबू अपने दिन ब दिन नंगे होते जाने की पीर किससे कहे? बबुनिया क्या खाक समझेगी?
बबुनवा फिर से कथा में समा गया है।      
तिजहरिया (साँझ) है। दिन डूब गया है। दिन ऐसा लग रहा है जैसे हरवाह (हलवाहा) मुँह पर धोती डाले घर वापस आ रहा है आगे आगे बैल, पीछे थकान, धूल तक मन से नहीं उड़ रही बबुनवा बचपन को बड़प्पन की निगाह से देख रहा है।
माई पियरी पहनी है। दीया (दीपक) हलुमान (हनुमान) जी के अस्थाने (स्थान) रख कर हाथ जोड़े जाने क्या कह रही है। नीब (नीम) के नीचे परसाद गमछा से कभी इधर झोंका मार रहे हैं तो कभी उधर और बबुना सब कापड़ (सारे कपड़े) फेंक नंगे इधर उधर एक डँस (जानवरों का खून चूसने वाला उड़ने वाला एक फतिंगा) के पीछे दौड़ रहा है। बाबू खरिहाने (खलिहान) गये हैं। परसाद ने दौड़ कर बबुनवा को गोद में उठा लिया है कुल आ कापड़ रखले से रहेला बबुना! कमीज पहिरि ल नाहीं त डँस गाँड़ी में ढुकि जाई! (कुल और कपड़े रखने से रहते हैं बबुना! कमीज पहन लो नहीं तो कीड़ा देह में घुस जायेगा)
, , , ह परसाद हर कपड़े को कमीज ही कहते, माई की पंजी पियरी सब कमीज।
कहाँ गया कुल, कहाँ गया कपड़ा,
जिन्दगी हो गई बहुत बड़ा घपला।
बबुनवा तुकबन्दी जोड़ने की असफल कोशिश करता है। वह परसाद नहीं जो कि जिन्दगी को यूँ ही सुर में बाँधते साधते आधा मुस्कुराता, आधा हँसता रहे , , , ह।
डिनर की टेबल पर बबुनवा ने बबुनी से कह दिया है गाँव की कोई बात नहीं। रोटी का पहला निवाला दाँत तले रखते ही मुँह में धूस की धूल उड़ने लगती है धूसी खेत पर के गेहूँ की रोटी है यह। बाबू राशन भेजवाते रहते हैं जिसे पहुँचाने के खर्च में यहाँ एम पी गेहूँ खरीदा जा सकता है स्वादिष्ट रोटियाँ। बबुनी कहती है नहीं, अपने खेत की रोटी का स्वाद ही और होता है। आज बबुनवा ने मन में यह नहीं कहा है तितिया राज परसादी काज। आज वह रोना चाहता है लेकिन डिनर टेबल पर रोना मैनर के खिलाफ है। बच्चे क्या सोचेंगे?
उसने अपने पाँव की अंगुलियाँ नीचे बबनी की बिछुआ पर बिछा दी हैं। बबुनी समझ गयी है आज सोते वक्त चिरई, खूँटा और बढ़ई की कथा की फरमाइश करेगा बबुनवा। अभी तक बच्चा है, कथा सुन कर के ही सोता है।
लेकिन बबुनवा जानता है कि आज की रात नींद नहीं।
॥इति द्वितीयोध्याय:॥
_____________


कथा जारी रहेगी और सबसे प्रिय ब्लॉग की खोज भी।
आप लोग अपना मत व्यक्त करते रहिये।
महाराज खारवेल की धरती से बुलावा आया है। न जा कर आलसी उनकी शान में गुस्ताखी नहीं कर सकता। एक सप्ताह तक अनियमितता या चुप्पी खिंच सकते हैं।
  

गुरुवार, 24 मई 2012

शक, शर्म और आलस छोड़िये...

... सबसे प्रिय ब्लॉग की खोज के अभियान में लोगों से सम्पर्क करने पर कुछ बातें पता चली हैं। उन पर अपनी बात रख रहा हूँ:



(1) मुझे राजनीति में नहीं पड़ना। ऐसे ही ठीक हूँ एवं और भी ऐसी कई बातें  -
स्पष्टत: ब्लॉग पुरस्कारों के चल रहे एक और आयोजन के समांतर इस व्यक्तिगत प्रयास को देखा जा रहा है। दोनों में तुलना न करें। वैसा आयोजन अपने से नहीं हो सकता। पहचान ब्लॉग की करनी है, ब्लॉगर की नहीं। ब्लॉग को पुरस्कृत किया जायेगा न कि ब्लॉगर को, स्पष्ट है कि प्रमाण पत्र, धन, समारोह, अंगवस्त्रम आदि आदि नहीं होंगे।  

(2) तीन ही बताने हैं? अधिक क्यों नहीं या तीन  तीन!  मुझे तो केवल दो ही... या नापसन्दगी भी? किसलिये?...आदि आदि 
मैं आप को नाम दे कर वोट नहीं माँग रहा, बस आप से आप की पसन्द और नापसन्द पूछ रहा हूँ। यदि आप को तीन नहीं मिल रहे तो कम ही बताइये। यदि आप किसी को नापसन्द नहीं करते तो न बताइये। यदि आप चाहते हैं कि आप का नाम गोपनीय रहे तो रहेगा।
ऐसे समझिये कि किसी शोध में निकला कोई छात्र आप से आप की राय माँग रहा है।

(3) कारण भी बताने पड़ेंगे? इतनी फुरसत किसे है? आप भी न! ... 
आप को कारण इसलिये बताने हैं कि सबसे प्रिय ब्लॉग के विश्लेषण में आप की राय महत्त्वपूर्ण और आवश्यक होगी। यदि अब तक आप ने केवल ब्लॉग नाम बताये हैं तो कारण भी लिख भेजिये। इतना आलस ठीक नहीं, मुझे देखिये - आलसी होने के बावजूद कितना श्रम करता हूँ! :)

मैंने मेल से भी अनुरोध भेजे हैं। उन ब्लॉग पाठकों के लिये जिन्हें मेल नहीं भेज पाया, अनुरोध सार्वजनिक कर रहा हूँ: 

साथियों!
प्रौद्योगिकी के विकास के साथ कम्प्यूटर पर लिखने की क्षमता/प्रयोग/उद्योग करने वाले जन के लिये ब्लॉग प्लेटफॉर्म एक वरदान की तरह सामने आया। लोगों को एक मुक्त मंच मिला जहाँ वे बेझिझक अपने को अभिव्यक्त करने लगे। असीम सम्भावनाओं के द्वार खुले, साथ ही प्रश्न भी कि पत्र पत्रिकाओं, सिनेमा, टी वी सीरियल, नाटक आदि के रहते ऐसा क्या है ब्लॉग मंच में कि लिखने वालों की बाढ़ सी आ गई! पारम्परिक लेखन भी स्थान पाने लगा। लोगों को तोष सा होने लगा कि हम भी लिख सकते हैं! हिन्दी में भी यह सब हुआ लेकिन अभी किशोरावस्था और युवावस्था की असमंजस भरी बातें चल ही रही थीं कि फेसबुक और ट्विटर आँधी की त्वरा से उस यौवन की उछाल ले सामने आ धमके जिससे सरकारें तक सहमने लगीं! ब्लॉग मंच अब कहाँ ठहरता है?

इतना सुकून क्यों मिलता है अपनी निजी सी अभिव्यक्ति को सार्वजनिक करके? क्या है वह सुकून? - पलायन? आत्मनिरीक्षण? या बस ‘कुछ नहीं, बस यूँ ही’ जो कि तनाव भरे जीवन को थोड़ी ढील दे देता है या यह भाव कि मैंने भी कुछ सार्थक किया, अपनी छोटी सी सीमा में कुछ कर दिखाया?

हिन्दी सिनेमा ने भी नये व्याकरण, नये गीत, नये विषयों, नई प्रस्तुतियों और नये तरीकों  के साथ अपनी धमक गुँजाई है तो स्वाभाविक सा प्रश्न उठता है ऐसे दौर में निहायत ही अल्पसंख्यक टाइप के हिन्दी ब्लॉग मंच के किसी ब्लॉग में ऐसा क्या है जो उसे अनूठा बनाता है, उसे किसी का पसन्दीदा बनाता है?

एक प्रिय ब्लॉग के कथ्य, रूप और विन्यास आदि में क्या कुछ विशिष्ट होते हैं? उनकी पहचान के लिये बहुत ही लघु स्तर पर एक लीक की खोज सा प्रयास है यह आयोजन! एक सामान्य व्यक्ति तो इतना ही कर सकता है – एकदम एक सामान्य हिन्दी ब्लॉग की ही तरह!
  
मैंने अपने ब्लॉग http://girijeshrao.blogspot.in पर आप से स्वयं आप के पसन्दीदा और नापसन्दगी वाले अधिकतम तीन तीन ब्लॉगों के नाम, कारण के साथ बताने का अनुरोध किया है। आप मुझे ई मेल से भेज सकते/ती हैं, टिप्पणियों के माध्यम से भेज सकते/ती हैं। यदि आप चाहेंगे/गी तो आप का नाम गोपनीय भी रखा जायेगा।
विशिष्ट ब्लॉगीय हल्केपन और हास्य के साथ लिखी सम्बन्धित पोस्ट का लिंक यह है जिसमें विस्तृत नियमों आदि के साथ चुटकियाँ चिकोटियाँ भी हैं तो कुछ अनदेखे से ब्लॉगों के कुछ लेखों के लिंक भी:

आप से अनुरोध है कि आप पहुँचे और अपनी पसन्द/नापसन्द के ब्लॉग कारण सहित बतायें। आप चाहें तो इस मेल के उत्तर में भी बता सकते हैं।   स्मरण रहे कि आप को ब्लॉग नाम बताने हैं, ब्लॉगर नहीं।

सधन्यवाद और साभार
आप का
एक आलसी जो चिट्ठा यानि ब्लॉग भी लिखता है J  

रविवार, 20 मई 2012

आप का प्रिय ब्लॉग कौन? मत प्रक्रिया प्रारम्भ!

आप हिन्दी ब्लॉग पढ़ते हैं तो जाहिर है कि कुछ को पसन्द करते होंगे, नापसन्द भी करते होंगे। अब आप पूछेंगे कि जो पसन्द नहीं उसे क्यों पढ़ेंगे? इसका उत्तर यह है कि यह बहुत ही गूढ़ मनोविज्ञान है जिसकी यहाँ चर्चा विषयान्तर होगी।

तो मैंने आज सोचा कि क्यों न एक 'सबसे प्रिय ब्लॉग' पुरस्कार का आयोजन किया जाय?
क्यों सोचा का कोई उत्तर नहीं है। बस सोच लिया!
 मौसम गर्म है, छुट्टियाँ चल रही हैं लिहाजा लोग आत्ममंथन और आत्मनिरीक्षण करने के साथ साथ अपनी बात कहने के लिये समय भी निकाल सकते हैं। 

तो आज से मत प्रक्रिया प्रारम्भ हो रही है (7 जून 2012 तक जारी)। आप को बस इतना करना है:

- अपने प्रिय 3 (अधिकतम) ब्लॉगों के नाम वरीयता क्रम में देने हैं। 
- एकाध शब्द/पंक्ति में यह बताना है कि ब्लॉग प्रिय क्यों हैं?
- उन (अधिकतम) तीन ब्लॉगों के नाम भी वरीयता क्रम में देने हैं जो सबसे खराब लगते हैं। 
- स्पष्ट है कि खराब लगने के कारण भी एकाध शब्द/पंक्ति में बताने हैं।
- स्तब्ध, अद्भुत, स्माइली, बकवास, साहित्यकार/दार्शनिक/प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम आदि के प्रयोग न करें। ऐसा करने पर आधा नम्बर काट लिया जायेगा। 
- आप जिन तीन ब्लॉगों को सर्वप्रिय श्रेणी में नामित करेंगे उन्हें ही सबसे खराब श्रेणी में भी नामित कर सकते हैं, इस पर रोक नहीं है।  (**) 
- प्रारम्भिक रुझान के बाद एक संशोधन - किसी भी श्रेणी में तीनों स्थानों पर एक ही ब्लॉग का नाम न दें। माना कि आप बढ़िया लिखते हैं लेकिन इतना भी नहीं कि फर्स्ट से थर्ड तक तीनों खुदे कब्जिया लें! 

(**) 
यदि आप ने किसी ब्लॉग को प्रिय बताया और दूसरे ने खराब बताया तो उस ब्लॉग की रैंकिंग में नेट -1 जुड़ेगा यानि कि किसी और की नापसन्दगी की स्थिति में ऋणात्मक मार्किंग 2 की होगी। हाँ, यदि आप स्वयं किसी ब्लॉग को प्रिय और खराब दोनों श्रेणियों  में नामित करते हैं तो उसकी रैंकिंग शून्य होगी। अवैध मत पहचानने की भी व्यवस्था है। हालाँकि  टिप्पणी बॉक्स के ऊपर चेताया गया है, अपशब्द, गाली वगैरह का प्रयोग न करें। ऐसा करने पर आप का मत तिरस्कृत कर दिया जायेगा।   

चूँकि इस आयोजन का पुरस्कारीलाल मैं स्वयं हूँ, इसलिये मेरे किसी भी ब्लॉग को नामित करें 
मुझे पता है कि वे सभी आप को प्रिय हैं और यदि उन्हें सम्मिलित किया गया तो शीर्ष पुरस्कार उनमें से ही कोई झटक ले जायेगा। उल्टा भी हो सकता है इसलिये रिक्स उठाना ठीक नहीं... जो पुरस्कारी है उसकी गरिमा बनी रहनी चाहिये। 

कृपया किसी ब्लॉगर को नामित नहीं करें क्यों कि पूँछ उठाने पर सभी .... 
यह आयोजन ब्लॉग को पुरस्कृत करने के लिये है, ब्लॉगर को नहीं। 


आप को अपना मत टिप्पणी में भेजना है जो कि 7 जून  तक गोपनीय रखी जायेगी। उसके पश्चात विश्लेषण कर विजेता ब्लॉगों के नाम 10 जून तक घोषित किये जायेंगे।  


विश्वास रखें कि यह आयोजन निष्पक्ष और नि:स्वार्थ है। हिन्दी की चिंता में दिनन दूबरो होत जात एक अकिंचन ब्लॉगर का कंचन आयोजन है। 

पुरस्कारों को देख आप दंग रह जायेंगे! 
मृदु हास्य के साथ घोषणा करने का यह अर्थ न लें कि आयोजक गम्भीर नहीं है। 
तो जुट जाइये फटाफट! बस 5 मिनट ही तो लगने हैं। स्वयं वोट दीजिये, सुहृदों और शत्रुओं को भी प्रेरित कीजिये। 


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जनभावना का पुन: सम्मान करते हुये मतदाताओं के नामों को सार्वजनिक करना बन्द किया जा रहा है। किसी भी अद्यतन के लिये ढोल बजने के बाद के इस भाग को देखते रहिये।

26/05/12 : सात दिनों के लिये यायावर हूँ। लौट कर अद्यतन करूँगा। आप लोग अपना अभिमत बताते रहिये।
01/06/12 : लौट आया यायावर। पसन्द में कुछ और नाम जुड़े हैं। सूची अद्यतन कर रहा हूँ। 


कुछ अलग हट के। धैर्य पूर्वक ध्यान दे, प्रसंग को जान समझ कर! 
मार्क्सवाद के अनुकूल है मंगलेश और उदय प्रकाश का आचरण ... 
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किसी नयी घोषणा के न होने की स्थिति में यहाँ कुछ ब्लॉगों से पोस्ट लिंक लगाये जायेंगे ताकि आप जान सकें कि विशाल समुद्र के गर्भ में अनदेखे रत्न भी हो सकते हैं:


(1) ... ये दुनिया भगवान ने आखिर कैसे बनाई  
(2) परस्पर अविश्वास से गहराया लेह ... 
(3) एयर रैकी या जॉय राइड 
(4) मोनल से मुलाकात 
(5) नर्तकियाँ और पृथ्वियाँ 
(6) एक कमज़ोर आदमी का कमज़ोर सच 
(7) रामकथा और डेमोक्रेसी कांड 
(8) मेरी गुरुयावूर तीर्थयात्रा
(9) ... कण त्वरकों के आँकड़ों का विश्लेषण 
(10) बैसाखी और सतुआनि हाइगा में 
(11) किसान महाकवि घाघ और उनकी कवितायें 
(12) पुरुषों की बीन पर नाचती छम्मकछल्लो 
(13) चावल के पौधे का नामकरण कैसे हुआ होगा? 
(14) यह किसी मुहावरे का वाक्य प्रयोग नहीं है प्रिय 
(15) यानिस रित्सोम: कर्तव्य 
(16) ज़हन बीमार हैं इनके 
(17) प्रजातंत्र की पीड़ा
(18) फ्रेंच किस 
(19) सुषमा रानी झिंझोटिया का जवाबी प्रेमपत्र 
(20) पेट्रोल के दाम बुद्ध फिर मुस्कुराये 
(21) कन्या भ्रूण हत्या 
(22) बहुत सारे अच्छे गानों का ... 
(23) घर बड़ा करने की खातिर कद घटाना पड़ रहा है
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लोगों ने मत देने और राय व्यक्त करने में बहुत ही उत्साह दिखाया है। ई मेल से  भी मत प्राप्त हो रहे हैं।
यदि आप ई मेल से अपना मत भेजना चाहें तो भेज सकते हैं जिन्हें प्रतियोगिता में सम्मिलित किया जायेगा। आप  यदि यह चाहते हैं कि आप का नाम गोपनीय ही रखा जाय तो उसे भी स्वीकार किया जायेगा। आप अपना मत इस ई मेल पते पर भेज सकते हैं: 
girijeshrao[@]gmail[.]com 
(कोष्ठक मात्र स्पैम की सम्भावना रोकने हेतु लगाये गये हैं, भेजते समय उन्हें हटा दें।)
___________________________________________________________
03/06/12 की प्रात: तक इतने ब्लॉग उभर आये हैं: 
(क्रम यादृच्छ है, वरीयता में नहीं):
ग्रेविटॉनhttp://www.dkspoet.in/
कविता, http://kavyana.blogspot.in/
बैतागवाणी, http://geetchaturvedi.blogspot.in
हारमोनियम http://iharmonium.blogspot.in
शिप्रा की लहरेंyatra-1.blogspot.com/ 
लपूझन्ना, http://www.lapoojhanna.blogspot.com/
क्वचिदन्यतोऽपि, http://mishraarvind.blogspot.com
डीहवाराdeehwara.blogspot.com
उन्मुक्त, unmukt-hindi.blogspot.com
हिन्दी ज़ेनhttp://hindizen.com/
घुघूती बासूती, http://ghughutibasuti.blogspot.com
बर्ग वार्ता, http://pittpat.blogspot.com
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लोगों ने दिलचस्प कारण भी बताये हैं। शंकायें भी व्यक्त की हैं। कुछ बानगियाँ:
- पसन्द क्यों है सोचा नहीं कभी 
- ऐसे ब्लॉगों तक पहुँचते ही नहीं जो नापसन्द आयें। सिक्स्थ सेंस, यू नो! 
- आप मजाक तो नहीं कर रहे? वाकई गम्भीर हैं?
- कुछ समझदार लोगों को साथ ले लिये होते!
 बालपन सी सौम्यता, छोटे-छोटे लेखों में सहज सुन्दर बातें | किसी भी लेख में लैश मात्र भी दिखावटीपन नहीं | यही कारण है कि कम ब्लॉग्गिंग होने पर भी अत्यधिक प्रिय |
- connects me to my origin
simple, straight forward and real
इस पीढी पर विश्वास करने को दिल करता है क्योंकि ऐसे युवा मौजूद हैं
- मेरी समझ में ब्लाग एक तरह की निजी डायरी है जिसमें आदमी अपने व्यक्तिगत वा सामाजिक अनुभवों को दर्ज करता चलता है.. उसी आधार पर ये तीन ब्लाग मेरी पसन्द पर खरे उतरते हैं
- एक संस्थान, बहुत कुछ सीखने को
कवितायें जो दिल में उतर जाएँ 
- शायद किसी तर्क से समझा ना पाऊं . कभी किसी भी पोस्ट में किसी पर कोई आक्षेप नहीं , सबसे बेहतर यही लग रहा है . लेखन पर तो मैं क्या कहूँ
- उनकी लेखन शैली ऐसी है कि पढ़ने वाले को लगता है आप से बातें कर रहे हैं.और ज्ञानवर्धक अनमोल जानकारियाँ भी यहाँ हैं.
- व्यंग्य पढ़ना मुझे प्रिय है.मेरे विचार में कार्टून बनाना और संतुलित व्यंग्य लिखना एक ऐसी कला है जिस में बिरले ही दक्ष होते हैं. 
- बस हमें पसन्द है. विषय वस्तु और सरल सजह भाषा. बेकार की आदर्शवादिता के आडम्बर से दूर. 
- एक अलग ही क्लास है :)
- तस्‍वीरें इस ब्‍लॉग की खासियत नहीं है, खासियत है तस्‍वीरों के साथ लिखे गए कैप्‍शन। हर कोई किसी तस्‍वीर को अपने कोण से देखता है। 
- मैंने अपनी वह च्‍वाइस दी है जो पूर्णतया मेरी निजी है। उम्‍मीद है आप मेरे प्रयास को समझेंगे।
- वह दीवानगिए-शौक कि हरदम मुझको/आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना.- Baat kehne ka ek anootha andaaz, bachpan ki shrartein. 
Kahaniyan bahut achhi lagi.
वो तरीका हैजिससे मैं सोचता हूँ |मुझे सरकार का साथ देना या विपक्ष में नहीं रहनान ही मैं उदासीन रहना चाहता हूँ | ...अपनी बात कहता है,लोगों को सीधा एक रिपोर्टर की नज़रों से घटना को दिखाता है अपना निर्णय भी देता हैयूँ भी कह सकते हैं कि पूरा वृतांत आपको इस तरह देता है कि आखिर में आप को ब्रेन-वाश कर सके |
मैं उम्मीद करता हूँ कि जब आप ब्लॉगिंग का जिक्र कर रहे हो तो इसका मतलब महज हिंदी साहित्य नहीं हो... में पिकासो हैंशाहरुख खान भी हैं अगर सिर्फ हिंदी साहित्य की ही सोची जाए तो भी इस ब्लॉग का योगदान बहुत है बहुत सारी कवितायेंकहानियाँऔर विभिन्न विषयों पर लेख हैंजो हिंदी में पहले नहीं लिखे गए |
- पुराने तोष में धन अथाह! भाषाई-बिम्ब सौन्दर्य से अटा यह ब्लॉग सहज ही शरण में आने को आमंत्रित करता है।प्रकृति और संस्कृति के करीब की मधुर कविताई
- कारण ठीक ठीक कह नहीं सकता, पर इस ब्लॉग पर जो भी लिखा जाता है बहुत चुस्त और रुचिकर तो होता ही है।
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नापसन्दगियों के कुछ कारण (पसन्द या नापसन्द बताने वाले किसी व्यक्ति का नाम उसकी इच्छा विरुद्ध  सार्वजनिक नहीं किया जायेगा, इसलिये अपना मत व्यक्त करते रहिये नि:संकोच, निर्भय)

- कई लेखों में उच्च रक्तचाप की बीमारी सी झलकती है | (बिना मतलब के )
- मानवीय मूल्यों की सीख की अधिकता एवं ओप्तिमिस्टिक रवैया, बेअसर कारक ज्ञान भी बाँट देना आदि आदि वजह से मैं दूरी महसूस करता हूँ |
- वे सभी धार्मिक ब्लॉग्स नापसंद जो स्वयं को या अपने धर्मों को ऊँचा दिखाने के लिए दूसरे व्यक्ति या दूसरे धर्मों का अपमान करना आवश्यक समझते हैं !
- दोयम दजे की पोस्टों का अजब-गजब घालमेल है
- मीडियोकर अंदाज़, ब्लॉग मिसाल
- पल में तोला पल में माशा। पाठकों का भावनात्मक दोहन कर फेमस होने की चाह।
- गाली गलौज
- बॉटम लाईन इज़, जातक के ब्लॉग पर दिखावटीपन का असर है |
- एकतरफ़ा और भड़काऊ रिपोर्टिंग - असहमति की टिप्पणी न छापना
- अवमूल्यन समर्थक, सम्भवतः किसी विचारधारा का गुप्त मिशन
द्वेष, आक्रोश, अराजकता का प्रसारक
- करहिं कूट नारदहिं सुनाई / नीक दीन्ह हरि सुंदरताई
छोटा सा रीमाइंडर डालना चाहता हूँ कि बॉडीगार्ड हिंदी सिनेमा की सबसे ज्यादा कमाऊ फिल्म हैइसका मतलब यह नहीं कि यह हिंदी सिनेमा है डिस्क्लेमर : इसे टॉप-टेन में ना आ पाने की मेरी खीझ समझ लीजिये |
- सच कहूँ तो इस ब्लॉग को अकारण नापसंद करता हूँ
 जो बहुत ज्यादा लिखते हैं, हर एक चीज पर लिखते हैं | बेशक हमेशा नापसंद नहीं होते, कभी कभी होते हैं | लेकिन उनके आसपास कमेंट्स की जो हवा बनती हैउससे मुझे और ज्यादा निराशा होती है ११४ कमेंट्स के बाद ११५ नंबर पर रहकर आप लेखक से क्या संवाद करेंगे और क्या मुमकिन है कि लेखक सच्चे दिल से आपसे मुखातिब है ११४ लोगों से जो सही से बनाके रखेमुमकिन है कि वो किसी से नहीं बना के रखे | ... पोस्ट्स, कमेंट्स और फोलोवर्स की संख्या एक निश्चित सीमा से परे चली जाती हैअक्सर दिल से नहीं लिखते ये अपना स्टेटस बरकरार करने के लिए लिखते हैं
 जो सबसे ऊपर है वो है बेसिरपैर लिखाई- "अमुक ने अपने ब्लॉग पर क्या लिखा", "आज सुबह मैंने हरे रंग की चप्पल पहनी", "हमारे घर आज चटनी में नमक कम था-तस्वीर देखिये"। 
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...आप भी आलस त्यागिये और फटाफट अपना अभिमत बताइये! इसके पहले कि ई मेल रिमाइंडर भेजने पड़ें, अपनी पसन्द नापसन्द का खुलासा कर डालिये।  

शनिवार, 19 मई 2012

संशोधित कार्टून का ड्राफ्ट और एक लघुत्तम

बा साहेब और मैड साहेब एक काँटेदार घेरे में हैं।
मैड साहेब सोफे पर आराम फरमा रहे हैं। 
बा साहेब एक दूसरे सोफे पर बैठने वाले हैं। 
बा साहेब की काँख में दबी किताब पर लिखा है - Tuition of India.
 दोनों के चेहरे ग़ायब हैं और संवाद यह हैं -
मैड साहेब,"!@#$%ं&*"
बा साहेब,"*&ं%$#@!"
घेरे के गेट पर लिखा है - बाहर सब च्युतिये हैं।
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बाप ने बेटे के हाथ से कॉमिक्स कार्टून वाली किताब छीन ली - कमबख्त! मरवायेगा क्या? इसमें साफा है, दाढ़ी है, हरे रंग का चोगा है, नीले रंग का सूट है, बाड़ भी है। आदमी भी हैं। ढेरो अक्षर अंक हैं - a b c d e f ....z 1,2,3,4 ...0 और किताबों के फोटो भी। कोई भी कम्बिनेशन खतरनाक हो सकता है। ...एक काम कर ये अलबम देख। किनारे की तस्वीरे हैं। कोई कपड़ा नहीं, कोई अक्षर नहीं, न इमारत, न काँटेदार तार, बस समुद्र और रेत ... दाढ़ी का तो सवाल ही नहीं उठता। 
बेटे ने कहा - पापा! सब नंग धड़ंग है, मुझे शर्म आती है। 
बाप ने कहा - जब तेरे बाप को शर्म नहीं आती तो तुम्हें क्यों आ रही है? अबे, सब नंगे ही होते हैं। शर्माना बन्द कर और अपना न सही बाप का खयाल कर कार्टून देखना, कॉमिक्स पढ़ना छोड़!   
मुँह छिपा कर मुस्कुराते हुये बेटा बुदबुदाया - नादान तो थे ही पापा, अब खिसकेले भी हो गये हैं। 
सोफे पर लेट छत निहारता बाप अपनी सोच के शब्दों से भय खा रहा था। उसे आगत मानसिक गूँगेपन का आभास हो चला था।
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नोट:
इस पोस्ट पर टिप्पणियों का विकल्प बन्द कर रहा हूँ क्यों कि एक शब्द विशेष (दुबारा लिख सकता हूँ लेकिन कोई तुक नहीं ) पर बेध्यानी आपत्तियों की सम्भावनायें हैं।  सम्भावनाओं को ताड़ कर तदनुरूप ऐक्शन लेने वाला ही सफल होता है इसलिये एक ताड़ना स्वयं के लिये भी। बात पहुँचाने में सफल होना चाहता हूँ।  

...वैसे आप एक बार 'च्युत' का अर्थ शब्दकोश में देखिये तो सही! ड्राफ्ट का अंतिम वाक्य कई अर्थ खोलेगा।   

शुक्रवार, 18 मई 2012

प्रश्न, प्रतीक्षा और उत्तरों के मौन

 ...कन्धे पर सवार बैताल ने पूछा - बोलो विक्रम! अभिनेताओं और नेताओं में बदतमीजियाँ एक जैसी पाई जाती हैं। फिर भी अभिनेताओं की हलकटई पर कई गुना हल्ला क्यों मचता है? अगर इस प्रश्न का उत्तर जानते हुये भी तुमने नहीं बताया तो तुम्हारे सिर के हजार टुकड़े हो जायेंगे। 


विक्रम ठिठका और बैताल को जमीन पर पटक कर उस पर बैठ गया। उसने उत्तर दिया - सदियों से तुम्हारी बकवास सुन रहा हूँ। नहीं ढोना मुझे तुम्हारा बोझ! 
 तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में मेरा यह प्रश्न है - इन दोनों जमातों से बड़ी हलकट जमात स्वयं जनता है। वह खुद पर हो हल्ला क्यों नहीं मचाती? अगर उत्तर जानते हुये भी तुमने नहीं बताया तो मैं इस मृत शरीर का दाह संस्कार कर दूँगा जिसमें तुम्हारा वास है। 

चूँकि उत्तर देने की कोई समय सीमा तय नहीं है, बैताल जानते हुये भी चुप है। उत्तर की प्रतीक्षा में विक्रम दुर्गन्धित शव पर सवार है। 

पॉकेट वीटो के दौर में वे कहानियाँ और गल्प भी मौन ओढ़ चुके हैं जिनमें उत्तर हुआ करते थे। 

गुरुवार, 17 मई 2012

साधु स्त्रियों! - 2

पिछ्ले भाग से जारी... 
पगड़ी सँभाल जट्टा पगड़ी सँभाल ओय!
पगड़ी सँभाल तेरा लुट न जाय माल ओय! 

पितृसमाज में पगड़ी प्रतिष्ठा का प्रतीक रही है। जलवायु की अतियाँ यहाँ की वास्तविकता हैं; गर्मी, सर्दी या बरसात हर मौसम में ढका सिर सुविधाजनक रहा। कामकाजी स्त्रियाँ तक पगड़ी बाँधती थीं तो कुलीन घरों की स्त्रियों में भी वेश सौन्दर्य के एक रूप में पगड़ी प्रचलित रही। धीरे धीरे मनुष्य की कल्पना शक्ति ने जोर पकड़ा। पगड़ी के विन्यास, रंग और बाँधने के ढंग ने समाज के वर्गों को विशिष्ट पहचान दी और सिर पर पगड़ी प्रतिष्ठा का प्रतीक हो गई तो पगड़ी उतार कर किसी के पाँवों पर रख देना परम विनय और समर्पण का प्रतीक। खाली सिर रहना असभ्यता और असामाजिक समझा जाने लगा। अंग्रेजों के दौर में भी पगड़ी पर्याप्त प्रचलित रही। पाश्चात्य संस्कृति और बाकी संसार से जुड़ाव का प्रभाव पड़ा। धीरे धीरे हैट विलुप्त हुई और पगड़ी का प्रयोग भी बहुत सीमित हो गया लेकिन मुहावरे, बोली बाली, साहित्य, गीत आदि में पगड़ी प्रतिष्ठा प्रतीक के रूप में अब भी अक्षुण्ण है। उद्धृत गीत दासता के विरुद्ध पंजाबी विद्रोह की वाणी भी है और चेतावनी भी कि घर लुटा जा रहा है!  
 मैं यहाँ पगड़ी की बात कर रहा हूँ तो बहुत ही संवेदनशील मुद्दे पर बात कर रहा हूँ। मेरी बात को बहुत आसानी से खाप पंचायतों, पिछ्ड़े दकियानूसी हिंसक समाज या मजहब की मानसिकता से जोड़ा जा सकता है। आजकल तथाकथित बौद्धिक बहसों में राजनीतिक रूप से सही होने और वैचारिक सामान्यीकरण का जो बोलबाला है, उसमें ऐसा करना बहुत आसान है। हम बला के आलसी जन हैं जो न तो गहरे उतरना चाहते हैं और न सतह पर बने बनाये ट्रैंकों से अलग तैरना चाहते हैं। मुझे कुछ अलग ही बीमारी है जिसके कारण द्वैध को सहना कठिन हो जाता है और उसे कह पाना आसान जिसे मैं सह नहीं पाता। पहले ही बता दूँ कि स्त्री के अविवाहित रहने, अविवाहित या एकल मातृत्त्व और अपने यौन निर्णय स्वयं लेने आदि ऐसे मुद्दे हैं जहाँ मैं स्वयं को उसके पक्ष में पाता हूँ लेकिन प्रकृति के विधान के प्रति आँख नहीं मूँद पाता।   
हम संक्रमण के दौर में हैं। संक्रमण के दोनों अर्थ लें – ‘परिवर्तन की ओर’ और ‘रोगग्रस्त’। हर गतिशील समाज सदा से ऐसा रहा है लेकिन आज के दौर की तेजी पहले नहीं रही। पितृसमाज की उन तमाम बेहूदगियों और उस हिंसा के विरुद्ध आज स्त्री खड़ी है जिन्हों ने हजारो वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी उसकी आत्मा और शरीर दोनों को कुचला और उभरने नहीं दिया। उभारों से डरा हुआ समाज एक ओर तो उन्हें ले तमाम विकृतियों के शास्त्र गढ़ता रहा तो दूसरी ओर प्रकृति के विरुद्ध ही मोर्चे पर डटा रहा। ऐसे समाज में आज अपनी पैठ बनाती स्त्री कहीं उसी की तरह प्रतिक्रियावादी तो नहीं हो रही? कहीं वह पीढ़ियों के अत्याचारों का हवाला दे निकम्मी और सुविधाजीवी तो नहीं हो रही? युगों के अपराधबोध का बोझ सँभालता पुरुषतंत्र कहीं वहाँ भी तो ढीला नहीं हो रहा जहाँ पकड़ और दृढ़ होनी चाहिये?
 इन प्रश्नों में ही खतरे हैं – तुम स्त्री उत्थान से भयभीत हो! तुम होते कौन हो उनके बारे में निर्णय लेने वाले? बढ़ती पुरुष उच्छृंखलता तुम्हें असहज क्यों नहीं करती?
 ये खतरे और ये प्रतिप्रश्न सामान्यीकरण के ज्वलंत उदाहरण हैं। पूछने वाले प्राकृतिक व्यवस्था को भूल जाते हैं। स्त्री को मातृत्त्व विशिष्ट बनाता है। वह विवाहित हो पुरुष के घर आती है। वह आगे की पीढ़ी का वहन करती है। मातृत्त्व के वरदान ने ही यौन शुचिता को उसके लिये विशिष्ट बना बेड़ियों में जकड़ने की राह दिखाई। कतिपय प्रतिक्रियावादी आन्दोलनों ने इस वास्तविकता को पहचाना और झुँझलाहट में गर्भाशय निकलवा देने तक की वकालत कर डाली। मुझे लगता है कि मातृत्त्व की वास्तविकता और उसे अतिरिक्त मान एवं सुरक्षा देने में ही उस समस्या का हल छिपा है जो आज सबको विचलित करती है लेकिन सब मुँह बन्द किये रहते हैं।
 जेनेटिक रूप से पुरुष अपने वंश के अधिकाधिक प्रसार के लिये निगमित है तो स्त्री चयन के लिये कि वह उसे चुने जो स्वस्थ संतति दे सके और उसे सुरक्षा दे सके।  परिणामत: पुरुष उच्छृंखल और आक्रामक होता है जब कि स्त्री संकोची और सेलेक्टिव। हर महीने सृजन को तैयार होना नौ महीने के गर्भधारण से जुड़ कर सबसे विकसित जीव मानव की समस्याओं को जटिल बनाता है। विकास के साथ ही समाज अस्तित्त्व में आया और जटिलता और उलझाऊ हो गई।
  स्त्री की आक्रामक पुरुष से सुरक्षा की और एक सुव्यवस्था की आवश्यकता ने तमाम अच्छाइयों के साथ तमाम विकृतियों को भी जन्म दिया। मैं उन पर न जाकर आज पर केन्द्रित होऊँगा। परिवार संस्था आज भी सचाई है और साथ ही बहुसंख्य की यह सचाई भी कि स्त्री को घर से बाहर संस्कारी पुरुष ही सुरक्षा प्रदान करते हैं। क्या पुरुष पुरुष हैं? मैं उच्छृंखल आक्रामकों की बात नहीं कर रहा, मैं संस्कारी प्रतिरोधी पुरुषों की बात कर रहा हूँ। उत्तर है – बहुत बहुत कम।
 क्या स्त्री स्त्री है? मैं सिमटी संकोची की बात नहीं कर रहा, मैं कदम से कदम मिलाती स्त्री की बात कर रहा हूँ जो अपने को बचाना जानती है और जिसे अपनी मातृत्त्व की विशिष्टता का भान है। उत्तर है – बहुत बहुत कम।
हमने सब कुछ रामभरोसे छोड़ दिया है। हम चुप रहते हैं। हमारी जुबान बाहर तो सटक ही जाती है, घर के भीतर भी उन पर चर्चा नहीं करती जिन पर होनी चाहिये। हमसे संस्कारिता को आगे बढ़ाने की आशा करना व्यर्थ है। बाहर के अतिबली आक्रमणों से संतानों को बचा पाना हमारे वश में नहीं। हम उस समय तक प्रतीक्षा करते हैं जब तक कि रोना न पड़े...
...बात उस दिन से एकाध दिन पहले की है जब मैंने इसका पहला भाग लिखा था। उस दिन कार्यालय से समय पर मुक्त हो गया था और सामान्य समय से पहले ही घर आ गया। बच्चे घर के आगे खेल रहे थे। श्रीमती जी और उनकी सहेली की कुर्सियाँ खाली थीं जिसका अर्थ यह था कि वे पास के पण में गई थीं। माली आया तो मैंने उसे उस पार्क के किनारे के रास्ते पर सफाई पर लगा दिया (पार्क का क्षेत्रफल लगभग 10000 वर्ग मीटर है और जिसमें तैनात माली कभी नहीं आये। यकीनन वे किन्हीं साहबान के यहाँ भृत्य कर्म का निर्वाह कर रहे होंगे। इस पार्क की देखभाल हमें ही करनी होती है)।
नौंवी से लेकर दसवीं तक की कक्षाओं में पढ़ने वाली कॉलोनी की चार लड़कियाँ पार्क के चक्कर लगा रही थीं। खेलने वाले बच्चों में भी इसी आयु वर्ग की तीन और लड़कियाँ थीं। बाइकों की उच्छृंखल सी आवाजें सुनाई दे रही थीं। एलर्जी के पुन: आक्रमण का पूरा अन्देशा था लेकिन कुछ भाँप कर मैं वहीं टहलने लगा और वे दिखे। दो बाइकों पर सवार चार लड़के - आयु वर्ग इंटर में पढ़ने वाले बच्चों जितना। लम्बे गलियारे के बीच में मैं खड़ा था कि कोने पर टहलती लड़कियाँ दिखीं। बाइक पर पीछे बैठे दो लड़कों ने वह हरकतें कीं जिन्हें मॉलेस्टेशन कहा जायेगा। माली को पुकार मैं दौड़ने को हुआ कि लड़कियों की प्रतिक्रिया देख थम गया। उन्हों ने न पुकार लगाई और न भागने की कोशिश की। उत्सुकता वश इनकार सनकार के जो आकर्षित करने वाले भाव होते हैं, उनकी प्रतिक्रिया वैसी ही थी। दबी जुबान ऐसी शिकायतें पहले भी मिली थीं। एक बार पहले हुये ट्रीटमेंट के बाद सब कुछ सुधर गया था लेकिन यह तो नया और अलग ही मामला था!...
अब की लड़कियाँ स्वयं...
मैं दुविधा में पड़ कर रुक गया। लड़कियों और लड़कों ने मुझे देख लिया। लड़कियाँ संयमित हो गईं और लड़के और उच्छृंखल। बाइकों पर तमाम कलाबाजियाँ दिखाते मेरी बगल से गुजरे। एक बाइक को मैंने पहचान लिया – वही थे जिन्हें कॉलोनी में घुसते ही मैंने कार से रोका था। उनकी सड़क पर हरकतें ही ऐसी थीं। लड़कियाँ पास आईं तो उन्हों ने नमस्ते की। उनसे सीधे कुछ न पूछ दो से मैंने उनके पिताओं के बारे में पूछा। यह बताते हुये कि वे घर पर नहीं हैं, उनके चेहरे उड़ गये। स्पष्ट था कि उन सबने मेरा देखना जान लिया था। बाइक वालों ने भिन्न भिन्न रूट ले पार्क और स्कूल के पाँच छ: और चक्कर लगाये। उच्छृंखलता वैसी ही थी। मैं अभी भी स्तब्ध जैसी स्थिति में था लेकिन एक बाइक का नम्बर पढ़ लिया – 7876। दूसरे सात की बनावट थोड़ी अलग सी थी और मेरे मन में चमक हुई – 786। साथ ही सब कुछ स्पष्ट होता चला गया। तो यह है लव ज़िहाद की प्राइमरी!
दो लड़कियाँ कुछ अधिक ही स्मार्ट निकली। थोड़ी ही देर में अपनी माँ के साथ मेरी ओर आईं। मैंने उन्हें बस नमस्ते किया, कुछ नहीं कहा। वे ऐसे ही चलती चली गईं और मैं हैरान कि आई किस लिये थीं?   
श्रीमती जी लौट आई थीं। मैंने उनसे पूछा तो वह और उनकी सहेली दोनों फूट पड़ीं, उन लोगों ने मेरे देखे से अधिक ही देखा था – आज हमलोग भी सोच रहे थे कि लड़कियों की माताओं से शिकायत करें लेकिन पता नहीं किस अर्थ में लें, लड़कियों का मामला। छोड़िये, आप को क्या?
मैंने प्रश्न दाग दिया – आप लोगों की भी लड़कियाँ हैं। कल उनके साथ ...
मामला संवेदनशील था। मेरी तमाम कोशिशों और समझावन के बाद भी लोग खाली समय बाहर निकलने के बजाय घरों में घुसे रहना ही पसन्द करते हैं। स्त्रियों को किटी पार्टी के लिये समय है लेकिन पार्क में बैठने या बाहर घूमने के लिये नहीं। पुरुषों का यह हाल है कि कुछ तो महीनों नहीं दिखते। डायबिटीज के मरीज  टहलने स्टेडियम जायेंगे लेकिन पार्क में नहीं क्यों कि ‘कम्पनी नहीं मिलती’।
 आधे घंटे मैं दुविधा में रहा लेकिन लड़कियों की आयु की सोच श्रीमती जी की तमाम बरजनों के बाद भी लड़कियों के पिता को फोन करना ही उचित समझा। वह उस समय ऑफिस में थे। मैंने कुछ नहीं बताया, बस यही कहा कि मिलते हुये जाइयेगा। उनके आने तक का समय एक यातना से गुजरने जैसा बीता – कैसे बताऊँगा? जाने कैसे प्रतिक्रिया करेंगे? भड़क सकते हैं। अभद्रता कर सकते हैं। मैं परले दर्जे का मूर्ख हूँ, कौन पड़ता है आजकल ऐसे चक्करों में? दूसरों के फट्टे में तो अब गाँव में भी लोग पैर नहीं लगाते, यहाँ कौन सगे बैठे हैं? ... आदि आदि। अंतत: मैं यह सोच कर निश्चिंत हो गया कि बहुत ही धीरे धीरे सलीके से उन्हें बताऊँगा और वह चाहे जो करें, मैं प्रतिक्रिया न कर चुप रह जाऊँगा।
वह आये, मेरी बात सुन चौंके, स्तब्ध हुये और फिर खुले – आभास तो था लेकिन मामला इतना आगे बढ़ चुका है, पता नहीं था। श्रीमती जी कॉलेज से देर से आती हैं और मैं ऑफिस से देर से। हमलोग समय नहीं दे पाते।
प्रकट में मैंने हाथ जोड़ा कि घर पर कुछ न कहियेगा। मामले को जेंट्स तक ही सीमित रखिये। एकाध दिन पहले आ कर बिना घर बताये स्वयं भी देख सुन लीजिये, हो सकता है कि मुझे भ्रम हुआ हो। अगर गड़बड़ है तो शनिवार या रविवार को हमलोग ऐक्शन लेंगे। सब ठीक हो जायेगा। लौंडे लफाड़ी हैं। जहाँ एकाध हाथ पड़ा और पुलिस की धमकी दी गई, सब लापता हो जायेंगे लेकिन आप दोनों जन बच्चियों से बात कीजिये। यही सही आयु है।
उन्हों ने चाय पी। कई बार आभार व्यक्त किया। यह भी कहा कि कभी भी मेरे बच्चों के बारे में कुछ भी गड़बड़ देखें या सुनें तो बेझिझक बताइये, मैं बुरा नहीं मानूँगा।
उनकी कार को जाते देख मेरे मन में आह सी उभरी – बेटियों का बाप!
घंटे भर बाद तक इस आशंका में रहा कि उनके घर टंटा होगा और वे लोग मेरे घर झगड़ा करने आयेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह सोचते हुये कि आगे कैसे निपटना है, मैंने एक पुस्तक उठा लिया। (जारी)